Friday, August 5, 2011
हेलो बस्तर” [राहुल पंडिता की पुस्तक पर एक विमर्श] – राजीव रंजन प्रसाद
लेखक मूल रूप से बस्तर (छतीसगढ) के निवासी हैं तथा वर्तमान में एक सरकारी उपक्रम एन.एच.पी.सी में प्रबंधक है। आप साहित्यिक ई-पत्रिका "साहित्य शिल्पी" (www.sahityashilpi.in) के सम्पादक भी हैं। आपके आलेख व रचनायें प्रमुखता से पत्र, पत्रिकाओं तथा ई-पत्रिकाओं में प्रकशित होती रहती है।माओवादियों ने बस्तर को आग के हवाले कर दिया है, जिसकी तपिश में भोले-भाले आदिवासी झुलस रहे हैं। माओवादी भले ही इन क्षेत्रों के विकास की बात करते हों लेकिन उनके पास विकास का वैकल्पिक मॉडल नहीं है, उलटे वे शिक्षण संस्थानों और सड़कों को बम से उड़ाकर बस्तर के विकास मार्ग को अवरूद्ध करते हैं। यही नहीं आम आदिवासियों पर झूठे आरोप लगाकर उनकी जघन्य हत्या करते हैं तो यात्री बसों को उड़ाकर बेगुनाह लोगों की जानें ले लेते हैं। माओवाद जहां जन्मा है अब उस देश (चीन) ने इस मनुष्यता विरोधी विचारधारा को तिलांजलि दे दी है, लेकिन हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी अभी भी उसे खाद-पानी मुहैया कराने में जुटे हैं। हाल ही में राहुल पंडिता ने एक पुस्तक लिखी है “हेलो बस्तर”। इस पुस्तक में लेखक ने सतही दृष्टि से आदिवासियों के सवालों को देखने की कोशिश की है और माओवादी आंदोलन की आधी-अधूरी पड़ताल की है।
बस्तर के आदिवासियों के हितों को लेकर सजग रहनेवाले लेखक राजीव रंजन प्रसाद ने यहां के वास्तविक हालातों का जिक्र करते हुए ‘हेलो बस्तर’ पुस्तक के बहाने गहराई से विमर्श किया है। हम यहां इसे प्रकाशित कर रहे हैं (सं.)
ज्वालामुखी की उत्पत्ति, उनके गुण-धर्म, प्रसार, चट्टान बनने की प्रक्रिया आदि पर 200 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशित हो, जिसके आठ से दस पन्नों में ‘अन्य उदाहरणों के साथ साथ’ माउंट हेलेनस के प्रसुप्त ज्वालामुखी का भी जिक्र किया जाये। यही पुस्तक अगर “माउंट हेलेनस की गाथा” या “हेलो हेलेनस” जैसे शीर्षक से प्रकाशित हो कर बाजार मे आये तो क्या इसे विषयवस्तु से न्याय माना जायेगा? हेलेनस पर शोध करने अथवा रुचि रखने वाला व्यक्ति इस पुस्तक को खरीदकर ठगा सा क्यों न महसूस करे? यदि किसी कारण ‘माउंट हेलेनस’ में लोगों की तात्कालिक रुचि उत्पन हो तो निश्चय ही इस ‘शब्द’ का अपना बाजार हो जायेगा और किताब बिकेगी। इस उदाहरण को ट्रांक्वीबार प्रेस से अंगरेजी में प्रकाशित राहुल पंडिता की पुस्तक “हेलो बस्तर” से अक्षरक्ष: जोडा जा सकता है। इन दिनों ‘बस्तर’ शब्द का अपना बाजार है जिसे लेखक-पत्रकार भली भांति समझते हैं। यदि इस पुस्तक का शीर्षक “हेलो बस्तर” न रहा होता तो इसमें प्रकाशित विषयवस्तु के लिये मैंनें इसे “हरगिज” खरीदा न होता। यह पुस्तक मूल रूप से भारत में माओवादी गतिविधियों उनके इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर केन्द्रित है जिसमें कुछ गिने चुने पृष्ठ बस्तर पर भी हैं। हैदराबाद से ले कर दिल्ली तक के अनेक नामों का आरंभ में ही उनके द्वारा आभार (Acknowledgement) व्यक्त किया गया है लेकिन बस्तर से इस सूची में किसी नाम का न होना यह सोचने पर बाध्य तो करता ही है कि इस वनांचल पर उनके द्वारा एकत्रित जानकारी द्वितीयक और विशेष तौर पर माओवादी स्रोतों से ही ली गयी है यद्यपि उन्होंने यह लिख कर इतिश्री अवश्य की है कि आभार “दण्डकारण्य में उनका जो जानते हैं वे कौन है।“
“हेलो बस्तर” के भीतर का बस्तर –
पुस्तक पर समग्र चर्चा से पहले “केवल उन पृष्ठों और उद्धरणों” पर बात करते हैं जहाँ लेखक ने बस्तर का उल्लेख किया है। “हेलो बस्तर” के पहले अध्याय “ग़िव मी रेड” के पृष्ठ -8 में लेखक ने दंतेवाडा में 6 अप्रैल 2010 को सीआरपीएफ के जवानों पर हुए माओवादी हमले का जिक्र किया है जिसमें 75 जवानों की मौत हो गयी थी। इस विवरण को लिखते हुए लेखक ने संचार माध्यमों पर भी व्यंग्य किया है कि इस घटना के बाद कश्मीर से अधिक बिकने वाली खबर भारत का हृदय क्षेत्र हो गया। माओवादी प्रभाव क्षेत्रों पर चर्चा करते हुए लेखक माओवादियों के माड़ डिविजन का जिक्र करते हैं तथा अपनी तीन आगामी पंक्तियों में अबूझमाड की परिभाषा और विवरण भी देते हैं। यह सही है कि अबूझ का