Thursday, January 31, 2013

भ्रष्टाचार का 'सवर्ण' समाजशास्त्री


जुबान की चूक तो नहीं यह
आशीष नंदी के बयान के बाद अचानक एक वरदान देने वाले देवता की तरह मीडिया खड़ा हो गया, जैसे भक्त की रक्षा के लिए साक्षात ईश्वर जैसे प्रकट होते हैं. नंदी को संकट में घिरा देख कर मीडिया ने उनके अभयदान की पृष्ठभूमि लिख दी...

संजय कुमार

समाजशास्त्री प्रोफेसर आशीष नंदी का जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच से दिया गया बयान देशभर में बहस का मुद्दा बना हुआ है. उन्होंने देश में भ्रष्टाचार की जड़ तलाशकरते हुए यह फैसला सुना दिया कि पिछड़े और दलित ज्यादा भ्रष्ट हैं. नंदी ने पश्चिम बंगाल का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां साफ सुथरी राजव्यवस्था है और इसका कारण हैपिछले 100 वर्षों में वहां पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोग सत्ता से दूर रखे गये.
ashis_nandy
नंदी उवाच से हंगामा बरपना ही था. मीडिया और राजनीतिक गलियारे में आशीष नंदी के कथन की आलोचना हो रही है. खबरिया चैनल, फेसबुक और प्रिन्ट मीडिया ने मुद्दे को लेकर बहस किया. समाजषास्त्री प्रोफेसर आशीष नंदी जी विद्वान है ? कुछ भी बोल सकते हैं ?तर्क दे सकते हैं ? खबरों में बनने रहने के लिए बौद्धिक अंदाज में दलितों एवं पिछड़ों को गरिया सकते है ? 

लेकिन, सवाल उठता है कि दलित एवं पिछड़ें ही क्यों ? कहीं यहउनका भड़ास, द्विज मानसिकता का परिचायक तो नहीं ? कई सवाल है, जो बहस पैदा कर जाते हैं. यह अच्छा हुआ कि उनके बहाने द्विज समाज की वह सोच सामने आयी जोदलित-पिछड़ों को द्विजों के साथ खड़ा नहीं होने देना चाहता है.

बयान पर विरोध के बाद उनका सफाई अभियान भी चला. इस पर आलोचक सफदर इमाम कादरी लिखते हैं, ‘‘प्रोफेसर आशीष नंदी इतने प्रबुद्ध विचारक हैं कि यह नहीं कहाजा सकता कि उनका बयान जुबान की फिसलन है या किसी तरंग में आ कर उन्होंने ये शब्द कहे. अपनी तथाकथित माफी में उनहोंने जो सफाई दी तथा उनके सहयोगियों नेप्रेस सम्मलेन में जिस प्रकार मजबूती के साथ उनका साथ दिया, इससे देश के बौद्धिक समाज का ब्राह्मणवादी चेहरा और अधिक उजागर हो रहा है. सजे धजे ड्राइंग रूम मेंअंग्रेजी भाषा में पढ़कर तथा अंग्रेजी भाषा में लिख कर एक वैश्विक समाज के निर्माण का दिखावा असल में संभ्रांत बुद्धिवाद को चालाकी से स्थापित करते हुए समाज केकमजोर वर्ग के संघर्षों पर कुठाराघात करना है(नौकरशाहीडाटइन,27जनवरी13).

दलित एवं पिछड़ें को पहले गाली फिर दिखावे के लिए माफी को मजबूती के साथ मीडिया ने भी उठाया और एक बार फिर अपना सवर्ण होने के चेहरे को चमकाते हुए, साबितकर दिया कि वह किसके साथ है? प्रोफेसर आशीष नंदी की जितनी आलोचना की जाये कम होगी. दलित एवं पिछडों के खिलाफ इस तरह की टिप्पणी के लिए इतनी जल्दीउन्हें छोड़ना अनुचित है.

देश के भ्रष्टाचार में सबसे बड़ा हाथ दलितों, पिछड़ों और अनुसूचित जाति जनजाति के लोगों का है के बयान पर आशीष नंदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लिया गया है. उनपर गैर जमानती धाराएं लगाई गई हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती सहित कई दलित नेताओं ने आशीष नंदी के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा कि सरकार कोआशीष नंदी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए. वहीं, अभी भी राजनीतिक गलियारे में मजबूत पिछड़ी जाति के नेताओं ने दलित नेताओं की तरह प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है.

हालांकि आशीष नंदी ने यह बात पहली बार नहीं कही है, बल्कि उन्होंने पाक्षिक हिंदी पत्रिका द पब्लिक अजेंडा के 2011 अगस्त अंक में बातचीत के दौरान भी अपने इस मत को तर्कसम्मत तौर पर रखा था, जिसे जनज्वार डॉट ने प्रकाशित किया था. बातचीत में आशीष नंदी कहते हैं, ‘‘मैंने दलितों में अंबेडकर को भी देखा और अब मायावती भी हैं. इसी तरह ओबीसी नेताओं में भी ईमानदार और भ्रष्ट लोग हैं. लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि जैसा लोकतंत्र हमारे देश में है, वैसा कहीं और नहीं है. हमारे देश में तेजी के साथवंचित और पिछड़ी जातियों और समुदायों ने सत्ता में भागीदारी की है और लोकतंत्र में सभी की भागीदारी बढ़ी है. मेरा मानना है कि लोकतंत्र की इसी भागीदारी का बाई प्रोडक्टहै भ्रष्टाचार. लेकिन मैं राजनीतिक और कर्नाटक और ओडिशा या दूसरे राज्यों में जारी कॉरपोरेट लूट के भ्रष्टाचार को अलग करके देखता हूं. मुझे कहने में संकोच नहीं कि हमारे देश में जारी भ्रष्टाचार में बहुतायत सत्ता का भ्रष्टाचार ही है. पिछले पचास वर्षों में हमारे लोकतंत्र का ढांचा बदल गया है. जिन संस्थाओं और सदनों में सवर्णों की भरमार हुआ करती थी, वहां पर्याप्त संख्या में वे लोग पहुंच रहे हैं जिन्हें हमेशा ताकत से दूर रखा गया. ताकत की यही भूख राजनीतिक नैतिकताओं को बेड़े को तहस-नहस कर रही है, मगर दूसरी ओर यह लोकतंत्र में भागीदारी को मजबूत भी कर रही है’’ (देखें जनज्वार डॉट).

देखा जाये तो यह आशीष नंदी की अकेली सोच नहीं है. जब भी दलित-पिछड़ों के हित यानी उन्हें समाज-देष के मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास होता हैतो उसका सवर्ण समाज खिलाफत करने लगता है. उसे अपने हकमारी दिखने लगती है. लेकिन यह नहीं दिखता कि आजादी के 65 वर्ष बाद भी समाज-देश में व्याप्तबराबरी-गैरबराबरी का फासला आज भी बरकरार है. जो सवर्ण दलित-पिछड़ों के हक की वकालत करते हैं तो उन्हें सलाह दी जाती है कि वे दलित के साथ मिल कर दलितस्तानबना लंे ! आशीष नंदी की सोच जो भी हो अभी भी दलित-पिछड़ों के लिए दिल्ली दूर है. फासले अभी भी मुंह चिढ़ाते हैं. और यह भी सच है कि फासलों में भी संभावना देखनेवाले लोग भी काफी हैं लेकिन इनमें ज्यादातर अपनी दूकानें चला लेते हैं.

दरअसल भ्रष्टाचार एक देशव्यापी समस्या है जिसका किसी जाति विशेष या वर्ग विशेष से कोई लेना देना नहीं है. आज की तारीख में भ्रष्टाचार एक रोजगार, एक व्यवसाय बनगया है और भ्रष्टाचारियों का पूरी तरह से विकसित एक तंत्र है जो षासन-प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों पर काबिज है. आशीष नंदी जब दलितों, पिछड़ों को भ्रष्टाचार का कारण याजिम्मेवार मानते हैं तो सबसे पहले उन्हें यह देखना-पढ़ना-शोध करना चाहिए था कि शासन‘-प्रशासन में देश में दलितों-पिछड़ों के प्रतिनिधित्व का प्रतिशत क्या है और इसप्रतिशत में आजादी के बाद आज तक कितना इजाफा हुआ है. भ्रष्टाचार के शिकार आज सर्वाधिक दलित और पिछड़े ही है.

आशीष नंदी की उक्ति सीधे तौर पर उस मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व कर रही है जिस मानसिकता के तहत एक आदि पुरुष की कल्पना की गयी थी जिसके मुख सेब्राहमण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैर से शूद्र की उत्पति बतायी गयी थी और शूद्र का कार्य उपरोक्त तीनों वर्णों की सेवा करना मात्र था. लगता है कि आज सेलगभग तीन हजार वर्ष की मानसिकता के साथ आज भी नंदी जी खड़े है. उनका बयान एक गैर वाजिब और दलित पिछड़ा विरोधी मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व कर रहा है.

कुछ दलितों का अपनी मूल स्थिति से थोड़ा ऊपर उठ जाना, प्रशासनिक कुर्सियों पर बैठ जाना या संसद में पहुंच जाना शायद वे पचा ही नहीं पा रहे हैं, तभी वे इस तरह की बातें सोचते और फिर कर देते हैं. कायदे से उनके जैसी प्रखर शख्सियत के मुँह से निकली बात माफी की हकदार नहीं होनी चाहिए लेकिन जितनी प्रमुखता से उन्हें मीडिया ने सहयोग किया, उनकी बयानबाजी के बाद आनन-फानन में उसके निपटारे में मीडिया जिस उत्साह के साथ खड़ा हो गया-अचानक एक वरदान देने वाले देवता की तरह, जैसे भक्त की रक्षा के लिए साक्षात ईश्वर जैसे प्रकट होते हैं, मानो ठीक उसी तरह मीडिया भी अपने भक्त को संकट में घिरा देखकर भगवान की शक्ल में उनके सामने प्रकट हुआ और उनके अभयदान की पृष्ठभूमि लिख दी.

पूर्वाग्रहों से रहित होकर कोई भी बुद्धिजीवी अगर इसकी तह में जायेगा तो सब कुछ आईने की तरह साफ हो जायेगा कि अभी तक हमारे देष में कितने दलित-पिछड़ों ने सत्ता कास्वाद चखा है, कितने दलित शासन-प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों को छू पाये हैं. इसलिए यह मानना कि भ्रष्टाचार के लिए दलित या पिछड़े जिम्मेवार हैं-बिल्कुल गैरजिम्मेदाराना बयान है और यह प्रत्यक्षतः एक वर्ग विशेष विरोधी मानसिकता का ही पर्दाफाश करता है. अंत में आशीष नंदी जी को जानना होगा कि देश में बराबरी और गैरबराबरी का फासला बड़े पैमाने पर कायम है और इसे देखने के लिए किसी तरह का चष्मा लगाने की जरूरत नहीं है. साथ ही इस फासले को मीडिया को भी जानने की जरूरत हैऔर उसे सवर्ण लबादे को छोड़ कर दलितों-पिछड़ों के लिए खड़ा होना चाहिये.

sanjay-kumarसंजय कुमार इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुडे़ हैं.

विकास पत्रकारिता की चुनौतियां और संभावनाएं


जब हम विकास पत्रकारिता को एक विधा के रूप में देखते हैं तो उसका अर्थ भौतिक विकास के साथ जुड़ जाता है। विकास पत्रकारिता से तात्पर्य उन समाचारों से जुड़ा हुआ है जो विकास से संबंधित हो। समाचार पत्रों में विकास समाचारों को प्रमुखता से छापना ही विकास पत्रकारिता है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्य चाहे वो कृषि,शिक्षा , मनोरंजन, सांस्कृतिक, रोजगार, ग्रामीण विकास क्षेत्रों से हो सकते हैं। संक्षेप में व्यक्ति की खुषहाली के समाचार या विकास की मुख्य धारा से कटे हुए लोगों की खबरें विकास पत्रकारिता का विषय बनती है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में होने वाली गतिविघयों को विकास पत्रकारिता से जोड़ा जा सकता है।
द्वितीय प्रेस आयोग ने विकास पत्रकारिता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए रिपोर्ट में लिखा है ‘‘ विकास रपट में सही और गलत काम की पूरी तस्वीर प्रस्तुत करना चाहिए। उसमें आम आदमी के जीवन को प्रभवित करने वाले विभिन्न विकास कार्यक्रमों की विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न स्थानों पर सफलता और विफलता के कारणों की छानबीन होनी चाहिए।‘‘
प्रेस आयोग की इस टिप्पणी से न केवल विकास पत्रकारिता का अर्थ स्पष्ट हो जाता है, बल्कि वह उसकी व्यापकता का भी रेखांकित करती है। विकास समाचारों की खोजबीन के काम पर होने वाले भारी खर्च भी विकास संवाददाता के काम में बाधक बनता है। प्रायः यह देखा गया है कि पत्र पत्रिकाओं के प्रबंधक ऐसे कार्य पर खर्च करने से कतराते हैं जिसका परिणाम यह देखने को मिलता है कि ऐसी खबरों को पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में कमी आती है। दूसरी तरफ विकास समाचारों की जांच पड़ताल बिना ही छाप दिया जाता है। जिससे लोगों को सम्पूर्ण जानकारी नहीं मिल पाती। वैसे अगर ऐसे समाचारों में विष्वसनीयता बरती जाए तो यह समाचार राजनीति की दिषा को तय कर सकते हंै।
विकास कके बाधक तत्वों में आज के पत्रकार, संवाददाताओं का भी अहम रोल है। आज के संवाददाता कड़ी मेहनत करने की बजाय आसानी से मिलने वाली खबरों की और दौड़ते हैं जिससे विकास से संबंधित समाचार पीछे छूट जाते हैं। विकास के समाचारों के जो आंकड़े मिलते है उन्हें ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया जाता है।
विकास समाचारों के संकलन में निहित स्वार्थ वाले लोग भी बाधा डालते हंै। बड़े बड़े पदों पर आसीन अधिकारी इस बात से डरते हंै कि सच्चाई सामने आने पर वे कठघरे में खड़े कर दिए जाएंगे। दूसरी तरफ विकास पर खर्च होने वाले धन को बीच में ही अधिकारियों और प्रभावषाली लोगों द्वारा गोलमाल कर दिया जाता है। जिससे विकास पर आया धन आम जनता तक पहंुच ही नहीं पाता। विकास समाचारों व विकास पत्रकारिता के सही और समुचित विकास के लिए जरूरी था कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रकार उसे एक चुनौती के रूप् में स्वीकार करते, तभी इसका ठीक से विकास हो सकता था। ऐसा नहीं हुआ। विकास से संबंधित समाचारों को उतना महत्व नहीं दिया जितना देना चाहिए था।
इसके अलावा सरकारी तौर पर जो सूचनाएं या विकास संबंधी जानकारी या आंकड़े प्रायः इकतरफा होते हैं। जिससे विकास में रुकावटें पैदा होती है और आम जनता को आधी अधूरी जानकारी मिलती है। सरकारी प्रसार माध्यमों द्वारा दी जाने वाली परियोजनाओं की जानकारी कितनी इकतरफा होती है, इस पर टिप्पणी करते हुए द्वितीय प्रेस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है-
‘‘ विकास को दिखाने के सरकारी मीडिया के प्रयास प्रायः प्रस्तुति के अति सरलीकरण के षिकार बनते हंै। कंेद्र में प्रेस सूचना ब्यूरो और राज्यों के सूचना विभागों द्वारा दिए जाने वाले विकास संबंधी विवरणों में अनेक को प्रेस प्रमुखता से नहीं छापता क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उनमें परिवर्तन की तस्वीर का एक ही पक्ष होता है, जबकि वास्तविक जीवन में विकास की प्रक्रिया आसान नहीं होती। उसके दौरान कठिनाइयां तथा ठोकरें मिलती हैं और उसे सफल बनाने के लिए दृढ़ प्रयास करने पड़ते हैं।‘‘
विकास के मामले में सबसी बड़ी बाधा तब आती है जब सूचना के सरकारी स्त्रोत से हमें विकास परियोजनाओं की सफलता और विफलता की पूरी और सही जानकारी नहीं मिल पाती।
विकास समाचारों के संकलन में साधनों और पैनी दृष्टि की जरूरत होती है। साथ ही अनुसंधान की जरूरत पड़ती है। लेकिन ऐसे थोड़े बहुत ही संवाददाता मिलेंगे जो वास्तविकता जानने के लिए गांव की धूल फांकना पसंद करते है। कुछ ऐसे भी संवाददाता मिल जायेंगे जो हकीकत जाने बिना ही घर बैठे बैठे ही समाचारों का आंकलन कर डालते हैं जबकि वास्तविकता यह होनी चाहिए की विकास के मामले में पूरी छानबीन बरती जाए।
विकास में सबसे बड़ी बाधा पयाप्र्त रूप से धन न मिल पाना है। विकास पर खर्च किए जाने वाल धन का एक बड़ा भाग अधिकारियों और प्रभवषाली लोगों की जेबों में चला जाता है। जिससे गांवों के बेरोजगार युवकों, समाज के दुबर्ल वर्गों, महिलाओं आदि को अपेक्षित लाभ नहीं मिलता। इसके अलावा ग्रामीण विकास के लिए कई योजनाएं जैसे मजदूर परियोजनाएं,राष्ट्रीय प्रौढ़ षिक्षा कार्यक्रम, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम निर्धारित किए जाते हंैं जिससे ग्रामीण जनता को फायदा पहंुच सकें। लेकिन ऐसे कार्यक्रमों का समुचित विकास नहीं हो पाता है। ग्रामीण जनता के बीच आने से पहले ही दम तोड़ देते हंैं। न कि ऐसे कार्यक्रमों की सही रिपोर्टिंग हो पाती है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अगर विकास को त्वरित गति से आगे बढ़ाना है तो विकास परियोजनाआंे को डूबने से बचाना होगा। साथ ही विकास परियोजनाओं को देष के आर्थिक विकास और लोगों की आर्थिक खुषहाली से जोड़कर रखना होगा। क्योंकि यह परियोजनाएं देष के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन की नब्ज होती है और इस नब्ज को टटोले बिना देष के विकास में व्याप्त रोगों का निदान नहीं किया जा सकता है।
निः संदेह देश के विकास को सही दिशा तभी मिल सकती है जब इस तरह की परियोजनाओं का क्रियांवयन हो तथा विकास पर आने वाले धन का समुचित उपयोग हो। साथ ही विकास से संबंधित समाचारों का आंकलन सही हो और उन्हें प्रमुखता से प्रकाशित किया जाए |

