Saturday, December 10, 2011

अवैध उत्खनन मामले में उच्च स्तरीय जांच की जरूरत- ज्योतिरादित्य


अवैध उत्खनन मामले में उच्च स्तरीय जांच की जरूरत- ज्योतिरादित्य
भोपाल 10 दिसंबर 2011। केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी प्रदेश में अवैध उत्खनन पर राज्य सरकार को निशाने पर लिया है। श्री सिंधिया ने प्रदेश में हो रहे अवैध उत्खनन मामले में उच्च स्तरीय जांच की जरूरत बताई है। वहीं श्री सिंधिया ने आज मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से भी मुलाकात की।
श्री सिंधिया ने करीब पंद्रह मिनट तक मुख्यमंत्री से बातचीत की। श्री सिंधिया ने मीडिया से चर्चा में कहाकि ग्वालियर में प्रस्तावित दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रीयल कोरीडोर के निर्माण में जमीन की तंगी आड़े आ रही है। इसके लिए जमीन राज्य सरकार को मुहैया कराना है। इस महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर मुख्यमंत्री ने चर्चा के दौरान गंभीरता दिखाई है। साथ ही जल्द ही जमीन संबंधी समस्या का निराकरण करने का भरोसा दिलाया। इसके अलावा केंद्र की विभिन्न योजनाओं पर भी श्री सिंधिया ने मुख्यमंत्री से चर्चा की। श्री सिंधिया ने विकास कार्यों से जुड़ी योजनाओं में राज्य शासन की ओर से आ रही समस्याओं की ओर मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित किया है। श्री सिंधिया ने बताया कि लगभग सभी मुद्दों पर मुख्यमंत्री ने सकारात्मक रवैया दिखाया है। उम्मीद है कि विकास योजनाओं को जल्द ही गति मिलेगी।
हालांकि अवैध खुदाई को लेकर श्री सिंधिया ने तीखे तेवर दिखाए हैं। मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए श्री सिंधिया ने कहाकि यहां भी बेल्लारी से बड़ा खुदाई घोटाला चल रहा है। कई जिलों में अवैध उत्खनन हुआ है। इसकी उच्च स्तरीय जांच की जाना चाहिए। वहीं महंगाई पर श्री सिंधिया ने कहाकि यह अंतरराष्ट्रीय उथल-पुथल का नतीजा है। हालांकि हम इस पर काबू पाने का प्रयास कर रहे हैं। केंद्र शासन के प्रयासों के चलते महंगाई दर दस से घटकर करीब छह प्रतिशत पर आ गई है। इसके और नीचे आने की उम्मीद है।

भोपाल में दुनिया का सबसे बड़ा तब्लीगी इज्तिमा शुरू

भोपाल 10 दिसंबर 2011। सरजमीने भोपाल की पहचान यहां की मलिकाओं और मस्जिदों के बाद भोपाल के तब्लीगी इज्तेमा से है। 64 वर्ष पूर्व चंद अल्लाह के दीवानों ने दीन की गौर ओ फिक्र में भोपाल को चुना। उनके इखलास और नीयत की बदौलत आज पूरी दुनिया में दावत और दीन की हवाएं चल रही हैं। भोपाल की ताजुल मसाजिद के प्रांगण में 64 साल पूर्व एक जमात की कार्यकारिणी से आज पूरे विश्व में ताजुल मसाजिद के मीनारों की सदाएं गूंज रही हैं। इस जमात की विशेषता यह है कि इसके पास एक ऐसा फार्मूला है जिसकी बदौलत समाज में वो बदलाव आता है जो आज के संवैधानिक तौर-तरीकों से भी नामुमकिन है। दावत के जरिए बुजुर्गाने दीन के मुंह से निकली बात से बड़े-बड़े डाकू भी सब कुछ छोड़कर राहे दीन में उतर आए वहीं यूरोपीय और एशिया के अनेक मुल्कों में लोग ईमान से सरफराज हो गए और यह सिलसिला निरंतर जारी है। इस जमात की एक और विशेषता यह है कि इस जमात का हर कार्यकर्ता वही अहमियत रखता है जो कि आला जमाती रखता है। इसमें दिखावा और राजनीतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश तो बहुत दूर उसका छींटा भी नजर नहीं आता। पूरा कार्य नीयत और अमल पर है। इस्लामी देशों में सऊदी अरब, ईरान, इराक, इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे मुल्क भी इस बात का लोहा मानते हैं कि भारत में भोपाल एक ऐसा शहर है जहां पर दीन का सरचश्मा बह रहा है।

Monday, December 5, 2011

संपादक हो गये सौमित्र जी


संपादक हो गये सौमित्र जीBy संजअनिल सौमित्र जब भी मुझे मिलते हैं मैं हमेशा उन्हें कहता हूं- अनिल जी के सौ मित्र, उसमें से एक मैं भी हूं. सौमित्र का संधि विच्छेद करके जो विशेषण निकलता है वे उस विशेषण के बिल्कुल अनुरूप हैं. सौम्य हैं. शांत हैं. और मित्र तो ऐसे बनाते हैं जैसे कोई चना चबैना हो. आसान सफर हो या मुश्किल डगर, जैसे चना चबैना सबसे सस्ता और सुमग होता है वैसे ही अपने अनिल सौमित्र सबके लिए सुगम हैं. यही अनिल सौमित्र अब संपादक हो गये हैं.

पिछले तीन चार सालों में विस्फोट ने जो कुनबा तैयार किया है उसमें अनिल सौमित्र का आगमन भी अपने आप ही होता है. ठीक ठीक याद नहीं कि कैसे संपर्क हुआ लेकिन शुरूआत फोन से हुई. अनिल सौमित्र वैसे तो रहते भोपाल में हैं लेकिन पढ़ाई लिखाई दिल्ली से की है. पढ़ाई भी कौन सी. वही पत्रकारिता वाली. दिल्ली के दक्खिन में जो देश का सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारिता विद्यालय है उसी इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मास कम्युनिकेशन से अनिल सौमित्र ने भी पत्रकारिता पढ़ी है. पत्रकारिता पढ़े और दिल्ली में कुछ दिन दौड़े भी. कोशिश की कि डिग्री दीवार पर टांगने से अच्छा है किसी अखबार के दफ्तर में दिखा दी जाए और कुछ सैलेरी वैलरी वाली नौकरी कर ली जाए. लेकिन कोशिश कामयाब हो यह जरूरी तो नहीं होता है. पत्रकारिता में नौकरी होने के लिए ढेर सारे संयोगों का होना जरूरी होता है. इन समस्त संयोगों में नैतिकता का नाश, जी हुजुरी का विलास और स्वामिभक्ति का मोहपाश तो दिखना ही चाहिए. अनिल जी कुछ कच्चे थे इसलिए न नौकरी मिली न पत्रकारिता हुई.

तो, दिल्ली छोड़ भोपाल की ओर दौड़ गये. इधर अब जबकि मैं उनके सौ मित्रों में शामिल हूं तो एक दफा मैंने पूछा आप भोपाल क्यों गये तो कारण उन्होंने वह नहीं बताया जो हम आंकलन कर रहे हैं. उन्होंने जो कारण बताया वहीं से हम अनिल जी को समझने की कोशिश भी कर सकते हैं. उन्होंने कहा कि दिल्ली बहुत बड़ा शहर है. यहां का भीमकाय रूप और भागभाग की जिन्दगी दोनों यहां से दूर जाने के लिए मजबूर करती हैं. बिहार से दिल्ली होते हुए अब वे पूरे भोपाली हो चले हैं. बातचीत में बार बार मालवा की बोली हौ हौ भी बोलते हैं जिससे लगता है कि हम सचमुच किसी भोपाली से ही बात कर रहे हैं. भोपाल में उन्होंने जाकर नौकरी कर ली हो ऐसी बात भी नहीं है. लेकिन पत्रकारिता और एक खास विचारधारा की पक्षधरता उन्होंने जारी रखी.
खास विचारधारा की पक्षधरता इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आरएसएस जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहते हैं उसकी शाखाओं से निकले पत्रकार अक्सर अपनी पहचान छुपाते हैं. ऐसा वे क्यों करते हैं पता नहीं. हो सकता है वे पत्रकारिता में छापामार बनकर काम करना चाहते हों या ये भी हो सकता है कि उन्हें अपनी ही विचारधारा पर अविश्वास हो इसलिए पहचान छुपाते हैं. अनिल सौमित्र ऐसे नहीं है. लंबे समय तक उन्होंने आरएसएस के पत्रकारिता विभाग विश्व संवाद केन्द्र के लिए काम किया और इसे अपनी पहचान भी बनाया. वे जानते थे कि इस पहचान के कारण तथाकथित मुख्य धारा की पत्रकारिता के आंगन में पेड़ लगाना मुश्किल होगा लेकिन मानों वे अपनी विचारधारा के गमले में ही खुश थे. उन्हें गमले से निकलकर विस्तार पाने की ऐसी छद्म लालसा कभी नहीं रही है जिसमें विचारधारा का संकट पैदा होता हो. उन्हें यह बताने में हमेशा खुशी होती है कि वे राष्ट्रवादी विचारधारा के पत्रकार हैं.

लेकिन इस राष्ट्रवादी विचारधारा के बीच भी कोई लकीर के फकीर नहीं हैं. वे अपने परिचय में हमेशा एक लाइन जोड़ते हैं कि वे मीडिया एक्टिविस्ट हैं. आरएसएस की विचारधारा के बीच रहते हुए मीडिया एक्टिविज्म को प्रासंगिक रख पाना उनके मुखर स्वभाव का ही परिणाम है. इसी एक्टिविज्म को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भोपाल में सामाजिक और राजनीतिक संपर्कों की एक लंबी श्रृंखला निर्मित कर रखी है. अगर आप अनिल सौमित्र की इस श्रृंखला में प्रवेश करेंगे तो पायेंगे कि माला की तरह हर मनके के बाद सौमित्र जी सूत की तरह मौजूद रहते हैं. उनका सौम्य स्वभाव उनको प्रासंगिक बनाये रखता है और कई बार गधा, घोड़ा खच्चर भी बना देता है. जो आता है, चार काम लाद कर चला जाता है. लेकिन अनिल सौमित्र ने कभी किसी को ना नहीं किया. लिखने पढ़ने और परिवार में पूरा समय देने के बाद भी लोगों के लिए लगातार काम करते रहना उनकी खासियत है.

यही अनिल सौमित्र अब संपादक हो गये हैं. मध्य प्रदेश में भाजपा की पत्रिका चरैवेति के. बताते हैं कि पत्रिका करीब पैंसठ हजार छपती है और भाजपा कैडर तथा कार्यकर्ताओं के वैचारिक स्तर पर संपर्क बनाये रखने का सशक्त माध्यम है. लेकिन जितना हम अनिल जी को जानते समझते हैं हम उम्मीद कर सकते हैं कि संपादक होने के बाद भी उनका एक्टिविज्म जारी रहेगा जिसका फायदा किसी को हो न हो कम से उस विचारधारा और उस पत्रिका को जरूर होगा जो अब उनका अगला काम है.
य तिवारी

Sunday, October 30, 2011

जनसंवेदना ने अध्यात्मिक साधिका का किया अपमान, भक्त करेगें मानहानी का दावा

जनसंवेदना ने अध्यात्मिक साधिका का किया अपमान, भक्त करेगें मानहानी का दावा
भोपाल 30 अक्टूबर 2011। भोपाल में अपने आप को समाज सेवा को समर्पित कही जानी वाली संस्था जनसंवेदना ने 10 अक्टूबर को भोपाल में अध्यात्मिक साधिका सुश्री तनुजा ठाकुर को भोपाल में दो दिन के लिए आमंत्रित किया और रविन्द्र भवन में उन के प्रवचन करवायें और इसी कार्यक्रम की आड़ में चंदा उगाही करी साधिका सुश्री तनुजा ठाकुर के भक्तों एवं उन के फेसबुक मित्रों के यहां जाकर जनसंवेदना के संचालक अघ्यक्ष ने जाकर जनसंवेदना के माध्यम से पैसे मांगे और इस हेतू सभी समाचार पत्रों में विज्ञापन और पत्रकारवार्ता बुला कर इसका उल्लेख करते हुए संस्था के लिए एक गाड़ी जरूरी है कह कर भी चंदा मांगा और उस प्रवचन में लोगों को बुलाने का इंतज़ाम तक नहीं किया गया। वहीं 'अतिथि देवों भवः' की परम्परा निभाते के नाम पर साधिका सुश्री तनुजा ठाकुर को उन्हें ऐसी जगह ठहराया गया जो अनके लोगों को पसंद नहीं आया जहां पानी तक का सही बंदोबस्त नहीं किया गया। प्रवचन के उपरांत दक्षिणा तो दूर जन संवेदना पत्रिका में उन्हें एक साधिका के स्थान पर अध्यात्मिक व्यवसायी लिख कर संबोधित किया गया। अब जब संस्था को गाड़ी मिल गई जो सुश्री तनुजा ठाकुर के हाथों की संस्था के अध्यक्ष ने ग्रहण की, यह 5.50 लाख की गाड़ी एक सांसद ने सांसद निधि से दी है। इस के बाद जैसे अपना उल्लू मानों सीधा हो गया फिर क्या था जनसंवेदना जैसे संवेदनहीन हो गई और सुश्री तनुजा ठाकुर को भोपाल में अपमानित करने के बाद फेस बुक पर भला बुरा कहना शुरू कर दिया। सुश्री तनुजा ठाकुर के फेसबुक मित्रों एवं भारतवर्ष में फैले उन के भक्तों ने जन संवेदना संस्था के अध्यक्ष सहित सभी पद अधिकारियों पर मानहानि का दांवा ठोकने का मन बना लिया है, उन का कहना है की भले ही हमारी दीदी तनुजा ठाकुर ने माफ कर दिया हो पर हम अपने गुरू का अपमान सहन नहीं करेगें। जनसंवेदना जैसी संस्था जो लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार के नाम पर चंदा उगाही कर संस्था की आड़ में जमीन, गाड़ीया और भवन निर्माण कर रही है ऐसे लोगों के खिलाफ कार्यवाही तो होनी चाहिए और उन का बेनकाब होना जरूरी है।

Saturday, October 29, 2011

Can our slain RTI activists ever get justice?


Shehla Masood, the RTI activist from Madhya Pradesh who was shot and killed recently, joined the unfortunate list of seventeen other known cases of RTI activists who have suffered the same fate over the last couple of years. According to a close associate of Shehla, she filed more than one thousand RTI applications in diverse areas ranging from the judiciary, the tendering process, the enforcement of Wildlife and Forest laws, heritage conservation, the lavish spending of public money, and human rights abuses. Quite understandably, she had accumulated a host of enemies across a broad range of departments until some vested interests decided it was time to snuff out this passionate and committed voice forever. Shehla Masood is not an isolated case. Such executions have been taking place every few months with almost predictable precision: Firebrand activist files several RTI applications, becomes a threat to those in power, gets killed by unknown assailants who are never traced.

How many more of our young men and women who have dedicated their lives to public service should we lose before we choose to take notice? Today, thanks to the Right to Information Act, citizens have the right to seek information from the government. But what use is it if those among us who care enough to file these applications are routinely targeted and eliminated by their enemies? “Great work! But do it at your own risk, good luck to you!” is the message we are sending to those with similar drive and motivation. Can’t we do better? Can we at least ensure that those who wish to reform the system or serve the country don’t have to fear for their lives?