अर्थ “जिसे न जाना गया” ही है किंतु “माड” एक गोंडी शब्द है जिसका अर्थ होता है पहाड़। इस तरह माडिया का शाब्दिक अर्थ हुआ पहाड पर रहने वाला। अबूझमाड शब्द का बडा ही सतही प्रयोग आम तौर पर दिल्ली से बस्तर को देखने वाले अनेक लेखकों ने किया है। माडियाओं के भी दो प्रमुख प्रकार है अर्थात् वे जो माड़ या पर्वत पर हैं अबूझ माडिये और जो पर्बतों से उतर कर मैदानों में आ गये वे दण्डामि माडिये। बस्तर पर प्रामाणिक शोध 92 वर्षीय साहित्यकार और इतिहासकार लाला जगदलपुरी का माना जाता है। अपनी पुस्तक बस्तर-इतिहास एवं संस्कृति में लाला जगदलपुरी लिखते हैं कि “मडिया लोग स्वयं को “कोयतूर” कहते हैं। माडिया “गोंड” कहलाना पसंद नहीं कहते”।
प्रश्न यह है कि क्या अबूझमाड ही संपूर्ण बस्तर है? प्रोफेसर जे. आर वर्ल्यानी तथा प्रो. व्ही डी साहसी की पुस्तक “बस्तर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास” के पृष्ठ 6 से जानकारे को मैं उद्धरित कर रहा हूँ – “प्राकृतिक दृष्टि से बस्तर को छ: भागों में बाँटा जा सकता है अ) उत्तर का निम्न या मैदानी भाग – इसका विस्तार उत्तर बस्तर, परलकोट, प्रतापपुर, कोयलीबेडा, और अंतागढ तक है। ब) केशकाल की घाटी – यह घाटी तेलिन सती घाटी से प्रारंभ हो कर जगदलपुर के दक्षिण में स्थित तुलसी डोंगरी तक लगभग 160 वर्गमील क्षेत्र में विस्तृत है। स) अबूझमाड – यह क्षेत्र बस्तर के मध्य में स्थित है। इसके उत्तरपूर्व में रावघाट पहाडी घोडे की नाल की तरह फैली है। यहाँ कच्चे लोहे के विशाल भंडार हैं। द) उत्तरपूर्वी पठार- यह पठार कोंडागाँव और जगदलपुर में फैला है। इस पठार का ढाल तीव्र है। ई) दक्षिण का पहाडी क्षेत्र – इसके अंतर्गत दंतेवाडा, बीजापुर व कोंटा के उत्तरी क्षेत्र आते हैं। फ) दक्षिणी निम्न भूमि – इसके अंतर्गत कोंटा क्षेत्र का संपूर्ण भाग तथा बीजापुर क्षेत्र का दक्षिणी भाग आता है।…..। मैंने “मुम्बई-दिल्ली-वर्धा” से बस्तर लिखने वालों को कभी भी इस भूभाग को समग्रता से प्रस्तुत करने की जहमत उठाते नहीं देखा। कोई कंधे पर कैमरा उठाये दंतेवाडा पहुँच जाता है तो कोई नारायणपुर। कोई अपने स्त्रोतों-साधनों से भीतर संपर्क करता है और पहुँच जाता है माओवादी कैम्पों में……हो गया बस्तर भ्रमण, समझ आ गयी इसकी संस्कृति, इसका दर्द, इसकी आत्मा…..अब बेचो।
मुझे लगता है कि जब पुस्तक के केन्द्र में बस्तर को रखा गया है तो लेखक से यह उम्मीद की ही जा सकती थी कि इस भूमि का कुछ तो विवरण प्रस्तुत किया जाता। केवल यह लिख देने से कि इस क्षेत्र में भारत के सबसे गरीबों मे से गरीब रहते हैं यही सबसे खूनी लडाई लडी जायेगी। और फिर अबूझमाड ही न तो आजादी से पहले अबूझ था न ही महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की नृशंस हत्या तक अबूझ रहा है। एक नहीं दसियों खूनी लडाईयाँ माडियाओं ने लडी हैं और सगर्व जीती भी हैं। 1910 के भूमकाल में अबूझमाड क्षेत्र से युद्ध का नेतृत्व करने वाले आयतु माहरा की वीरता और नेतृत्व क्षमता की कहानियाँ इतिहास में दफ्न हो गयीं, लेकिन, क्रांति का ढोल पीटने वालों को इन्हे जानना अवश्य चाहिये। जब तक बस्तर राज्य था और राजधानी जगदलपुर सत्ता का केन्द्र, अबूझमाडियॉ की राजनीतिक हैसियत भी रही है और पहचान भी। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता पश्चात अत्यधिक जल्दबाजी में हुए व्यवस्था परिवर्तन में इस क्षेत्र ने बहुत कुछ खोया यहाँ तक कि अपनी आवाज भी। वृहत मध्यप्रदेश राज्य और इसके नेताओं के लिये तो बस्तर भूमि का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। तुगलकी नीति निर्माताओं ने अबूझमाड को प्रतिबंधित क्षेत्र बना दिया और माडियाओं को अपने ही तरीके से जीने के लिये छोड दिया। इस एतिहासिक गलती का ही नतीजा है कि माडिया अबूझ होते चले गये। माओवादियों ने व्यवस्था और माड क्षेत्र के बीच की इसी शून्यता का तो लाभ उठाया है।