विकास पत्रकारिता की चुनौतियां और संभावनाएं


जब हम विकास पत्रकारिता को एक विधा के रूप में देखते हैं तो उसका अर्थ भौतिक विकास के साथ जुड़ जाता है। विकास पत्रकारिता से तात्पर्य उन समाचारों से जुड़ा हुआ है जो विकास से संबंधित हो। समाचार पत्रों में विकास समाचारों को प्रमुखता से छापना ही विकास पत्रकारिता है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्य चाहे वो कृषि,शिक्षा , मनोरंजन, सांस्कृतिक, रोजगार, ग्रामीण विकास क्षेत्रों से हो सकते हैं। संक्षेप में व्यक्ति की खुषहाली के समाचार या विकास की मुख्य धारा से कटे हुए लोगों की खबरें विकास पत्रकारिता का विषय बनती है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में होने वाली गतिविघयों को विकास पत्रकारिता से जोड़ा जा सकता है।
द्वितीय प्रेस आयोग ने विकास पत्रकारिता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए रिपोर्ट में लिखा है ‘‘ विकास रपट में सही और गलत काम की पूरी तस्वीर प्रस्तुत करना चाहिए। उसमें आम आदमी के जीवन को प्रभवित करने वाले विभिन्न विकास कार्यक्रमों की विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न स्थानों पर सफलता और विफलता के कारणों की छानबीन होनी चाहिए।‘‘
प्रेस आयोग की इस टिप्पणी से न केवल विकास पत्रकारिता का अर्थ स्पष्ट हो जाता है, बल्कि वह उसकी व्यापकता का भी रेखांकित करती है। विकास समाचारों की खोजबीन के काम पर होने वाले भारी खर्च भी विकास संवाददाता के काम में बाधक बनता है। प्रायः यह देखा गया है कि पत्र पत्रिकाओं के प्रबंधक ऐसे कार्य पर खर्च करने से कतराते हैं जिसका परिणाम यह देखने को मिलता है कि ऐसी खबरों को पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में कमी आती है। दूसरी तरफ विकास समाचारों की जांच पड़ताल बिना ही छाप दिया जाता है। जिससे लोगों को सम्पूर्ण जानकारी नहीं मिल पाती। वैसे अगर ऐसे समाचारों में विष्वसनीयता बरती जाए तो यह समाचार राजनीति की दिषा को तय कर सकते हंै।
विकास कके बाधक तत्वों में आज के पत्रकार, संवाददाताओं का भी अहम रोल है। आज के संवाददाता कड़ी मेहनत करने की बजाय आसानी से मिलने वाली खबरों की और दौड़ते हैं जिससे विकास से संबंधित समाचार पीछे छूट जाते हैं। विकास के समाचारों के जो आंकड़े मिलते है उन्हें ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया जाता है।
विकास समाचारों के संकलन में निहित स्वार्थ वाले लोग भी बाधा डालते हंै। बड़े बड़े पदों पर आसीन अधिकारी इस बात से डरते हंै कि सच्चाई सामने आने पर वे कठघरे में खड़े कर दिए जाएंगे। दूसरी तरफ विकास पर खर्च होने वाले धन को बीच में ही अधिकारियों और प्रभावषाली लोगों द्वारा गोलमाल कर दिया जाता है। जिससे विकास पर आया धन आम जनता तक पहंुच ही नहीं पाता। विकास समाचारों व विकास पत्रकारिता के सही और समुचित विकास के लिए जरूरी था कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रकार उसे एक चुनौती के रूप् में स्वीकार करते, तभी इसका ठीक से विकास हो सकता था। ऐसा नहीं हुआ। विकास से संबंधित समाचारों को उतना महत्व नहीं दिया जितना देना चाहिए था।
इसके अलावा सरकारी तौर पर जो सूचनाएं या विकास संबंधी जानकारी या आंकड़े प्रायः इकतरफा होते हैं। जिससे विकास में रुकावटें पैदा होती है और आम जनता को आधी अधूरी जानकारी मिलती है। सरकारी प्रसार माध्यमों द्वारा दी जाने वाली परियोजनाओं की जानकारी कितनी इकतरफा होती है, इस पर टिप्पणी करते हुए द्वितीय प्रेस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है-
‘‘ विकास को दिखाने के सरकारी मीडिया के प्रयास प्रायः प्रस्तुति के अति सरलीकरण के षिकार बनते हंै। कंेद्र में प्रेस सूचना ब्यूरो और राज्यों के सूचना विभागों द्वारा दिए जाने वाले विकास संबंधी विवरणों में अनेक को प्रेस प्रमुखता से नहीं छापता क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उनमें परिवर्तन की तस्वीर का एक ही पक्ष होता है, जबकि वास्तविक जीवन में विकास की प्रक्रिया आसान नहीं होती। उसके दौरान कठिनाइयां तथा ठोकरें मिलती हैं और उसे सफल बनाने के लिए दृढ़ प्रयास करने पड़ते हैं।‘‘
विकास के मामले में सबसी बड़ी बाधा तब आती है जब सूचना के सरकारी स्त्रोत से हमें विकास परियोजनाओं की सफलता और विफलता की पूरी और सही जानकारी नहीं मिल पाती।
विकास समाचारों के संकलन में साधनों और पैनी दृष्टि की जरूरत होती है। साथ ही अनुसंधान की जरूरत पड़ती है। लेकिन ऐसे थोड़े बहुत ही संवाददाता मिलेंगे जो वास्तविकता जानने के लिए गांव की धूल फांकना पसंद करते है। कुछ ऐसे भी संवाददाता मिल जायेंगे जो हकीकत जाने बिना ही घर बैठे बैठे ही समाचारों का आंकलन कर डालते हैं जबकि वास्तविकता यह होनी चाहिए की विकास के मामले में पूरी छानबीन बरती जाए।
विकास में सबसे बड़ी बाधा पयाप्र्त रूप से धन न मिल पाना है। विकास पर खर्च किए जाने वाल धन का एक बड़ा भाग अधिकारियों और प्रभवषाली लोगों की जेबों में चला जाता है। जिससे गांवों के बेरोजगार युवकों, समाज के दुबर्ल वर्गों, महिलाओं आदि को अपेक्षित लाभ नहीं मिलता। इसके अलावा ग्रामीण विकास के लिए कई योजनाएं जैसे मजदूर परियोजनाएं,राष्ट्रीय प्रौढ़ षिक्षा कार्यक्रम, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम निर्धारित किए जाते हंैं जिससे ग्रामीण जनता को फायदा पहंुच सकें। लेकिन ऐसे कार्यक्रमों का समुचित विकास नहीं हो पाता है। ग्रामीण जनता के बीच आने से पहले ही दम तोड़ देते हंैं। न कि ऐसे कार्यक्रमों की सही रिपोर्टिंग हो पाती है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अगर विकास को त्वरित गति से आगे बढ़ाना है तो विकास परियोजनाआंे को डूबने से बचाना होगा। साथ ही विकास परियोजनाओं को देष के आर्थिक विकास और लोगों की आर्थिक खुषहाली से जोड़कर रखना होगा। क्योंकि यह परियोजनाएं देष के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन की नब्ज होती है और इस नब्ज को टटोले बिना देष के विकास में व्याप्त रोगों का निदान नहीं किया जा सकता है।
निः संदेह देश के विकास को सही दिशा तभी मिल सकती है जब इस तरह की परियोजनाओं का क्रियांवयन हो तथा विकास पर आने वाले धन का समुचित उपयोग हो। साथ ही विकास से संबंधित समाचारों का आंकलन सही हो और उन्हें प्रमुखता से प्रकाशित किया जाए |

Monday, January 14, 2013

इंटरनेट पर सुस्ती भरी सरकारी चाल

 
इंटरनेट का इस्तेमाल व्यवसाय और मनोरंजन की दुनिया में तेजी से बढ़ा है, मगर अभी भी सरकारी कामकाज और जन-सुविधाओं में इसके इस्तेमाल में हम काफी पीछे हैं। हाल में केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है अगले तीन सालों में भारत की सभी अदालतें इंटरनेट से जुड़ जाएंगी। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हर कैदी को पेशी पर न्यायालय ले जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसी तर्ज पर केंद्रीय संचार मंत्री सचिन पायलट ने पिछले दिनों कहा कि अगले एक साल में देश की सभी ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ दिया जायेगा। इससे ग्रामीण भी नई टेक्नॉलजी का पूरा लाभ उठा सकेंगे।
मगर हकीकत यह है कि अभी भी ऑनलाइन जानकारी मुहैया कराने के मामले में सरकारी संगठन बहुत पीछे हैं। आम तौर पर उनकी साइट पर या तो पुरानी जानकारियां पड़ी रहती हैं या फिर वे खुलती ही नहीं हैं। हालांकि बीते करीब दस सालों में लगातार सरकारी सेवाओं और सूचनाओं को ऑनलाइन कराने का काम जारी है। कई मामलों में लोगों तक इन सुविधाओं की जानकारी भी नहीं पहुंच पाती। उदाहरण के तौर पर अब मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए नागरिक इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन आवेदन कर सूची में नाम दर्ज करा सकते हैं। हालांकि इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। इसी तरह से नगर निगम के टैक्स जैसी सूचनाओं का पूरा खाका भी इंटरनेट पर देखा जा सकता है। इसकी सूचनाएं सभी सरकारी दफ्तरों में होनी चाहिए और इनके प्रचार-प्रसार का भी प्रयास किया जाना चाहिए। इससे सरकारी कामकाज में पारदर्शिता बढ़ेगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा। 
सरकारी वेबसाइट्स के साथ एक और दिक्कत होती है। कई मामलों में इन्हें बहुत पहले डेवलप किया गया है और इंटरनेट की दुनिया में हो रहे बदलाव के अनुरूप इनमें संशोधन नहीं किए गए हैं। हालांकि 
http://india.gov.in/
जैसी साइट्स अपवाद भी हैं, जो हमेशा अपडेट होती रहती है और तकनीकी रूप से भी बेहतर है।

दिग्विजय शासनकाल के साढ़े उन्नीस अरब रुपये की भरपाई की शिवराज सरकार ने




बिना बजट प्रावधान और विस की मंजूरी के खर्च की गई थी यह राशि

नवीन जोशी
भोपाल।  
प्रदेश में दूसरी पारी खेल रही शिवराज सरकार पूर्ववर्ती दिग्विजय सिंह सरकार के प्रति कितनी नरम एवं दरियादिल है यह उसके द्वारा दिग्गी शासनकाल के चार वित्तीय वर्षों में बिना बजट प्रावधान एवं विधानसभा की मंजूरी के खर्च हुई करीब साढ़े उन्नीस अरब रुपये की राशि की अब भरपाई करना है। इसके लिये विधानसभा के गत शीतकालीन सत्र में चार विनियोग विधेयक लाये गये और उन्हें सर्वसम्मति से मंजूर किया गया और अब राज्यपाल रामनरेश यादव ने इन विधेयकों को मंजूर कर उक्त अधिक व्यय को कानूनी अमलीजामा पहनाकर इस भारी भरकम राशि की भरपाई में सहयोग कर दिया है।
प्रदेश में दिग्विजय सिंह शासनकाल वर्ष 1993 से 2003 तक रहा है। इस बीच चार वित्तीय वर्ष ऐसे रहे जिनमें तत्कालीन सरकार ने बिना बजट प्रावधान एवं विधानसभा की पूर्व मंजूरी के राज्य की संचित निधि से अधिक व्यय कर दिया। महालेखापरीक्षक के सामने राज्य के वित्तीय लेखों को विधिसम्मत करने के लिये इन आधिक्यों की भरपाई करना जरुरी होता है। वर्ष 1994 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सोलह विभागों गृह, राजस्व, पशुपालन, मछली पालन, पीएचई, लोनिवि, स्कूल शिक्षा, विधि, पंचायत, उच्च शिक्षा, जल संसाधन, अनुसूचित जाति कल्याण, धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व, प्राकृतिक आपदा, तकनीकी तथा आवास एवं पर्यावरण में 258 करोड़ 11 लाख 34 हजार 866 रुपये अधिक खर्च कर दिये। वर्ष 1995 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने दस विभागों वित्त, पीएचई, राजस्व, पंचायत, जनसम्पर्क, लोनिवि, तकनीकी, योजना, आवास एवं पर्यावरण तथा प्राकृतिक आपदा में 407 करोड़ 45 लाख 82 हजार 953 रुपये अधिक खर्च कर दिये। इसी प्रकार, वर्ष 1999 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 14 विभागों में 1276 करोड़ 35 लाख 60 हजार 917 रुपये अधिक व्यय कर दिये। जबकि इसी तत्कालीन सरकार ने फिर वर्ष 2002 में तीन विभागों वित्त, पीएचई और जलसंसाधन में 6 करोड़ 25 लाख 60 हजार 594 रुपये ज्यादा खर्च कर दिये।
इन चारों वित्तीय वर्ष में तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा विधानसभा द्वारा दिये गये अनुदान से अधिक व्यय किया गया जिनकी अब नौ साल बाद प्रतिपूर्ति वर्तमान भाजपा सरकार ने कानूनी प्रावधान लाकर कर दी है।
इसके लिये राज्य के वित्त मंत्री राघवजी भाई ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में 25 नवम्बर,2011 को इन चार सालों के अधिक व्यय के विवरण पेश किये थे और फिर हर वित्तीय वर्ष के चार विनियोग विधेयक लाकर इन्हें सदन में बिना कोई आपत्ति के मंजूर कराया था। अब राज्य के खजाने से किये गये इन अधिक व्ययों की प्रतिपूर्ति हो गई है और इन्हें कानूनी सहमति मिल गई है।