The recent anti-corruption movement in India witnessed so many young people shed their apathy and come forward to join a mass movement. These young men and women stepped up to the plate not because they adored Anna. Team Anna was only a catalyst for action. The people who actively participated in the movement did it for themselves and for their future generations. They believed that by participating they could actually make a difference. The dream of a corruption-free India resonated with them, and inspired and motivated them to act. For the first time since Independence the youth of our country displayed that they could think beyond themselves and actively engage in critical civic discourse. As a nation, we need to nurture and build upon this momentum and ensure that this interest is sustained and does not turn out to be a one-time effort. We owe it to them and to future generations to implement tough laws that protect whistle blowers.

A good place to start would be to ensure that justice is served in the case of Shehla Masood and other similar victims. But is our political class capable of this? Without a truly independent investigative agency can justice be served? Given the track record of our past investigations, what confidence, if any, can one have that the CBI investigation will lead to anything at all?

It all circles back to our politics, our democracy and our elected representatives. We have a democratically elected Ruling Party which appears to be leaderless and an Opposition that is grappling to remain relevant. We have investigative agencies that are merely puppets at the beck and call of those in power. We have a judicial system that seems incapable of speedy delivery of justice. To top it all, we don’t have strong laws to nail the criminals.

Every time a murder of this kind occurs, it remains in the media eye for a couple of months and then vanishes almost completely from public attention. The family is left to deal with the irreparable loss and the criminals go scot-free.

If surveys are to be trusted, the Congress is on the decline and the BJP is on the ascent. But at the end of the day these two parties are no different from each other, while the rest are inconsequential. The reality is that RTI activists are at risk no matter which party is in power. Corruption is deeply ingrained in the DNA of all our parties. There are no easy answers to this predicament, but the sooner we realize that all our political options are equally horrific, the faster we will coalesce towards a solution. In the meantime tough laws (a.k.a Jan Lokpal bill) are our best bet and hope, and a baby step towards curtailing corruption and ensuring justice. Until such time, it is highly unlikely that the unfortunate victims among us will ever receive justice.

Author
Pran Kurup
(A blogger at Economic Times)
Twitter : www.twitter.com/pkurup
Facebook : www.facebook.com/pran.kurup



About the Author



Mr. Pran Kurup
Pran Kurup graduated from IIT Kharagpur in 1989. He is Founder, President and CEO of Vitalect, an e-learning company, providing online training and learning solutions to create and manage online content. Pran is also actively involved in social activities. He co-founded the alumni Web site of IIT Kharagpur, is member of The Indus Entrepreneurs (TiE) and previously served as the Chairman of the Silicon Valley Indian Professionals Association (SIPA).

Tuesday, October 25, 2011

कीर आदिवासी समाज द्वारा दीपावली पर्व पर किया जाता है पितरों को तर्पण


राजेंद्र कश्यप, दीपक शर्मा द्वारा)
दीपावली पर्व सारे देश में विभिन्न मान्यताओं के साथ मनाया जाता है। कीर आदिवासी राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में बहुलता से निवासी करते हैं। कार्तिक अमावस्या के दिन प्रात:काल से समाज के स्त्री, पुरूष और बच्चे निवास के पास के नदी या तालाब के पास पहुंच कर स्नान कर नए रंगबिरंगे वस्त्र पहनते हैं, और उपवास रख़ते हुए नदी के किनारे ही शु़द्धतापूर्वक भोजन बनाकर सूर्य अस्त होने के पूर्व ही अपने पितरों को जल धूप नारियल प्रसाद अग्नि में अर्पित करते हैं। कीर आदिवासियों की मान्यता है कि केवल इस दिन ही हमारे पूर्वजों की आत्माएं पृथ्वी पर आकर होम ग्रहण करती है। शाम होने पर नदी किनारे और अपने घरों पर श्रद्धापूर्वक दिए जलाते है। जिसकी रोशनी देख पितरों की पवित्र आत्माएं पृथ्वी पर आकर उस होम को ग्रहण कर लें। पितरों के होम के पूर्व गोरा और महादेव की पूजा अर्चना कर गीत गाए जाते हैं।
कीर समाज की मुख्य भूमि राजस्थान है वहीं से मुगलों कर लड़ते -लड़ते उत्तर प्रदेश, राजस्थान गुजरात और मध्यप्रदेश की नदियों और तालाब के किनारे बसते गए। मध्य प्रदेश में भूपाल राज्य में मुख्यत: निवास करते रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति डा0 शंकर दयाल शर्मा ने भोजपुर मिंदर के पास कीर समाज के निवासियों के टीले के बीच एक स्तंभ का शिलान्यास वर्षों पूर्व किया था।
कीर समाज के बुजुर्गों की मान्यता है कि शिवशक्ति का केंद्र भोजपुर मंदिर की रक्षा करने के लिए हजारों वर्षों से हम इसके पास के गांवों में रहते रहे हैं। हमेशा भोजपुर की रक्षा करते रहेंगे।
कीर समाज के लोग किसी भी प्रदेश में रहे उनकी भाषा में आज भी राजस्थानी पुट रहता है। स्त्रियों की वेशभूषा राजस्थानी रहती है। कार्तिक अमावस्या को पितरों को होम देकर संकल्प करते हैं कि प्रत्येक परिस्थितियों में अपना गांव नदी तालाब के किनारे की जलीय खेती, तरबूज, खरबूज, सिंघाड़ा आदि सब्जियों का उत्पादन बढ़ाकर अपने व्यवस्था की रक्षा और समृद्धि करते हुए शिव मंदिरों की रक्षा करते रहेंगे।
इस अवसर पर कुल देवताओं और पितरों की मनौती पूरी करना और घर परिवार के साथ गांव क्षेत्र की खुशहाली तथा समृद्धि की तमन्ना के साथ ही अपने पशुओं की रक्षा की प्राथना होती है। अपनी अनूठी परंपरानुसार दीपावली पर्व पितरों के होम तर्पण के रूप में पूर्ण श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन सांडनी की पूजा विशेष रूप से की जाती है, जिस पर बैठकर ही कीर समाज का दूल्हा बारात लेकर जाता है। कई वर्षों पूर्व भोजपुर के पास कीर नगर नामक गांव इसी आदिवासी समाज द्वारा बसाया गया है।

Date: 25-10-2011

program

Monday, October 24, 2011

कीर आदिवासी समाज द्वारा दीपावली पर्व पर पितरों को तर्पण किया जाता है।

कीर आदिवासी समाज द्वारा दीपावली पर्व पर पितरों को तर्पण किया जाता है।
(राजेंद्र कश्यप,दीपक शर्मा द्वारा)


दीपावली पर्व सारे देश में विभिन्न मान्यताओं के साथ मनाया जाता है। कीर आदिवासी राजस्थान, गुजरात ,उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में बहुलता से निवासी करते हैं। कार्तिक अमावस्या के दिन प्रात:काल से समाज के स्त्री ,पुरूष और बच्चे निवास के पास के नदी या तालाब के पास पहुंच कर स्नान कर नए रंगबिरंगे वस्त्र पहनते हैं,और उपवास रख़ते हुए नदी के किनारे ही शु़द्धतापूर्वक भोजन बनाकर सूर्य अस्त होने के पूर्व ही अपने पितरों को जल धूप नारियल प्रसाद अग्नि में अर्पित करते हैं। कीर आदिवासियों की मान्यता है कि केवल इस दिन ही हमारे पूर्वजों की आत्माएं पृथ्वी पर आकर होम ग्रहण करती है। शाम होने पर नदी किनारे और अपने घरों पर श्रद्धापूर्वक दिए जलाते है। जिसकी रोशनी देख पितरों की पवित्र आत्माएं पृथ्वी पर आकर उस होम को ग्रहण कर लें। पितरों के होम के पूर्व गोरा और महादेव की पूजा अर्चना कर गीत गाए जाते हैं।

कीर समाज की मुख्य भूमि राजस्थान है वहीं से मुगलों कर लड़ते -लड़ते उत्तर प्रदेश,राजस्थान गुजरात और मध्यप्रदेश की नदियों और तालाब के किनारे बसते गए। मध्य प्रदेश में भूपाल राज्य में मुख्यत: निवास करते रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति डा0 शंकर दयाल शर्मा ने भोजपुर मिंदर के पास कीर समाज के निवासियों के टीले के बीच एक स्तंभ का शिलान्यास वषाzें पूर्व किया था। कीर समाज के बुजुर्गों की मान्यता है कि शिवशक्ति का केंद्र भोजपुर मंदिर की रक्षा करने के लिए हजारों वषोzं से हम इसके पास के गांवों में रहते रहे हैं। हमेशा भोजपुूर की रक्षा करते रहेंगे।

कीर समाज के लोग किसी भी प्रदेश में रहे उनकी भाषा में आज भी राजस्थानी पुट रहता है। स्त्रियों की वेशभूषा राजस्थानी रहती है। कार्तिक अमावस्या को पितरों को होम देकर संकल्प करते हैं कि प्रत्येक परिस्थितियों में अपना गांव नदी तालाब के किनारे की जलीय खेती, तरबूज,खरबूज,सिंघाड़ा आदि सब्जियों का उत्पादन बढ़ाकर अपने व्यवस्था की रक्षा और समृद्धि करते हुए शिव मंदिरों की रक्षा करते रहेंगे।

इस अवसर पर कुल देवताओं और पितरों की मनौती पूरी करना और घर परिवार के साथ गांव क्षेत्र की खुशहाली तथा समृद्धि की तमन्ना के साथ ही अपने पशुओं की रक्षा की प्राथना होती है। अपनी अनूठी परंपरानुसार दीपावली पर्व पितरों के होम तर्पण के रूप में पूर्ण श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन सांडनी की पूजा विशेष रूप से की जाती है, जिस पर बैठकर ही कीर समाज का दूल्हा बारात लेकर जाता है। कई वषोzं पूर्व भोजपुर के पास कीर नगर नामक गांव इसी आदिवासी समाज द्वारा बसाया गया है।
www.eklavyashakti@gmail.com

Wednesday, October 5, 2011

Tuesday, August 23, 2011

कश्मीर हिन्दूओं का मेरा नहीं ?

कश्मीर हिन्दूओं का मेरा नहीं ?

राष्ट्रीय एकता समिति के तत्वावधान में 'कश्मीर : समस्या और समाधान' विषय पर आयोजित संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए सेवानिवृत्त

Helena Paparizou

Monday, August 22, 2011

पत्रकार निर्मल पचौरी 23 अगस्त से जनसंपर्क संचालनालय के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठेंगे।

भोपाल। पत्रकारों की समस्याओं को लेकर पत्रकार निर्मल पचौरी 23 अगस्त से जनसंपर्क संचालनालय के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठेंगे। राजधानी में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में निर्मल पचौरी ने बताया कि पत्रकारों की अनेकों समस्याएं हैं। उन्होंने प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों एवं प्रेस फोटोग्राफर, कैमरामेनों से अपील की है कि 23 अगस्त की प्रात: 10 बजे से 3 बजे तक प्रतिदिन होने वाले अनिश्चितकालीन धरना स्थल पर आकर वहां रखे रजिस्टर में अपनी समस्याएं लिखे, इन समस्याओं के समाधान के लिए एक समिति द्वारा निर्णय करने के बाद उसको मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान तथा जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को ज्ञापन के रूप में सौंपा जाएगा। श्री पचौरी ने बताया कि लगभग 16 साल पहले पत्रकारों ने जन संपर्क संचालनालय के सामने धरना दिया था। उन्होंने पत्रकारों से संबंधित संगठनों के पदाधिकारियों से अपील की है कि सभी पत्रकारों के हित में एकत्र होकर सहयोग एवं समर्थन दे। इस अवसर पर उपस्थित जनसंवेदना पत्रिका के संपादक आर.एस. अग्रवाल ने बताया कि धरना दे रहे पत्रकार साथियों के लिए प्रतिदिन दोपहर एक बजे जनसंवेदना की ओर से भोजन व्यवस्था की गई है। पत्रकारों को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार आदित्य नारायण उपाध्याय ने कहा कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा द्वारा पत्रकारों के हित में किए जा रहे प्रयासों को धता बताकर जनसपंर्क संचालनालय के अधिकारियों एवं कर्मचारियों द्वारा पत्रकार विरोधी कार्य किए जा रहे हैं। जनसंपर्क विभाग भ्रष्टाचार का मुख्य अड्डा बन गया है। जहां चेहरे देखकर और कमीशन लेकर विज्ञापन आर्डर जारी किए जाते हैं। वहीं विज्ञापन देने, अधिमान्यता तथा मेडिकल सहायता देने में भी भेदभाव किया जा रहा है। श्री उपाध्याय ने कहा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने निवास पर अन्य पंचायतों की तर्ज पर पत्रकार पंचायत का आयोजन करें, ताकि पत्रकार अपनी समस्याओं से उन्हें अवगत करा सकें।
पत्रकारों एवं फोटोग्राफरों की प्रमुख मांगें
़़1-मुख्यमंत्री और जन संपर्क मंत्री के निर्देशों एवं आदेशों का अवहेलना करने वाले जन संपर्क विभाग के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
2-पत्रकारों की हत्या और कातिलाना हमला करने वालों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई होना चाहिए तथा पत्रकारों की जानमाल की सुरक्षा के लिए कड़ा कानून बनाना चाहिए।
3-जन संपर्क विभाग द्वारा समाचार पत्र-पत्रिकाओं तथा न्यूज चैनलों को जारी होने वाले विज्ञापनों की सूची प्रतिदिन डिस्प्ले होना चाहिए।
4-समाचार पत्र-पत्रिकाओं को दिए जाने वाले विज्ञापनों में एकरूपता होनी चाहिए।
5-भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुके जनसंपर्क संचालनालय मेें भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए।
6-पत्रकारों के लिए पेंशन योजना शीघ्र लागू की जाए तथा आर्थिक सहायता तत्काल उपलब्ध कराई जाए।
7-अधिमान्यता समिति, आर्थिक सहायता समिति, विधानसभा में पत्रकार दीर्घा समिति के सदस्यों का प्रतिवर्ष पुनर्गठन होना चाहिए।
8- जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों द्वारा अपनी पत्नी व बच्चों के नाम से निकाली जा रही पत्र-पत्रिकाओं के लिए दिए जाने वाले विज्ञापन तत्काल बंद किए जाए।
9-आपराधिक छवि के तथा सजायाफ्ता पत्रकारों की अधिमान्यता रद्द की जाए।
10-कवरेज के दौरान प्रेस फोटोग्राफरों तथा कैमरामेनों के कैमरे के साथ हुई क्षति का तत्काल मुआवजा दिया जाए।
11-बीस-पच्चीस कॉपी छाप कर पत्रकार बनने वाले लोगों के विज्ञापन पर रोक लगाई जाए। ऑल्टर अखबारों के विज्ञापन बंद किए जाए।
12-प्रसार संख्या के लिए सीए प्रमाण पत्र के साथ समाचार प्रिटिंग प्रेस का बिल लगाना अनिवार्य किया जाए। सीए प्रमाण पत्र तथा प्रिटिंग प्रेस की छपाई के बिल में अंतर होने पर धारा 420 के तहत प्रकरण दर्ज कराया जाए।
13-आठ पृष्ठ के समाचार पत्र में अंतिम पृष्ठ पर कलर विज्ञापन, कलर फोटो कॉपी से तथा सात पृष्ठ ब्लेक एंड व्हाइट छपवाने वाले अखबारों के विज्ञापन बंद किए जाए तथा उनके खिलाफ धोखाधड़ी का प्रकरण दर्ज कराया जाए।
14-समाचार पत्र-पत्रिका छापने वाले प्रिंटिग संस्थानों की मशीनों की प्रिंटिग क्षमताओं का प्रमाण पत्र लिया जाए। उनके संस्थानों में छपने वाले पत्र-पत्रिकाओं की सूची प्रतिमाह ली जाए।
15-पत्रकारों के नाम पर बनी गृह निर्माण समितियों के क्रियाकलापों की जांच की जाए। पत्रकारों के नाम पर गैर पत्रकारों को प्लॉट आवंटन एवं सदस्य बनाने की जांच कर उसकी सदस्यता निरस्त की जाए।
16-गृह निर्माण समितियों में धोखाधड़ी करने वाले पदाधिकारियों तथा शपथ पत्र में गलत जानकारी देने वाले सदस्यों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण कायम किए जाए।
17-वास्तविक पत्रकारों को गृह निर्माण समिति का सदस्य बनाया जाए और पत्रकार गृह निर्माण समितियों का व्यावसायीकरण बंद किया जाए।
18-जिन पत्रकारों के भोपाल अथवा अन्य शहरों में स्वयं के निजी मकान है, उनसे शासकीय आवास खाली कराए जाए।
19-पत्रकारों के नाम पर कथित लोगों को आवंटित शासकीय आवास खाली कराए जाए।
20-पत्रकार और उनके परिजनों द्वारा शासकीय आवास में चलाई जा रही व्यापारिक गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। व्यापारिक गतिविधियां चलाने वाले पत्रकारों के शासकीय आवास खाली कराए जाए।
21-मुख्यमंत्री निवास पर प्रति वर्ष एक बार पत्रकार पंचायत बुलाई जाए।

