Sunday, March 17, 2013

पत्रकारिता में भावना बनाम तर्कबुद्धि


ललित सुरजन
मेरा हमेशा से मानना रहा है कि वंचित समाज के प्रति संवेदना रखे बिना कोई भी व्यक्ति अच्छा तो क्या, बुरा पत्रकार भी नहीं बन सकता। यहाँ अच्छे पत्रकार से मेरा आशय मोटे तौर पर उस व्यक्ति से है जो अपने पत्रकार जीवन के प्रारम्भ काल में सीखे हुए पाठ को कभी नहीं भूलता और जिसकी कलम की प्रतिबद्धता अन्त तक शोषित, वंचित, पीड़ितजन के साथ बनी रहती है। बुरे पत्रकार की परिभाषा भी मैं कुछ स्पष्ट कर दूँ – वह एक अच्छा मिलनसार, व्यवहारकुशल व्यक्ति हो सकता है, जिसके पास शायद खबरों का खजाना भी हो, लेकिन जिसकी कलम ने शायद निजी लाभ की दिशा पकड़ ली हो! यह मानना गलत नहीं होगा कि पत्रकारिता के पेशे में अमूमन वही व्यक्ति प्रवेश करता है, जो अपनी कलम से समाज और व्यवस्था में व्याप्त बुराइयों और विसंगतियों को दूर करना चाहता है।
अपने बावन साल के पत्रकार के जीवन में मुझे हर तरह के पत्रकारों से मिलने और उनमें से बहुतों के साथ काम करने का मौका मिला है। मैंने यह पाया कि शुरुआती दौर में जो जज्बा और जोश होता है वह धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगता है। ज्यादातर के सामने घर-परिवार को सम्भालने की बात होती है, लेकिन ऐसे भी कम नहीं है, जो नेता, अफसर, ठेकेदार के त्रिगुट में फँस जाते हैं और कई बार तो उस तिकड़ी के एजेन्ट ही बन जाते हैं। जो ज्यादा समझदार हैं वे अपनी उपलब्धि और ख्याति को बेहतर तरीके से भुनाने की कोशिश करते हैं। एक बड़ी संख्या उनकी भी है, जिनके लिये पत्रकारिता पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं है। ये किसी छोटे से गाँव में अखबार के विक्रेता और पत्रकार दोनों एक साथ हो सकते हैं। सम्भव है कि इनमें ऐसे लोग भी हों जो अपने छोटे-मोटे व्यापार या राजनीति को चलाने के लिये पत्रकार का रुतबा हासिल कर लेते हैं। इस सबके बावजूद कुछेक अपवादों को छोड़कर पत्रकार के कान हमेशा जमीन से लगे होते हैं और उसके आसपास क्या घटित हो रहा है, उसकी सही जानकारी उसे होती है।
ललित सुरजन, लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक हैं। देशबंधु के प्रधान संपादक हैं ।
इसीलिए पत्रकार से यह अपेक्षा हर वक्त की जाती है कि वह जनता की आवाज को उठायेगा और आम आदमी के जीवन में जो मुश्किलात हैं उन्हें हल करने में सहायक बनेगा। पत्रकार के पास प्रकाशन के जो माध्यम हैं यानी अखबार या टीवी- वे सब इस धारणा पर ही चलते हैं। देश में जनतान्त्रिक व्यवस्था के चलते जिस राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है उसमें पत्रकार और उसके पास उपलब्ध माध्यम, दोनों का काम कई गुना बढ़ गया है। गाँव-गाँव से निकलने वाले अखबार, बड़े अखबारों के प्रादेशिक या जिला संस्करण, टीवी के प्रादेशिक चैनल, स्थानीय केबल समाचार इत्यादि उसके प्रमाण हैं। क्या इसके बावजूद यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि पत्रकारिता देश की जनांकाक्षाओं पर खरी उतरी हैकम से कम मेरा उत्तर नहीं में है।
मेरे ध्यान में यह बात आती है कि हमारी पत्रकार बिरादरी में सामाजिक मुद्दों की जानकारी तो है, लेकिन उनका उपचार करने में जिस कौशल का परिचय दिया जाना चाहिये, वह अकसर नहीं दिया जाता और जरूरी बात अंजाम तक पहुँचने के पहले ही दम तोड़ देती है। मेरा कहना है कि अधिकतर समय पत्रकार पवित्र भावनाओं से प्रेरित होते हैं, लेकिन उन्हें ठोस रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं होती, जिसके चलते शासन-प्रशासन में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलते हैं। उन्हें उल्टे यह कहने का मौका मिल जाता है कि आप तो हवा में बात करते हैं। मैं रोजमर्रे की ही बातों से एक-दो उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा।