भारत में आईटी क्रांति और एकल मंच की चुनौतियां

भारत में इ-गवर्नेंस के क्रियान्वयन के लिए सरकार की सक्रियता और इन्र्फोमेशन टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट की कार्यप्रणाली को देखते हुए यह उम्मीद की जाती है कि जल्द ही देश में इ-गवर्नेंस पूरे देश में आम हो जाएगा लेकिन हमारे देश में आईटी क्रांति की गति जितनी तेज है, एकल मंच या संयुक्त प्लेटफार्म जिसके माध्यम से देश का सूचना तंत्र सभी तरह के एप्लीकेशंस को स्वीकार करते हुए बिना रूकावट कार्य करता रहे का घोर अभाव है। इ-गवर्नेंस के लागू होने के बाद निशित रूप से नागरिकों को सरकार के दफ्तरों में जाने की बजाय घर से ही अपने आवेदन, शिकायत या अन्य जानकारियां हासिल की जा सकेंगी। हालांकि आईटी विभाग सर्वमान्य एकल मंच तैयार करने के प्रति संवेदनशील है।
इ-गवर्नेंस को लोकप्रिय बनाने के लिए नेशनल इंर्फोमेटिक्स सेंटर (एनआईसी) और डेवलपमेंट ऑफ एडवांस कंप्यूटिंग (सीडैक) ने बहुत ही अच्छा कार्य किया है, जिसके कारण सरकारी कार्यालयों में इ-गवर्नेंस का शुभारंभ तो हो गया है लेकिन यह अभी केवल सरकारी कार्यालय से कार्यालय तक ही सीमित है। जहां एक ओर निजी कंपनियां और आईटी फर्म एकल मंच तैयार करने के लिए भारी संसाधन खर्च कर रहे हैं और आईआईटी के 
विशेषज्ञों की सेवाएं लेकर काम को पूरा कर रही हैं, भारत सरकार का एनआईसी इस मामले में पिछड़ता जा रहा है।
विष्वस्त सरकारी सूत्र भी इस बात को स्वीकार करता है कि हमारे देश में वैसे आईटी कानून नहीं हैं जो भविष्य में आने वाली समस्याओं का निदान कर सके। इसलिए एकल मंच तैयार करने में परेशनियां आ रही हैं। आईटी एक्ट 2000 में किये गये प्रावधान एकल मंच में आने वाली अड़चनों को दूर करने में सक्षम नहीं है। इसलिए सरकारी स्तर पर यह महसूस किया जा रहा है कि जब तक कानून नहीं बनते तब तक सरकार आईटी को जन जन तक पहुंचाने वाला सार्वजनिक प्लेटफार्म शेयर करने की अनुमति आम व खास को नहीं दे सकती।
संयुक्त एकल मंच तैयार करने के बाद उसके सफल संचालन और सुरक्षा को लेकर शंकाएं हैं। सबसे पहला खतरा है इसकी उपलब्धता और कार्य संचालन की। इसके तीन मुख्य टूल होंगे पहला है, टास जिसमें आधारभूत संरचना और सेवा शामिल है। दूसरा है सास जिसमें सॉफ्टवेयर की सेवा उपलब्धता और सुरक्षा तथा तीसरा है पास, जिसमें सार्वजनिक रूप से एकल मंच से जुड़ने और सेवा लेने की सुविधा शामिल है। इन विभिन्न टूलों के बीच समन्वय और संचालन की चुनौती से निपटने की रणनीति पहले ही बनानी होगी जो कि अभी तक नहीं बन सकी है, आईटी विभाग का कहना है कि इसके लिए हमारे देश में ऐसे कानून नहीं बने हैं जिससे भविष्य में इसकी सुरक्षा में सेंध लगाने वालों को पकड़ा जा सके। इस तरह देखा जाए तो आईटी विभाग के लिए परेशानी का सबब तब सामने आएगा जब डाटा की सुरक्षा, उसकी रिकवरी आदि को लेकर शिकायतें आने लगेंगी। डाटा ट्रांसफर भी अभी एक चुनौती बनी हुई है। यह बौद्धिक संपदा से जुड़ा संवेदनशील मुद्दा है और आपदा स्थिति में निपटने के लिए हमारे पास रणनीति नहीं है।
आईटी एकल मंच एक ऐसा विविधरूपी इंटरनेट एप्लीकेशन होगा जिसके माध्यम से पूरा देश दुनिया जुड़ा रहेगा। यह एक जादू के रूप में कार्य करेगा जिसमें बात करने, इमेल करने, मेसेज, फोन या वीडियो कॉल करने की सुविधा एक साथ मौजूद रहेगा। ऐसा प्लेटफार्म जिस पर आप वार्ता के अलावा प्रोजेक्ट आसानी से प्रस्तुत कर सकेंगे। यह विचारों के अदान प्रदान के साथ तेजी से काम करने वाला देसी तंत्र होगा। इसकी एक और खासियत यह होगी कि आप इसे ट्रेन, बस और हवाई जहाज में भी प्रयोग कर सकेंगे। यह एक उत्पाद से बढ़कर एक बेहतरीन सेवा होगी जो उम्दा सॉफ्टवेयर के माध्यम से जन जन से जुड़ सकेगा। यह आपके लैपटॉप और डेस्कटॉप के लिए आवश्यक सॉफ्टवेयर भी उपलब्ध कराएगा। 
इसके अलावा यह मंच आपको इंटरनेट पर भी अपने एप्लीकेशन प्रयोग की सुविधा उपलब्ध करा सकेगा। यह ग्राहकों और व्यापारिक संगठनों को एप्लीकेशन प्रयोग की अनुमति प्रदान करेगा। इसमें यह सुविधा रहेगी कि आप अपने संपर्क, फोटो, वीडियो, इमेल आदि को ऑनलाइन कभी सेवा में ले सकेंगे।
परंपरागत रूप से उपलब्ध एप्लीकेशन प्लेटफार्म बहुत ही ज्यादा जटिल और महंगे है। इसमें डाटा सेंटर की जरूरत होती है। इस डाटा सेंटर को संचालित करने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत होती है। आईटी एकल मंच इन सभी पेचिदगियों से अलग बिजनेस फ्रेंडली और आम उपयोग के लिए सरल होगा। इसके माध्यम से बिजनेस सेंटर और व्यक्ति भी सूचना तंत्र के रूप में इस्तेमाल कर सकेंगे। मीडिया हाउसों के लिए यह बहुत ही उपयोगी साबित होगा जहां डाटा चोरी और दुश्मनी की कोई संभावना नहीं होगी।
सरकार इस बेहतरीन सेवा को देश को समर्पित करने के लिए कारपोरेट सेक्टर और अकादमिक क्षेत्र से डाटा चोरी को लेकर नया रास्ता निकालने की तैयारी कर रही है ताकि आईटी एकल मंच को मूर्त रूप दिया जा सके। इस जादू को देश को सौंपने से पहले इसकी सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था के लिए सरकार नया कानून बनाने पर भी विचार कर रही है। इसके अमल में आने के बाद देष के कोने कोने में आम आदमी तक सार्थक ज्ञान आधारित समाज के निर्माण में महती भूमिका अदा करेगा यह आईटी का एकल मंच। देखिए कब तक हमारे सामने प्रस्तुत होता है यह जादू।

एम.वाई. सिद्दीकी
पूर्व प्रवक्ता,
कानून एवं न्याय और रेल मंत्रालय, भारत सरकार

प्यार में पागल हो जाता है आदमी : कोर्ट


प्यार में पागल, prativad.comएजेंसीत्न नई दिल्ली
''प्यार में पागल होकर कोई सही-गलत नहीं सोच सकता।'' दिल्ली के एडिशनल सेशन जज (एएसजे) वीरेंदर भट ने गुरुवार को यह टिप्पणी की। वे कथित अपहरण के एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। 
एएसजे ने दिल्ली के 21 वर्षीय युवक दीपू कुमार को मामले में दोषी तो माना लेकिन सजा रियायत के साथ दी। उसे अदालत के कमरे में एक दिन की नजरबंदी और एक हजार रुपए जुर्माने की सजा दी गई। दीपू पर आरोप था कि उसने जनवरी 2011 में एक लड़की को कथित तौर पर अगवा किया। फिर जबरन उससे शादी की। लड़की के परिवार वालों ने उस पर ये आरोप लगाए थे। 
जज ने सुनवाई के दौरान कहा, ''इस मामले में दोषी की स्थिति को समझा जा सकता है। रिकॉर्ड से साफ है कि दोषी युवक और लड़की एक-दूसरे से प्यार करते थे। लड़की ने लड़के पर भागकर शादी करने के लिए जोर डाला। इसमें सिर्फ एक चीज गलत है। वह ये कि लड़की की वास्तविक उम्र 18 साल से कम थी।'' 
अदालत ने कहा, ''हालांकि इसके लिए लड़के पर आरोप नहीं लगाया जा सकता है। लड़की ने अपनी सही उम्र उसे नहीं बताई। उसने उम्र 19 वर्ष बताई थी। लड़के ने उम्र की जांच की परवाह नहीं की। उसके पास अपनी प्रेमिका पर भरोसा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इसलिए वह मुसीबत में फंस गया।'' 


 
 


भारतीय संदर्भ में भाषायी मीडिया की स्वतंत्रता

भारतीय संदर्भ में भाषायी मीडिया की स्वतंत्रता
मृणाल पांडे
भाषायी मीडिया के लिए मीडिया की नैतिकता और स्वतंत्रता दोनों अपने आधुनिक मायनों में कुछ अजनबी, अपेक्षाकृत नये किस्म के विचार हैं। भारतीय प्रेस परिषद की सालगिरह पर जारी एक विशेष स्मृतिग्रंथ में आधुनिक तेलुगू पत्रकारिता के शिखर-पुरूष ''ईनाडु’ समूह के प्रमुख रामोजी राव लिखते हैं: ''मैं स्वीकारता हूँ कि मुझे (विमर्श के लिए) चुने गए विषय : मीडिया नैतिकता:’ ''श्रृंखला या स्वतंत्रता?’ ने कुछ चकरा दिया। मैं तो पुरानी रवायतों का पक्षधर हूँ और साफ कहना चाहता हूँ कि इस विषय पर दो राय हो ही नहीं सकती। स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और विश्वसनीय मीडिया नैतिक बुनियाद पर ही खड़ा किया जाता है, और वह एक नैतिक दायरे में ही काम करता है। इसकी लक्ष्मण रेखा को पार करने वाले ऐसा अपने जोखिम पर करते हैं, और उनकी आजादी और विश्वसनीयता दोनों अंतत: नष्ट हो जाते हैं। उपरोक्त पंक्तियों के पीछे का सोच भारतीय दर्शन पर आधारित है। इसके अनुसार नैतिकता एक सनातन धु्रवसत्य है। समय या देश या कार्यक्षेत्र विशेष के संदर्भ में उसमें उन्नीस-बीस जैसा कुछ नहीं होता। यह दर्शन ''स्वतंत्रता’ शब्द को भी अंग्रेजी के शब्द ''फ्रीडम’ के समतुल्य नहीं मानता। भारतीय मन के लिए अत्यंतिक स्वतंत्रता का मतलब है ''मुक्ति’ और मुक्ति तो तमाम भौतिक रिश्तों, संदर्भों के परित्याग के बाद ही संभव है। इसलिए भौतिक जीवन के स्त्री-स्वतंत्रता या मीडिया की स्वतंत्रता जैसे (अंग्रेजी से अनूदित) सवालों से रामोजी की ही तरह कई लोगों को स्वेच्छाचारिता और स्वैछाचार की बू आती है आर लक्ष्मणरेखा का सिद्घांत भी उन्हें स्त्रियों के संदर्भ में किसी तरह के गैरवाजिब या प्रकाशन समूहों के लिए कुंठा की संभावित वजह भी नहीं प्रतीत होता। मनुष्य की परतंत्रता और देश-काल से जुड़े विचारों से उठते सवालों के जवाब भारतीय दर्शन ठोस आर्थिक तथा समाजिक संदर्भों में प्राय: नहीं खोजता है। वह मानव-जीवन की संपूर्णता को लेकर ऐसे बुनियादी सवाल उठाता  है, जिनके आगे किसी खास मनुष्य या भौतिक इकाई की स्वतंत्रता या नैतिकता के मसले निहायत क्षुद्र प्रतीत होते हैं। इस दर्शन के अनुसार, हर धंधे की जड़ में एक समाज स्वीकृत सनातन नैतिकता होती है और उसकी लक्ष्मण रेखा द्वारा तय कार्यविधि ही उसकी सीमा और परिणाम तय करती है। अत: नए मीडिया के लिए नैतिक मूल्यांकन में बदलाव की जरूरत और इसके पक्ष में बदलते सामाजिक और निजी संदर्भों की बात उठाना परंपरावादियों की राय में बेमतलब ही है।
  इसका आशय कतई यह नहीं कि मीडिया की आजादी या नैतिकता को लेकर रामोजीराव का कथन एक अधूरी कल्पना और एक असम्पूर्ण व्याख्या है। लेकिन हमारी राय है कि नई सूचना तकनीकी द्वारा तेजी से परस्पर जुड़ती दुनिया में मीडिया के ठोस जमीनी संदर्भों में बदलाव आ गया है। भाषा पूँजी और राज-समाज में आए ऐतिहासिक बदलावों से परे जाकर सिर्फ पारंपरिक अमूर्त नैतिकता के उजास में मीडिया के विगत की उपलब्धि मापना या उसके आगत-अनागत के फलादेशों की सटीक व्याख्या कर पाना, आज यह दोनों ही बातें असंभव बन गई हैं। इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण स्वयं रामोजी राव और उनकी पत्रकारिता है। इमर्जेंसी काल के बाद मूलत: फिल्म फाइनांसियर रहे रामोजी ने अपने अखबार ''ईनाडु का अपने परम मित्र और सुपरस्टार एन.टी.आर. और उनकी तेलुगूदेसम पार्टी को क्षेत्रीय राजनीति में उतारने के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। चुनावी जीत के बाद पार्टी ज्यों-ज्यों निखरी, उनका अखबार भी चमका और अंतत: दोनों ही ''तेलुगू स्वाभिमान’ के पर्याय बने। इसके बाद ईनाडु का व्यावसायिक फैलाव ऐसा होता गया, कि आज आंध्र के 70 प्रतिशत पाठक ईनाडु पढ़ते हैं, और इसी समूह के चैनल ई.टी.वी को देखते हैं। रामोजी राव एक कुशल मीडियाकार और व्यापारी ही नहीं, राजनीतिज्ञ भी हैं। समयानुसार उन्होंने मार्केट की चाल पकड़ी, और उससे लाभान्वित हुए हैं।
 दूसरा उदाहरण भुरासोली पत्रिका का है जो तमिलनाडु के ख्यातनामा भारान परिवार से जुड़ी हैं। उनके प्रकाशन और उनका चैनल सन टी.वी. आज तमिल राजनीति में वही हैसियत रखते हैं जो आंध्र में ईनाडु समूह। रामोजी तथा मारान परिवार जैसे दमदार और जुझारू जनों से जुड़े यह दोनों उत्पाद व्यावसायिक तौर से चुस्त और द्रमुक राजनीति के बड़े भागीदार भी हैं। ऐसे ही बहुबंधी मीडिया जनों के जहूरे से हमारा मीडिया परिदृश्य आज 400 खरब की पूँजी के वारिधि का निर्माण कर चुका है। 18 प्रतिशत प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ रहे इस महासागर का सबसे बड़ा भाग हिन्दी मीडिया का है। इसलिए (इस लेखिका सरीखा) एक क्षुद्र भाषायी पत्र-संपादक जब अपनी स्वतंत्रता का पारंपरिक निर्वाण या मुक्ति के हवाई दर्शन की बजाए, राज-समाज के ठोस आर्थिक, भौतिक (यानी तकनीकी) संदर्भों से जोडऩे का आग्रह करें, तो इसका सीधा अर्थ है कि हिन्दी के पत्र भी अब अपनी नई स्थिति को समझें और उसके लिए युग तथा समाज-सापेक्ष ऐसी व्यावहारिक नैतिकता की खोज करें जो उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और धंधई रूप से तटस्थ बना दें। सफल भाषायी प्रकाशनों तथा टेलीविजन चैनलों की यह युति क्रमश: एक ऐसी दुनिया बना रही है जो आज हिन्दी पट्टी में दिल्ली, लखनऊ, प्रयाग, वाराणसी या पटना जैसे बड़े नगरों  के सम्पन्न लोगों और विद्वानों ही नहीं खगडिय़ा से खरगौन तक के सामान्य हैसियत वाले स्वप्नजीवी नवसाक्षरों की चेतना में एक सुहाने सपने की तरह मौजूद है। हिन्दी मीडिया का यही नया रूप वर्तमान पत्रकारिता का ही नहीं, पूरी हिन्दी पट्टी का एक उत्तेजक राजनैतिक भविष्य भी बना सकता है और जब ऐसा हुआ, तभी हिन्दी भी भारत की दूरदराज के क्षेत्रों के लाखों स्त्री-पुरूषों की इच्छा, आहï्लाद, स्वप्न और उत्कण्ठा की प्रसन्नमुखी अभिव्यक्ति का सच्चा स्त्रोत बनेगी। अगर अब तक आंध्र या तमिलनाडु के विपरीत हिन्दी के अखबारों से जुड़े सम्पादकीय कर्मियों और उनके करोड़ों पाठकों ने अपने राज-समाज से जुड़े स्वप्न साकार होते नहीं देखे, तो इसकी सीधी वजह यह है, कि उनकी हीन आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक हैसियत के चलते अब तक राज-समाज में उनके स्वप्नों का गंभीरता से लिया जाना संभव ही नहीं था। पर अब, जबकि नए-नए समूह जागकर लोकतंत्र में भागीदार बन रहे हैं, चीजें बदल रही हैं। हिन्दी मीडिया ही क्यों जड़ बैठा रहे? पुरानी हिन्दी-पत्रकारिता की उपलब्धियाँ हम नगण्य नहीं मानते, लेकिन उनका मुख्य लक्ष्य प्राय: हिन्दी क्षेत्र की परतंत्रता का भावुक विरोध करने और हिन्दी वाली की खीझ को स्वर देने का ही रहा है। अब जरूरी है कि हम हिन्दी वाले अपनी पट्टी की राजनैतिक सड़ाँध, धँधई काहिली और आर्थिक परतंत्रता की एक निर्मम परख करें। उसकी सही वजहें समझें, और सामूहिक तौर से अपनी नियति बदलने की ईमानदार तथ्यपरक मुहिम से जुटें। आज के स्वस्थ-सबल हिन्दी अखबार बहुत हद तक इन्हीं जरूरतों को महसूस कर अपनी तरह से अपनी आर्थिक, सामाजिक तथा भाषाई जड़ों की (अभी वह अस्पष्ट ही सही) तलाश करने भी लगे हैं। यही नहीं, छूँछे, क्रोध, खीझ, झुंझलाहट और असंतोष से अर कर वे अब विश्वपटल पर हिन्दी मीडिया की ऐतिहासिक नियति के मद्देनजर दिलेर तथा स्पष्ट निवेश  संबंधी फैसले भी लेने लगे हैं। लगभग हर वर्ष विदेशों में हिन्दी का एक नया चैनल, एक नया अखबारी संस्करण लांच होगा, किसने सोचा था? अत: भली हो या बुरी, राज-समाज की स्थिति की ईमानदार परिभाषा बनाना और उसके उजास में नैतिकता की परिधि खोजना हर प्रकार की बुनियादी जिम्मेदारी है। इस दिशा में कार्य स्थितियों में बेहतरी की पुरजोर माँग के साथ रिपोर्टिंग और व्याख्या द्वारा बदलती स्थितियों को भी परिभाषित करते जाने का हिन्दी मीडिया में आया ताजा सिलसिला स्वागत योग्य है। सिद्घांतत: आज यह संभव है कि कोई हिन्दी दैनिक, जो 20 से लेकर 24 तक पन्ने रोज छापता है, अंग्रेजी अखबारों की ही तरह अच्छी दरों पर भरपूर विज्ञापन छापकर अपने उपभोक्ता को एक हद तक अखबार खरीदने में रियासत दे सके। मुनाफे के साथ कागज की कीमत, छपने की लागत, कर्मचारियों के वेतन आदि सबके खर्चों को मिलाकर भी एक अच्छे हिन्दी अखबार को विज्ञापन से मिल रही राशि बीस बैठती है। जरूरत अब हिन्दी या राष्ट्रभक्ति के नाम पर सब्सिडी तथा चंदा उगाहने की नहीं, सीधे बाजार में जाकर विज्ञापन देने वालों को अपनी उत्तमता, पहुँच तथा पाठकीय साख का भरोसा दिलाने की है। हम यह जरूर प्रचार करें कि प्रेस को आजाद और राष्ट्रप्रेमी वगैरह होना चाहिए, लेकिन यह भी याद रखें कि यह आजादी कितनी बड़ी हद तक आयायित न्यूजप्रिंट, सूचना संचार के ग्लोबल सरोवर और उस अद्भूत मुद्रण तकनीकी पर निर्भर है, जो हम पश्चिम से मँगाते जा रहे हैं।
  हमारे यहाँ एक अरसे तक भारतीय भाषाओं के मीडियाकार की छवि चना-सत्तू फांककर फटे पुराने कपड़ों में वन-जंगल भटकने और जान हथेली पर रखकर अधकचरी खबर बटोरने, देने वाले की ही रही। जरूरत इस छवि से उबरने की भी है। रूमानी गरीबी के तर्क अब किसी को प्रभावित नहीं करते। न पाठक को, न सरकार को। क्योंकि पाठकों ने देख लिया है कि गुजरे बरसों में गरीबों का नाम लेकर ढेर लोगों ने ढेर सारी रेवडिय़ाँ जमा कीं। और फिर वे दनादन अपनों में बाँटी। न ऐसी इमदाद देते जाना कोई समझदार सत्ता चाहेगी, और न ही उसे पाने को झोली फैलाना किसी भी सक्षम स्वाभिमानी भाषायी मीडियाकार को गवारा होगा। ऐसा दान दाता को कितना घमंडी और आततायी बना सकता है, और याचक को कितना क्षुद्र और सतत-भीरू, यह हम सब देख चुके हैं, आज इस विगत से हिन्दी मीडिया को स्वतंत्र होना है। यही हमारा धर्म है, और यही हमारी नैतिकता।