Saturday, August 20, 2011

Thursday, August 18, 2011

शेहला मसूद हत्याकांड में मुख्यमंत्री द्वारा सी.बी.आई. जाँच की कार्रवाई के निर्देश


शेहला मसूद हत्याकांड में मुख्यमंत्री द्वारा सी.बी.आई. जाँच की कार्रवाई के निर्देश
भोपाल 18 अगस्त 2011। सुश्री शहला मसूद हत्याकांड की जाँच सी.बी.आई. से करवाने के लिये केन्द्र सरकार से अनुरोध किया जायेगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस संबंध में गृह विभाग को निर्देश दिये हैं।
ज्ञात रहे कि सुश्री शेहला मसूद के परिजनों ने इस संबंध में सी.बी.आई. जाँच के लिये पुलिस महानिदेशक से मिलकर अनुरोध किया था। राजधानी भोपाल में दो दिन पहले आरटीआई कार्यकर्ता व अन्ना हजारे की समर्थक शेहला मसूद की हत्या गोली मारकर की गई थी। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर दोषियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने की मांग की थी। कांग्रेस की राज्य इकाई ने भी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से इस मामले की जांच कराने की मांग की है।
सामाजिक कार्यकर्ता शेहला की हत्या के दो दिन गुजर जाने के बाद भी पुलिस किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है तथा उनके परिजन भी पुलिस की कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं।
शेहला हत्याकांड को लेकर रमेश ने शिवराज को एक पत्र लिखा भी लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा है कि शेहला वन्य प्राणियों के संरक्षण का काम कर रही थी। उन्होंने बांधवगढ़ व पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की कम होती संख्या पर भी सवाल उठाए थे। पत्र के माध्यम से जयराम रमेश ने शेहला के कातिलों को जल्द से जल्द पकड़ने का अनुरोध किया है।
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि शेहला के कार्य से बड़ी संख्या में नेता व प्रशासनिक अधिकारी प्रभावित हो रहे थे, ऐसी स्थिति में राज्य की एजेंसी से निष्पक्ष जांच नहीं कराई जा सकती लिहाजा इसकी जांच सीबीआई से कराई जाए।
पुलिस ने अपने स्तर पर भी जांच शुरू कर दी है। फोरेंसिक विशेषज्ञों ने भी घटनास्थल का जायजा लिया। फोरेंसिक विभाग के निदेशक ओ. पी. श्रीवास्तव ने बताया कि हत्याकांड का वैज्ञानिक तौर पर परीक्षण किया जा रहा है। बताया गया है कि शेहला ने अपनी हत्या की आशंका जताते हुए पुलिस अधिकारियों से इसकी शिकायत भी की थी।
Date: 18-08-2011

शेहला मसूद हत्याकांड में मुख्यमंत्री द्वारा सी.बी.आई. जाँच की कार्रवाई के निर्देश


शेहला मसूद हत्याकांड में मुख्यमंत्री द्वारा सी.बी.आई. जाँच की कार्रवाई के निर्देश
भोपाल 18 अगस्त 2011। सुश्री शहला मसूद हत्याकांड की जाँच सी.बी.आई. से करवाने के लिये केन्द्र सरकार से अनुरोध किया जायेगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस संबंध में गृह विभाग को निर्देश दिये हैं।
ज्ञात रहे कि सुश्री शेहला मसूद के परिजनों ने इस संबंध में सी.बी.आई. जाँच के लिये पुलिस महानिदेशक से मिलकर अनुरोध किया था। राजधानी भोपाल में दो दिन पहले आरटीआई कार्यकर्ता व अन्ना हजारे की समर्थक शेहला मसूद की हत्या गोली मारकर की गई थी। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर दोषियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने की मांग की थी। कांग्रेस की राज्य इकाई ने भी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से इस मामले की जांच कराने की मांग की है।
सामाजिक कार्यकर्ता शेहला की हत्या के दो दिन गुजर जाने के बाद भी पुलिस किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है तथा उनके परिजन भी पुलिस की कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं।
शेहला हत्याकांड को लेकर रमेश ने शिवराज को एक पत्र लिखा भी लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा है कि शेहला वन्य प्राणियों के संरक्षण का काम कर रही थी। उन्होंने बांधवगढ़ व पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की कम होती संख्या पर भी सवाल उठाए थे। पत्र के माध्यम से जयराम रमेश ने शेहला के कातिलों को जल्द से जल्द पकड़ने का अनुरोध किया है।
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि शेहला के कार्य से बड़ी संख्या में नेता व प्रशासनिक अधिकारी प्रभावित हो रहे थे, ऐसी स्थिति में राज्य की एजेंसी से निष्पक्ष जांच नहीं कराई जा सकती लिहाजा इसकी जांच सीबीआई से कराई जाए।
पुलिस ने अपने स्तर पर भी जांच शुरू कर दी है। फोरेंसिक विशेषज्ञों ने भी घटनास्थल का जायजा लिया। फोरेंसिक विभाग के निदेशक ओ. पी. श्रीवास्तव ने बताया कि हत्याकांड का वैज्ञानिक तौर पर परीक्षण किया जा रहा है। बताया गया है कि शेहला ने अपनी हत्या की आशंका जताते हुए पुलिस अधिकारियों से इसकी शिकायत भी की थी।
Date: 18-08-2011

Friday, August 5, 2011

हेलो बस्तर” [राहुल पंडिता की पुस्तक पर एक विमर्श] – राजीव रंजन प्रसाद



लेखक मूल रूप से बस्तर (छतीसगढ) के निवासी हैं तथा वर्तमान में एक सरकारी उपक्रम एन.एच.पी.सी में प्रबंधक है। आप साहित्यिक ई-पत्रिका "साहित्य शिल्पी" (www.sahityashilpi.in) के सम्पादक भी हैं। आपके आलेख व रचनायें प्रमुखता से पत्र, पत्रिकाओं तथा ई-पत्रिकाओं में प्रकशित होती रहती है।माओवादियों ने बस्‍तर को आग के हवाले कर दिया है, जिसकी तपिश में भोले-भाले आदिवासी झुलस रहे हैं। माओवादी भले ही इन क्षेत्रों के विकास की बात करते हों लेकिन उनके पास विकास का वैकल्पिक मॉडल नहीं है, उलटे वे शिक्षण संस्‍थानों और सड़कों को बम से उड़ाकर बस्‍तर के विकास मार्ग को अवरूद्ध करते हैं। यही नहीं आम आदिवासियों पर झूठे आरोप लगाकर उनकी जघन्‍य हत्‍या करते हैं तो यात्री बसों को उड़ाकर बेगुनाह लोगों की जानें ले लेते हैं। माओवाद जहां जन्‍मा है अब उस देश (चीन) ने इस मनुष्‍यता विरोधी विचारधारा को तिलांजलि दे दी है, लेकिन हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी अभी भी उसे खाद-पानी मुहैया कराने में जुटे हैं। हाल ही में राहुल पंडिता ने एक पुस्‍तक लिखी है “हेलो बस्तर”। इस पुस्‍तक में लेखक ने सतही दृष्टि से आदिवासियों के सवालों को देखने की कोशिश की है और माओवादी आंदोलन की आधी-अधूरी पड़ताल की है।

बस्‍तर के आदिवासियों के हितों को लेकर सजग रहनेवाले लेखक राजीव रंजन प्रसाद ने यहां के वास्‍तविक हालातों का जिक्र करते हुए ‘हेलो बस्‍तर’ पुस्‍तक के बहाने गहराई से विमर्श किया है। हम यहां इसे प्रकाशित कर रहे हैं (सं.)

ज्वालामुखी की उत्पत्ति, उनके गुण-धर्म, प्रसार, चट्टान बनने की प्रक्रिया आदि पर 200 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशित हो, जिसके आठ से दस पन्नों में ‘अन्य उदाहरणों के साथ साथ’ माउंट हेलेनस के प्रसुप्त ज्वालामुखी का भी जिक्र किया जाये। यही पुस्तक अगर “माउंट हेलेनस की गाथा” या “हेलो हेलेनस” जैसे शीर्षक से प्रकाशित हो कर बाजार मे आये तो क्या इसे विषयवस्तु से न्याय माना जायेगा? हेलेनस पर शोध करने अथवा रुचि रखने वाला व्यक्ति इस पुस्तक को खरीदकर ठगा सा क्यों न महसूस करे? यदि किसी कारण ‘माउंट हेलेनस’ में लोगों की तात्कालिक रुचि उत्पन हो तो निश्चय ही इस ‘शब्द’ का अपना बाजार हो जायेगा और किताब बिकेगी। इस उदाहरण को ट्रांक्वीबार प्रेस से अंगरेजी में प्रकाशित राहुल पंडिता की पुस्तक “हेलो बस्तर” से अक्षरक्ष: जोडा जा सकता है। इन दिनों ‘बस्तर’ शब्द का अपना बाजार है जिसे लेखक-पत्रकार भली भांति समझते हैं। यदि इस पुस्तक का शीर्षक “हेलो बस्तर” न रहा होता तो इसमें प्रकाशित विषयवस्तु के लिये मैंनें इसे “हरगिज” खरीदा न होता। यह पुस्तक मूल रूप से भारत में माओवादी गतिविधियों उनके इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर केन्द्रित है जिसमें कुछ गिने चुने पृष्ठ बस्तर पर भी हैं। हैदराबाद से ले कर दिल्ली तक के अनेक नामों का आरंभ में ही उनके द्वारा आभार (Acknowledgement) व्यक्‍त किया गया है लेकिन बस्तर से इस सूची में किसी नाम का न होना यह सोचने पर बाध्य तो करता ही है कि इस वनांचल पर उनके द्वारा एकत्रित जानकारी द्वितीयक और विशेष तौर पर माओवादी स्रोतों से ही ली गयी है यद्यपि उन्होंने यह लिख कर इतिश्री अवश्य की है कि आभार “दण्डकारण्य में उनका जो जानते हैं वे कौन है।“

“हेलो बस्तर” के भीतर का बस्तर –

पुस्तक पर समग्र चर्चा से पहले “केवल उन पृष्ठों और उद्धरणों” पर बात करते हैं जहाँ लेखक ने बस्तर का उल्लेख किया है। “हेलो बस्तर” के पहले अध्याय “ग़िव मी रेड” के पृष्ठ -8 में लेखक ने दंतेवाडा में 6 अप्रैल 2010 को सीआरपीएफ के जवानों पर हुए माओवादी हमले का जिक्र किया है जिसमें 75 जवानों की मौत हो गयी थी। इस विवरण को लिखते हुए लेखक ने संचार माध्यमों पर भी व्यंग्य किया है कि इस घटना के बाद कश्मीर से अधिक बिकने वाली खबर भारत का हृदय क्षेत्र हो गया। माओवादी प्रभाव क्षेत्रों पर चर्चा करते हुए लेखक माओवादियों के माड़ डिविजन का जिक्र करते हैं तथा अपनी तीन आगामी पंक्तियों में अबूझमाड की परिभाषा और विवरण भी देते हैं। यह सही है कि अबूझ का अर्थ “जिसे न जाना गया” ही है किंतु “माड” एक गोंडी शब्द है जिसका अर्थ होता है पहाड़। इस तरह माडिया का शाब्दिक अर्थ हुआ पहाड पर रहने वाला। अबूझमाड शब्द का बडा ही सतही प्रयोग आम तौर पर दिल्ली से बस्तर को देखने वाले अनेक लेखकों ने किया है। माडियाओं के भी दो प्रमुख प्रकार है अर्थात् वे जो माड़ या पर्वत पर हैं अबूझ माडिये और जो पर्बतों से उतर कर मैदानों में आ गये वे दण्डामि माडिये। बस्तर पर प्रामाणिक शोध 92 वर्षीय साहित्यकार और इतिहासकार लाला जगदलपुरी का माना जाता है। अपनी पुस्तक बस्तर-इतिहास एवं संस्कृति में लाला जगदलपुरी लिखते हैं कि “मडिया लोग स्वयं को “कोयतूर” कहते हैं। माडिया “गोंड” कहलाना पसंद नहीं कहते”।

प्रश्न यह है कि क्या अबूझमाड ही संपूर्ण बस्तर है? प्रोफेसर जे. आर वर्ल्यानी तथा प्रो. व्ही डी साहसी की पुस्तक “बस्तर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास” के पृष्ठ 6 से जानकारे को मैं उद्धरित कर रहा हूँ – “प्राकृतिक दृष्टि से बस्तर को छ: भागों में बाँटा जा सकता है अ) उत्तर का निम्न या मैदानी भाग – इसका विस्तार उत्तर बस्तर, परलकोट, प्रतापपुर, कोयलीबेडा, और अंतागढ तक है। ब) केशकाल की घाटी – यह घाटी तेलिन सती घाटी से प्रारंभ हो कर जगदलपुर के दक्षिण में स्थित तुलसी डोंगरी तक लगभग 160 वर्गमील क्षेत्र में विस्तृत है। स) अबूझमाड – यह क्षेत्र बस्तर के मध्य में स्थित है। इसके उत्तरपूर्व में रावघाट पहाडी घोडे की नाल की तरह फैली है। यहाँ कच्चे लोहे के विशाल भंडार हैं। द) उत्तरपूर्वी पठार- यह पठार कोंडागाँव और जगदलपुर में फैला है। इस पठार का ढाल तीव्र है। ई) दक्षिण का पहाडी क्षेत्र – इसके अंतर्गत दंतेवाडा, बीजापुर व कोंटा के उत्तरी क्षेत्र आते हैं। फ) दक्षिणी निम्न भूमि – इसके अंतर्गत कोंटा क्षेत्र का संपूर्ण भाग तथा बीजापुर क्षेत्र का दक्षिणी भाग आता है।…..। मैंने “मुम्बई-दिल्ली-वर्धा” से बस्तर लिखने वालों को कभी भी इस भूभाग को समग्रता से प्रस्तुत करने की जहमत उठाते नहीं देखा। कोई कंधे पर कैमरा उठाये दंतेवाडा पहुँच जाता है तो कोई नारायणपुर। कोई अपने स्त्रोतों-साधनों से भीतर संपर्क करता है और पहुँच जाता है माओवादी कैम्पों में……हो गया बस्तर भ्रमण, समझ आ गयी इसकी संस्कृति, इसका दर्द, इसकी आत्मा…..अब बेचो।