हेलो बस्तर का दूसरा अध्याय “”हिस्ट्री हारवेस्ट”” मूल रूप से नक्सली/माओवादी आन्दोलन के इतिहास कर केन्द्रित है। दण्डकारण्य या कि बस्तर उनके द्वारा प्रस्तुत इस इतिहास का हिस्सा नहीं है। मैं जोडना चाहूंगा कि माओवादिओं को अपने इतिहास् पर जितना गर्व है उससे भी गौरवशाली और प्राचीन अतीत बस्तर के महान भूमकालियों का है। यही वह भूमि है जहाँ राजा भले भी मराठों या कि अंगरेजों के आधीन रहा हो रिआया ने अपना सिर घुटनों पर नहीं रखा। विस्तार में नहीं जाया जा सकता किंतु दस सशस्त्र विद्रोह और गेन्द सिंह, यादवराव, व्यंकुट राव, आयतुमाहरा, डेबरीधुर, गुण्डाधुर जैसे नामों की फेरहिस्त बहुत लम्बी है जिन पर बस्तर की मिट्टी गर्व करती है। माओवादियों के अंध-विस्फोटों को तो इतना भी नहीं पता कि जिनके चीथडे उडे वे निरीह सिपाही थे जिनकी मौत की गिनती बढने पर उन्हें लगता है कि व्यवस्था बदल जायेगी याकि वे आदिवासी थे जिनके कधे पर बंदूख रख कर तथाकथित युद्ध लडा जा रहा है? लेकिन शताब्दियों से बस्तर के आदिवासियों को अपनी लडाईयाँ लडते हुए इतनी समझ रही है कि उन्हें क्या चाहिये और शत्रु कौन है। यह चाहे 1774 की क्रांति में कंपनी सरकार का अधिकारी जॉनसन हो या कि 1795 के विद्रोह में कम्पनी सरकार का जासूस जे. डी. ब्लंट। 1876 के हमलों के पीछे आदिवासियों के हमलों का लक्ष्य सरकारी कर्मचारी (मुंशी) थे जिससे भिन्न किसी भी व्यक्ति पर आक्रमण नहीं किया गया तो 1859 के कोई विद्रोह में ‘केवल’ उनकी ही हत्या की गयी जिन्होंने चेतावनी के बावजूद भी सागवान के वृक्ष काटे। 1910 की क्रांति तो विलक्षण थी। आदिवासियों और गैर आदिवासियों ने संयुक्त रूप से यह लडाई लडी लेकिन कहीं भी ऐसी नृशंस हत्याओं और क्रूरताओं की कोई कहानी किसी उदाहरण में सामने नहीं आती जैसी आज की माओवादी हिंसा में दीख पडती है। बल्कि बलिदान ही दिया गया जिसमें गुण्डाधुर और लाल कालेन्द्र जैसे अग्रिम पंक्ति के नेता गुमनाम हो गये और डेबरीधुर जैसे वीर फाँसी पर झूल गये। 1964 से 66 के दरम्यान भी आदिवासी स्पष्टत: जानते थे कि उनकी माँगे क्या है और उनके निशाने कौन है। इस आलेख के माध्यम से और बस्तरिया होने के नाते मैं माओवादियों द्वारा भूमकाल जैसे महान शब्द के प्रयोग का विरोध करता हूँ। माओवादी अपनी गतिविधियों को आन्दोलन, क्रांति या जो कुछ कहना चाहे कहें लेकिन भूमकाल शब्द की आत्मा को न मारें। बस्तर में भूमकाल शब्द का अर्थ है भूमि का कम्पन जिसमें सब कुछ उलट-पुलट जाता है। एसा स्वाभाविक क्रांतियों मे ही संभव है। पुनश्च, अपने राजा, मराठाओं, ब्रिटिश सरकार तथा स्वतंत्र भारत सरकार के विरुद्ध जो भूमकाल हुए वे हैं – हलबा विद्रोह (1774-1779), भोपालपट्टनम संघर्ष (1795), परलकोट विद्रोह (1825), तारापुर विद्रोह (1842-1854), मेरिया विद्रोह (1842-1863), महान मुक्ति संग्राम (1856-57), कोई विद्रोह (1859), मुरिया विद्रोह (1876), रानी-चो-रिस (1878-1882), महान भूमकाल (1910), महाराजा प्रबीर चंद्र का विद्रोह (1964-66)। मैनें बस्तर पर कार्य करने वाले अनेकों इतिहासकारों से तथा अपनी किशोरावस्था में वृद्ध मुरिया-माडिया बस्तरियों से भूमकाल के अनेक विवरण सुने हैं। काश कि “मुम्बई-दिल्ली-वर्धा” जैसी जगहों से आने वाले पत्रकारों को कभी बस्तर समूचा तो दिखाई पडता। हे ‘लोकतंत्र के महान चौथे खंबों के ठेकेदारों’, ‘माओवाद पर इतना ही बघारो’ जितना कि बस्तर का सच है। ….और देश के बडे बडे सस्थाओं में अड्डा जमा कर बैठे लाल-पीले-हरे-नीले सोच के इतिहासकारों को भी दूर से ही प्रणाम करते हुए डॉ हीरालाल शुक्ल की पुस्तक “ बस्तर का मुक्तिसंग्राम” [पृ-241] से उद्धरित कर रहा हूँ कि “राजनीति ने ईसाई धर्म मे दीक्षित तथा अंग्रेजीदाँ बिहार के बिरसा मुंडा (1875-1901) को जो मान्यता प्रदान की वह मान्यता धुर-अशिक्षित तथा अपने आदिवासी धर्म में कर्तव्यनिष्ठ गुण्डाधुर को अभी तक नहीं मिल पायी। बिरसा का आन्दोलन ईसाई प्रभाव से अनुप्राणित था, जब कि गुण्डाधुर का आन्दोलन आटविक मानसिकता से प्रभावित था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि बिरसा मुंडा तथा गुण्डाधुर दोनों ही सामयिक थे। स्वास्थ्य की गिरावट के कारण 9 जून 1901 को बिरसा मुंडा की मृत्यु हुई जब कि गुंडाधुर 1910 की क्रांति के असफल होने के बाद बीहड वनों में गुम हो गया।“ वस्तुत: इस उद्धरण के माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूँ कि बस्तर की वास्तविक पहचान भी माओवाद के अपने प्रचारतंत्र के कारण खोती जा रही है। “हेलो बस्तर” हाल में तथाकथित रूप से बस्तर पर केन्द्रित और दिल्ली से प्रकशित तीसरी एसी किताब है जिसमें दावा तो इस वनांचल के गुंडाधुरों से परिचित कराने का है लेकिन जो कुछ बाहर आता है वह किशन जी और गणपति जैसा कुछ है। तीनों किताबों की समानता है कि इनकी भाषा खुले तौर पर लाल सोच का समर्थन करती है अर्थात निष्पक्ष नहीं कही जा सकती।“