प्रदूषण मंडल की लापरवाही से प्रदेश की हवा-पानी में घोला जा रहा जहर

madhya pradesh pollution control board, www.mppcb.nic.inसफेद हाथी साबित हो रहा है प्रदूषण मंडल
प्रदेश में 248 उद्योग जलवायु को कर रहा प्रदूषित
भोपाल। मध्यप्रदेश सरकार ने भले ही प्रदेश की जनता की चिंता करते हुए राज्य प्रदूषण मंडल की स्थापना की हो। लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है कि यह मंडल की जनता के हितों की रक्षा करने में अपने कर्त्तव्यओ का निर्वाहन कर रहा है। राज्य में स्थापित उद्योगों और प्रदूषण मंडल के अधिकारियों की सांठ-गांठ के चलते राज्य में उद्योगों द्वारा प्रदूषण फैलाया जा रहा हैं। लेकिन यह सिवाय कागजी खाना पूर्ति के कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। लगता है कि प्रदेश शासन और यह प्रदूषण मंडल तभी जागेगा जब राज्य में एक और यूनियन कार्बाइट जैसी घटना घटित हो जाए।
जहां तक राज्य प्रदूषण मंडल बोर्ड का सवाल है इसके बारे यदि कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के शासन काल में सोम डिस्टलरी के बारे में प्रस्तुत एक याचिका का प्रतिवेदन देते हुए याचिका समिति ने अपने तीसवां प्रतिवेदन (भाग-दो) बेतवा नदी में प्रदूषण संबंधी फरवरी-मार्च 1997 सत्र में प्रस्तुत याचिका क्रमांक 2644 जो कि एक मई 1998 को विधानसभा में प्रस्तुत की गई थी। उक्त समिति ने अपने प्रतिवेदन में प्रदूषण मंडल के अध्यक्ष से लेकर छोटे कर्मचारी तक जो टिप्पणी थी लगता है कि वह टिप्पणी का एक-एक शŽद आज भी प्रदूषण मंडल बोर्ड के अध्यक्ष से लेकर निचले स्तर तक के कर्मचारी पर लागू हो रही है। समिति ने अपने निष्कर्ष में बोर्ड के बारे में कहा था प्रदूषण निर्माण मंडल के शीर्ष स्थल से निचले स्तर तक की जो भूमिका है वह निश्चत ही दुर्भाग्य पूर्ण और उदासीनता यह दर्शाती है। मंडल अध्यक्ष जैसे जिम्मेदार व्यक्ति जब समिति के समक्ष प्रोसीक्यूशन की कार्रवाई संबंधी बात कहकर जाएं और उसका पालन न करें। तो निचले अमले से अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। सोम डिस्टलरी के बेतवा प्रदूषण के संबंध में समिति ने जो निष्कर्ष राज्य प्रदूषण मंडल के बारे में दिए थे। इससे यह साबित होता है कि प्रदूषण मंडल प्रदेश की जनता को जहर पीने पर मजबूर कर रहा हैं। क्योंकि उद्योगों से सांठ-गांठ करके राज्य की पवित्र नदियां प्रदूषित तो हो रही हैं तो वहीं राज्य में स्थापित उद्योगों से निकलने वाली हवा और पानी जहर घोल रही हैं। राज्य में स्थापित एक दूसरे के उद्योग के बार में राज्य प्रदूषण मंडल की जो भूमिका रही वहीं संदेह के घेरे में हैं। आज राजधानी में स्थित यूनियन कार्बाइट के जहरीले कचरे को नष्ट करने के लिए राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार भी चिंतित है, लेकिन राज्य की पीथमपुर में स्थापित रामकी उद्योग जिसका काम प्रदेश के उद्योगों से निकलने वाले कचरों को नष्ट करने के लिए स्थापित की गई हैं। उक्त कंपनी को राज्य शासन के आदेश द्वारा प्रदेश के कई उद्योगों से लाखों रूपए अग्रिम भुगतान जहरीले कचरे को नष्ट कराने के लिए कराया गया है। प्रदेश में ऐसी कंपनी होने के बावजूद यूनियन कार्बाइट का कचरा जर्मन में नष्ट कराने की प्रक्रिया चले तो फिर उक्त कंपनी का राज्य में औचित्य क्या? हालांकि इस कंपनी के स्थल चयन को लेकर जो बोर्ड ने हेराफेरी की वह भी जांच का विषय हैं। कुल मिलाकर ऐसे कई मामले है जिनमें राज्य प्रदूषण मंडल बोर्ड के अध्यक्ष से लेकर निचले स्तर तक के कर्मचारियों की कार्यशैली पर सवालिया निशान खड़े करते हैं।
राज्य सरकार द्वारा विकास के नाम पर प्रदेश में उद्योगों की स्थापना करने की भरपूर कोशिश की जा रही है, लेकिन इसके बावजूद भी यह उद्योग अपने आसपास के रहवासियों के लिए प्रदूषण फैलाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। कार्रवाई के नाम पर प्रदूषण मंडल सिवाय नोटिसी कार्रवाई के अलावा कोई ठोस कार्रवाई नहीं करता है। क्योंकि इसी तरह के नोटिस मिलने के बाद उद्योगपति प्रदूषण मंडल के अधिकारियों से सांठ-गांठ कर लेते हैं? मामला कुछ भी हो लेकिन प्रदूषण मंडल बोर्ड पर प्रतिवर्ष जनता की कमाई का करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद भी नतीजा शून्य ही नजर आता है। तभी तो प्रदेश के उद्योगों द्वारा किया जा रहा दूषित जल व वायु का उत्सर्जन रुकने का नाम नहीं ले रहा हैं। हवा व पानी को प्रदूषित करने में भोपाल के उद्योगों की संख्या सबसे ज्यादा है। वर्ष 2011-12 में भोपाल क्षेत्र के करीब 39 उद्योगों से जल प्रदूषण तथा 12 से वायु प्रदूषण मानक से अधिक होना पाया गया है।
इंदौर जैसे उद्योगिक क्षेत्र में मानक से अधिक उगलने वाले जल व वायु प्रदूषक उद्योगों की संख्या भोपाल, जबलपुर, धार व उज्जैन से कम हैं। भोपाल क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले मंडीदीप में जल व वायु प्रदूषण की हालत काफी खराब है। मंडीदीप की 16 औद्योगिक इकाइयां जल प्रदूषक तथा 8 इकाइयां वायु प्रदूषक मानक से अधिक उगल रही हैं।
आरटीआई में हुआ खुलासा:- प्रयत्न संस्था द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारियों में जो तथ्य सामने आए हैं। उसके अनुसार प्रदेश में करीब 248 उद्योग ऐसे हैं जो जल व वायु को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। प्रदेश में करीब 194 उद्योगों द्वारा छोड़े जा रहे जल में प्रदूषक की मात्रा मानक से अधिक मिली है। वहीं लगभग 54 उद्योग ऐसे  हैं जिनमें वायु प्रदूषक की मात्रा मानक से अधिक निकलना पायी गई है।
बंद हो चुके हैं कई उद्योग:- हालांकि खतरनाक कचरे के प्रबंधन में लापरवाही बरतने के चलते प्रदेश के कई उद्योगों में ताला लग चुका है। इन उद्योगों को खतरनाक अपशिष्ट नियम 2008 की उपेक्षा व सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों का पालन नहीं करने का दोषी पाया गया था। एमपीपीसीबी ने अदालम में विचाराधीन अवधि तक 144 उद्योगों को बंद कर दिया, लेकिन इनमें से 109 को बाद में खतनाक अपशिष्ट कचरा प्रबंधन के लिए उचित कार्रवाई करने पर संचालन की अनुमति दे दी। हालांकि अभी भी 35 उद्योगों में ताला जड़ा हुआ है।
राज्य प्रदूषण मंडल बोर्ड की लापरवाही और उद्योगपतियों के साथ सांठ-गांठ के चलते राज्य के चार शहर ऐसे है जिनमें सबसे ज्यादा प्रदूषण है।
वह जिले है इंदौर, देवास, सिंगरौली, पीथमपुर, लेकिन मजे की बात यह है कि इन सब सर्वाधिक जिलों की जानकारी राज्य के प्रदूषण मंडल बोर्ड के अध्यक्ष डा. एनपी शुक्ला को भी नहीं है। ऐसी स्थिति में जब जिस बोर्ड को प्रदेश में प्रदूषण मंडल को प्रदूषण नियंत्रण करने की जिम्मेदारी हो और उसके मुखिया को राज्य के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों की जानकारी भर न हो। तो ऐसे में राज्य में प्रदूषण फैलाने वाले इन उद्योगों जिनके माध्यम से राज्य की जल और वायु को प्रदूषित किया जा रहा हो उसकी जानकारी उनको नहीं होगी। क्योंकि उन्हें अक्टूबर में इस पद से मुक्त होना है और ऐसे में वह अपने भविष्य की चिंता करें या फिर प्रदेश प्रदूषण झेल रही जनता की।
- अवधेश पुरोहित

क्‍या दिग्विजय सिंह की ज़ुबान सचमुच फिसल जाती है ?