मुझे लगता है कि जब पुस्तक के केन्द्र में बस्तर को रखा गया है तो लेखक से यह उम्मीद की ही जा सकती थी कि इस भूमि का कुछ तो विवरण प्रस्तुत किया जाता। केवल यह लिख देने से कि इस क्षेत्र में भारत के सबसे गरीबों मे से गरीब रहते हैं यही सबसे खूनी लडाई लडी जायेगी। और फिर अबूझमाड ही न तो आजादी से पहले अबूझ था न ही महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की नृशंस हत्या तक अबूझ रहा है। एक नहीं दसियों खूनी लडाईयाँ माडियाओं ने लडी हैं और सगर्व जीती भी हैं। 1910 के भूमकाल में अबूझमाड क्षेत्र से युद्ध का नेतृत्व करने वाले आयतु माहरा की वीरता और नेतृत्व क्षमता की कहानियाँ इतिहास में दफ्न हो गयीं, लेकिन, क्रांति का ढोल पीटने वालों को इन्हे जानना अवश्य चाहिये। जब तक बस्तर राज्य था और राजधानी जगदलपुर सत्ता का केन्द्र, अबूझमाडियॉ की राजनीतिक हैसियत भी रही है और पहचान भी। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता पश्चात अत्यधिक जल्दबाजी में हुए व्यवस्था परिवर्तन में इस क्षेत्र ने बहुत कुछ खोया यहाँ तक कि अपनी आवाज भी। वृहत मध्यप्रदेश राज्य और इसके नेताओं के लिये तो बस्तर भूमि का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। तुगलकी नीति निर्माताओं ने अबूझमाड को प्रतिबंधित क्षेत्र बना दिया और माडियाओं को अपने ही तरीके से जीने के लिये छोड दिया। इस एतिहासिक गलती का ही नतीजा है कि माडिया अबूझ होते चले गये। माओवादियों ने व्यवस्था और माड क्षेत्र के बीच की इसी शून्यता का तो लाभ उठाया है।

हेलो बस्तर का दूसरा अध्याय “”हिस्ट्री हारवेस्ट”” मूल रूप से नक्सली/माओवादी आन्दोलन के इतिहास कर केन्द्रित है। दण्डकारण्य या कि बस्तर उनके द्वारा प्रस्तुत इस इतिहास का हिस्सा नहीं है। मैं जोडना चाहूंगा कि माओवादिओं को अपने इतिहास् पर जितना गर्व है उससे भी गौरवशाली और प्राचीन अतीत बस्तर के महान भूमकालियों का है। यही वह भूमि है जहाँ राजा भले भी मराठों या कि अंगरेजों के आधीन रहा हो रिआया ने अपना सिर घुटनों पर नहीं रखा। विस्तार में नहीं जाया जा सकता किंतु दस सशस्त्र विद्रोह और गेन्द सिंह, यादवराव, व्यंकुट राव, आयतुमाहरा, डेबरीधुर, गुण्डाधुर जैसे नामों की फेरहिस्त बहुत लम्बी है जिन पर बस्तर की मिट्टी गर्व करती है। माओवादियों के अंध-विस्फोटों को तो इतना भी नहीं पता कि जिनके चीथडे उडे वे निरीह सिपाही थे जिनकी मौत की गिनती बढने पर उन्हें लगता है कि व्यवस्था बदल जायेगी याकि वे आदिवासी थे जिनके कधे पर बंदूख रख कर तथाकथित युद्ध लडा जा रहा है? लेकिन शताब्दियों से बस्तर के आदिवासियों को अपनी लडाईयाँ लडते हुए इतनी समझ रही है कि उन्हें क्या चाहिये और शत्रु कौन है। यह चाहे 1774 की क्रांति में कंपनी सरकार का अधिकारी जॉनसन हो या कि 1795 के विद्रोह में कम्पनी सरकार का जासूस जे. डी. ब्लंट। 1876 के हमलों के पीछे आदिवासियों के हमलों का लक्ष्य सरकारी कर्मचारी (मुंशी) थे जिससे भिन्न किसी भी व्यक्ति पर आक्रमण नहीं किया गया तो 1859 के कोई विद्रोह में ‘केवल’ उनकी ही हत्या की गयी जिन्होंने चेतावनी के बावजूद भी सागवान के वृक्ष काटे। 1910 की क्रांति तो विलक्षण थी। आदिवासियों और गैर आदिवासियों ने संयुक्त रूप से यह लडाई लडी लेकिन कहीं भी ऐसी नृशंस हत्याओं और क्रूरताओं की कोई कहानी किसी उदाहरण में सामने नहीं आती जैसी आज की माओवादी हिंसा में दीख पडती है। बल्कि बलिदान ही दिया गया जिसमें गुण्डाधुर और लाल कालेन्द्र जैसे अग्रिम पंक्ति के नेता गुमनाम हो गये और डेबरीधुर जैसे वीर फाँसी पर झूल गये। 1964 से 66 के दरम्यान भी आदिवासी स्पष्टत: जानते थे कि उनकी माँगे क्या है और उनके निशाने कौन है। इस आलेख के माध्यम से और बस्तरिया होने के नाते मैं माओवादियों द्वारा भूमकाल जैसे महान शब्द के प्रयोग का विरोध करता हूँ। माओवादी अपनी गतिविधियों को आन्दोलन, क्रांति या जो कुछ कहना चाहे कहें लेकिन भूमकाल शब्द की आत्मा को न मारें। बस्तर में भूमकाल शब्द का अर्थ है भूमि का कम्पन जिसमें सब कुछ उलट-पुलट जाता है। एसा स्वाभाविक क्रांतियों मे ही संभव है। पुनश्च, अपने राजा, मराठाओं, ब्रिटिश सरकार तथा स्वतंत्र भारत सरकार के विरुद्ध जो भूमकाल हुए वे हैं – हलबा विद्रोह (1774-1779), भोपालपट्टनम संघर्ष (1795), परलकोट विद्रोह (1825), तारापुर विद्रोह (1842-1854), मेरिया विद्रोह (1842-1863), महान मुक्ति संग्राम (1856-57), कोई विद्रोह (1859), मुरिया विद्रोह (1876), रानी-चो-रिस (1878-1882), महान भूमकाल (1910), महाराजा प्रबीर चंद्र का विद्रोह (1964-66)। मैनें बस्तर पर कार्य करने वाले अनेकों इतिहासकारों से तथा अपनी किशोरावस्था में वृद्ध मुरिया-माडिया बस्तरियों से भूमकाल के अनेक विवरण सुने हैं। काश कि “मुम्बई-दिल्ली-वर्धा” जैसी जगहों से आने वाले पत्रकारों को कभी बस्तर समूचा तो दिखाई पडता। हे ‘लोकतंत्र के महान चौथे खंबों के ठेकेदारों’, ‘माओवाद पर इतना ही बघारो’ जितना कि बस्तर का सच है। ….और देश के बडे बडे सस्थाओं में अड्डा जमा कर बैठे लाल-पीले-हरे-नीले सोच के इतिहासकारों को भी दूर से ही प्रणाम करते हुए डॉ हीरालाल शुक्ल की पुस्तक “ बस्तर का मुक्तिसंग्राम” [पृ-241] से उद्धरित कर रहा हूँ कि “राजनीति ने ईसाई धर्म मे दीक्षित तथा अंग्रेजीदाँ बिहार के बिरसा मुंडा (1875-1901) को जो मान्यता प्रदान की वह मान्यता धुर-अशिक्षित तथा अपने आदिवासी धर्म में कर्तव्यनिष्ठ गुण्डाधुर को अभी तक नहीं मिल पायी। बिरसा का आन्दोलन ईसाई प्रभाव से अनुप्राणित था, जब कि गुण्डाधुर का आन्दोलन आटविक मानसिकता से प्रभावित था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि बिरसा मुंडा तथा गुण्डाधुर दोनों ही सामयिक थे। स्वास्थ्य की गिरावट के कारण 9 जून 1901 को बिरसा मुंडा की मृत्यु हुई जब कि गुंडाधुर 1910 की क्रांति के असफल होने के बाद बीहड वनों में गुम हो गया।“ वस्तुत: इस उद्धरण के माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूँ कि बस्तर की वास्तविक पहचान भी माओवाद के अपने प्रचारतंत्र के कारण खोती जा रही है। “हेलो बस्तर” हाल में तथाकथित रूप से बस्तर पर केन्द्रित और दिल्ली से प्रकशित तीसरी एसी किताब है जिसमें दावा तो इस वनांचल के गुंडाधुरों से परिचित कराने का है लेकिन जो कुछ बाहर आता है वह किशन जी और गणपति जैसा कुछ है। तीनों किताबों की समानता है कि इनकी भाषा खुले तौर पर लाल सोच का समर्थन करती है अर्थात निष्पक्ष नहीं कही जा सकती।“

हेलो बस्तर” का तीसरा अध्याय “”दि रिटर्न ऑफ स्प्रिंग थंडर”” भी बस्तर पर बात नहीं करता। कुछ एक पंक्तियाँ अवश्य इस ओर इशारा करती हैं कि क्यों माओवादियों को दंडकारण्य में अपना आधार इलाका बनाने की आवश्यकता पडी। पृष्ठ-38 में लेखक उल्लेख करते हैं कि “तेलंगाना के अनुभव से सीतारमैय्या ने यह जान लिया था लडना संभव नहीं है जब तक कि पहले सुरक्षित बेस न बना लिया जाये जहाँ गुरिल्लाओं को प्रशिक्षण दिया जा सके साथ ही यह स्थल विद्रोहियों के लिये अभयारण्य की तरह कार्य करेगा।“ आन्ध्र में ही मुल्लुगु के जंगलों में एसा ही करने का प्रयास किया गया जो कि असफल सिद्ध हुआ। मैं लेखक से यह उम्मीद करता था कि उनका प्रस्तुतिकरण इतना विश्लेषणपरक तो होना ही चाहिये था कि यह स्पष्ट कर सके – क्यों आन्ध्रप्रदेश के किसानों और उनकी समस्याओं को ले कर जो लडाई लडी जा रही थी उसके लिये आधार इलाका आन्ध्र के जंगलों में ही उपलब्ध न हो सका? ऐसा क्यों हुआ कि मुलुगु के जंगलों ने माओवादियों को नकार दिया? यदि राहुल जी बस्तर को हेलो कर रहे हैं तो उनसे बस्तर विषयक कुछ बुनियादी जानकारियाँ अपेक्षित थीं। सर्वप्रथम यह कि बस्तर न तो आन्ध्रप्रदेश है न तो उडीसा है न तो महाराष्ट्र है और न ही बंगाल है। बस्तर यदि इनमें से कुछ भी रहा होता तो नक्सलवादी कभी भी इसे आधार इलाका नहीं बना सकते थे।

पुस्तक के चौथे अध्याय का शीर्षक है “हेलो बस्तर”। यह अध्याय भी एकल दृष्टिकोण से बस्तर अंचल की संक्षिप्त प्रस्तुति करता है। जो यह मानते हैं कि दण्डकारण्य में माओवाद एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन हैं उन्हें अपनी गलतफहमी को दूर करने के लिये इस पुस्तक के पृष्ठ 53-54 को गंभारता पूर्वक पढना चाहिये। वृहत मध्यप्रदेश सरकार के लिये बस्तर ऐसा क्षेत्र था जिसकी कभी परवाह नहीं की गयी यह कटु सत्य है। अबूझमाड क्षेत्र को बुद्धिजीवियों, मानवविज्ञानियों और नृतत्वशास्त्रियों की राय पर प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। यहाँ अबूझमाडिये आमतौर पर बिना किसी सरकारी दखल के अपनी ही तरह जी रहे थे; दुर्भाग्यवश एक तरह का “पुरा-मानवजीवन संग्रहालय” था यह क्षेत्र। मुझे याद है कि अबूझमाड में पत्रकारों को भी प्रवेश के लिये कलेक्ट्रेट से अनुमति प्राप्त करनी होती थी। इसकी जानकारी कोंडापल्ली सीतारमैया के बेटी और दामाद जो कि एम्स, नई दिल्ली में चिकित्सक थे, को उनके बस्तर प्रवास के दौरान हुई। आन्ध्रप्रदेश लौट कर अपने अनुभव कोंडापल्ली सीतारमैय्या को खाने की टेबल पर बताते हुए उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि वस्तुत: वे माओवादियों को नई रणनीति बनाने का रास्ता दिखा रहे हैं। गोदावरी नदी के एक ओर जहाँ कोण्डापल्ली अपने अनेकानेक प्रयासों के बाद भी सफल नहीं हो सके थे उन्हें नदी के दूसरी ओर बस्तर के जंगलों के भीतर अपने गुरिल्लाओं के लिये सुरक्षित क्षेत्र बनाने का ख्याल कौंधा। यह इस लिये भी कि सीमा लगे होने के कारण आन्‍ध्र में किसी घटना को अंजाम दे कर बहुत आसानी से बस्तर प्रवेश कर पुलिस से बचा जा सकता था। लेखक ने बहुत विस्तार से नक्सलवादियों के बस्तर प्रवेश और उनके कारणों को न तो समझने की कोशिश की है न समझाने कि अपितु माओवादी नेताओं के साक्षात्कारों के हवाले से इस मसले को छुआ भर है। लेखक खुलासा करते हैं कि जून 1980 में पाँच से सात सदस्यों के सात अलग अलग दल भेजे गये। चार दल दक्षिणी तेलंगाना के आदिलाबाद, खम्माम, करीमनगर और वारंगल की ओर गये तथा एक दल महाराष्ट्र के गढचिरोली की ओर तथा दो अन्य दल बस्तर की ओर भेजे गये थे। राहुल पंडिता माओवादियों के बस्तर प्रवेश की दास्तां लिखते हुए उन कठिनाईयों पर तो प्रकाश डालते हैं कि कैसे भूखे प्यासे दल ने इस शांत वनांचल में प्रवेश किया। लेकिन जो तथ्य नदारद हैं वे हैं – माओवादी किस रास्ते से बस्तर में प्रविष्ठ हुए? कहाँ-कहाँ गये???? लेखक ने आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में हुई गतिविधियों और आन्दोलनों का तो विस्तार से विवरण दिया है लेकिन बस्तर पर फिर बात करने के लिये इस अध्याय के अंतिम पृष्ठों में आते हैं। पृष्ठ-63 में वे आगे लिखते हैं कि अपना कार्य/लडाई आरंभ करने के लिये पहले वन अधिकारी तथा ठेकेदारों पर ध्यान केन्द्रित किया गया। पेपर मिल के प्रबंधन ठेकेदारों तथा उन के खिलाफ संघर्ष किया गया जो वनोपज लूट रहे थे। तेन्दू-पत्ता संग्रहण तथा बांस संग्रहण की दरें बढाने के लिये संघर्ष किया गया। तेन्दुपत्ता नीति का आंशिक श्रेय माओवादियो को अवश्य दिया जा सकता है। जहाँ तक मैं समझता हूँ मैने बस्तर में न तो किसी पेपर मिल के बारे में सुना है न देखा है। लेखक संभवत: लेखक महाराष्ट्र या आन्ध्र के किसी पेपर मिल की बात कर रहे हैं? सत्यता जानने के प्रयास में जब मैनें एक स्थानीय पत्रकार से पूछा तो उन्होंने बताया कि बस्तर में किसी भी मजदूर आन्दोलन में माओवादियों की कभी भी और कोई भी सहभागिता नहीं रही है। सत्तर के दशक का बैलाडिला गोली कांड अवश्य मजदूर आन्दोलन की श्रेणी मे आता है किंतु इसका श्रेय कम्युनिष्ट पार्टियों के हिस्से है न कि नक्सलियों के।