हेलो बस्तर” का तीसरा अध्याय “”दि रिटर्न ऑफ स्प्रिंग थंडर”” भी बस्तर पर बात नहीं करता। कुछ एक पंक्तियाँ अवश्य इस ओर इशारा करती हैं कि क्यों माओवादियों को दंडकारण्य में अपना आधार इलाका बनाने की आवश्यकता पडी। पृष्ठ-38 में लेखक उल्लेख करते हैं कि “तेलंगाना के अनुभव से सीतारमैय्या ने यह जान लिया था लडना संभव नहीं है जब तक कि पहले सुरक्षित बेस न बना लिया जाये जहाँ गुरिल्लाओं को प्रशिक्षण दिया जा सके साथ ही यह स्थल विद्रोहियों के लिये अभयारण्य की तरह कार्य करेगा।“ आन्ध्र में ही मुल्लुगु के जंगलों में एसा ही करने का प्रयास किया गया जो कि असफल सिद्ध हुआ। मैं लेखक से यह उम्मीद करता था कि उनका प्रस्तुतिकरण इतना विश्लेषणपरक तो होना ही चाहिये था कि यह स्पष्ट कर सके – क्यों आन्ध्रप्रदेश के किसानों और उनकी समस्याओं को ले कर जो लडाई लडी जा रही थी उसके लिये आधार इलाका आन्ध्र के जंगलों में ही उपलब्ध न हो सका? ऐसा क्यों हुआ कि मुलुगु के जंगलों ने माओवादियों को नकार दिया? यदि राहुल जी बस्तर को हेलो कर रहे हैं तो उनसे बस्तर विषयक कुछ बुनियादी जानकारियाँ अपेक्षित थीं। सर्वप्रथम यह कि बस्तर न तो आन्ध्रप्रदेश है न तो उडीसा है न तो महाराष्ट्र है और न ही बंगाल है। बस्तर यदि इनमें से कुछ भी रहा होता तो नक्सलवादी कभी भी इसे आधार इलाका नहीं बना सकते थे।
पुस्तक के चौथे अध्याय का शीर्षक है “हेलो बस्तर”। यह अध्याय भी एकल दृष्टिकोण से बस्तर अंचल की संक्षिप्त प्रस्तुति करता है। जो यह मानते हैं कि दण्डकारण्य में माओवाद एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन हैं उन्हें अपनी गलतफहमी को दूर करने के लिये इस पुस्तक के पृष्ठ 53-54 को गंभारता पूर्वक पढना चाहिये। वृहत मध्यप्रदेश सरकार के लिये बस्तर ऐसा क्षेत्र था जिसकी कभी परवाह नहीं की गयी यह कटु सत्य है। अबूझमाड क्षेत्र को बुद्धिजीवियों, मानवविज्ञानियों और नृतत्वशास्त्रियों की राय पर प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। यहाँ अबूझमाडिये आमतौर पर बिना किसी सरकारी दखल के अपनी ही तरह जी रहे थे; दुर्भाग्यवश एक तरह का “पुरा-मानवजीवन संग्रहालय” था यह क्षेत्र। मुझे याद है कि अबूझमाड में पत्रकारों को भी प्रवेश के लिये कलेक्ट्रेट से अनुमति प्राप्त करनी होती थी। इसकी जानकारी कोंडापल्ली सीतारमैया के बेटी और दामाद जो कि एम्स, नई दिल्ली में चिकित्सक थे, को उनके बस्तर प्रवास के दौरान हुई। आन्ध्रप्रदेश लौट कर अपने अनुभव कोंडापल्ली सीतारमैय्या को खाने की टेबल पर बताते हुए उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि वस्तुत: वे माओवादियों को नई रणनीति बनाने का रास्ता दिखा रहे हैं। गोदावरी नदी के एक ओर जहाँ कोण्डापल्ली अपने अनेकानेक प्रयासों के बाद भी सफल नहीं हो सके थे उन्हें नदी के दूसरी ओर बस्तर के जंगलों के भीतर अपने गुरिल्लाओं के लिये सुरक्षित क्षेत्र बनाने का ख्याल कौंधा। यह इस लिये भी कि सीमा लगे होने के कारण आन्ध्र में किसी घटना को अंजाम दे कर बहुत आसानी से बस्तर प्रवेश कर पुलिस से बचा जा सकता था। लेखक ने बहुत विस्तार से नक्सलवादियों के बस्तर प्रवेश और उनके कारणों को न तो समझने की कोशिश की है न समझाने कि अपितु माओवादी नेताओं के साक्षात्कारों के हवाले से इस मसले को छुआ भर है। लेखक खुलासा करते हैं कि जून 1980 में पाँच से सात सदस्यों के सात अलग अलग दल भेजे गये। चार दल दक्षिणी तेलंगाना के आदिलाबाद, खम्माम, करीमनगर और वारंगल की ओर गये तथा एक दल महाराष्ट्र के गढचिरोली की ओर तथा दो अन्य दल बस्तर की ओर भेजे गये थे। राहुल पंडिता माओवादियों के बस्तर प्रवेश की दास्तां लिखते हुए उन कठिनाईयों पर तो प्रकाश डालते हैं कि कैसे भूखे प्यासे दल ने इस शांत वनांचल में प्रवेश किया। लेकिन जो तथ्य नदारद हैं वे हैं – माओवादी किस रास्ते से बस्तर में प्रविष्ठ हुए? कहाँ-कहाँ गये???? लेखक ने आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में हुई गतिविधियों और आन्दोलनों का तो विस्तार से विवरण दिया है लेकिन बस्तर पर फिर बात करने के लिये इस अध्याय के अंतिम पृष्ठों में आते हैं। पृष्ठ-63 में वे आगे लिखते हैं कि अपना कार्य/लडाई आरंभ करने के लिये पहले वन अधिकारी तथा ठेकेदारों पर ध्यान केन्द्रित किया गया। पेपर मिल के प्रबंधन ठेकेदारों तथा उन के खिलाफ संघर्ष किया गया जो वनोपज लूट रहे थे। तेन्दू-पत्ता संग्रहण तथा बांस संग्रहण की दरें बढाने के लिये संघर्ष किया गया। तेन्दुपत्ता नीति का आंशिक श्रेय माओवादियो को अवश्य दिया जा सकता है। जहाँ तक मैं समझता हूँ मैने बस्तर में न तो किसी पेपर मिल के बारे में सुना है न देखा है। लेखक संभवत: लेखक महाराष्ट्र या आन्ध्र के किसी पेपर मिल की बात कर रहे हैं? सत्यता जानने के प्रयास में जब मैनें एक स्थानीय पत्रकार से पूछा तो उन्होंने बताया कि बस्तर में किसी भी मजदूर आन्दोलन में माओवादियों की कभी भी और कोई भी सहभागिता नहीं रही है। सत्तर के दशक का बैलाडिला गोली कांड अवश्य मजदूर आन्दोलन की श्रेणी मे आता है किंतु इसका श्रेय कम्युनिष्ट पार्टियों के हिस्से है न कि नक्सलियों के।
पृष्ठ -66 पर उद्धरण है कि “माओवादियों के लिये इस क्षेत्र में सबसे बडी चुनौती भाषा की थी। आन्ध्रप्रदेश से लगे कुछ क्षेत्रों में तेलुगु भाषा बोली जाती थी किंतु जब वे भीतर प्रविष्ठ हुए तो उन्होंने पाया कि लोग वहाँ केवल गोंडी ही बोलते है। गोंडी के साथ समस्या यह थी कि इसकी अपनी कोई लिपि नहीं है। माओवादियों ने इस पर क्रमिक कार्य किया है। आज इस क्षेत्र में कार्य कर रहे सभी माओवादी गुरिल्ला गोंडी बोल और समझ लेते हैं। माओवादी इस भाषा के लिये लिपि बनाने का कार्य कर रहे हैं साथ ही जिन इलाकों में वे स्कूल चला रहे हैं वहाँ उन्होंने इस भाषा में पाठयपुस्तक भी जारी करने का प्रयास किया है।“ लेखक के इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि जिस बस्तर को माओवादी और उनके ““मेरी कलम तोप है”” टाईप के समर्थक अपना आधार इलाका होने की बात करते है उसकी आंशिक समझ भी नहीं रखते। पहली बात तो इस झूठ का तत्काल खंडन होना चाहिये कि बस्तर की संपर्क भाषा गोंडी है। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक “बस्तर- लोक कला, संस्कृति प्रसंग” के पृष्ठ-17 मे जानकारी दी है – “”बस्तर संभाग की कोंडागाँव, नारायणपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाडा में दण्डामिमाडिया, अबूझमाडिया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित है। गोंडीबोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नतायें विद्यमान हैं। इसी लिये गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हलबी बोली न होती। भाषिक विभिन्नता के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सद्भावनाएं स्थापित मिलती है और इसका मूल कारण है – हलबी। अपनी इसी उदात्त प्रवृत्ति के कारण ही हलबी, भूतपूर्व बस्तर रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी।….और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है”।“ अपनी एक अन्य पुस्तक बस्तर” इतिहास एवं संस्कृति के पृष्ठ-283-284 में बस्तर में प्रचलित गोंडी बोलियों का लाला जगदलपुरी ने वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है – “”संभाग की दक्षिणी सीमा आन्ध्रप्रदेश को छूती है, इसलिए भोपालपट्नम तहसील से ले कर कोंटा तहसील तक आबाद दोरलों की बोली “दोरली” पर तेलुगु का प्रभाव स्वाभाविक रूप से स्थापित हो गया है। पश्चिमी बस्तर का कुछ हिस्सा मराठी से प्रभावित है क्योंकि महाराष्ट्र (चाँदा जिला) लगा हुआ है। अबूझमाडिया, दण्डामिमाडिया, घोटुल मुरिया, झोरिया, दोरला और परजा धुरवा लोगों की बोलियों का सामूहिक नाम गोंडी है। अबूझमाडी, दण्डामिमाडी, मुरिया, दोरली और परजी-धुरवी बोलियाँ गोंडी की शाखाएं हैं। ये सब द्रविड भाषा परिवार से सम्बद्ध बोलियाँ हैं। गोंडी की ये सभी बोलियाँ एक दूसरे से भिन्नता लिये हुए प्रचलित हैं। नारायणपुर तहसील, घोटुलमुरिया, अबूझमाडी और झोरिया बोलियों का क्षेत्र है। कोण्डागाँव तहसील के कुछ भाग में भी घोटुलमुरिया बोली जाती है। दंतेवाडा बीजापुर और सुकमा तहसीलों में प्रमुख रूप से दण्डामिमाडी बोली का प्रचलन है।