मोकर्रम खान) 
हाल ही में भोपाल के कुछ समाचार पत्रों में यह खबर छपी कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को कांग्रेस ने चुप रहने की नसीहत दी है. इस खबर को भोपाल के कुछ चुनिंदा अखबारों ने अलग अलग ढंग से नमक मिर्च लगा कर छापा. एक ने लिखा ‘’दिग्विजय के मुंह पर ताला’’, दूसरे ने लिखा ‘’दिग्विजय सिंह को पार्टी की चुप रहने की नसीहत’’, तीसरे ने लिखा ‘’दिग्‍गी को झटका’’ चौथे ने तो यह तक लिख दिया कि ‘’दिग्विजय सिंह हाशिये पर चले गये’’. कटु तथा कठोर सत्‍य यह है कि इनमें से अधिकतर समाचार पत्रों के संपादक/स्‍वामी दो दशक पहले तक मिडिल इनकम ग्रुप में आते थे और अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये विज्ञापनों के जुगाड़ में रात दिन परिश्रम करते थे. कई तो उस समय मुख्‍यमंत्री रहे दिग्‍गी राजा के दरबार में अघोषित भाट (राजा के प्रशंशागीत गाने वाले प्रोफेशनल गायक) का भी कार्य करते थे. गायनोपरांत पुरस्‍कार स्‍वरूप आर्थिक सहायता के लिये गिड़गिड़ाते थे. कभी विज्ञापन, कभी अधिकारियों के ट्रांसफर या मलाईदार पद पर पोस्टिंग, कभी ठेके, कभी सप्‍लाई आर्डर्स. दिग्‍गी राजा लगातार 10 वर्ष तक मुख्‍य मंत्री रहे. इन लोगों ने जम कर चांदी काटी और मिडिल इनकम ग्रुप से सुपर हायर इनकम ग्रुप में पहुंच गये, अखबार के साथ साथ बड़े बड़े उद्योग धंधे भी चलाने लगे. नाजायज कमाई और कृतघ्‍नता एवं अवसरवादिता का चोली दामन का साथ होता है. दिग्विजय सिंह ने 2003 के मध्‍य प्रदेश विधान सभा चुनावों के दौरान यह प्रतिज्ञा कर ली कि यदि कांग्रेस मध्‍य प्रदेश में हारती है तो मैं 10 वर्ष तक सरकार में कोई पद नहीं लूंगा, इसलिये केंद्र में कांग्रेसनीत यू0पी0ए0 सरकार में मंत्री पद नहीं लिया. प्रशंशागीत गाने वाले पूर्णत: प्रोफेशनल होते हैं. यदि सामने वाले के वालेट में माल है तो गाते रहेंगे, नहीं तो उसका दामन छोड़, जिसकी अंटी में रुपये हैं उसके घर के सामने हारमोनियम तबला ले कर बैठ जायेंगे, वही हुआ.  दिग्‍गी राजा के सन्‍यास की घोषणा का लाभ कुछ ऐसे लोगों को मिल गया जिनका कोई जनाधार ही नहीं था, उन्‍हें मलाईदार पद मिल गये. राजनीति में महत्‍वपूर्ण पद पाने तथा उसे बचाये रखने के लिये जनाधार बढ़ाते रहना आवश्‍यक होता है किंतु यदि किसी व्‍यक्ति को बिना जनाधार के ही लाटरी की रकम की तरह पद मिल जाये तो उसके दिमाग में महत्‍वाकांक्षायें सागर की लहरों की तरह हिलोरे मारने लगती हैं और वह हर उस इंसान का अस्तित्‍व समाप्‍त करने के प्रयास में लग जाता है जिसके पास जनाधार होता है क्‍योंकि उसका जनाधार, जनाधारविहीन व्‍यक्ति को हर समय मुंह चिढ़ाता तथा डराता रहता है. जनाधारविहीन व्‍यक्ति, जनाधार रखने वाले व्‍यक्ति से सीधे टकराने का साहस नहीं कर सकता क्‍योंकि राजनीति के अखाड़े में जनबल के बिना मल्‍लयुद्ध संभव ही नहीं है. ऐसे में अनुचित आर्थिक लाभ के लिये मुंह फाड़े बैठे कुछ मीडिया हाउस जो पी‍त पत्रकारिता के माध्‍यम से किसी की इमेज बनाने या गिराने का बाकायदा ठेका लेते हैं, ऐसे लोगों का साथ देने पहुंच जाते हैं. राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के समर में यदि जातिवाद का तड़का भी लग जाय तो युद्ध की तस्‍वीर ही बदल जाती है, करेला, ऊपर से नीम चढ़ा वाली स्थिति बन जाती है. प्रतिद्वंदिता तथा सौतिया डाह की भावना के कारण कई बार एक ही नाव के सवार इस हद तक लड़ बैठते हैं कि नाव पलट कर डूब जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है. जिसने नाव बनाने तथा उसके मेंटेनेंस में अपना जान-माल लगाया है उसे तो दर्द होगा और वह भरसक प्रयास करेगा कि नाव डूबने न पाये भले ही उसे थोड़ा अपमान सहन करना पड़े क्‍योंकि उसे मालूम है कि नदी पार करने का एकमात्र साधन यह नाव ही है. यदि यह डूब गई तो पूरे परिवार का बंटाधार हो जायगा, किंतु जो व्‍यक्ति फ्री पास द्वारा नाव में सफर कर रहा है, उसे क्‍यों चिंता होगी, नाव कल डूबती है तो आज डूब जाये, अपन तो दूसरी नाव में जुगाड़ बैठा लेंगे. 
अभी दिग्विजय सिंह के जिन बयानों के आधार पर कुछ मीडिया हाउस दिग्विजय सिंह के राजनीतिक वनवास का दु:स्‍वप्‍न देख रहे हैं, उनमें वास्‍तव में कोई दम ही नहीं है. मीडिया के अनुसार, दिग्विजय सिंह ने यह बयान दिया कि ममता बनर्जी राजनीति में कच्‍ची हैं और अपने फैसलों को ले कर डांवाडोल स्थिति में रहती हैं.  ममता बार बार कांग्रेस के धैर्य की परीक्षा न लें. इस पर कांग्रेस ने बयान जारी किया कि दिग्विजय सिंह पार्टी के आधिकारिक प्रवक्‍ता नहीं हैं. दिग्विजय सिंह ने भी जवाब दे दिया कि मैं ने कब कहा कि मैं पार्टी का आधिकारिक प्रवक्‍ता हूं. सच्‍चाई यह है कि राजनीति के खेल निराले होते हैं. कई घटनायें प्रायोजित होती हैं.  ममता बनजीं की रोज रोज की ब्‍लैकमेलिंग से कांग्रेस त्रस्‍त है, यह बात जग-जाहिर है. केवल सरकार को स्थिर रखने के लिये कांग्रेस ममता से सीधे पंगा नहीं ले रही है इसलिये पार्टी की भावना तथा अप्रत्‍यक्ष चेतावनी दिग्विजय सिंह के उक्‍त बयान के माध्‍यम से ममता दीदी तथा देश की जनता तक पहुंचा दी गई. इस चेतावनी का स्‍पष्‍ट प्रभाव भी देश की जनता ने देखा, ममता के तेवर नरम पड़ गये. किंतु इस घटना को ममता के सार्वजनिक अपमान के रूप में न ले लिया जाय इसलिये पार्टी ने इस बयान से अपने आप को अलग प्रदर्शित करने का प्रयास किया.  यदि कांग्रेस इस बयान को पार्टी के अधिकृत बयान के रूप में स्‍वीकार कर लेती तो ममता तथा कांग्रेस दोनों के लिये गठबंधन बनाये रखना दुष्‍कर कार्य होता जो यूपीए सरकार की हेल्‍थ पर बुरा प्रभाव डालता. इसलिये यह रास्‍ता अपनाया गया जिससे सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी. किंतु धन्‍य हैं भोपाल के स्‍वयंभू मीडिया सम्राट जिन्‍होंने अपने आपको इतना शक्तिशाली समझ लिया कि दिग्‍गी राजा जैसे चतुर क्रिकेटर को भी क्‍लीन बोल्‍ड करने का ख्‍व़ाब देखने लगे. मज़े की बात यह है कि दिग्विजय सिंह के बयान से पार्टी ने किनारा कर लिया इस साधारण समाचार को केवल भोपाल के कुछ समाचार पत्रों ने इतना ज्‍यादा उछाला और अपने अपने ढंग से इसका विश्‍लेषण कर के जनता के सामने तोड़ मरोड़ कर पेश किया, जबकि यह एक अति साधारण घटना थी जिसे महत्‍व देने की आवश्‍यकता ही नहीं थी. 
भोपाल के एक मीडिया हाउस का यह कहना है कि दिग्विजय सिंह की ज़ुबान फिसल जाती है, कभी भी कहीं भी कुछ भी बोल देते हैं, कभी बाबा रामदेव के विरुद्ध, कभी अन्‍ना हजारे के विरुद्ध, कभी किसी राजनेता के विरुद्ध. बाबा रामदेव एपीसोड में इस मीडिया हाउस की वेब साइट पर दिग्विजय सिंह के बयानों को खूब उछाला गया, कुछ लोगों ने इन बयानों पर अश्‍लील टिप्‍पणियां कीं, कई ने तो गंदी गालियां भी लिखीं. वेब साइट वालों ने इन अश्‍लील टिप्‍पणियों तथा गंदी गालियों को बगैर किसी काट छांट के ज्‍यों का त्‍यों प्रकाशित कर दिया. कम से कम अपनी इमेज का तो ख्‍याल किया होता किंतु वह भी नहीं किया. ख़ैर, बात चल रही है दिग्विजय सिंह की ज़ुबान फिसलने की, तो सच्‍चाई यह है कि दिग्विजय सिंह राजनीति के चाणक्‍य हैं. दो बार लगातार मध्‍य प्रदेश जैसे विशाल राज्‍य के मुख्‍यमंत्री रह चुके हैं, आज भी कई बड़े राजनेताओं के गुरु हैं. उनकी ज़ुबान फिसलने का प्रश्‍न ही नहीं उठता. वे जो भी बोलते हैं एक सोची समझी रणनीति के तहत बोलते हैं. उनकी रणनीति के कांग्रेस के धुरंधर नेता भी कायल हैं. जब बाबा रामदेव योग छोड़ राजनीति के भोग में लीन होने के प्रयास करने लगे तब दिग्विजय ने उन्‍हें व्‍यापारी कहा, कुछ लोगों को बहुत बुरा लगा किंतु बाबा ने तो स्‍वयं स्‍वीकार किया कि उनका वार्षिक टर्न ओवर कई सौ करोड़ है. बाबा रामदेव की 22 राज्‍यों में 152 दुकानें तथा 50 अस्‍पताल हैं, 236 प्रोडक्‍ट्स तथा 32 पैकेज हैं. इसके अलावा 166 आडियो तथा वीडियो कैसेट्स हैं. इन सबसे राष्‍ट्रीय तथा अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर करोड़ों रुपये का व्‍यापार प्रति वर्ष होता है, फिर बुरा मानने की क्‍या बात है. दिग्विजय सिंह ने अन्‍ना हजारे के संबंध में कुछ हल्‍की फुल्‍की टिप्‍पणी कर दी तो लोग इसमें भी कूदने लगे किंतु क्‍या अन्‍ना हजारे तथा उनकी टीम के सभी सदस्‍य इतने बड़े संत हैं कि उनके अंदर कोई दोष हो ही नहीं सकता. ममता बनर्जी बार बार बखेड़ा खड़ा करती हैं, इसी बहाने डील के प्रयास भी करती हैं. अगर दिग्विजय सिंह ने यह कह दिया कि ममता कांग्रेस के धैर्य की बार बार परीक्षा न लें तो क्‍या गलत कह दिया. यदि दिग्विजय सिंह में राजनीतिक परिपक्‍वता का अभाव होता और वे कुछ भी अंड बंड बोलते होते तो अभी तक अखिल भारतीय कांग्रेस के महासचिव जैसे महत्‍वपूर्ण पद पर बने न रह पाते. जो लोग यह भ्रम पाले हुये हैं कि दिग्विजय सिंह की जु़बान कभी भी कहीं भी फिसल जाती है जिसके कारण दिग्विजय सिंह कभी भी राजनीतिक वनवास में भेजे जा सकते हैं वे वास्‍तव में मृग-मरीचिका में भटक रहे हैं. ऐसे लोगों को चाहिये कि इस भ्रम की स्थिति से तत्‍काल बाहर आ जायें वर्ना दिग्विजय सिंह के 10 वर्षीय सन्‍यास की अवधि पूर्ण होने में थोड़ा ही समय बचा है.     

मोकर्रम खान, वरिष्‍ठ पत्रकार/राजनीतिक विश्‍लेषक
पूर्व निजी सचिव, केंद्रीय शहरी विकास राज्‍य मंत्री. 
मोबाइल 9827079845, 9039879753 
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यह न्याय है कि जादू-टोना?


 यह न्याय है कि जादू-टोना?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने राहुल गांधी के बारे में जो बयान किया है, वह मीडिया का ध्यान खींच रहा है लेकिन उन्होंने भारत की न्याय-व्यवस्था पर जो नया सुझाव दिया है, वह हाशिए में चला गया है।  उन्होंने कहा है कि वादियों और प्रतिवादियों को अदालतों के फैसले उनकी भाषा में उपलब्ध करवाए जाएं। ऐसी समझदारी की बात इसके पहले किसी कानून मंत्री ने शायद कभी नहीं कही। किसी प्रधानमंत्री,  किसी कानून मंत्री या किसी राजनेता को यह बात अभी तक सूझी क्यों नहीं?
कारण स्पष्ट है। दो सौ साल की गुलामी ने भारत के दिमाग को ही ठस्स कर दिया है। हम यह कल्पना ही नहीं करते कि हमारा कानून हमारी भाषा में बन सकता है। अदालतों की बहस और फैसले अपनी भाषा में तभी होंगे, जबकि कानून अपनी भाषाओं में बनेंगे। खुर्शीद ने यह तो कह दिया कि फैसले स्वभाषाओं में उपलब्ध करवाए जाएं लेकिन यह नहीं कहा कि वे स्वभाषाओं में ही लिखे जाएं। वे होंगे तो अंग्रेजी में ही लेकिन खुर्शीद की बात मान ली जाए तो उनके अनुवाद कई भाषाओं में हो जाएंगे। सरकारी अनुवाद की लीला से कौन परिचित नहीं है? मक्खी पर मक्खी बिठाने में निष्णात हमारे बाबू उन अंग्रेजी फैसले का कचूमर हिंदी तथा अन्य भाषाओं में कैसा निकालेंगे, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। मूल अंग्रेजी फैसलों और अनुवाद से उठी समस्याओं को निपटाने के लिए नए मुकदमे दायर किए जाएंगे। भारत के न्यायालय पागलखानों में तब्दील हो जाएंगे। लोगों को न्याय सुलभ करवाना तो दूर रहा, वे अनुवाद की गुत्थियों में उलझ जाएंगे।
इसका मतलब यह नहीं कि खुर्शीद का सुझाव निरर्थक है। एक अर्थ में वह क्रांतिकारी है। उन्होंने आम आदमी की तकलीफ को समझा तो सही। वादी और प्रतिवादी को पहले तो यह ही ठीक से समझ में नहीं आता कि अदालत में हो क्या रहा है। उनके वकील आपस में क्या गिटपिट कर रहे हैं। फिर जो फैसला अंग्रेजी में आता है, वह भी उसकी समझ के परे होता है। वह जादू-टोने की तरह हो जाता है। उसका वकील उसे जो सार-संक्षेप समझा देता है, उससे उसे संतोष करना पड़ता है। कई लोगों को उम्र-कैद काट देने के बाद पता चलता है कि उनके वकील ने जज को वह मुख्य तर्क समझाया ही नहीं, जो उसे दोषमुक्त कर सकता था। सारा कानून, वकीली बहस और फैसले अंग्रेजी में होने के कारण वादी और प्रतिवादी अदालत में अपनी बात कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते। इसका अर्थ यह नहीं कि फैसले अंग्रेजी में होते हैं तो किसी को न्याय मिलता ही नहीं। न्याय मिलता तो है लेकिन जिसको न्याय मिलता है, वह इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं होता। यह मूल मानव अधिकार का पूर्ण उल्लंघन है। यह लोकतंत्र का भी मजाक है। जो कानून और न्याय-व्यवस्था लोक की समझ के परे है, उसे लोकतांत्रिक कैसे कहा जाए?
इसीलिए खुर्शीद के सुझाव में से लोकतंत्र की सुगंध आती है लेकिन यह सुगंध इत्र की नहीं, परफ्यूम की है। इस सुंगध को गहरी और सुदीर्घ बनाने के लिए यह जरूरी है कि देश के सारे कानून मूल रूप से हिंदी में बनें। समस्त भाषाओं में मौलिक कानून आगे जाकर बन सकते हैं। उनका अनुवाद हिंदी से अन्य भारतीय भाषाओं में हो सकता है। अब यहां प्रश्न किया जा सकता है कि यदि आप अंग्रेजी कानून के अनुवाद रद्द करते हैं तो हिंदी कानून के अनुवाद को मान्य कैसे करते हैं? इसका उत्तर सरल है। पहला, समस्त भारतीय भाषाओं की भाव-भूमि एक ही है। उनकी मूल धारणाएं, मुहावरें, कहावतें, शैलियां लगभग एक जैसी हैं। उनके परस्पर अनुवाद में विभ्रम की गुंजाइश अंग्रेजी के मुकाबले बहुत कम है। दूसरा, उन्हें संस्कृत, अरबी, फारसी जैसी प्राचीन भाषाओं की शब्द-राशि सहज उपलब्ध है। तीसरा, अंग्रेजी के मुकाबले इन भाषाओं के अनुवादकों की संख्या काफी बड़ी होगी। चैथा, अपनी भाषा में कानून बनने के कारण अंग्रेजी कानून की गुलामी से भी भारत तत्काल मुक्त हो जाएगा। भाषा के साथ-साथ संस्कार, परंपराएं, अवधारणाएं, प्रतिक्रियाएं और चित्तवृत्तियां भी ढलती जाती हैं। स्वभाषा में कानून बनेगा तो न्याय के बारे में हमारा सोच स्वदेशी और मौलिक होगा।
यदि कानून अंग्रेजी में बनता है तो बहस और फैसले भी अंग्रेजी में ही होते हैं। इसका नतीजा तो यह है कि मुकदमे द्रौपदी के चीर की तरह लंबे होते चले जाते हैं। देश में लगभग तीन करोड़ मुकदमे अधर में लटके हुए हैं। कई-कई तो 30-30 बरसों से लटके हुए हैं। अन्य कारणों के अलावा इसका एक बड़ा कारण अंग्रेजी भी है। विदेशी भाषा को समझना, बोलना और लिखना अपनी भाषा के मुकाबले कठिन होता है। इसीलिए अंग्रेज के पूर्व गुलाम देशों के अलावा दुनिया के लगभग सभी देशों में न्याय स्वभाषा में दिया जाता है।  जॉन स्टुअर्ट मिल ने क्या खूब कहा है,  ‘देर से दिया गया न्याय, वास्तव में अन्याय है।’  इस देरी का कारण अंग्रेजी है।  अंग्रेजी के कारण हमारी न्याय-व्यवस्था अन्यायकारी बन गई है।
यदि न्याय स्वभाषा में मिले तो उसका अध्ययन-अध्यापन भी स्वभाषाओं में होगा। वकील या जज बनना अधिक आसान होगा। अभी तो उनकी सारी ताकत अंग्रेजी के बाल की खाल उखाड़ने में ही नष्ट हो जाती है। देश में हजारों नए जजों की जरूरत है। इसकी पूर्ति में अंग्रेजी सबसे बड़ा रोड़ा है। यह रोड़ा डॉक्टरी, इंजीनियरी, वैज्ञानिकी आदि सभी मार्गों में अड़ा हुआ है। यदि भारत में कानून और चिकित्सा की पढ़ाई स्वभाषाओं में होती रहती तो भारत के वकील और डॉक्टर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते और उनकी संख्या भी प्रचुर होती। अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई ने भारतीय न्याय को किताबी ज्ञान में कैद कर दिया है। न्याय तो मूलतः उचित और अनुचित के सहज-संज्ञान को कहते हैं। कानूनी ग्रंथ, पुराने फैसले, नजीर वगैरह न्याय करने में सहायक जरूर होते हैं लेकिन यह सहायता हमारे न्याय पर काफी भारी पड़ती है, क्योंकि वह अंग्रेजी में होती है। यह ऐसा ही है, जैसे किसी श्रेष्ठ गायक पर उसके तबले और हारमोनियमवाले भारी पड़ जाएं। यदि कानून का किताबी ज्ञान स्वभाषाओं में हो तो वह न्याय-प्रक्रिया की सहज-संगति करेगा। शिक्षा में यह मूलभूत क्रांतिकारी परिवर्तन करना हमारे वर्तमान राजनीतिज्ञों के बस की बात नहीं है। इसीलिए फिलहाल फैसलों के अनुवाद का ही स्वागत है।

(लेखक भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

टैक्नोसिटी- भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी परिदृश्य में एक प्रमुख केन्द्र