पृष्ठ -66 पर उद्धरण है कि “माओवादियों के लिये इस क्षेत्र में सबसे बडी चुनौती भाषा की थी। आन्ध्रप्रदेश से लगे कुछ क्षेत्रों में तेलुगु भाषा बोली जाती थी किंतु जब वे भीतर प्रविष्ठ हुए तो उन्होंने पाया कि लोग वहाँ केवल गोंडी ही बोलते है। गोंडी के साथ समस्या यह थी कि इसकी अपनी कोई लिपि नहीं है। माओवादियों ने इस पर क्रमिक कार्य किया है। आज इस क्षेत्र में कार्य कर रहे सभी माओवादी गुरिल्ला गोंडी बोल और समझ लेते हैं। माओवादी इस भाषा के लिये लिपि बनाने का कार्य कर रहे हैं साथ ही जिन इलाकों में वे स्कूल चला रहे हैं वहाँ उन्होंने इस भाषा में पाठयपुस्तक भी जारी करने का प्रयास किया है।“ लेखक के इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि जिस बस्तर को माओवादी और उनके ““मेरी कलम तोप है”” टाईप के समर्थक अपना आधार इलाका होने की बात करते है उसकी आंशिक समझ भी नहीं रखते। पहली बात तो इस झूठ का तत्काल खंडन होना चाहिये कि बस्तर की संपर्क भाषा गोंडी है। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक “बस्तर- लोक कला, संस्कृति प्रसंग” के पृष्ठ-17 मे जानकारी दी है – “”बस्तर संभाग की कोंडागाँव, नारायणपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाडा में दण्डामिमाडिया, अबूझमाडिया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित है। गोंडीबोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नतायें विद्यमान हैं। इसी लिये गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हलबी बोली न होती। भाषिक विभिन्नता के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सद्भावनाएं स्थापित मिलती है और इसका मूल कारण है – हलबी। अपनी इसी उदात्त प्रवृत्ति के कारण ही हलबी, भूतपूर्व बस्तर रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी।….और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है”।“ अपनी एक अन्य पुस्तक बस्तर” इतिहास एवं संस्कृति के पृष्ठ-283-284 में बस्तर में प्रचलित गोंडी बोलियों का लाला जगदलपुरी ने वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है – “”संभाग की दक्षिणी सीमा आन्ध्रप्रदेश को छूती है, इसलिए भोपालपट्नम तहसील से ले कर कोंटा तहसील तक आबाद दोरलों की बोली “दोरली” पर तेलुगु का प्रभाव स्वाभाविक रूप से स्थापित हो गया है। पश्चिमी बस्तर का कुछ हिस्सा मराठी से प्रभावित है क्योंकि महाराष्ट्र (चाँदा जिला) लगा हुआ है। अबूझमाडिया, दण्डामिमाडिया, घोटुल मुरिया, झोरिया, दोरला और परजा धुरवा लोगों की बोलियों का सामूहिक नाम गोंडी है। अबूझमाडी, दण्डामिमाडी, मुरिया, दोरली और परजी-धुरवी बोलियाँ गोंडी की शाखाएं हैं। ये सब द्रविड भाषा परिवार से सम्बद्ध बोलियाँ हैं। गोंडी की ये सभी बोलियाँ एक दूसरे से भिन्नता लिये हुए प्रचलित हैं। नारायणपुर तहसील, घोटुलमुरिया, अबूझमाडी और झोरिया बोलियों का क्षेत्र है। कोण्डागाँव तहसील के कुछ भाग में भी घोटुलमुरिया बोली जाती है। दंतेवाडा बीजापुर और सुकमा तहसीलों में प्रमुख रूप से दण्डामिमाडी बोली का प्रचलन है।,…। धुरवी बोली जगदलपुर तहसील के दरभा और छिन्दगढ विकासखंडों में तथा आसपास रहने वाले धुरवों की बोली है। इसकी उपजाति को परजी कहते हैं”।“ कथनाशय है कि अपनी अबूझ कोशिशों से माओवादी गुरिल्ला बस्तर अंचल की बोलियों का जो क्रांतिकारी सत्यानाश कर सकते हैं उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लिपि बनाने जैसे आँखों मे धूल झोंकने वाले विवरण इस लिये हास्यास्पद लगते हैं कि बस्तर अंचल में गोंडी बोली पर बहुत कार्य हुआ है तथा देवनागरी में ही इसका अपना साहित्य तथा अनूदित साहित्य भी उपलब्ध है जिसमें बोलीगत वैविध्य की महक भी महसूस की जा सकती है। माओवादियों के महान सोच के आविष्कार किये जाने से पहले भी कम से कम दो विद्वानों के “गोंडी-हिन्दी” शब्दकोष से मैं परिचित हूँ जिनका प्रयोग अनेकों बार मैंने लोकगीतों को समझने के लिये भी किया है। पूरे बस्तर क्षेत्र में ताल ठोंक कर समानांतर सरकार चलाने का दावा करने वालों को क्या “अबूझ”माड क्षेत्र के अलावा बस्तर की थोडी बहुत “बूझ” भी है? प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. हीरा लाल शुक्ल की पुस्तक “बस्तर का मुक्तिसंग्राम” के पृष्ठ -6 में उल्लेख है कि – “वर्तमान में निम्नांकित मुख्य जातियाँ बस्तर के भूभागों में रहती हैं – 1. सुआर ब्रामन, 2. धाकड, 3. हलबा, 4. पनारा, 5. कलार, 6. राउत, 7. केवँटा, 8. ढींवर, 9. कुड़्क, 10. कुंभार, 11. धोबी, 12. मुण्डा, 13. जोगी, 14. सौंरा, 15. खाती, 16. लोहोरा, 17. मुरिया, 18. पाड़, 19. गदबा, 20. घसेया, 21. माहरा, 22. मिरगान, 23. परजा, 24. धुरवा, 25. भतरा, 26. सुण्डी, 27. माडिया, 28. झेडिया, 29. दोरला तथा 30.गोंड। उपर्युक्त मुख्य जातियों में 1 से 22 तक की जातियों की “हलबी” मातृबोली है और शेष जातियों की हलबी मध्यवर्ती बोली है। कुछ जातियों की अपनी निजी बोलियाँ भी हैं जैसे क्रम 23 और 24 में दी गयी जातियों की बोली है परजी जबकि 25 और 26 की बोली है भतरी। क्रम 27 से 30 तक की बोलियाँ हैं माडी तथा गोंडी।“ अब मुझे कोई ये बताये कि “गोंडी-गोंडी” चीखने वाले माओवादी बस्तर की बोलियों को कितना जानते हैं?

पुस्तक का पाँचवा अध्याय “गन पावर इन भोजपुर” बस्तर से सम्बंधित नहीं है अत: इस पर अभी चर्चा नहीं। छठा अध्याय है “आन्ध्रा टू अबूझमाड”। इस अध्याय में भी आन्ध्रा अधिक है और अबूझमाड न्यूनतम। अब बात इस पुस्तक के पृष्ठ-100 की। लेखक जानकारी देते हैं कि “ दक्षिण बस्तर में पार्टी ने लोगों को जल संग्रहण के लिये हौज (टैंक) बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। प्रत्येक गाँवों में “टैंक निर्माण कमिटी” बना कर इस कार्य को मूर्त रूप दिया गया।“ कुछ निर्मित टैंकों तथा बांसागुडा के बाँध का विवरण लेखक ने दिया है। पूसानार गाँव का उदाहरण देते हुए वे यह जोडना भी नहीं भूलते कि कुछं गाँवों में सिपाहियों ने इन निर्माणों को नष्ट किया तथा इनकी आड में माओवादियों को कुचलने का कार्य भी किया है। माओवादियों ने मत्स्यपालन को बढावा दिया है तथा आदिवासियों द्वारा पाली गयी मछलियों को दिल्ली और कलकत्ता में भी बाजार उपलब्ध कराया है। आदिवासियों को तरह तरह की सब्जियाँ लगाने के लिये प्रेरित किया गया है। राहुल लिखते है कि वर्ष 1996-97 में 20,000 फलों के पौधे आदिवासियों में वितरित किये गये थे तथा 1996-98 के बीच दक्षिण बस्तर के 100 आदिवासी परिवारों के बीच बैल बाँटे गये।“ राहुल के अनुसार कई सौ स्थायी तथा चलायमान विद्यालयों में बी.बी.सी की डॉक्युमेंट्री के जरिये विज्ञान पढाने की कोशिश की जा रही है तथा नियमित कक्षाओं के साथ साथ राजनीति तथा सामान्य ज्ञान भी पढाया जाता है। राहुल लिखते हैं कि गोंडी की कोई लिपि न होने के बाद भी माओवादियों ने गणित तथा विज्ञान की प्राथमिक कक्षाओं के लिये पाठ्यपुस्तक निकाली हैं। इन किताबों में साफ-स्वच्छ रहने तथा अंधविश्वास से बचने जैसी बाते भी सिखाई जा रही हैं। माओवादियों ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी राज्य द्वारा छोडे गये शून्य को भरने की कोशिश की है एवं सभी गुरिल्ला दलों में एक व्यक्ति चिकित्सा के क्षेत्र में प्रशिक्षित होता है। इस विषय का अंत करते हुए लेखक पृष्ठ संख्या 103 में लिखते हैं कि दण्डकारण्य में सबसे अधिक मजबूत आजाद क्षेत्र अबूझमाड है जिसे माओवादी “सेंट्रल गुरिल्ला बेस” कहते हैं।“ इस विवरण के बाद इस अध्याय में आगे बातें माओवादियों के संगठन, उनके हथियार, उनके आय स्त्रोत तथा प्रमुख नेताओं पर केन्द्रित है।

मुझे अपेक्षा थी कि कम से यह अध्याय इतनी जानकारी तो अवश्य देगा कि माओवादी आन्ध्र से बस्तर के भीतर प्रविष्ठ हुए अथवा महाराष्ट्र से? अगर आन्ध्र से तो फिर महाराष्ट्र से लगा हुआ बस्तर का “घोषित मानव संग्रहालय क्षेत्र” अबूझमाड ही उनका सबसे बडा आधार क्षेत्र क्यों बना कोंटा, सुकमा जैसी जगहों पर भी ऐसी ही पकड क्यों नहीं रही? 1996 के बाद से 2011 तक किसी भी तरह के बीज वितरण, पौध वितरण या मवेशी वितरण के आंकडे लेखक ने इस पुस्तक में क्यों प्रस्तुत नहीं किये हैं? इन पंद्रह वर्षों में बहुत पानी इन्द्रावती में बह गया है लेकिन विवरण या तो लेखक को नहीं मिल सके या कि अब केवल और केवल बंदूक की खेती पर ही माओवादियों का अधिकतम ध्यान केन्द्रित है?….। बस्तर क्षेत्र विंध्यन शैल समूह, नीवन शैल समूह, कडप्पा शैल, प्राचीन ट्रैप, आर्कियन ग्रेनाईट-नीस, धारवाड क्रम तथा समसे प्राचीन शैल समूहों का भूविज्ञान समेटे है। यहाँ की चट्टानों की प्रवृत्ति के आधार पर आप हर कहीं एक्विफर मिलने की कल्पना नहीं कर सकते। आँख मूंद कर जहाँ मर्जी आयी वहाँ पर जलग्रहण के कार्यक्रम चलाने की हमारे सर्वज्ञाता गैरसरकारी संगठनों की नीति पर भी यदि माओवादी चल रहे हैं तो मैं अधिक नहीं कहना चाहूंगा लेकिन मुझे अपने स्वयं के सर्वे और आंकडों के आधार पर माओवादियों द्वारा प्रचारित ऐसी बाते बढा चढा कर कही गयी अधिक प्रतीत होती हैं, अर्थात दो करो और आठ कहो। मेरे आपत्ति व्यक्त करने से क्या होता है लेकिन क्या ये सच नहीं कि सब्जियाँ आदिवासियों को बाजार देने से अधिक गुरिल्लाओं की आवश्यकता पूर्ति के लिये ही लगवायी जा रही है जो कि माडियों की स्वाभाविक खेती प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है? पुस्तक में यह जानकारी भी स्पष्टता से दी जानी चाहिये थी कि किस-किस गाँव में ऐसी मछलियाँ पली और कब कैसे लद कर दिल्ली और कलकत्ता पहुँच गयी? इतना “विराट” मत्स्य उत्पादन कि आसपास का बाजार छोडिये सीधे दिल्ली-कलकत्ता सप्लाई?? मैंने हाल में ही आदिवासी बाजारों की शैली में आये परिवर्तन जानने के लिये अनेकों बाजारों और बेचे जा रहे सामानों का अध्ययन किया है, ऐसा कुछ क्षेत्रीय बाजार में नजर तो नहीं आता? और फिर क्यों नजर आये…सारा माल बाहर चला जाता होगा, जैसे कश्मीर के सेब चले जाते हैं?? माओवादियों की किताबों में क्या होगा और इससे आम अबूझमाडियों का मष्तिष्क किस तरह धुलेगा इसे समझने के लिये अधिक शोध की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इससे पहले यह जवाब भी जरूरी है कि किस गोंडी का जिक्र राहुल की किताब में है – अबूझमाडी, दण्डामिमाडी, मुरिया, दोरली या कि परजी-धुरवी? इन पाठय पुस्तकों को सार्वजनिक क्यों नहीं किया जाता कि गोंडी समझने वाले यह तो जान सकें कि पढाया क्या जा रहा है? उस इजाद लिपि को भी तो देखें कैसी है फारसी जैसी या कि चीनी की तरह? इस पाठपुस्तकों के कंटेंट और उनके पीछे की रिसर्च पर भी मुझे संदेह ही है। यह इत्तिफाक नहीं लगता कि बस्तर के भीतर या तो मिशनरी आसानी से काम कर पाते हैं या आरएसएस या फिर माओवादी? कितनी अजीब बात है कि जब आदिवासियों को मिशनरी या कि आरएसएस के स्वयंसेवक धर्म की घुट्टी पिलाते हैं तो दिल्ली में बैठे समाज सेवियों के कलेजे से कराह निकल जाती है और तुरंत ही इसे आदिवासियों की पहचान से हमला करार दिया जाता है। लेकिन मान्यवर जो नास्तिकता की शराब माओवादियों के प्यालों ने छलकानी आरंभ कर दी है क्या वह भी आदिम सभ्यता उनकी मान्यताओं और उनकी पहचान पर हमला नहीं है? एक ही बात एक ही समय में सही और गलत दोनो तो नहीं हो सकती?….। लेखक को क्या बस्तर में माओवादियों द्वारा सडकों, स्कूलों और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को नष्ट किये जाने के आँकडे नहीं मिले या उन्होंने जान बूझ कर इन आंकडों को “”हेलो”” करने की जगह “”बाई-बाई”” कर दिया?