,…। धुरवी बोली जगदलपुर तहसील के दरभा और छिन्दगढ विकासखंडों में तथा आसपास रहने वाले धुरवों की बोली है। इसकी उपजाति को परजी कहते हैं”।“ कथनाशय है कि अपनी अबूझ कोशिशों से माओवादी गुरिल्ला बस्तर अंचल की बोलियों का जो क्रांतिकारी सत्यानाश कर सकते हैं उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लिपि बनाने जैसे आँखों मे धूल झोंकने वाले विवरण इस लिये हास्यास्पद लगते हैं कि बस्तर अंचल में गोंडी बोली पर बहुत कार्य हुआ है तथा देवनागरी में ही इसका अपना साहित्य तथा अनूदित साहित्य भी उपलब्ध है जिसमें बोलीगत वैविध्य की महक भी महसूस की जा सकती है। माओवादियों के महान सोच के आविष्कार किये जाने से पहले भी कम से कम दो विद्वानों के “गोंडी-हिन्दी” शब्दकोष से मैं परिचित हूँ जिनका प्रयोग अनेकों बार मैंने लोकगीतों को समझने के लिये भी किया है। पूरे बस्तर क्षेत्र में ताल ठोंक कर समानांतर सरकार चलाने का दावा करने वालों को क्या “अबूझ”माड क्षेत्र के अलावा बस्तर की थोडी बहुत “बूझ” भी है? प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. हीरा लाल शुक्ल की पुस्तक “बस्तर का मुक्तिसंग्राम” के पृष्ठ -6 में उल्लेख है कि – “वर्तमान में निम्नांकित मुख्य जातियाँ बस्तर के भूभागों में रहती हैं – 1. सुआर ब्रामन, 2. धाकड, 3. हलबा, 4. पनारा, 5. कलार, 6. राउत, 7. केवँटा, 8. ढींवर, 9. कुड़्क, 10. कुंभार, 11. धोबी, 12. मुण्डा, 13. जोगी, 14. सौंरा, 15. खाती, 16. लोहोरा, 17. मुरिया, 18. पाड़, 19. गदबा, 20. घसेया, 21. माहरा, 22. मिरगान, 23. परजा, 24. धुरवा, 25. भतरा, 26. सुण्डी, 27. माडिया, 28. झेडिया, 29. दोरला तथा 30.गोंड। उपर्युक्त मुख्य जातियों में 1 से 22 तक की जातियों की “हलबी” मातृबोली है और शेष जातियों की हलबी मध्यवर्ती बोली है। कुछ जातियों की अपनी निजी बोलियाँ भी हैं जैसे क्रम 23 और 24 में दी गयी जातियों की बोली है परजी जबकि 25 और 26 की बोली है भतरी। क्रम 27 से 30 तक की बोलियाँ हैं माडी तथा गोंडी।“ अब मुझे कोई ये बताये कि “गोंडी-गोंडी” चीखने वाले माओवादी बस्तर की बोलियों को कितना जानते हैं?
पुस्तक का पाँचवा अध्याय “गन पावर इन भोजपुर” बस्तर से सम्बंधित नहीं है अत: इस पर अभी चर्चा नहीं। छठा अध्याय है “आन्ध्रा टू अबूझमाड”। इस अध्याय में भी आन्ध्रा अधिक है और अबूझमाड न्यूनतम। अब बात इस पुस्तक के पृष्ठ-100 की। लेखक जानकारी देते हैं कि “ दक्षिण बस्तर में पार्टी ने लोगों को जल संग्रहण के लिये हौज (टैंक) बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। प्रत्येक गाँवों में “टैंक निर्माण कमिटी” बना कर इस कार्य को मूर्त रूप दिया गया।“ कुछ निर्मित टैंकों तथा बांसागुडा के बाँध का विवरण लेखक ने दिया है। पूसानार गाँव का उदाहरण देते हुए वे यह जोडना भी नहीं भूलते कि कुछं गाँवों में सिपाहियों ने इन निर्माणों को नष्ट किया तथा इनकी आड में माओवादियों को कुचलने का कार्य भी किया है। माओवादियों ने मत्स्यपालन को बढावा दिया है तथा आदिवासियों द्वारा पाली गयी मछलियों को दिल्ली और कलकत्ता में भी बाजार उपलब्ध कराया है। आदिवासियों को तरह तरह की सब्जियाँ लगाने के लिये प्रेरित किया गया है। राहुल लिखते है कि वर्ष 1996-97 में 20,000 फलों के पौधे आदिवासियों में वितरित किये गये थे तथा 1996-98 के बीच दक्षिण बस्तर के 100 आदिवासी परिवारों के बीच बैल बाँटे गये।“ राहुल के अनुसार कई सौ स्थायी तथा चलायमान विद्यालयों में बी.बी.सी की डॉक्युमेंट्री के जरिये विज्ञान पढाने की कोशिश की जा रही है तथा नियमित कक्षाओं के साथ साथ राजनीति तथा सामान्य ज्ञान भी पढाया जाता है। राहुल लिखते हैं कि गोंडी की कोई लिपि न होने के बाद भी माओवादियों ने गणित तथा विज्ञान की प्राथमिक कक्षाओं के लिये पाठ्यपुस्तक निकाली हैं। इन किताबों में साफ-स्वच्छ रहने तथा अंधविश्वास से बचने जैसी बाते भी सिखाई जा रही हैं। माओवादियों ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी राज्य द्वारा छोडे गये शून्य को भरने की कोशिश की है एवं सभी गुरिल्ला दलों में एक व्यक्ति चिकित्सा के क्षेत्र में प्रशिक्षित होता है। इस विषय का अंत करते हुए लेखक पृष्ठ संख्या 103 में लिखते हैं कि दण्डकारण्य में सबसे अधिक मजबूत आजाद क्षेत्र अबूझमाड है जिसे माओवादी “सेंट्रल गुरिल्ला बेस” कहते हैं।“ इस विवरण के बाद इस अध्याय में आगे बातें माओवादियों के संगठन, उनके हथियार, उनके आय स्त्रोत तथा प्रमुख नेताओं पर केन्द्रित है।