जैकब अब्राहम
तिरुअनंतपुरम जिले के पल्लिप्पुरम क्षेत्र में उद्योग के बडे ब्रांडों द्वारा उत्पाद केन्द्रों को स्थापित करने की संभावनाओँ, प्रशिक्षण परिसरों, विकासात्मक संस्थानों और विविध अन्य पहल की शुरुआत के साथ भारत के सूचना प्रौद्योगिकी परिदृश्य को तैयार करने में एक प्रमुख स्थल यानि तिरुअनंतपुरम स्थित टैक्नोसिटी बहुत तेजी से वैश्विक गतिविधियों का केन्द्र बन रहा है।
   टैक्नोपार्क के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी ने बताया कि- "निवेश क्षमता और संभावनाओं के संबंध में दुनिया भर से मांगी जा रही जानकारियों के साथ हम अपने नियत समय के अनुसार आगे बढ़ रहे हैं।"  वरिष्ठ प्रबंधक व्यापार विकास के अनुसार-"टीम टैक्नोपार्क के द्वारा संचालित और पोषित टैक्नोसिटी जब अपनी वास्तविक शक्ल ग्रहण करेगा तो यह राज्य और राष्ट्र दोनों के लिए बेशकीमती होगा।"
        तैयार मास्टर प्लान और संभावित निवेशकों के लिए उन्नत अवसंरचना सुविधा मुहैया कराने के साथ टैक्नोसिटी का कार्य वर्तमान में प्रगति पर है। पूरी तरह से तैयार हो जाने के बाद यह 432 एकड में फैला एक समेकित सूचना प्रौद्योगिकी टाउनशिप होगा जिसमें न केवल आईटी/आईटीईएस फर्मों के लिए स्थान होगा बल्कि आवासीय, वाणिज्यिक, सेवा, चिकित्सा और शिक्षण सुविधाएं भी उपलब्ध होगी। यह परियोजना स्व- आश्रित सैटेलाइट सिटी के रुप में होगी जिसके तहत तिरुअनंतपुरम शहर के संसाधनों और अवसंरचना का दोहन नहीं किया जाएगा।
        एम्बेडेड सॉफ्टवेयर विकास, उद्यम संसाधन नियोजन (ईआरपी), प्रक्रिया नियंत्रण सॉफ्टवेयर डिजाइन, इंजीनियरिंग और कंप्यूटर आधारित डिजायन सॉफ्टवेयर विकास, आईटी समर्थित सेवाएं (आईटीईएस), प्रक्रिया पुनः आभियांत्रिकी, एनिमेशन और ई-व्यापार जैसी विविध प्रकार की कंपनिया टैक्नोसिटी की इकाइयों में शामिल होगी। घरेलू कंपनियों के साथ ही बहुराष्ट्रीय संगठनों की सहायक कंपनियों को भी फर्म द्वारा शामिल किया जाएगा।
  टैक्नोसिटी में आईटी/आईटीईएस और इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक सभी अवसंरचना और समर्थन सुविधाओं के साथ ही कर्मचारियों के लिए विश्व स्तरीय सुविधाएं भी होंगी। इसके अलावा टैक्नोपार्क जैसी टैक्नोसिटी व्यापार संवर्धन सुविधाओं को भी मुहैया कराएंगी।
  टैक्नोसिटी में किराए पर स्थान लेने वाले संगठनों के लिए बहु-इमारत के साथ लगभग 25 मिलियन वर्ग फीट बिल्ट-अप स्थान है। इसे एक समेकित टाउनशिप के रुप में विकसित किया जा रहा है और इसमें आवासीय स्थान, रीटेल सुविधाएं, मल्टीप्लेक्स, अस्पतालों और स्कूलों की सुविधाएं भी शामिल है। इससे टैक्नोसिटी में कंपनियों के कर्मचारियों को कार्यालय से पैदल दूरी पर ही विश्वस्तरीय सुविधाओं को प्राप्त करने की सरलता होगी।
  तिरुअनंतपुरम राष्ट्रीय इंटरनेट प्रणाली से जुडा है और परिसर में फाइबर ऑप्टिक लाइनों के द्वारा इसमें रिलायंस इंफोकॉम, भारती एयरटेल, विदेश संचार निगम, एशियानेट डाटालाईन  जैसे बैंडविड्थ प्रदाताओं की सेवाएं शामिल हैं।
        टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड (टीसीएस) एशिया के सबसे बडे प्रशिक्षण केन्द्र को स्थापित करने की प्रक्रिया में है । उन्हें आवंटित 82 एकड़ की ज़मीन में एक समय में 16,000 कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जा सकता है और उनके रहने की व्यवस्था की व्यवस्था की जा सकती है। टीसीएस पहले ही टैक्नोपार्क फेज-I से अपने ग्लोबल लर्निंग सेंटर का संचालन कर रहा है। लगभग 10,000 कर्मचारियों के लिए सॉफ्टवेयर विकास केन्द्र का निर्माण टैक्नोपार्क फेज-I में किया जा रहा है।
  इंफोसिस को आवंटित 50 एकड़ एसईजेड भूमि में इंफोसिस द्वारा उनके अगले विकास केन्द्र की स्थापना की प्रक्रिया चल रही है। फेज-I और फेज-II से इंफोसिस पहले ही संचालन कर रहा है। तीसरा सॉफ्टवेयर विकास ब्लॉक और साथ ही बहुस्तरीय कार पार्किंग की इमारत के निर्माण का कार्य फेज-II के परिसर में चल रहा है।
        भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी और प्रबंधन संस्थान – केरल (आईआईआईटीएम-के) और एशियन स्कूल ऑफ बिजनेस (एएसबी) जैसे  कम से कम दो महत्वपूर्ण शैक्षिक संस्थान और अनुसंधान संस्थान टैक्नोसिटी में होंगे। इनमें से एशियन स्कूल ऑफ बिजनेस अपना संचालन शुरु कर चुकी है और आईआईआईटीएम-के अपने 10 एकड ज़मीन में संचालन शुरु करने की प्रक्रिया में है। टैक्नोपार्क टैक्नोसिटी में 50 एकड विशेष आर्थिक क्षेत्र का विकास कर रही है।
  केरल सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के तहत एक स्वायत्त संस्था इलेक्ट्रॉनिक्स टैक्नॉलॉजी पार्क केरल के तत्वाधान में टैक्नोपार्क की स्थापना की गई। इसमें 240 से भी अधिक कंपनिया और 32000 से भी अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। अवसंरचना का निर्माण तथा साथ ही उच्च प्रौद्योगिकी कंपनियों के विकास के लिए आवश्यक समर्थन मुहैया कराना  टैक्नोपार्क का उद्देश्य था।
  अपने आकार और कर्मचारियों की क्षमता दोनों के हिसाब से पार्क निरंतर प्रगति कर रहा है। शुरुआत में केवल पार्क सेंटर, पंपा और पेरियार इमारत ही थीं। टैक्नोपार्क की कुल भूमि लगभग 771.54 एकड की है। टैक्नोपार्क के फेज एक, फेज दो और फेज तीन के लिए लगभग 326.54 की भूमि है और बाकी स्थान टैक्नोसिटी की लिए शेष भूमि के रुप में है। टैक्नोपार्क में समय समय पर नई इमारतों जैसे नीला, गायत्री और भवनी को जोडा गया है। फरवरी 2007 में 850,000 वर्ग फीट के तेजस्विनी के उद्घाटन के साथ ही यह भारत का सबसे बडा आईटी पार्क बन गया। केरल में यह रोजगार का सबसे बडा स्रोत बन चुका है जिसमें 32000 से भी अधिक लोग 240 कंपनियों में प्रत्यक्ष रुप से कार्यरत हैं। इसके ज़रिए 2010-11 के दौरान 1977.32 करोड़ रुपए के निर्यात अर्जन के साथ 2000 करोड़ रुपए का सकल कारोबर हुआ।

मध्‍य प्रदेश की पुलिस सिंघम है या दबंग ?

मध्‍य प्रदेश की पुलिस सिंघम है या दबंग ?, MP Lolice
(मोकर्रम खान)
हाल ही में इंदौर में एक युवक को कुछ गुंडों ने दिन दहाड़े, सरे राह चाकू से गोद डाला. युवक का अपराध यह था कि उसने उन गुंडों को अपनी बहन से छेड़खानी करने से मना किया था. मीडिया के अनुसार घटना के बाद लगभग 45 मिनट का समय जिसमें उसकी जान बचाई जा सकती थी, पुलिस की कागजी कार्यवाही में बीत गया, परिणामस्‍वरूप, उस युवक की जीवन लीला समाप्‍त हो गई. कई निजी टीवी चैनलों ने इस समाचार का वीडियो दिखा दिखा कर मामले को गरमाने का भरसक प्रयास किया किंतु पुलिस के उच्‍चाधिकारियों जिनमें एक महिला भी शामिल हैं, ने अपने अधीनस्‍थों 
का जम कर बचाव किया. वैसे परिस्थितियों का तकाज़ा तो यह था कि पीडि़त परिवार को सांत्‍वना देने तथा जनाक्रोश कम करने के लिये दोषी पुलिस कर्मियों को कम से कम तत्‍काल प्रभाव ने निलंबित कर दिया जाता. ऐसा करने का अधिकार जिले के एसपी से ले कर मुख्‍यमंत्री तक सभी को प्राप्‍त है लेकिन किसी ने इस अधिकार का प्रयोग कर पीडि़त परिजनों के ज़ख्‍मों पर मलहम लगाने की आवश्‍यकता नहीं समझी. पुलिस के आला अधिकारियों ने अपने कर्मचारियों का बचाव खुल कर किया. गृह मंत्री ने जांच रिपोर्ट की प्रतीक्षा करने को कहा. सबसे मज़े की बात मुख्‍यमंत्री ने कही कि पुलिस सिंघम बने. सिंघम फिल्‍म एक ईमानदार पुलिस अधिकारी अजय देवगन की कहानी है परंतु सिंघम केवल एक फिल्‍म है जो मनोरंजन का साधन मात्र है, वास्‍तविकता से उसका दूर दूर तक वास्‍ता नहीं है. 
रील लाइफ में सिंघम है किंतु रियल लाइफ में पुलिस दबंग की भूमिका में है, दबंग जो दादागिरी से सब कुछ प्राप्‍त कर सकता है. दबंग फिल्‍म में नायक सलमान खान थानेदार है. नायिका सोनाक्षी सिन्‍हा एक गरीब लड़की है जिसका इस संसार में एक गरीब शराबी पिता के अलावा और कोई नहीं है, थानेदार इस हकीकत से वाकिफ है इसलिये नायिका से प्रेम की पींगें बढ़ाने के लिये उसके इर्द गिर्द चक्‍कर लगाने की ज़हमत नहीं उठाता, न ही आई लव यू कहने की आवश्‍यकता समझता है, उसे सीधे आर्डर देता है, मुझसे शादी कर लो. नायिका अपनी विवशता बताती है कि मैं अपने शराबी और बीमार बाप को नहीं छोड़ सकती. थानेदार उससे किसी प्रकार का मान मनौवल नहीं करता बल्कि झगड़े की जड़ बाप को मानसिक प्रताड़ना देता है और नायिका से शादी करने के लिये दबाव बनाता है. गरीब बाप थानेदार का मुकाबला करने का साहस नहीं रखता इसलिये एक निश्‍चित तिथि को अपनी लड़की ब्‍याह कर ले जाने के लिये कहता है किंतु उस तिथि के आने के पहले ही आत्‍महत्‍या कर लेता है. बाप की 
मौत पर नायिका आंसू बहाती रहती है, मोहल्‍ले की औरतें भी उसका दुख बांटने के लिये उसका अनुसरण कर रही होती हैं तभी थानेदार सलमान खान आता है, सभी को रोते देख कर उसके अंदर मानवीय 
संवेदना नहीं जागती, वह नायिका का दुख कम करने के लिये प्रेम के दो शब्‍द भी नहीं बोलता बल्कि पहले से रो रही सभी महिलाओं को डांट कर भगा देता है और नायिका को रोने धोने की भी मोहलत नहीं देता, ले जा कर सीधे विवाह कर लेता है, विवाह के तत्‍काल बाद नायिका के साथ रहते हुये भी पर-नारियों के पीछे भागता है, नायिका उसे बार बार पकड़ कर वापस खींचती है. थानेदार न उसके दुख 
की परवाह करता है न ही समाज की क्‍योंकि वह दबंग है, और दबंग भी साधारण नहीं, समस्‍त सुविधायेंयुक्‍त शासकी मान्‍यता प्राप्‍त दबंग, उसे किसी से डरने की क्‍या आवश्‍यकता है.
तो वास्‍तव में पुलिस दबंग ही है जिसे किसी का डर नहीं है और इंदौर पुलिस तो दबंगों से भी कई कदम आगे है. पिछले वर्ष एक प्रकरण प्रकाश में आया था, इंदौर में एक थानेदार ने एक किशोरी को जो रात 9 बजे अपने भाई को कोचिंग में छोड़ कर आ रही थी, रास्‍तें में रोक लिया और पूछताछ के लिये थाने ले जाने के बहाने एक घर में ले जा कर उसके अश्‍लील एमएमएस बनाये. 
संयोगवश लड़की के परिजन राजनीति में अच्‍छी पकड़ रखते थे, उनके एक रिश्‍तेदार विधायक ने पूरे शासन तथा प्रशासन को हिला कर रख दिया तब जा कर उस थानेदार के विरुद्ध कुछ कार्यवाही हुई. इस 

मामले के खुलासे के बाद एक अन्‍य युवती ने भी शिकायत की कि उक्‍त थानेदार ने उसके भी जबरन अश्‍लील एमएमएस बनाये थे और ब्‍लैकमेल किया था, यह लड़की भी प्रदेश की एक काबीना मंत्री की रिश्‍तेदार थी. पुलिस की दबंगई देखिये, मंत्री संतरी किसी की भी परवाह नहीं करते. राजनेता भी पुलिस की दबंगई के सामने बेबस नज़र आते हैं. थानेदार द्वारा लड़कियों के जबरन अश्‍लील एमएमएस बना कर उन्‍हें ब्‍लैकमेल करने के ये 2 मामले हाई प्रोफाइल होने के कारण प्रकाश में आ गये, ऐसे मामलों की वास्‍तविक संख्‍या का अनुमान लगाना कठिन है क्‍योंकि बदनामी तथा पुलिस की प्रताड़ना के डर से 
अधिकांश लड़कियां सामने ही नहीं आती हैं. छत्‍तीसगढ़ की न्‍यायधानी बिलासपुर की एक लड़की इंदौर में पढ़ती थी, उसकी हत्‍या हो गई. लड़की का बाप भागा भागा इंदौर पहुंचा और दोषियों के विरुद्ध कार्यवाही की मांग की किंतु पुलिस ने यह कह कर चलता कर दिया कि लड़की का चरित्र ठीक नहीं था. बाप ने छत्‍तीसगढ़ के भाजपाई राजनेताओं, मी‍डियाकर्मियों तथा अधिकारियों से सहायता की विनती 
की, उन लोगों ने इंदौर पुलिस पर कार्यवाही हेतु दबाव डाला तो पुलिस ने मृतका के पिता को उल्‍टा चमकाया कि ज्‍यादा नेतागिरी मत करो. जब पुलिस इस प्रकार की दबंगई दिखायेगी तो गुंडों के हौसले बढ़ना स्‍वाभाविक है. एक लड़की अपने पिता के साथ दो पहिया वाहन पर जा रही थी. कुछ मनचलों ने लड़की का हांथ पकड़ कर खींच लिया. बाप बेटी दोनों ही नीचे गिर पड़े, बाप को मौत हो गई, बेटी गंभीर रूप से घायल हो गई.
पुलिस का काम है, अपराधियों के बीच दहशत पैदा करना ताकि वे आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे कर आम जनता को प्रताडि़त न करें किंतु यदि पुलिस अपने अधिकारों का प्रयोग अपराधियों के विरुद्ध न 
करे और उल्‍टे जनता को हतोत्‍साहित करे तो क्‍या होगा, प्रत्‍यक्ष दिखाई दे रहा है. बहन से छेड़खानी करने का विरोध करने पर युवक को सरे राह, दिन के प्रकाश में चाकू से गोद डालना फिर पुलिस कर्मियों द्वारा कागजी कार्यवाही में इतना विलंब करना कि इलाज में देरी की कारण युवक की मृत्‍यु हो जाये, इतने पर भी उच्‍चाधिकारियों द्वारा पुलिस कर्मियों का बचाव करना क्‍या यह स्‍पष्‍ट संदेश नहीं देता  कि महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अत्‍याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का दुस्‍साहस कोई कभी भी न करे अन्‍यथा इस अपराध के लिये सीधे प्राण दंड ही मिलेगा. पुलिस में सिंघम देखना है तो सिनेमा हाल की टिकट लीजिये या इस फिल्‍म की सीडी ला कर घर पर देखिये और कल्‍पना लोक में विचरण कीजिये,  चाहें तो अपने आप को भी सिंघम समझ सकते हैं और नायक होने के सुख का अनुभव कर सकते हैं किंतु याद रहे कि सिंघम केवल एक काल्‍पनिक कथा है, वास्‍तविकता नहीं. वास्‍तविकता तो सलमान खान की फिल्‍म दबंग है.