अपने सातवे अध्याय “द गुरिल्लाज द रिपब्लिक” का प्रारंभ लेखक ने एक प्रश्न से किया है – वह क्या है जिसने दण्डकारण्य के युवा पुरुषों और महिलाओं को माओवादियों की ओर आकर्षित किया है? और इसके उत्तर में राहुल लिखते हैं कि आदिवासियों में माओवादियों ने ताकत का अहसास दिया है अन्यथा सदियों से तो यहाँ कुछ भी नहीं बदला है। माफ कीजियेगा राहुल जी आपका चश्मा उल्टा है। अबूझमाड जैसी सुरक्षित जगह पा कर और आदिवासियों के साथ ने माओवादियों को ताकत का अहसास दिया है। खंगालिये बस्तर के इतिहास को तो बस्तरियों की चौडी छाती का कारण मिल जायेगा। अनेकों उदाहरण यह भी हैं जब इन्ही आदिवासियों ने माओवादियो के खिलाफ भी अपने परम्परागत हथियार तान दिये और अनेकों अवसर पर सरकारी बंदूकें भी। सही और गलत की बहस यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है काश कि यह अहसास हो कि जो हर ओर से पिस रहा है असल में वह आदिवासी ही है।

राहुल ने अपने किसी माओवादी प्रभावित गाँव में प्रवास के समय की तीन घटनाओं का उल्लेख किया है। पहला कि रेडियो सुनते हुए छतीसगढ सरकार की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट की घोषणा पर प्रतिक्रिया देते हुए एक गुरिल्ला ने कहा कि आप लुटेरों से साधु हो जाने की अपेक्षा नहीं कर सकते। दूसरी घटना कि जंगल में किसी कैम्प के पास माओवादी गुरिल्लाओं ने एक जहरीले साँप को देखा जिसके मुँह में दूसरा साँप दबा हुआ था। इसे तुरंत मार दिया गया। तीसरी घटना जब माओवादी दल के साथ वे किसी झोपडी में रात को रुके तो महुआ के नशे में कुछ देर बाद मेजबान आदिवासी रोने लगा। रोने का मन कर रहा है इस लिये रो रहा हूँ यह उसका बताया हुआ कारण था। इन तीनों ही घटनाओं के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है। पहली घटना यह तो साफ करती है कि सरकार को ले कर तात्कालिक प्रतिक्रिया कडवी है और उसके किसी भी तरह के कार्य की अवहेलना गुरिल्लाओं द्वारा की ही जायेगी। दूसरी घटना आपत्तिजनक है। जंगल को आधार इलाका मानने वालों को उनके जीव जंतुओं के साथ जीना भी आना चाहिये और उनके जीवन की रक्षा का दायित्व भी जबरन काबिजों और स्वयं घोषित समानांतर सरकार का ही है। हे पर्यावरण के कर्ताधर्ताओं.. बस्तर की बोलती मैना को तो चुपचाप मरता हुआ देख लिया और आप एनडीटीवी के सेव टाईगर कंपेन में व्यस्त रहे अब कुछ इधर के साँपों की भी सुध लो भाई!! माओवादी बस्तर की जैवविविधता को अपना कवच बना कर घुसे हैं और अब उसे भी नष्ट करने में गुरेज नहीं करते। तीसरी घटना भी मुझे स्वाभाविक नहीं लगती। राहुल जी क्या करीब से देखा था आपने? वे आँसू निश्चय ही खून के रहे होंगे।

इस किताब में बस्तर पर इतनी ही बात की गयी है। इसके बाद के तीन अध्याय ““द रिबेल””, ““द अरबन एजेन्डा””, “”द डेथ ऑफ ए बैलून सेलर”” तथा “”कॉमरेड अनुराधा गाँधी एन्ड आईडिया ऑफ इंडिया”” वस्तुत: माओवादियों के कार्य करने के तरीकों, शहरों को ले कर उनकी रणनीति, अन्य आन्दोलनों से उनके अंतर्सम्बंधों आदि का विवरण है। मुझे इस बात की भी निराशा है कि इस पुस्तक के अंतिम अध्याय के लेखक कोबाड गाँधी ने भारत भर के आँकडे समेट कर बहुत सी बाते कहीं लेकिन उस बस्तर को हेलो कहने के लिये उन्हे चार वाक्य भी नहीं मिले जिसे गर्व से वे स्वयं “आधार इलाका” कहते हैं।

…और क्या कहती है पुस्तक?

यह किताब पढे जाने योग्य है यद्यपि यह एक पक्षीय तथा एक ही दृष्टिकोण से माओवाद पर बात करती है। कोबाड की गिरफ्तारी से ले कर उनके द्वारा किताब के अंतिम अध्याय को लिखे जाने के बीच लेखक का विषय पर श्रम दिखाई पडता है। बस्तर को ले कर उनकी जानकारी को मैं आधी अधूरी अवश्य कहूंगा लेकिन कथ्य की आत्मा को उन्होंने थाम कर रखा है। भारतीय शहरी मध्यम वर्ग को जहाँ उन्होंने आईना दिखाया है वहीं व्यवस्था को भी अनेकों स्थलों पर कटघरे में खडा किया है। जिन्हें यह जानने में रुचि है कि नक्सलवादी आन्दोलन की पृष्ठभूमि क्या है और कैसे यह प्रसारित हो कर सुरसा का मुख बना, वस्तुत: यह पुस्तक उन्हीं के लिये है। किताब प्रकाश डालती है कि माओवादी गुरिल्ला किस तरह कार्य करते हैं तथा अपने आन्दोलन को ले कर उनकी सोच क्या है।
इस किताब में माओवादी लक्ष्य उनकी दलीय संरचना तथा धनार्जन के स्त्रोतों आदि पर भी बात की गयी है। किताब शहरों को ले कर माओवादी सोच और रणनीति की बात भी करती है। लेखक ने माओवाद और अन्य जनाअन्दोलनों के अंतर्संबधों पर भी चर्चा की है। किताब मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल से आरंभ हुए नक्सलबाडी आन्दोलन तथा तेलंगाना संघर्ष के इर्द गिर्द घूमती है। कई माओवादी नेताओं के जीवन संघर्षों पर भी समुचित प्रकाश डाला गया है। यहाँ तक कि बिना लाग लपेट के कानू सान्याल की उपेक्षा भी दर्शाती है और यह भी बताती है कि बस्तर के भीतर आधार क्षेत्र बनाने की सोच के जन्मदाता कोंडापल्ली सीतारमैय्या का जब देहांत हुआ तो उनकी अंतिम यात्रा में मुट्ठी भर माओवादी भी एकत्रित नहीं हो सके थे। पुस्तक में कई स्थलों पर सूक्ष्मता से माओवादियों की कार्यशैली को भी कटघरा दिया गया है मसलन पृष्ठ 97 में उल्लेख है कि “समय समय पर मिली कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि ‘माओवादी रैंक्स’ ने अपनी महिला कैडर का यौन शोषण भी किया है”। पृष्ठ-108 में उल्लेख है कि “…21 सडक निर्माण परियोजनाओं को बंद कर दिया चूंकि ठेकेदारों ने माओवादियों को पैसे (लेव्ही) देने से इनकार कर दिया था।“ इसी पृष्ठ में आगे उल्लेख है कि “…..झारखंड के लौह अयस्क, खदानों तथा क्रशर ईकाईयों से माओवादी लगभग 500 करोड की उगाही करते हैं। पृष्ठ 133 में उल्लेख है “….दण्डकारण्य तथा अन्य प्रभाव के क्षेत्रों में उन ग्रामीणों को जिन पर पुलिस का मुखबिर होने का संदेश हुआ की गला रेत कर हत्या की गयी। इसी तरह पृष्ठ 155-156 में चीन से लाखों डॉलर की हथियार खरीद जैसे कुछ विवरण है जो भले ही जांच का विषय हो चौंकाते अवश्य हैं। मैं अनुराधा गाँधी और उनके द्वारा महाराष्ट्र में किये गये कार्यों के उल्लेख से प्रभावित हुआ। दण्डकारण्य के विवरण में जहाँ जहाँ अनुराधा गाँधी का उल्लेख आया मैंने जिज्ञासु हो कर पढा कि कहीं इस अंचल के लिये किये गये उनके कार्यों की बानगी भी किसी पंक्ति में मिले। संभवत: “आधार क्षेत्र” माओवादियों के लिये पनाह स्थली की तरह ही है..बस?

और अंत में -

इस वनांचल का शोधपरक विवरण देती पहली पुस्तक “बस्तर भूषण” 1908 में प्रकाशित हुई थी। इसके 2005 में प्रकाशित संस्करण के आमुख में रमेश नैय्यर लिखते हैं कि “भारत के ही अनेक हिस्सों में बस्तर को एक अजूबे की तरह देखा जाता है। मीडिया भी इसे कई बार विचित्र किंतु सत्य की शैली में प्रस्तुत करता है। बस्तर अनेक सूरदास विशेषज्ञों का हाथी है, सब अपने अपने ढंग से उसका बखान कर रहे हैं। बस्तर को वे कौतुक से बाहर बाहर को देखते हैं और वैसा ही दिखाते हैं।“ इतना ही नहीं इस अंचल की सांस्कृतिक विरासत पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं “….। “एल्विन के लेखन में बस्तर के आदिवासी का रुमान अपेक्षाकृत अधिक झलकता है। वह रुमान अब बस्तर में नक्सली उग्रवाद के विस्तार से बिखर चुका है”। अपने एक साक्षात्कार में “बस्तर की पहचान आदरणीय लाला जगदलपुरी” कहते हैं “यदि नक्सली भी मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये”।….। बस्तर के भीतर कोई कुछ भी कहे और कितना भी शोध कर ले चमकती हुई दिल्ली में चम चम करती लेखन की दुनिया है। वह वही परोसती है जो बिकता है।

Monday, July 18, 2011

जब भोपाल से पृथक कहारस्थान की माग की गई

जब भोपाल से पृथक कहारस्थान की माग की गई
लेखक-राजेन्द्र सिंह कश्यप
आजादी के आखरी दशक में देश भर में राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियां काफी तेजी से प्रारंभ हो गई थीं । संपूर्ण भारतवर्ष में चेतना की नई लहर दौड़ रहथी। 100 वर्षों की स्वतंत्रता संग्राम के चलते अंग्रेजों के देश छोड़कर जाने के आसार दिखने लगे थे। जहां जिन्ना मुसलमानों के लिये पाकिस्तान मांग उठा रहे थे। वहींसिखस्थान की मांग मास्टर तारासिंह उठा रहे थें। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भी उत्तर पूर्व में डा0 जेड0ए0 किंजों नागालेंड की मांग कर रहे थे। मिजोरम में लालडेगा,झारखंड,में बिहार,छोटा नागपुर,मध्यभारत,महा कौशल में डा0जयपाल सिंह पृथक झारखंड गणतंत्र की मांग लेकर चल पड़े थे। देश पिछड़ा आदिवासी निषाद समुदाय भीआन्दोलित हो रहा था,तब भोपाल स्टेट के नवाब हमीदुल्लाह खां की चिकित्सिक सेवा में लगे डा0 इन्द्रजीत सिंह ने दिल्ली,लाहौर,ढ़ाका,कलकत्ता,अमृतसर का दौरा कर आलइंडिया कहार महासभा की जनरल मिटिंग में पारित प्रस्ताव जिसके माध्यम से पृथक कहारस्थान की मांग तात्कालिक लार्ड पेथिक लारेन्स (ब्रिटिशकेबिनेट मिशन लंदन)वायसराय दिल्ली को मेमोरन्डम महासभा द्वारा दिनांक 20/04/1946 को दिया गया।
पंजाब,लाहोर,मुल्तान में बाबूबिहारी दास सक्रिय थे। सिख धर्म के उत्थान में कहार समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा था । इस कारण पंजाब के सामाजिक नेताओंने कहारस्थान पर भारी जोर दिया। जिस समय कांग्रेस आंदोलनों के फलस्वरूप साइमन कमीशन भारत आयाथा, उस समय हमारे नेताओं जिनमें डा0इन्द्रजीत सिंह सहाब केसाथ श्री महावीर प्रसाद शास्त्री कानपुर,रश्री दुर्गादत्तसिंह कुशन बिजनौर,श्री गुलजारी मलजी बाथम पीलीभीत आदि बु़िद्धजीवी समाज के नेता थें, उन्होंने देश की स्वतंत्रता केसमय कहारस्थान की मांग की थी। समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा था । इस कारण पंजाब के सामाजिक नेताओं ने कहारस्थान पर भारी जोर दिया। जिस समय कांग्रेसआंदोलनों के फलस्वरूप साइमन कमीशन भारत आयाथा, उस समय हमारे नेताओं जिनमें डा0इन्द्रजीत सिंह सहाब के साथ श्री महावीर प्रसाद शास्त्री कानपुर,श्रीदुर्गादत्तसिंह कुशन बिजनौर,श्री गुलजारी मलजी बाथम पीलीभीत आदि बु़िद्धजीवी समाज के नेता थें, उन्होंने देश की स्वतंत्रता के समय कहारस्थान की मांग की थी। देश के दूसरे प्रातों में भी कुछ इस प्रकार की मांगें उठी थी। छूत एवं अछूत का प्रश्न भी गर्माहट के साथ उठाा था। यह प्रश्न बाबासाहेब आबंेडकर जी ने उठाया था। जिस समय समाज का प्रबुद्ध वर्ग जाति का नाम बताने में लज्जा अनुभव करता था, उस समय डा0इन्द्रजीत सिंह जीने सार्वजनिक मंच से कहार महासभा का झंडा उठाया था,जिसमें निषाद महासभा का यथा संभव सहयोग मिला था।

इसी समय लगभग सन 30-31 में होंशंगाबाद में बाबू गुलाबसिंह जी की अध्यक्षता में कहार सम्मेलन का वृहद् आयोजन किया गया था, जिसमें भोपाल सहित देश केविभिन्न प्रांतों से आये नवयुवकों ने स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया था,तदनंतर बनारस के सम्मेलन में एकता प्रयास हुूआ। डा0 सहाब समाज को संगठित करने ,उनकीसमस्याओं को अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिशतथा स्थानीय शासन के सामने नियमित रूप से रखते रहे। राजनीति के मंच पर विशेष रूचि के साथ उन्होंने सन 1945 केपश्चात भाग लिया, क्योंकि डा0 सहाब भोपाल राज्य के अस्पताल में डाक्टर थे तथा उनकी ड्यूटी नवाब हमीद उल्ला साहब भोपाल के साथ रहती थी,जब वे प्रवास परहोते थे। भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई के समय ही हमारे नेताओं को अनुमान हो गया था कि स्वतंत्रता के पश्चात हमारे समाज के साथ न्याय नहीं किया जावेगा। इसीकारण कहारस्थान की मांग की गई थी, मास्टर तारासिंह जी ने भी खालिस्तान मांगा था।

सन् 1946 में देश की अंतरिम सरकार बनी थी तब लाहौर से प्रकाशित डान अखबार ने एक कार्टून छापा था, नीचे लिखा था,पंडित नेहरू वरूण देवें के दरबार मेंअर्थात अंतरिम सरकार में हमारे समाज का प्रतिनिधि लेने की बात चल रही थी। कांग्रेस के द्वारा आश्वासन देने पर समाज ने भारत स्वतंत्रता के पक्ष में कहारस्थान कीमांग वापस ले ली थी। इस समय समाज को गोत्रों के आधार पर संगठित करने क प्रयास त्याग दिया था,क्योंकि भारत में भिन्न भिन्न प्रदेशों में अनेंकों गोत्र, उपजातियां हैं,इस कारण डा0साहब ने कर्णधार महासभा का गठन किया था तथापि वे सभी गोत्रीय संगठनों, सम्मेलनों में तथा नेतृत्व करते रहे। इसी समय समाज का पत्र कर्णधार काप्रकाशन भोपाल से किया,पश्चात् उसका प्रकाशन एक प्रकाशन मंडल बनाकर झांसी से प्रकाशित किया गया,जिसके मुख्य प्रकाशक श्री सुन्दरलाल जी रायकवार थे।