मुझे अपेक्षा थी कि कम से यह अध्याय इतनी जानकारी तो अवश्य देगा कि माओवादी आन्ध्र से बस्तर के भीतर प्रविष्ठ हुए अथवा महाराष्ट्र से? अगर आन्ध्र से तो फिर महाराष्ट्र से लगा हुआ बस्तर का “घोषित मानव संग्रहालय क्षेत्र” अबूझमाड ही उनका सबसे बडा आधार क्षेत्र क्यों बना कोंटा, सुकमा जैसी जगहों पर भी ऐसी ही पकड क्यों नहीं रही? 1996 के बाद से 2011 तक किसी भी तरह के बीज वितरण, पौध वितरण या मवेशी वितरण के आंकडे लेखक ने इस पुस्तक में क्यों प्रस्तुत नहीं किये हैं? इन पंद्रह वर्षों में बहुत पानी इन्द्रावती में बह गया है लेकिन विवरण या तो लेखक को नहीं मिल सके या कि अब केवल और केवल बंदूक की खेती पर ही माओवादियों का अधिकतम ध्यान केन्द्रित है?….। बस्तर क्षेत्र विंध्यन शैल समूह, नीवन शैल समूह, कडप्पा शैल, प्राचीन ट्रैप, आर्कियन ग्रेनाईट-नीस, धारवाड क्रम तथा समसे प्राचीन शैल समूहों का भूविज्ञान समेटे है। यहाँ की चट्टानों की प्रवृत्ति के आधार पर आप हर कहीं एक्विफर मिलने की कल्पना नहीं कर सकते। आँख मूंद कर जहाँ मर्जी आयी वहाँ पर जलग्रहण के कार्यक्रम चलाने की हमारे सर्वज्ञाता गैरसरकारी संगठनों की नीति पर भी यदि माओवादी चल रहे हैं तो मैं अधिक नहीं कहना चाहूंगा लेकिन मुझे अपने स्वयं के सर्वे और आंकडों के आधार पर माओवादियों द्वारा प्रचारित ऐसी बाते बढा चढा कर कही गयी अधिक प्रतीत होती हैं, अर्थात दो करो और आठ कहो। मेरे आपत्ति व्यक्त करने से क्या होता है लेकिन क्या ये सच नहीं कि सब्जियाँ आदिवासियों को बाजार देने से अधिक गुरिल्लाओं की आवश्यकता पूर्ति के लिये ही लगवायी जा रही है जो कि माडियों की स्वाभाविक खेती प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है? पुस्तक में यह जानकारी भी स्पष्टता से दी जानी चाहिये थी कि किस-किस गाँव में ऐसी मछलियाँ पली और कब कैसे लद कर दिल्ली और कलकत्ता पहुँच गयी? इतना “विराट” मत्स्य उत्पादन कि आसपास का बाजार छोडिये सीधे दिल्ली-कलकत्ता सप्लाई?? मैंने हाल में ही आदिवासी बाजारों की शैली में आये परिवर्तन जानने के लिये अनेकों बाजारों और बेचे जा रहे सामानों का अध्ययन किया है, ऐसा कुछ क्षेत्रीय बाजार में नजर तो नहीं आता? और फिर क्यों नजर आये…सारा माल बाहर चला जाता होगा, जैसे कश्मीर के सेब चले जाते हैं?? माओवादियों की किताबों में क्या होगा और इससे आम अबूझमाडियों का मष्तिष्क किस तरह धुलेगा इसे समझने के लिये अधिक शोध की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इससे पहले यह जवाब भी जरूरी है कि किस गोंडी का जिक्र राहुल की किताब में है – अबूझमाडी, दण्डामिमाडी, मुरिया, दोरली या कि परजी-धुरवी? इन पाठय पुस्तकों को सार्वजनिक क्यों नहीं किया जाता कि गोंडी समझने वाले यह तो जान सकें कि पढाया क्या जा रहा है? उस इजाद लिपि को भी तो देखें कैसी है फारसी जैसी या कि चीनी की तरह? इस पाठपुस्तकों के कंटेंट और उनके पीछे की रिसर्च पर भी मुझे संदेह ही है। यह इत्तिफाक नहीं लगता कि बस्तर के भीतर या तो मिशनरी आसानी से काम कर पाते हैं या आरएसएस या फिर माओवादी? कितनी अजीब बात है कि जब आदिवासियों को मिशनरी या कि आरएसएस के स्वयंसेवक धर्म की घुट्टी पिलाते हैं तो दिल्ली में बैठे समाज सेवियों के कलेजे से कराह निकल जाती है और तुरंत ही इसे आदिवासियों की पहचान से हमला करार दिया जाता है। लेकिन मान्यवर जो नास्तिकता की शराब माओवादियों के प्यालों ने छलकानी आरंभ कर दी है क्या वह भी आदिम सभ्यता उनकी मान्यताओं और उनकी पहचान पर हमला नहीं है? एक ही बात एक ही समय में सही और गलत दोनो तो नहीं हो सकती?….। लेखक को क्या बस्तर में माओवादियों द्वारा सडकों, स्कूलों और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को नष्ट किये जाने के आँकडे नहीं मिले या उन्होंने जान बूझ कर इन आंकडों को “”हेलो”” करने की जगह “”बाई-बाई”” कर दिया?