यह सब जानते हैं कि देश में नहीं सारे विश्व में जल संकट की अभूतपूर्व स्थिति है। आजकल यह भी अक्सर कहा जाता है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध छिड़ा तो वह पानी के लिए छिड़ेगा। शहरों और गाँवों में जल सकंट को लेकर आये दिन खबरें छपती ही हैं, लेकिन लगभग सारी की सारी खबरें समस्या का वर्णन करने से ज्यादा कुछ नहीं बतातीं। इस तरह यथास्थिति का वर्णन छपने से प्रभावित लोगों को भले ही थोड़ी तसल्ली मिल जाये या पत्रकार स्वयं अपनी पीठ थपथपा ले, नगरपालिका या जलप्रदाय विभाग के सम्बंधित लोगों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि वस्तुस्थिति को वे पहले से ही जानते हैं।
ऐसे में हमें करना क्या चाहिये? मेरी राय में जिस भी पत्रकार की दिलचस्पी पानी के मसले में हो, उसे राष्ट्रीय जलनीति और यदि प्रदेश की जलनीति हो तो उसका भी अध्ययन करना चाहिये। तभी उसे मालूम होगा कि जलसंकट के विभिन्न आयाम क्या हैं और मूल कारण क्या हैं। जल के आवर्धन, संरक्षण, वितरण और स्वच्छता-इन चारों पहलुओं के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाने में उसे तत्पर रहना चाहिये। एक पत्रकार जहाँ भी पदस्थ है वहाँ जलस्रोत क्या हैं, वर्षा जल की क्या स्थिति है, जल संरक्षण की पारम्परिक विधियाँ क्या हैं, नई तकनीक का इस्तेमाल किस रूप में हो रहा है, उसकी लागत नागरिक की जेब पर भारी है या उचित, जलस्रोत प्रदूषित कैसे हो रहे हैं, स्थानीय निकायों की क्या भूमिका है, जलप्रदाय के लिए आर्थिक प्रावधान क्या हैं, श्रमशक्ति का कैसा इंतजाम है- इन सबको जान-समझकर जब रिपोर्ट बनेगी तब ही उस पर समुचित व प्रभावी कार्रवाई होने की सम्भावना बन सकती है। इसी सिलसिले में एक पुराना उदाहरण याद आता है। सन् 1970-71 में रायपुर का मास्टर प्लान पहली बार बना, उसकी बहुत तारीफ हुयी, लेकिन किसी भी पत्रकार ने ध्यान नहीं दिया कि नगर की जल आपूर्ति को लेकर इस भारी-भरकम दस्तावेज में महज पाँच पंक्तियों का एक पैराग्राफ था। यानी नीतिगत स्तर पर ही खामी थी, लेकिन उस पर हमने ध्यान नहीं दिया।
इसी तरह स्वच्छता अभियान या सेनीटेशन का मामला है। एक अभियान बड़े जोर-शोर से चला कि सबको साबुन से हाथ धोना चाहिये। इसे लेकर किसी ने भी यह नहीं पूछा कि यह साबुन बनाने वाली बहुराष्ट्रीय रासायनिक कंपनियों द्वारा प्रेरित अभियान है या इसमें सचमुच कोई सार है। अब बहुत से डॉक्टर भी कह रहे हैं कि दिन में कई बार साबुन से हाथ धोने से त्वचा संवेदनहीन हो सकती है। लेकिन इस पहलू पर पत्रकारों को ध्यान गया ही नहीं। स्वच्छता से जुड़े ऐसे और भी बिन्दु हैं। इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुये स्कूल व अस्पतालों की दशा, बिजली, सड़क आदि के बारे में प्रश्न उठाये जा सकते हैं और उठाये जाना चाहियें।
आशय यह है कि एक पत्रकार को अपनी भावनाओं से समझौता किये बिना, बल्कि उन्हें जीवित रखते हुए एक तर्कप्रणाली विकसित करना चाहिये। किसी भी सामाजिक समस्या से जुड़ी हुयी घटना से तात्कालिक रिपोर्टिंग करना एक बात है, लेकिन उसके निराकरण के लिए कार्य-कारण पद्धति विकसित करना बिल्कुल दूसरी। आजकल कुछ ऐसा चलन हो गया है कि जनता को मूर्ख बनाने के लिये या उसे भ्रम में डालने के लिये लुभावने आँकड़ों को समाचार की शक्ल में परोस दिया जाता है। जिनके निहित स्वार्थ हैं वे तो यह करेंगे ही, लेकिन पत्रकार क्यों उनके झाँसे में आयें! यह योजना दस करोड़ की, वही योजना छह सौ करोड़ की, तो कोई योजना एक हजार करोड़ की- इस सबका अंतत: क्या मतलब है? हम और कुछ न करें, इतना तो कर ही सकते हैं कि जब सौ रुपये की कोई योजना सामने आये तो उसे हम अपने शीर्षक में पन्द्रह रुपये ही लिखें, क्योंकि सबको पता है कि जनता के पास तो अंतत: पन्द्रह पैसे ही पहुँचते हैं!
देशबंधु में 14 मार्च 2013 को प्रकाशित

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