निषाद समुदाय की राजनीतिक गतिविधयों का प्रमुख केन्द्र भोपाल रहा, ओर राजनैतिक चेतना का केन्द्र बिन्दु अखिल भारतीय निषाद समाज का कर्णधार रहा है।

eklavyashakti@gmail.com
MO-9753041701

Wednesday, July 6, 2011

विधानसभा में गूंजेगा फर्जीवाड़ा और वेट


विधानसभा में गूंजेगा फर्जीवाड़ा और वेट
भोपाल 6 जुलाई 2011। विधानसभा में मानसून सत्र की सात्त?ापक्ष और विपक्ष में जमकर तैयारी कर ली है। एक ओर जहां मुख्यमंत्री ने अपने कबीना मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों को सदन के गरिमा के अनुरूप? कार्य करने की हिदायत दी, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष ने भी सरकार को घेरने की तैयारी कर ली हैं। मानसून सत्र में इस बार सहकारी समितियों के फर्जीकरण प्रदेश में वेट टेक्स, बिजली के दरों में बढ़ोत्त?री, गेहूं खरीदी और परिवहन व्यवस्था में अनियमितताओं के मामले सदन में प्रमुख्ता से गूंज सकते हैं। विधानसभा में 11 से 22 जुलाई तक चलने वाले मानसून सत्र में सहकारी समितियों के फर्जीकरण का मामला जोर-शोर से उठ सकता हैं। प्रदेश में सहकारी समितियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के मामले में सरकार की खिंचाई हो सकती है। दरअसल सहकारी संस्थाएं चाहती हैं कि सरकारी समितियों केञ् खिलाफ एफआईआर दर्ज हो, जबकि पुलिस महकमा सहकारिता एक्ट का हवाला देकर ऐसा करने से बच रहा हैं और सीधा समितियों के खिलाफ चालान कोर्ट में पेश करना चाहता है। दूसरी तरफ प्राथमिकता दर्ज करने पर दोषी अध्यक्षों, संचालकों को दंड मिलेगा और जांच पूरी होगी। जानकारी के अनुसार राजधानी में लगभग चार दर्ज समितियों के खिलाफ अपराध दर्ज करने की रिपोर्ट संबंधित अधिकारियों के पास भेजी है। लेकिन उनमें से मात्र आधे प्रकरणों पर ही प्राथमिकी दर्ज हो पाई है। यह मामला सदन में गर्माने की पूरी संभावना है। वहीं प्रदेश में बिजली की दरों में बढ़ोत्त?री वेट टेक्स तथा गेहूं उपार्जन व उसमें परिवहन में अनियमितताओं के मामले में विपक्ष सात्तापक्ष को घेर सकता है।
Date: 06-07-2011

Tuesday, July 5, 2011

Bhopal Gas Tragedy,

Bhopal, June 28 (Pervez Bari): The pain and misery of the survivors of the 1984 Bhopal Gas Tragedy, the world’s worst industrial disaster, sees no end and has been transferred to their progenies. They continue to suffer, writhe in pain and agony in the face of governments’ apathy while counting days as to when their souls will be liberated from their poisonous gas-affected malfunctioning mortal remains.
About one hundred children from Bhopal, who have been affected by the Union Carbide's poisons, demonstrated in front of the Prime Minister's office on Monday, demanding medical care, rehabilitation and poison-free environment.
According to a Press release these children wearing signs with words like “Insaaf” (Justice), “Izzat” (dignity) and “Humanity”, who are members of the Bhopal-based NGO Children Against Dow-Carbide, held a banner with their demands in front of the North Block office. The children said that this was the fourth time they were trying to draw the attention of the Prime Minister towards governmental inaction on environmental and health rehabilitation schemes in Bhopal.
“Since 2006, we have sought help from Prime Minster Dr. Manmohan Singh for the children of Bhopal who are still denied medical care and rehabilitation and who are still forced to drink poisoned water,” said Safreen Khan one of the founders of the Children Against Dow Carbide which organized the demonstration. Safreen charged theGovernment with displaying more care for the financial health of Union Carbide and its owner Dow Chemical than for the children of Bhopal.
Manoj Yadav from the community affected by ground water contamination by Union Carbide’s hazardous waste, said that while there were many children and adults with diseases caused by the poisons, they were denied free treatment at government hospitals. Yasmin Khan whose parents were affected by the Union Carbide’s poisonous gases in December 1984 and now lives in the area with contaminated ground water said that hundreds of children are being born with congenital malformations to parents with exposure to poisons. She said that the government has not made any arrangement to provide rehabilitation for these children. “The Government should ensure that these children get a fair chance at living a life of dignity.” Yasmin said.
Young leaders of the Bhopal children said that many of the congenital deformities are reversible. Corrective surgeries can help children with physical deformities. Some mentally- and physically-challenged children too can be helped to lead normal lives if special-care institutions are set up and run.
The children pointed out that despite a 2005 order of the Supreme Court of India the people living next to the Union Carbide’s abandoned pesticide factory were not being supplied clean water.
A child from these communities, Asma said that thousands of tonnes of toxic waste from the factory lie buried next to their homes. “The Prime Minister must make Dow Chemical clean up the poisons or they will continue to harm generations,” said Asma.
It may be recalled here that on the intervening night of December 2-3, 1984 poisonous methyl isocyanate (MIC) gas spewed from the Union Carbide pesticide factory killing 3,000 people instantly and 25,000 over the years. It also affected 100,000 people that night and estimates are that more than 500,000 continue to suffer from ill effects of the gas till date. (pervezbari@eth.net)

Amarnathayatra

ॐ चमत्कारी.लाभ धर्म सेहत

ॐ चमत्कारी.लाभ धर्म सेहत


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श् किसी धर्म से जुड़ा न होकर ध्वनिमूलक है। माना जाता है कि सृष्टि के आरंभ में केवल यही एक ध्वनि ब्रह्मांड में गूँजती थी। जब हम श्ॐश् बोलते हैंए तो वस्तुतः हम तीन वर्णों का उच्चारण करते हैंरू श्ओश्ए श्उश् तथा श्मश्। श्ओश् मस्तिष्क सेए श्उश् हृदय से तथा श्मश् नाभि ;जीवनद्ध से जुड़ा है। मनए मस्तिष्क और जीवन के तारतम्य से ही कोई भी काम सफल होता है। श्ॐश् के सतत उच्चारण से इन तीनों में एक रिदम आ जाती है।

जब यह तारतम्य आ जाता हैए तो व्यक्ति का व्यक्तित्व पूर्ण हो जाता है। उसका आभामंडल शक्तिशाली हो जाता हैए इंद्रियाँ अंतरमुखी हो जाती हैं। जैसे किसी पेड़ को ऊँचा उठने के लिए जमीन की गहराइयों तक जाना पड़ता हैए ठीक उसी तरह व्यक्ति को अपने भीतर की गहराइयों में झाँकने हेतु ;अपने संपूर्ण विकास के लिएद्ध श्ॐश् का सतत जाप बहुत मदद करता है। ॐ आध्यात्मिक साधना है। इससे हम विपदाए कष्टए विघ्नों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।


छक्श्ॐश् के जाप से वह स्थान जहाँ जाप किया जा रहा हैए तरंगित होकर पवित्र एवं सकारात्मक हो जाता है। इसके अभ्यास से जीवन की गुत्थियाँ सुलझती हैं तथा आत्मज्ञान होने लगता है। मनुष्य के मन में एकाग्रताए वैराग्यए सात्विक भावए भक्तिए शांति एवं आशा का संचार होता है। इससे आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ प्राप्त होती हैं। श्ॐश् से तनावए निराशाए क्रोध दूर होते हैं। मनए मस्तिष्कए शरीर स्वस्थ होते हैं। गले व साँस की बीमारियोंए थायरॉइड समस्याए अनिद्राए उच्च रक्तचापए स्त्री रोगए अपचए वायु विकारए दमा व पेट की बीमारियों में यह लाभदायक है। विद्यार्थियों को परीक्षा में सफलता हेतु एकाग्रता दिलाने में भी यह सहायक है। इन दिनों पश्चिमी देशों में नशे की लत छुड़ाने में भी श्ॐश् के उच्चार का प्रयोग किया जा रहा है।

ध्यानए प्राणायामए योगनिद्राए योग आदि सभी को श्ॐश् के उच्चारण के बाद ही शुरू किया जाता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए दिन में कम से कम 21 बार श्ॐश् का उच्चारण करना चाहिए।
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ऐश्वर्या राय को बेटा होगा या बेटी, अब तक 250 करोड़ का सट्टा


ऐश्वर्या राय को बेटा होगा या बेटी, अब तक 250 करोड़ का सट्टा
प्रसव की अनुमानित तारीख और महीने पर भी दांव
राजस्थान के बीकानेर, फलौदी बाजार से शुरू हुआ सट्टा

मुंबई। नए मेहमान के आने की आहट पाकर बॉलीवुड अभिनेता बिग-बी के घर में तो खुशियों की धूम मची ही है, सट्टा बाजार में भी इस खबर ने गरमाहट पैदा कर दी है। क्रिकेट, मानसूनी बारिश के साथ ही अब सटोरिए इस पर भी दांव लगा रहे हैं कि ऐश्वर्या राय को बेटी होगी या बेटा। कहा जा रहा है कि इस पर अब तक 200 से 250 करोड़ का सट्टा लग चुका है।
ऐसा शायद पहली बार सुनने में आ रहा है कि बुकी और सटोरिए अमिताभ बच्चन के घर आनेवाले नए मेहमान को भी सट्टा बाजार में उतार कर करोड़ों की कमाई करने के जुगाड़ में लग गए हैं। गौरतलब है कि बॉलीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन मां बनने वाली हैं। उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष नवंबर महीने में बच्चन परिवार के घर में यह नया मेहमान आएगा। वैसे नए मेहमान को लेकर जितनी उत्सुकता बच्चन परिवार में हैं उससे ज्यादा उत्सुकता उनके प्रशंसकों में भी है। यही कारण है कि सटोरियों ने दांव खेलना
शुरू कर दिया है। सट्टे के इस खेल में मुंबई ही नहीं देश भर के सटोरिए शामिल हैं क्योंकि वे ऐसा कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते जिससे उनकी कमाई का रास्ता खुलता हो। इस सट्टे की शुरुआत राजस्थान के बीकानेर और फलौदी सट्टा बाजार से हुई जो कि अब जयपुर, सूरत, अहमदाबाद, मुंबई, पुणे, गोवा, इंदौर, पटना से लेकर देश के कई शहरों तक जा पहुंची है। आने वाले मेहमान का जिस बेसब्री से अमिताभ और जया बच्चन इंतजार कर रहे हैं उससे ज्यादा बेचैनी बुकी और सटोरियों में है।
बुकी इस बात पर भी सट्टा लगा रहे हैं कि ऐश्वर्या के बच्चे का जन्म किस माह में किन तारीखों के बीच होगा। एक सटोरिए के अनुसार 30 अक्तूबर से 15 नवंबर के बीच ऐश्वर्या राय मां बन सकती हैं। गौरतलब है कि एश्वर्या राय बच्चन के मां बनने की खबर सबसे पहले अमिताभ बच्चन ने सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट ट्विटर पर दी थी।
सुमंत मिश्र

ऐश्वर्या राय को बेटा होगा या बेटी, अब तक 250 करोड़ का सट्टा

ऐश्वर्या राय को बेटा होगा या बेटी, अब तक 250 करोड़ का सट्टा

Saturday, July 2, 2011

Thursday, June 23, 2011

bhopal reporter

http://miniqt.blogspot.com/2011/06/mini-qt-with-cousins.html

गुटबाजी छोड़ पिछड़ों -दलितों में जनाधार बढ़ाये भाजपा

भारतीय जनता पार्टी के ऊपर अक्सर बनिया-ब्राह्मण पार्टी होने का आरोप लगता रहा है | प्रमोद महाजन की असामयिक मौत के बाद से ही पार्टी की हालात खस्ता है और गुटबाजी काफी बढ़ गयी है | संघ के निर्देश पर नितिन गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बना दिया गया लेकिन पार्टी में गुटबाजी को रोक नहीं पाए हैं | खुद उनके गृह प्रदेश में अहम् की लड़ाई से भाजपा को बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है | हाल ही में पार्टी में पिछड़ी जाति के नेता उमा भारती की वापसी हुई और साथ ही महाराष्ट्र के पिछड़ों के जमीनी नेता गोपीनाथ मुंडे की पार्टी छोड़ने की बातें मीडिया में शुरू हो गयी | हालाँकि सुषमा स्वराज से मिलने के बाद मुंडे ने ऐसी अटकलों पर यह कहकर विराम लगा दिया कि ‘ मैं भाजपा में ही रहूँगा ‘ , लेकिन मुंडे की नाराजगी अभी ख़त्म नहीं हुई है |

कभी महाराष्ट्र भाजपा में मुंडे और दिवंगत प्रमोद महाजन की तूती बोलती थी तब गडकरी की कोई खास अहमियत नहीं थी | लेकिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बन जाने के बाद गडकरी ने अपना प्रभाव स्थापित करने लिए प्रदेश इकाई में महत्वपूर्ण पदों पर मुंडे के करीबी समझे जाने वाले लोगों को हटा कर अपने नजदीकियों को नियुक्त करना शुरू किया और यहीं से मुंडे और गडकरी के बीच मतभेद उभर कर मीडिया आने लगे |

मुंडे को पिछड़े वर्गों में अच्छा प्रभाव रखने वाले भाजपा का अकेला जन नेता माना जाता है इस लिहाज से ना केवल महाराष्ट्र भाजपा में बल्कि रह्स्त्रिय स्तर पर भी गोपीनाथ मुंडे की भूमिका भाजपा के लिए लाभदायक है | भाजपा के अलावा विभिन्न दलित /पिछड़े मंच पर मुंडे को लोग बुलाते हैं | मुंडे के पार्टी छोड़ने से महाराष्ट्र में भाजपा के पिछड़े वर्गो में जनाधार का बड़ा झटका लग सकता है |

उमा भारती भी भाजपा की ओबीसी नेता हैं और गोपीनाथ मुंडे भी भाजपा के ओबीसी नेता है. ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग. अगड़ों की पार्टी के रूप में बदनाम भाजपा को और ऐसे नेता खड़े करने होंगे और मौजूदा राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय नेतृत्व में सामजिक समीकरणों के आधार पर नेताओं को आगे लाना होगा |
पिछड़ों -दलितों का महत्व केवल भाजपा को आगे बढाने के लिए ही नहीं बल्कि हिंदुत्व के सपने को साकार करने के लिए भी अत्यंत आवश्यक है | हिन्दू समाज के पिछड़े – दलित वर्ग और आदिवासी आजादी के पहले से हीं ईसाई मिशनरियों के निशाने पर हैं | संघ के सामाजिक समरसता के सिद्धांत को आगे बढाने के लिए भाजपा को पिछड़े -दलित -आदिवासी नेतृत्व को भी समुचित जगह देनी होगी तभी सम्पूर्ण भारत में कमल खिलाने का स्वप्न पूरा हो सकेगा |

bhopalreporter

http://youtu.be/dpmeQZE98u0

भोपाल जिला अदालत में गोली चली

Tuesday, June 21, 2011

साहूकारों को लाइसेंस लेना होगा

साहूकारों को लाइसेंस लेना होगा
भोपाल, 21 जून 2011। मध्य प्रदेश में साहूकारी करने वालों को अब लाइसेंस लेना होगा। बगैर लाइसेंसधारी साहूकार दिया गया कर्ज वसूल नहीं कर सकेगा और कर्ज में दी गई राशि को शून्य माना जाएगा।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में मंगलवार को हुई मंत्रिपरिषद की बैठक में लिए गए निर्णय की जानकारी देते हुए लोक स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने बताया कि साहूकारों को लाइसेंस लेना अनिवार्य किया गया है। इसके लिए अंग्रेजों के शासनकाल के साहूकारी अधिनियम 1934 में संशोधन किया जाएगा। संशोधन का प्रस्ताव आगामी मानसून सत्र में लाया जाएगा।
मालूम हो कि राज्य में शहरी व ग्रामीण इलाकों में जेवरात व जमीन गिरवी रखकर कर्ज देने की परम्परा है। साहूकारी का यह काम कई परिवार पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। साहूकार मनमाफिक ब्याज वसूलते हैं, इसी के चलते सरकार ने साहूकारों को लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया है। लाइसेंस की फीस साहूकार के कारोबार के आधार पर तय की जाएगी।
मिश्रा ने बताया कि जो लोग लाइसेंस के बगैर साहूकारी करते हुए किसी को कर्ज देंगे तो उस राशि को शून्य माना जाएगा, यानी वे दिया हुआ कर्ज नहीं वसूल सकेंगे।
मंत्रिपरिषद ने आबकारी विभाग में 145 आरक्षकों के पद सीधे भर्ती के जरिए भरने का भी फैसला लिया है।
Date: 21-06-2011 Time

