Tuesday, July 29, 2014

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नों गणेशशंकर विद्यार्थी संचयन नामक पुस्तक पढ़ रहा हूं..इसमें विष्णुदत्त शुक्ल की 1 मई सन 1930 में प्रकाशित पुस्तक ..पत्रकार कला.. की भूमिका में श्री विद्यार्थीजी ने जो लिखा था, जो चिंता व्यक्त की थी, वह आज कितने विकराल रूप में सामने आ रही है, इसे समझा जा सकता है..फेसबुक पर अपने पत्रकार साथियों के लिए यह लिख रहा हूं...
श्री विद्यार्थीजी लिखते हैं....जिन लोगों ने पत्रकार कला को अपना काम बना रखा है, उनमें बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी चिंताओं को इस बात पर विचार करने का कष्ट उठाने का अवसर देते हों कि हमें सच्चाई की भी लाज रखनी चाहिए. केवल अपनी मक्खन-रोटी के लिए दिन भर में कई रंग बदलना ठीक नहीं है. इस देश में भी दुर्भाग्य से समाचार पत्रों और पत्रकारों के लिए यह मार्ग बनता जाता है. हिन्दी पत्रों के सामने भी यह लकीर खिंचती जा रही है. यहां भी अब बहुत से समाचार पत्र सर्वसाधारण के कल्याण के लिए नहीं रहे. सर्वसाधारण प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं...एक समय था, जब इस देश में साधारण आदमी सर्वसाधारण के हितार्थ एक ऊंचा भाव लेकर पत्र निकालता था और उस पत्र को जीवन क्षेत्र में स्थान मिल जाया करता था. आज वैसा नहीं हो सकता. आपके पास जबर्दस्त विचार हों और पैसा न हो और पैसे वालों का बल न हो तो आपके विचार आगे फैल नहीं सकेंगे. आपका पत्र न चल सकेगा. इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है. धन से ही वे निकलते हैं. धन ही के आधार पर वे चलते हैं और बड़ी वेदना से साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करनेवाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना ही करते हैं. अभी यहां पूरा अंधकार नहीं हुआ है, किन्तु लक्षण वैसे ही हैं. कुछ ही समय पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सहारे हो जाएंगे और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे. व्यक्तित्व नहीं रहेगा. सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा.अन्याय के विरुद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल ऊंची लकीर पर चलना.

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