मोकर्रम खान, वरिष्‍ठ पत्रकार/राजनीतिक विश्‍लेषक
पूर्व निजी सचिव, केंद्रीय शहरी विकास राज्‍य मंत्री.

कांग्रेस, कोयला और कालिख



अनिल सौमित्र 
कांग्रेस के नेता भले ही कुछ भी कहें, उनके प्रवक्ता मीडिया में कुछ भी बोलें, वे चाहे कितनी ही सफाई क्यों न दें- एक बात तो पक्की है- कांग्रेस बदनाम हो गई है। कांग्रेस का नाम लेते ही, उसका नाम सुनते ही कोयला, कालिख, करप्सन, कलई, कलि, कालिमा, कलंक, कंटक, कुटिल, कपट, कपटी, कलह, कठोर, कलियुग, कलुष-कलुषा, कुख्यात, कलंदरी, कशमकश, कसाई, कसैला, कसूरवार, कारागाह, कायर आदि और ऐसे ही कई समानार्थी शब्दों की छवि बनती है। एक ऐसी पार्टी या संगठन जिसकी स्थापना जरूर एक अंग्रेज ने की थी, लेकिन अनेक वर्षों तक वह देशभक्तों और राष्ट्रवादियों के सेवा का माध्यम बनी। अंग्रेजों के जाने के बाद गांधीजी ने कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया था। कुछ स्वार्थी नेताओं ने उनकी एक न सुनी। देशभक्त नेताओं की पुण्याई और सद्कर्मों का फल नेहरू जैसे कुछ स्वार्थी नेता खाना चाहते थे। इसलिए आजादी के बाद भी कांग्रेस का लाभ उठाया जाता रहा। तब न सही, लेकिन आज जो कांगे्रस को गांधी की राय न मानने का श्राप लग चुका है। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष अपने नाम के आगे ‘गांधी’ जरूर लगाती हैं, लेकिन उनमें गांधी के व्यक्तित्व का अंशमात्र भी नहीं है। वे रंचमात्र भी गांधी के विचारों की उत्तराधिकारी नहीं हैं। 
कांग्रेस जहां सरकार में वहां वह अंग्रेजों की सोच और नीति का अनुशरण कर रही है। जहां वह विपक्ष में है वह जनता और जनमानस से कोसों दूर है। गांधीजी का पूरा जीवन विदेशियों और विदेशपरस्ती से लड़ते हुए बीता। लेकिन सोनिया माइनो गांधी का संपूर्ण जीवन ही विदेशपरस्त है। कमोबेश यही कांग्रेस के नेताओं का भी है। जो नेता विदेशपरस्त या भ्रष्ट नहीं हैं वे दरकिनार कर दिए गए हैं, वे हाशिए पर हैं। कांग्रेस देश और देशवासियों की हालत से बेपरवाह है। उसे सिर्फ अपने और अपनों की परवाह है। कांग्रेस के अपने वे हैं जो या तो उनके सगे हैं, या देशी-विदेशी रिश्तेदार। कांग्रेस ने जैसे देशी लोगों को विदेशी नेतृत्व के भरोसे छोड़ दिया है, वैसे ही भारत के देशी बाजार को विदेशी कंपनियों और पूंजीपतियों के हाथों में सौंप दिया है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश हो या पेट्रो-उत्पादों (तेल) की कीमतें बढ़ाने का मामला कांग्रेस ने विपक्ष की एक न सुनी, अपने सहयोगी दलों को छोड़ देना मुनासिब समझा, देश की जनता को भले ही गुमराह करना पड़े, लेकिन वह अमेरिकापरस्ती नहीं छोड़ सकती। कांग्रेस को देश की जनता से बस सत्ता चाहिए। कैसे भी, किसी भी कीमत पर। एक बार सत्ता मिल जाये, जनता जाये भाड़ में। देश आर्थिक संकटों से घिरा हुआ है, किन्तु केन्द्र सरकार की फिजूलर्खी का आलम यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रियों ने 678 करोड़ उड़ा दिए। यह व्यय पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 12 गुना अधिक है।    
कांग्रेस के नेताओं को कोयले की कालिख, करप्सन की कलई और मंहगाई देने के कलंक की कोई परवाह नहीं। उसके नेता कलंदर हैं। उन्हें न तो कुख्यात होने का भय है और न ही कसूरवार होने का मलाल। जनता को मंहगाई से मार डालने पर उन्हें कोई कसाई कहे तो कहे। समस्याओं से मुंह चुराने पर विरोधी उन्हें कायर कहें तो कहें। वे अपनी कुटिलता नहीं छोड़ सकते।    
कांग्रेसी बेशर्म भी हो गए हैं। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सुशील शिंदे ने इसका उदाहरण दे दिया। केन्द्र सरकार के तीसरे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सोच-समझकर बेतुका बयान दिया। उन्होंने कहा कि कोयले से हाथ काले हो जायें तो पानी से धोने पर फिर साफ हो जोते हैं। जनता जिस तरह बोफोर्स घोटाले को भूल गई, कोयला घोटाले को भी भूल जायेगी। जनता भूले, न भूले कांग्रेस जरूर भूल जाती है। जनता तो घोटाले नहीं, छठी का दूध भी याद दिला देती है। कांग्रेस को भी याद होना चाहिए, जनता ने 1984 में कांग्रेस को 400 से अधिक सीटें दी थी। लेकिन उसके बाद उसी जनता ने उसका ऐसा हश्र किया कि उसे आज तक पूर्ण बहुमत से मोहताज कर दिया। आवाम को यह भी याद नहीं है कि बीते कुछ वर्षों में कांग्रेस की सरकार ने लोक-लुभावन और लोक-कल्याणकारी कौन-से कदम उठाये। काफी समय से ऐसा ही हो रहा है कि जनता आह! आह! कर रही है, ये कराहने की आवाजें हैं। काश! कि कांग्रेस के लिए जनता वाह!वाह करती।  
कांग्रेस का यही हाल मध्यप्रदेश में भी है। दिग्विजय सिंह ने अपने कार्यकाल में प्रदेश का ऐसा बंटाधार किया कि जनता ने उनके समेत कांग्रेस को प्रदेश से बेदखल कर दिया। यहां कांग्रेस कलह की शिकार है। मुद्दाविहीन है। कांग्रेस को विपक्ष में बैठे 10 वर्ष होने का आया। वह खामोश है। उसे सत्ता तो दिख रही है, लेकिन जनता के लिए संघर्ष का इरादा नहीं। गुटों और आंतरिक कुटिलता की शिकार कांग्रेस भाजपा की सरकार और संगठन की सक्रियता के आगे भीगी बिल्ली हो गई है। उसके पास न तो अपने कार्यकर्ताओं के सवालों का जवाब है और न ही केन्द्र सरकार के निर्णयों से हो रही जनता की तकलीफों का उपाए। कांग्रेस सत्ता और विपक्ष दोनों रूपों में पिट रही है। कांग्रसी नेताओं का खलनायकों का इतिहास पीछा नहीं छोड़ रहा है। वे राजे-रजवाड़ों और सामंत प्रवृति से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। आमजन की आवाजों से कोसों दूर अपने ही कोलाहल में डूबे कांग्रेसी सत्ता के लिए मारी-मारी तो कर सकते हैं, लेकिन वे जनता का विश्वास नहीं जीत सकते। कांग्रेस जनता का विश्वास हार चुकी है। कांग्रेस के नेता आत्मविश्वास खो चुके हैं। जनता उनसे और वे जनता से दूरी बना चुकी है। यह खाई बड़ी है और बढ़ती ही जा रही है। कांग्रेस के लिए इस खाई को पाटना दूर की कौड़ी है। 
कांग्रेस का आलाकमान तो कोयले की कालिख से कलंकित है। उसका प्रदेश नेतृत्व अपने रसूख और जायदाद को बचाने की जुगत में फ्रिकमंद है। प्रदेश की भाजपा सरकार के साथ कांग्रेस की धींगामुश्ती इसी फ्रि़क्र के कारण है। जनता के लिए अपनी फ्रिक्र को कांग्रेस बहुत पहले दफन कर चुकी है। इसी महीने खंडवा में हुई कार्यसमिति में भाजपा अध्यक्ष ने तीसरी बार सरकार बनाने के लिए तैयारी करने का आह्वान किया है। हरियाणा के सूरजकुंड में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद् भी निर्णायक सिद्ध हुई है। भाजपा ने केन्द्र में एनडीए के विस्तार का संकल्प लिया है और प्रदेश में तीसरी बार सरकार बनाने का नारा दिया है। भाजपा का नेतृत्व, नारा और कार्यकर्ता एक है। इस मामले में कांग्रेस अनेक है। भाजपा सक्रिय है, कांग्रेस निष्क्रिय। भाजपा कार्यकर्ता आत्मविश्वास से लबरेज, लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्ता सशंकित और नेतृत्व की गुटबाजी के कारण कशमकश में। प्रदेश की जनता देश में परिवर्तन और और मध्यप्रदेश में निरन्तर होने की बाटजोह रही है।

(लेखक चरैवेति पत्रिका के संपादक और मीडिया एक्टीविस्ट हैं)