बाबा रामदेव की संपत्ति राजसात होगी : दिग्विजय


बाबा रामदेव की संपत्ति राजसात होगी : दिग्विजय
जबलपुर, 21 जून 2011। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि बाबा रामदेव के खिलाफ मनी लांड्रिंग एक्ट के तहत कार्रवाई होगी तथा इस अधिनियम के तहत उनकी संपत्ति तक राजसात की जा सकती है।
मध्य प्रदेश के दमोह की जबेरा विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव के प्रचार के लिए जबलपुर पहुंचे दिग्विजय सिंह ने पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा कि बाबा रामदेव ने जो संपत्ति जुटाई है, उसकी जांच में पर्ते खुलती जा रही है। उनके पास जो संपत्ति आई है वह धन किसका है, इसका खुलासा होने के साथ उनके खिलाफ मनी लॉड्रिंग एक्ट के तहत कार्रवाई होगी।
सिंह ने आगे कहा कि मनी लॉड्रिंग एक्ट में प्रावधान है कि ऐसी संपत्ति राजसात की जाती है, लिहाजा उनकी संपत्ति राजसात भी हो सकती है। उन्होंने आचार्य बालकृष्ण पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि उनके पास कोई आचार्य की उपाधि नहीं है वह फर्जी आदमी है।
रामलीला मैदान में नेतागिरी करने का बाबा रामदेव पर आरोप लगाते हुए सिंह ने कहा कि वहां योग शिविर की अनुमति ली गई थी। उसके बाद सहमति पत्र पर बाबा रामदेव के अलावा बालकृष्ण ने भी हस्ताक्षर किए थे। बाबा ने आम लोगों को ठगने का काम किया है।
दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश सरकार के मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री तक पर भ्रष्टचार के आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार के आरोप में हटाए गए अजय विश्नोई को फिर मंत्री बना दिया गया है। राज्य का हाल यह है कि अधिकारी के यहां छापे में 300 करोड़ की नगदी मिलती है, अगर मंत्री तथा मुख्यमंत्री के आवास पर छापे पड़ें तो हजारों करोड़ मिलेंगे।
Date

एक जुलाई से बदलेगी भोपाल शहर की यातायात व्यवस्था


एक जुलाई से बदलेगी भोपाल शहर की यातायात व्यवस्था
अवैध बसों का संचालन और यातायात में बाधक अतिक्रमणों को सख्ती से हटाये, गृह मंत्री श्री गुप्ता ने दिये निर्देश
भोपाल 20 जून 2011। आगामी एक जुलाई से राजधानी भोपाल के विभिन्न सड़क मार्गों पर यातायात व्यवस्था में अपेक्षित सुधार नजर आयेगा। गृह मंत्री श्री उमाशंकर गुप्ता ने इस मकसद से व्यापक दिशा-निर्देश संबंधित अधिकारियों को दिये हैं।
गृह मंत्री ने आज एक बैठक में भोपाल शहर की यातायात व्यवस्था में बाधक बनने वाले अतिक्रमण, मुख्य सड़क मार्गों पर बेतरतीब से पड़े हुए कंडम वाहनों इत्यादि को सख्ती से हटाने के निर्देश दिये। श्री गुप्ता ने अनुबंध के आधार पर संचालित वाहनों को निर्धारित स्थानों पर ही संचालित होने की जरूरत बताई। नादरा बस स्टैण्ड पर से अवैध बसों के संचालन को सख्ती से रोकने की हिदायत भी श्री गृह मंत्री श्री गुप्ता ने दी। उन्होंने अधिकारियों को स्पष्ट रूप से कहा कि वे इन मामलों में बगैर किसी दबाव के अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें।
श्री गुप्ता ने शहर की यातायात व्यवस्था को सुचारु बनाने के लिये टाइम मैनेजमेंट के पालन की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि जिस समयावधि में चिन्हित मार्गों को वन वे किया जाता है उस दौरान यह सुनिश्चित किया जाये कि लोग नियमों का पालन करें। यदि सड़क मार्गों के चौड़ीकरण की वजह से वन वे मार्गों की आवश्यकता नहीं है तो उन्हें दो-तरफा यातायात के लिये शुरू किया जाना चाहिये। इसके अलावा शहर के महत्वपूर्ण स्थलों पर जहाँ यातायात का अत्याधिक दबाव रहता है वहाँ यातायात पुलिस सक्रियता से व्यवस्था बनाने के प्रयास करे। आबकारी ठेकों और मदिरा दुकानों पर अनावश्यक रूप से खड़े वाहन यातायात में बाधक न बने इस दिशा में भी सख्ती बरती जाये।
गृह मंत्री ने बैठक में शहर के निर्धारित पार्किंग स्थलों में अवैध रूप से संचालित कार बाजारों को सख्ती से हटाने के लिये कहा। उन्होंने भोपाल रेलवे स्टेशन और हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर आने वाले यात्रियों को ऑटो चालकों द्वारा परेशान करने संबंधी शिकायतों पर कार्रवाई के निर्देश भी दिये। श्री गुप्ता ने कहा कि ऑटो चालक अपने निर्धारित स्थानों पर ही रहें। बैठक में जानकारी दी गई कि आगामी एक जुलाई से प्री-पेड बूथ पुनः सुचारु रूप से आरंभ हो जायेंगे। ऑटो चालकों द्वारा पेट्रोल की कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी के अनुरूप प्रति किलोमीटर दर वृद्धि की माँग की गई थी। इस संबंध में क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी द्वारा एक जुलाई से 18 प्रतिशत की दर वृद्धि का निर्णय लिया गया है। इस नई व्यवस्था से ऑटो चालकों को अब नुकसान उठाना नहीं पड़ेगा।
बैठक में जिला कलेक्टर श्री निकुंज श्रीवास्तव, पुलिस अधीक्षक श्री योगेश चौधरी, आयुक्त नगर निगम श्री मनीष सिंह, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक यातायातसुश्री मोनिका शुक्ला और क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी भोपाल सहित अन्य वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे।

Date: 20-06-2011 Time

अमरपाटन महाविद्यालय के प्राचार्य निलम्बित

भोपाल 20 जून 2011। राज्य सरकार ने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति लापरवाह अधिकारियों-कर्मचारियों के विरूद्ध कठोर कार्रवाई का रूख अपनाया है। उच्च शिक्षा मंत्री श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा ने महाविद्यालय में अध्यापन और व्यवस्थाओं में लापरवाही बरतने पर शासकीय महाविद्यालय अमरपाटन जिला सतना के प्रभारी प्राचार्य डॉ. एस.के. पाण्डे को तत्काल प्रभाव से निलम्बित करने के आदेश दिये हैं। इसके साथ ही महाविद्यालय में अनुपस्थित पाये गये 5 प्राध्यापकों एवं सहायक प्राध्यापकों की दो वेतन वृद्धियाँ रोकने के निर्देश दिये गये हैं। इस संबंध में विभाग द्वारा आज आदेश जारी कर दिये गये।
उच्च शिक्षा मंत्री श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा ने विभाग के प्रमुख सचिव और आयुक्त को महाविद्यालयों के आकस्मिक निरीक्षण के निर्देश दिये हैं। इसी के अंतर्गत आयुक्त उच्च शिक्षा डॉ. व्ही.एस. निरंजन ने पिछले दिनों इस महाविद्यालय का निरीक्षण किया। निरीक्षण में पाया गया कि प्रभारी प्राचार्य उपस्थित नहीं थे। इसके साथ ही प्राध्यापक डॉ. एस.एन. मिश्रा, प्राध्यापक प्रो. के.एन. मिश्रा, सहायक प्राध्यापक श्री रसिक बिहारी, श्री बलराम दास और डॉ. एस.के. सौंधिया भी बिना अवकाश के अनुपस्थित पाये गये।
आयुक्त उच्च शिक्षा को महाविद्यालय में उपस्थित विद्यार्थियों ने बताया कि महाविद्यालय में प्राचार्य अक्सर उपस्थित नहीं रहते। साथ ही प्राध्यापक भी कक्षाएँ नियमित रूप से नहीं लेते। इसके अलावा कार्यालयीन कर्मचारियों द्वारा भी लापरवाही के मामले सामने आने पर 5 तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भी एक वेतनवृद्धि रोकने के निर्देश दिये गये हैं।
उच्च शिक्षा मंत्री श्री शर्मा ने आयुक्त उच्च शिक्षा से कहा है कि वे पूरे प्रदेश में आकस्मिक रूप से महाविद्यालयों का निरीक्षण कर व्यवस्थाओं अवलोकन करें। महाविद्यालयों में आवश्यक उपलब्ध संसाधन तथा कमी का भी ब्यौरा प्राप्त करें। शासन पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करवायेगा, लेकिन लापरवाही किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं की जायेगी।
Date: 20-06-2011 Time: 19:40:47

बालाघाट में भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद


बालाघाट, 20 जून 2011। मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में पुलिस ने एक तलाशी अभियान के दौरान भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद किया है। नक्सलियों द्वारा इन विस्फोटकों को जमा किए जाने की आशंका जताई जा रही है।
बालाघाट के पुलिस अधीक्षक सचिन अतुलकर ने बताया है कि मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित भावे व भीरी के जंगल में पुलिस दल तलाशी अभियान पर था, तभी उसे नक्सलियों द्वारा विस्फोटक जमा किए जाने का पता चला। पुलिस ने मौके से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद किया।
पुलिस ने कुल 50 किलोग्राम क्लेमोरमाइड, र्छे, 10 किलोग्राम बारूद तथा तार, प्लग आदि बरामद किए हैं। इस इलाके में नक्सलियों की गतिविधियों को पुलिस नहीं नकारती है। आशंका यही है कि यह विस्फोटक नक्सलियों ने किसी वारदात की नीयत से जमा किया होगा।
इससे पहले भी बालाघाट में पिछले माह पुलिस ने सोनागुड्डा व डाबरी पुलिस चौकी के बीच स्थित जंगल में निर्माणाधीन पुलिया के करीब से जमा किया गया विस्फोटक बरामद किया था। पुलिस ने 10 पैकेट डेटोनेटर, तरल पदार्थ, लोहा व कांच के टुकड़े व तार आदि बरामद किए थे।
गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में बालाघाट नक्सल प्रभावित जिलों में से एक है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र में बढ़ी नक्सली गतिविधियों के चलते यहां भी पुलिस का खोजी सर्चिंग अभियान तेज हो गया है। इतना ही नहीं यहां नक्सलियों के प्रवेश की भी आशंका जताई जा रही है।
Date: 20-06-2011 Time: 16:13:04

रिश्ते की बहन निकली अफसर की पत्नी की हत्यारी


रिश्ते की बहन निकली अफसर की पत्नी की हत्यारी
जबलपुर, 20 जून 2011। मध्य प्रदेश के जबलपुर में मध्य प्रदेश ग्रामीण सड़क विकास निगम के मुख्य महाप्रबंधक ए.के. मिश्रा की पत्नी की हत्या किसी और ने नहीं, बल्कि रिश्ते की बहन ने की है। पुलिस ने आरोपी महिला को गिरफ्तार करने के साथ लूटे गए जेवरात व नकदी बरामद कर ली है, उसके साथी की तलाश जारी है।
ज्ञात हो कि अधारताल थाना क्षेत्र के रवींद्र नगर में रहने वाले ए.के. मिश्रा की पत्नी अंजू मिश्रा की 16-17 जून की रात हत्या कर दी गई थी। लुटेरे नकदी व जेवरात ले गए थे।
पुलिस अधीक्षक अभय सिंह ने रविवार को हत्याकांड की गुत्थी सुलझाते हुए बताया कि अंजू की हत्या उसकी मौसेरी बहन रत्ना दुबे ने अपने साथी के साथ की है। पुलिस ने आरोपी के पास से लूटे गए जेवरात व नकदी बरामद की है। आरोपी महिला ने पुलिस को बताया है कि उन्होंने अंजू की रसोई में गला दबाने के बाद उस पर हथियार से प्रहार किया था।
आरोपी महिला रत्ना ने पुलिस के सामने जुर्म कबूल कर लिया है। पुलिस रत्ना के साथी की तलाश में जुटी है। साथ ही यह भी पता लगा रही है कि हत्या की वजह लूट थी या कुछ और।

कांग्रेस व भाजपा से जुड़े लोगों का धन विदेशी बैंकों में : मायावती


भोपाल, 19 जून 2011। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का कहना है कि कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दोनों की ही मंशा विदेशों में जमा कालाधन वापस लाने की नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि इन दोनों दलों से जुड़े लोगों का धन विदेशी बैंकों में है।
भोपाल के जम्बूरी मैदान में मध्य प्रदेश सहित छत्तीसगढ़, ओडीशा व राजस्थान के कार्यकर्ताओं के अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए मायावती ने कहा कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रमंडल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम तथा आदर्श सोसायटी घोटाले हुए हैं। इन मामलों में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद कार्रवाई की है।
उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार कालाधन वापस लाना नहीं चाहती है, यही कारण है कि उसकी ओर से पहल नहीं की जा रही है। इतना ही नहीं भाजपा भी कालाधन वापस लाना नहीं चाहती। तभी तो भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार केंद्र में छह साल तक रही और उसने कालाधन वापस लाने के लिए कुछ नहीं किया।
मायावती का मानना है कि अगर विदेशों के बैंकों में जमा कालाधन वापस आ जाए तो देश में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले 50 फीसदी आबादी की गरीबी खत्म हो जाएगी।
केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुए मायावती ने कहा कि अब तक केंद्र में सत्ता में आई सरकारें पूंजीपतियों व धन्नासेठों के अनुरुप आर्थिक नीतियां बनाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि पूंजीपति की मदद से ही इनकी सरकारें बनती हैं। बात साफ है जिसका नमक खाएंगे उसके लिए हलाल भी बनना पड़ेगा।
मायावती ने कहा कि वहीं ये योजनाएं गरीब विरोधी भी हैं। यही कारण है कि दलितों, पिछड़ों व धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक समुदायों का आजादी के 63 वर्ष बाद भी सामाजिक व आर्थिक स्तर नहीं सुधर पाया है। गरीब और गरीब हो गया है तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है। परिणामस्वरुप इन वर्गो के लोग नक्सलवाद अथवा गलत रास्ते पर चले जाते है।