भोली भाली जनता के दग़ाबाज़ ब्‍वाय फ्रेंड अन्‍ना हजारे और बाबा रामदेव

(मोकर्रम खान)
पिछले 16 महीनों से देश को भ्रष्‍टाचार मुक्‍त बनाने का दावा करने वाले अन्‍ना हजारे ने अचानक आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर दी. इससे देश के कई हजार लोगों के दिल टूटे. कुछ बुद्धिजीवी अपनी समस्‍त बौद्धिक शक्ति का उपयोग कर इस विषय पर अनुसंधान कर रहे हैं कि अन्‍ना हजारे ने आखिर किन परिस्थितियों से विवश हो कर अपना आंदोलन अचानक समाप्‍त कर दिया और टीम भंग कर दी. लाखों लोगों ने अन्‍ना और उनकी टीम को अपना मसीहा मान लिया था. इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन से लोगों ने यह मान लिया था कि देश से करप्‍शन की जल्‍दी ही फेयरवेल पार्टी होने वाली है.  राष्‍ट्र को भ्रष्‍टाचार के दलदल से निकालने का दावा करने वाले इन स्‍वयंभू जन लोकपालों ने भ्रष्‍टाचार उन्‍मूलन हेतु अपने प्राणों की आहुति देने का वचन दिया था किंतु कुछ ही दिनों में इनका साहस जवाब दे गया. भ्रष्‍टाचार से त्रस्‍त जनता के लिये यह गहरा आघात है. भ्रष्‍टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा करने वाले इन तथा कथित मसीहाओं  के पहले एक और मसीहा प्रगट हुये थे, बाबा रामदेव, जिन्‍होंने देश की जनता को इस रहस्‍य से अवगत कराया कि देश का 500 लाख करोड़ का काला धन विदेशों में जमा है, वे इस काले धन को स्‍वदेश वापस ला कर रहेंगे और जब इतना पैसा आ जायगा तो जनता को अगले 10 सालों तक कोई टैक्‍स नहीं देना पड़ेगा.  बाबा ने जनता को ऐसा सपना दिखाया था जो आज तक किसी बड़े से बड़े राजनेता  ने नहीं दिखाया था. लाखों लोग बाबा के समर्थन में खड़े हो गये.  उनके काला धन विरोधी ज्ञापन पर लगभग 1 करोड़ लोगों ने हस्‍ताक्षर किये थे. बाबा ने उत्‍साह में आ कर घोषणा कर दी कि वे काला धन वापस लाने हेतु अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे और दिल्‍ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठ गये किंतु मृत्‍यु को अंगीकार करना तो बहुत दूर की बात है, पुलिस के घुसते ही मैदान से भाग खड़े हुये, जान बचाने के लिये महिला के वेश में भागे. अब काला धन के विरुद्ध यदा-कदा हल्‍का फुल्‍का बयान दे देते हैं, मात्र औपचारिकता निभाने के लिये. बाबा रामदेव तथा अन्‍ना हजारे ने जनता को खूब सब्‍ज बाग दिखाये, जनता ने भी उनसे बड़ी आशायें बांध लीं.  बाबा रामदेव जहां भी जाते, उनके समर्थन में जन-सैलाब उमड़ पड़ता.  अन्‍ना हजारे के समर्थन में हजारों लोगों ने देश भर में रैलियां और मार्च निकाले. दिल्‍ली जैसे महानगर में जहां की व्‍यस्‍ततम जीवन शैली में लोग अपने परिवार को भी ठीक से समय नहीं दे पाते, हजारों लोग अपना समर्थन देने के लिये जंतर मंतर पर एकत्र हुये और मौसम की परवाह किये बगैर डटे रहे किंतु अन्‍ना ने अचानक आंदोलन ही समाप्‍त कर दिया. जनता अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रही है. बाबा रामदेव तथा अन्‍ना हजारे देश की भोली भाली जनता के ऐसे ब्‍वायफ्रेंड साबित हुये जो सीधी सादी लड़कियों को अपनी लच्‍छेदार बातों से प्रेम जाल में फांस कर उनका आर्थिक, मानसिक तथा दैहिक शोषण करते हैं, फिर धीरे से रफूचक्‍कर हो जाते हैं, लड़कियां अपने भाग्‍य को कोसती हुई रोती रह जाती हैं.  इसीलिये बुजुर्ग लोग लड़कियों को ब्‍वाय फ्रेंड के चक्‍कर से दूर रहने की सलाह देते हैं क्‍योंकि ब्‍वाय फ्रेंड धोखा देने के लिये ही होता है. उसकी बातें अफीम की तरह होती हैं जो थोड़ी देर के लिये सारे दुख दर्द भुला कर मीठी नींद में सुला देती हैं किंतु जब नशा उतरता है तो दर्द दोगुना हो कर उभरता है. ब्‍वाय फ्रेंड का साथ क्षणिक सुख देता है जिसकी अंतिम परिणिति विश्‍वासघात तथा अंतहीन दुख के रूप में होती है. पति थोड़ी धौंस बताता है, कभी प्रताडि़त भी करता है, ब्‍वाय फ्रेंड के मुकाबले कम प्‍यार दिखाता है, कभी बेवकूफ भी बनाता है किंतु पत्‍नी की सुरक्षा तथा संरक्षा (रोटी, कपड़ा, मकान, सौंदर्य प्रसाधन, चिकित्‍सा आदि) का आजीवन दायित्‍व निभाता है.  देश में शासन कर रहे राजनेता कुछ इसी प्रकार के पतियों की श्रेणी में आते हैं. कुछ ज्‍यादा भ्रष्‍ट हैं, कुछ कम, तो कुछ ईमानदार भी हैं.  यह भी कठोर सत्‍य है कि इतने भ्रष्‍टाचार और घोटालों के बावजूद देश उत्‍तरोत्‍तर प्रगति कर रहा है. साइंस, टेक्‍नोलाजी, डिफेंस, आईटी, हर क्षेत्र में विश्‍व की महाशक्तियां भी भारत का लोहा मानती हैं. यह बात अवश्‍य है कि यदि भ्रष्‍टाचार नहीं होता तथा लोग राष्‍ट्र के प्रति उतने ही समर्पित होते जितने जापान, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन आदि में हैं तो हम भी महाशक्तियों की कतार में खड़े होते. 
बात चल रही थी भोली भाली जनता के ब्‍वाय फ्रेंड्स के रूप में उभरे बाबा रामदेव तथा अन्‍ना हजारे की दगाबाजी की. तो, अभी तो जनता ने केवल इतना ही देखा है कि बाबा रामदेव ने 500 लाख करोड़ के काले धन तथा 10 सालों तक टैक्‍स फ्री लाइफ का दिवा स्‍वप्‍न दिखाया फिर गायब हो गये.  अन्‍ना हजारे ने देश को भ्रष्‍टाचार मुक्‍त करने का दावा किया फिर अचानक आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर दी और अपनी टीम भी भंग कर दी.  जब जनता को यह पता लगेगा कि इन दोनों तथा कथित अवतारों ने डेढ़ साल तक जनता को जो टीवी सीरियल दिखाया उसकी पटकथा के लेखक, निर्माता तथा प्रायोजक राजनेता ही थे, तो जनता को कितना सदमा पहुंचेगा.  प्रस्‍तुत है एक विश्‍लेषण जिससे यह अनुमान लगाने में आसानी होगी कि इस सीरियल के लेखक, निर्माता तथा प्रायोजक  कौन कौन थे. लगभग डेढ़ वर्ष पहले जब पेट्रोलियम तथा खाद्य पदार्थों की मंहगाई सुरसा का तरह बढ़ रही थी तब बाबा रामदेव अचानक योग की कोचिंग छोड़ काला धन की मशाल ले कर खड़े हो गये. हर तरफ 500 लाख करोड़ के काले धन का ऐसा हौवा खड़ा किया कि लोग पेट्रोल और खाने पीने की चीजों की मंहगाई को भूल कर बाबा रामदेव की मोनो-एक्टिंग देखने लगे जिसमें उन्‍हें आनंद आने लगा.  इसी आनंदमय माहौल में 5 राज्‍यों के विधान सभी चुनाव संपन्‍न हो गये. मंहगाई इन चुनावों में मुद्दा ही नहीं बन पाई जबकि खाद्य पदार्थों की मंहगाई एकमात्र ऐसा मुद्दा है जो सरकार बदलने की क्षमता रखता है. इतिहास गवाह है कि केवल प्‍याज महंगा हो जाने से सरकारें बदल गईं परंतु बाबा जी के आशीर्वाद से मंहगाई का मुद्दा नेपथ्‍य में चला गया.  बाबा जी का काम समाप्‍त हो गया था, अब उन्‍हें वापस अपनी कोचिंग संभाल लेनी चाहिये थी किंतु काला धन विरोधी मुहिम में उमड़े जन सैलाब को देख कर बाबा के मन मे भी राजनेता बनने की महत्‍वाकांक्षा उत्‍पन्‍न हो गई. संभवत: बाबा ने सोचा होगा कि योग का कार्यक्रम दिखाने के लिये तो टीवी चैनल वाले पैसे मांगते हैं,  नेता बन जायेंगे तो फ्री में टीवी पर दिखने लगेंगे. बाबा ने राजनीति में कूदने की घोषणा कर दी. कांग्रेस चाह रही थी कि बाबा अपनी राजनीतिक पार्टी लांच कर दें और उनकी देखा देखी कुछ हिंदू धर्म गुरु भी अपनी पार्टियां बना कर राजनीति के मैदान में कूद जायें. चूंकि बाबा रामदेव तथा अन्‍य हिंदू धर्माचार्य भगवा वस्‍त्र पहनते हैं इसलिये उन्‍हें कट्टर हिंदू वोट ही मिल सकेंगे जिसका नुकसान भाजपा को होगा क्‍योंकि भाजपा की वास्‍तविक शक्ति कट्टर हिंदू वोट बैंक ही है, यदि इसमें सेंध लग जाती है तो भाजपा धरातल पर आ जायगी. भाजपा नेताओं ने इस खतरे को भांप लिया. फौरन भाजपा तथा उसके अभिभावक आरएसएस के नेताओं ने बाबा रामदेव का समर्थन शुरू कर दिया ताकि यह लगे कि जितने भी भगवा वस्‍त्र धारी है सब भाजपा की ही संपत्ति हैं. किंतु इससे जनता में यह संदेश गया कि बाबा रामदेव भले ही अपने आप को धर्मनिरपेक्ष तथा नान एलाइंड प्रदर्शित करते हैं किंतु वे वास्‍तव में भाजपा तथा आरएसएस के आदमी हैं.  इससे बाबा के समर्थकों की संख्‍या में काफी कमी आ गई.  बाबा ने सोचा चलो खुद किंग नहीं बन सके तो क्‍या हुआ कम से कम भाजपा में किंगमेकर की भूमिका में तो रहेंगे.  यह देख कर कांग्रेस को डर हो गया कि अगर बाबा रामदेव ने अपनी पार्टी लांच करने के बजाय भाजपा के पक्ष में अपील कर दी तो भाजपा को काफी फायदा हो सकता है क्‍योंकि बाबा के समर्थक भी लाखों में हैं. उनके काला धन विरोधी ज्ञापन पर 50 लाख से अधिक लोगों ने हस्‍ताक्षर किये थे.  इन परिस्थितियों में कांग्रेस के पास बाबा की छीछालेदर करके उन्‍हें पूर्णत: डिफ्यूज कर देने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं था. पहले बाबा को समझाइश दी गई कि वे राजनीति से दूर रहें, अपनी योग की कोचिंग और दवाओं का व्‍यापार जिसका टर्न ओवर करोड़ों में है, देखें और देश विदेश में फैली अरबों रुपये की अचल संपत्ति संभालें.  लेकिन बाबा नहीं माने, अनशन पर बैठ गये. आधी रात के बाद पुलिस ने धावा बोला और लोगों को खदेड़ना शुरू किया. बाबा को डर हो गया कि इसी हुड़दंग में कोई उन्‍हें निपटा न दे इसलिये बाबा  अपनी जान बचाने के लिये औरतों के कपड़े पहन कर भागे. फिर भी अनशन नहीं तोड़ा.  दिल्‍ली, यूपी कहीं दो गज जमीन नहीं मिली तो उस समय भाजपा शासित उत्‍तराखंड में तंबू गाड़ दिया. कांग्रेस ने पूरी उपेक्षा बरती.  भाजपा ने कांग्रेस पर दबाव बनाने के प्रयास किये कि वह बाबा का अनशन तुड़वाने के लिये पहल करे किंतु कांग्रेस ने कोई भाव नहीं दिया.  बाबा की जान रामलीला मैदान में तो बच गई थी किंतु अनशन नहीं तोड़ते तो उत्‍तराखंड में अवश्‍य चली जाती इसलिये भाजपा ने धर्म गुरुओं की सहायता से उनका अनशन तुड़वाया क्‍योंकि भाजपा सीधे पिक्‍चर में नहीं आना चाहती थी ताकि बाबा नान-एलाइंड दिखते रहें. कुछ ही दिनों में बाबा की सेहत ठीक हो गई.  कांग्रेस भी उनकी सेहत की रिमोट मानीटरिंग कर रही थी.  उसे मालूम था कि चोट खाये बाबा फिर दहाड़ने का प्रयास करेंगे इसलिये बाबा तथा उनके सहयोगियों की कुंडलियां खंगालने के लिये इनकम टैक्‍स, ईडी, सीबीआई तथा विदेश मंत्रालय को लगा दिया गया.  बाबा की एक सहयोगी राजबाला जो रामलीला मैदान में घायल हो गई थीं, अस्‍पताल में इलाज के दौरान चल बसीं.  बाबा के निकटतम सहयोगी बालकृष्‍ण फर्जी पासपोर्ट मामले में जेल चले गये, बाबा के दवा व्‍यापार का करोड़ों का टर्न ओवर तथा देश विदेश में फैली अरबों की अचल संपत्ति सब उजागर हो गया. यह भी समाचार आया कि पतंजलि योग पीठ ने नेपाल में 700 रुपानिया जमीन रियायती दरों पर खरीदी थी किंतु बाद में उसका अधिकतर हिस्‍सा निजी व्‍यक्तियों तथा बिल्‍डरों को बेच दिया गया.  नेपाल सरकार ने इस पर जांच बिठा दी.  इन खुलासों के पहले लोग यह समझते थे कि लंगोटी धारी बाबा को किसी चीज का मोह नहीं है, वो दवायें नो प्राफिट-नो लास के सिद्धांत पर बेचते हैं, एक बार भोजन करते हैं, चल-अचल संपत्ति में उनकी कोई रुचि नहीं है, एक छोटी सी कुटिया में संत जीवन व्‍यतीत करते हैं. इन सारी बातों से बाबा की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जो उनका मनोबल तोड़ने के लिये पर्याप्‍त था. बाबा ने सरकार के विरुद्ध दहाड़ना बंद कर दिया.  कभी कभी औपचारिकता निभाने के लिये यह अवश्‍य कह देते हैं कि मेरा आंदोलन समाप्‍त नहीं हुआ है, जारी रहेगा.  वैसे बाबा के पास शांति से बैठने के अलावा कोई विकल्‍प भी नहीं है क्‍योंकि काला धन केवल एक दल के पास ही नहीं है, जो भी सत्‍ता में रहा है, चाहे केंद्र में अथवा राज्‍यों में, लगभग सभी ने काला धन बनाया है. बाबा विरोध करें भी तो किसका और कैसे.  कांग्रेस ने तो बाबा को चारों तरफ से घेर कर हालत पतली कर दी है.  भाजपा शाशित राज्‍यों में भी घोटालों की कमी नहीं है किंतु बाबा भाजपा के विरुद्ध कैसे बोलें उन्‍होंने तो उनके प्राण भी बचाये हैं और कुछ हद तक प्रतिष्‍ठा भी.
अब आइये सुपर मसीहा बने अन्‍ना हजारे पर. जब बाबा रामदेव का काला धन विरोधी आंदोलन भारी भीड़ खींच रहा था तथा बाबा राजनीति की सरिता में कूदने को आतुर थे, उसी समय अन्‍ना हजारे की अचानक एंट्री हुई, वे महाराष्‍ट्र से इंपोर्ट हो कर आये और सीधे जंतर मंतर पर बैठ गये और भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध निर्णायक युद्ध की घोषणा कर दी. अन्‍ना हजारे को उस समय तक दिल्‍ली तो दूर महाराष्‍ट्र में भी ज्‍यादा लोग नहीं जानते थे किंतु उनके अनशन पर बैठते ही उनके साथ समर्थको की अच्‍छी खासी तादाद हो गई. अल्‍प शिक्षित अन्‍ना के अधीन भूतपूर्व वरिष्‍ठ नौकरशाह, प्रख्‍यात वकील, न्‍यायविद, बुद्धिजीवी लोगों की एक पूरी फौज खड़ी हो गई. सोनिया गांधी जो अच्‍छे अच्‍छे धुरंधरों पर दृष्टिपात नहीं करतीं, अन्‍न के अनशन पर चिंता व्‍यक्‍त करने लगीं तथा उनसे अनशन तोड़ने की अपील करने लगीं.  भारत के विभिन्‍न शहरों में छोटी छोटी टीम अन्‍ना का गठन हो गया, विदेशों तक में अन्‍ना के समर्थन में जुलूस निकलने लगे. अन्‍ना का फोटो टाइम मैग्‍जीन तक पहुंच गया. निजी टीवी चैनलों ने अन्‍ना को इतना धुआंधार कवरेज दिया कि चारों तरफ अन्‍ना ही अन्‍ना दिखाई देने लगे. सरकार ने टीम अन्‍ना की मांग पर लोकपाल बिल के लिये ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर दिया. ड्राफ्टिंग का काम भी शुरू हो गया. अन्‍ना का शोर इतना ज्‍यादा हो गया कि बाबा रामदेव का काले धन का मुद्दा पाताल में चला गया और बाबा भी आउट आफ स्‍क्रीन हो गये. उसके बाद अन्‍ना के लोकपाल बिल और सरकार द्वारा तैयार किये गये बिल के बीच असमानतायें सामने आईं और सरकार तथा टीम अन्‍ना के बीच विवाद बढ़ा.  इस विवाद में टीम अन्‍ना ने अन्‍य दलों के नेताओं को भी लपेट लिया. सरकार ने अपना लोकपाल बिल संसद में पेश कर दिया. टीम अन्‍ना ने विरोध के स्‍वर तेज कर दिये और विपक्षी दलों से मदद मांगी किंतु राजनीतिक दलों ने सरकार का साथ दिया. परिणाम स्‍वरूप लोकपाल बिल हमेशा के लिये लटक गया. इस बिल को लटकाने या ठंडे बस्‍ते में डालने में सभी राजनीतिक दलों ने महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाईं. किसी ने बहाना बनाया कि सीबीआई को लोकपाल से बाहर रखा जाय, किसी ने लोकपाल में भी आरक्षण का पेंच फंसा दिया, किसी ने तृतीय तथा चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने की जिद पकड़ ली, किसी ने कहा कि न्‍यायपालिका पर शिकंजा कसना चाहिये तो किसी ने न्‍यायपालिका तथा सीबीआई को सरकारी नियंत्रण से मुक्‍त रखने की वकालत की. किसी ने खुल्‍लम खुल्‍ला विरोध किया तो किसी ने चुपके से. अन्‍ना हजारे के आंदोलन से सरकार को सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि सारे देश के सामने यह कलई खुल गई कि भ्रष्‍टाचार के पोषण में केवल सरकार/कांग्रेस के ही नेता शामिल नहीं हैं, सभी दलों के नेता एक ही जैसे हैं. जनता को यह संदेश भली भांति चला गया कि राजनेता सभी एक जैसे हैं चाहे वे किसी भी दल के हों, भ्रष्‍टाचार रोकने के उपायों के विरुद्ध सभी एकजुट हैं. जनता चाहे जिसे चुने परिस्थितियों में परिवर्तन नहीं आने वाला.
अन्‍ना हजारे बाबा रामदेव के एंटीडोट बन कर आये थे किंतु इतना बड़ा कारनामा दिखा कर गये. सभी राजनीतिक दलों को बेनकाब कर दिया. अब जनता जब वोट डालेगी तो उसे मंहगाई, काला धन और भ्रष्‍टाचार के मुद्दों से हट कर सोचना होगा क्‍योंकि इन मुद्दों पर तो सभी दल एक जैसे हैं. फिर बचता है, विकास का मुद्दा किंतु विकास के बड़े बड़े दावे तो सभी पार्टियां कर रही हैं.  भले ही विकास न करें किंतु विकास का चर्चा जोर शोर से करती हैं. इसलिये यह मुद्दा भी ज्‍यादा प्रभावी नहीं होगा. अंत में बचता है सांप्रदायिकता/धर्म निरपेक्षता का मुद्दा जिसमे भाजपा मार खा जाती है क्‍योंकि उसके अलावा बाकी सभी दल धर्मनिरपेक्षता का दावा करते हैं.  भाजपा चाह कर भी अपने आपको धर्म निरपेक्ष घोषित नहीं कर सकती क्‍योंकि जिस दिन ऐसा किया उसी दिन आरएसएस अपनी बैसाखी हटा लेगा. 
अंत में, अन्‍ना हजारे की वास्‍तविकता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उन्‍हें या उनकी टीम को न तो पुलिस ने छेड़ा, न ही सीबीआई, ईडी या इनकम टैक्‍स विभाग ने. प्राइवेट टीवी चैनल जो बगैर मोटी रकम लिये किसी को हाई लाइट नहीं करते, अन्‍ना हजारे को कैसे इतना ज्‍यादा कवरेज दिया. अन्‍ना के पास तो भूंजी भांग नहीं है, फिर इतना कवरेज बगैर किसी प्रायोजक या शासकीय दबाव के संभव ही नहीं है.  अब अन्‍ना हजारे का कार्य समाप्‍त हो गया है इसलिये उन्‍होंने शांति का मार्ग अपना लिया है. न आंदोलन चलायेंगे, न ही राजनीति करेंगे. किंतु अन्‍ना ने जिस ढंग से अचानक सन्‍यास की घोषणा कर दी उससे जनता को संदेह होने लगा कि हो न हो दाल में कुछ काला है. संभव है अन्‍ना के स्‍क्रीन से गायब होने के पीछे कोई पोलिटिकल गेम हो इसलिये बाबा रामदेव को फिर एक्टिव कर दिया गया है. अब बाबा रामदेव ने कालाधन तथा भ्रष्‍टाचार दोनों से एक साथ लड़ने की घोषणा कर दी है. इस बार सरकार की तरफ से कोई धमकी भी नहीं मिल रही है और टीवी चैनल बाबा के पीछे ऐसे दौड़ रहे हैं जैसे कोई महानायक आ गया हो. स्‍मरणीय है कि कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस ने बाबा को चुनाव लड़ने की सलाह दी थी तथा यह भी बताया था कि बालकृष्‍ण बाबा की काफी पोल पट्टी जानता है इसलिये उसकी जान को खतरा है, उसकी सुरक्षा बढ़ाई जाये. इसके फौरन बाद बाबा जी ने काला धन के साथ साथ भ्रष्‍टाचार मिटाने का भी ठेका ले लिया.  शायद बाबा ने बात मान ली क्‍योंकि अगर नही मानते तो उनके बारे में बालकृष्‍ण ऐसे ऐसे खुलासे करता जो स्‍वयं बाबा को भी मालूम नहीं होंगे किंतु उनकी जेल यात्रा का मार्ग अवश्‍य प्रशस्‍त करेंगे.  अब बाबा पहले अपना आंदोलन चलायेंगे फिर अपनी राजनीतिक पार्टी लांच कर देंगे, उनकी देखा देखी कुछ और बाबा राजनीति में कूद पड़ेंगे.  अगले लोकसभा चुनावों तक कई भगवा पार्टियां चुनाव मैदान में दिखाई पड़ेंगी और अच्‍छी खासी तादाद में हिंदू वोट काटेंगी.  नुकसान किसका होगा, केवल भाजपा का, जो अभी तक धार्मिक आधार पर ही टिकी हुई है किंतु जब  भगवा वस्‍त्र धारी धर्म गुरु स्‍वयं राजनीति के मैदान में होंगे तो हिंदू वोट किसे मिलेंगे उन्‍हें या भाजपा को.  कांग्रेस के लिये यह सबसे सुविधा जनक स्थिति होगी.
कुछ भी हो डेढ़ वर्ष से चल रहे बाबा रामदेव तथा अन्‍ना हजारे एपीसोड की पटकथा जिसने भी लिखी है उसकी बुद्धि की कुशाग्रता अद्वितीय है. अनुमान लगायें यह पटकथा लेखक कौन हो सकता है, शायद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह.


मोकर्रम खान, वरिष्‍ठ पत्रकार/राजनीतिक विश्‍लेषक
पूर्व निजी सचिव, केंद्रीय शहरी विकास राज्‍य मंत्री.
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