अपने सातवे अध्याय “द गुरिल्लाज द रिपब्लिक” का प्रारंभ लेखक ने एक प्रश्न से किया है – वह क्या है जिसने दण्डकारण्य के युवा पुरुषों और महिलाओं को माओवादियों की ओर आकर्षित किया है? और इसके उत्तर में राहुल लिखते हैं कि आदिवासियों में माओवादियों ने ताकत का अहसास दिया है अन्यथा सदियों से तो यहाँ कुछ भी नहीं बदला है। माफ कीजियेगा राहुल जी आपका चश्मा उल्टा है। अबूझमाड जैसी सुरक्षित जगह पा कर और आदिवासियों के साथ ने माओवादियों को ताकत का अहसास दिया है। खंगालिये बस्तर के इतिहास को तो बस्तरियों की चौडी छाती का कारण मिल जायेगा। अनेकों उदाहरण यह भी हैं जब इन्ही आदिवासियों ने माओवादियो के खिलाफ भी अपने परम्परागत हथियार तान दिये और अनेकों अवसर पर सरकारी बंदूकें भी। सही और गलत की बहस यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है काश कि यह अहसास हो कि जो हर ओर से पिस रहा है असल में वह आदिवासी ही है।
राहुल ने अपने किसी माओवादी प्रभावित गाँव में प्रवास के समय की तीन घटनाओं का उल्लेख किया है। पहला कि रेडियो सुनते हुए छतीसगढ सरकार की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट की घोषणा पर प्रतिक्रिया देते हुए एक गुरिल्ला ने कहा कि आप लुटेरों से साधु हो जाने की अपेक्षा नहीं कर सकते। दूसरी घटना कि जंगल में किसी कैम्प के पास माओवादी गुरिल्लाओं ने एक जहरीले साँप को देखा जिसके मुँह में दूसरा साँप दबा हुआ था। इसे तुरंत मार दिया गया। तीसरी घटना जब माओवादी दल के साथ वे किसी झोपडी में रात को रुके तो महुआ के नशे में कुछ देर बाद मेजबान आदिवासी रोने लगा। रोने का मन कर रहा है इस लिये रो रहा हूँ यह उसका बताया हुआ कारण था। इन तीनों ही घटनाओं के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है। पहली घटना यह तो साफ करती है कि सरकार को ले कर तात्कालिक प्रतिक्रिया कडवी है और उसके किसी भी तरह के कार्य की अवहेलना गुरिल्लाओं द्वारा की ही जायेगी। दूसरी घटना आपत्तिजनक है। जंगल को आधार इलाका मानने वालों को उनके जीव जंतुओं के साथ जीना भी आना चाहिये और उनके जीवन की रक्षा का दायित्व भी जबरन काबिजों और स्वयं घोषित समानांतर सरकार का ही है। हे पर्यावरण के कर्ताधर्ताओं.. बस्तर की बोलती मैना को तो चुपचाप मरता हुआ देख लिया और आप एनडीटीवी के सेव टाईगर कंपेन में व्यस्त रहे अब कुछ इधर के साँपों की भी सुध लो भाई!! माओवादी बस्तर की जैवविविधता को अपना कवच बना कर घुसे हैं और अब उसे भी नष्ट करने में गुरेज नहीं करते। तीसरी घटना भी मुझे स्वाभाविक नहीं लगती। राहुल जी क्या करीब से देखा था आपने? वे आँसू निश्चय ही खून के रहे होंगे।
इस किताब में बस्तर पर इतनी ही बात की गयी है। इसके बाद के तीन अध्याय ““द रिबेल””, ““द अरबन एजेन्डा””, “”द डेथ ऑफ ए बैलून सेलर”” तथा “”कॉमरेड अनुराधा गाँधी एन्ड आईडिया ऑफ इंडिया”” वस्तुत: माओवादियों के कार्य करने के तरीकों, शहरों को ले कर उनकी रणनीति, अन्य आन्दोलनों से उनके अंतर्सम्बंधों आदि का विवरण है। मुझे इस बात की भी निराशा है कि इस पुस्तक के अंतिम अध्याय के लेखक कोबाड गाँधी ने भारत भर के आँकडे समेट कर बहुत सी बाते कहीं लेकिन उस बस्तर को हेलो कहने के लिये उन्हे चार वाक्य भी नहीं मिले जिसे गर्व से वे स्वयं “आधार इलाका” कहते हैं।
…और क्या कहती है पुस्तक?
यह किताब पढे जाने योग्य है यद्यपि यह एक पक्षीय तथा एक ही दृष्टिकोण से माओवाद पर बात करती है। कोबाड की गिरफ्तारी से ले कर उनके द्वारा किताब के अंतिम अध्याय को लिखे जाने के बीच लेखक का विषय पर श्रम दिखाई पडता है। बस्तर को ले कर उनकी जानकारी को मैं आधी अधूरी अवश्य कहूंगा लेकिन कथ्य की आत्मा को उन्होंने थाम कर रखा है। भारतीय शहरी मध्यम वर्ग को जहाँ उन्होंने आईना दिखाया है वहीं व्यवस्था को भी अनेकों स्थलों पर कटघरे में खडा किया है। जिन्हें यह जानने में रुचि है कि नक्सलवादी आन्दोलन की पृष्ठभूमि क्या है और कैसे यह प्रसारित हो कर सुरसा का मुख बना, वस्तुत: यह पुस्तक उन्हीं के लिये है। किताब प्रकाश डालती है कि माओवादी गुरिल्ला किस तरह कार्य करते हैं तथा अपने आन्दोलन को ले कर उनकी सोच क्या है।
इस किताब में माओवादी लक्ष्य उनकी दलीय संरचना तथा धनार्जन के स्त्रोतों आदि पर भी बात की गयी है। किताब शहरों को ले कर माओवादी सोच और रणनीति की बात भी करती है। लेखक ने माओवाद और अन्य जनाअन्दोलनों के अंतर्संबधों पर भी चर्चा की है। किताब मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल से आरंभ हुए नक्सलबाडी आन्दोलन तथा तेलंगाना संघर्ष के इर्द गिर्द घूमती है। कई माओवादी नेताओं के जीवन संघर्षों पर भी समुचित प्रकाश डाला गया है। यहाँ तक कि बिना लाग लपेट के कानू सान्याल की उपेक्षा भी दर्शाती है और यह भी बताती है कि बस्तर के भीतर आधार क्षेत्र बनाने की सोच के जन्मदाता कोंडापल्ली सीतारमैय्या का जब देहांत हुआ तो उनकी अंतिम यात्रा में मुट्ठी भर माओवादी भी एकत्रित नहीं हो सके थे। पुस्तक में कई स्थलों पर सूक्ष्मता से माओवादियों की कार्यशैली को भी कटघरा दिया गया है मसलन पृष्ठ 97 में उल्लेख है कि “समय समय पर मिली कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि ‘माओवादी रैंक्स’ ने अपनी महिला कैडर का यौन शोषण भी किया है”। पृष्ठ-108 में उल्लेख है कि “…21 सडक निर्माण परियोजनाओं को बंद कर दिया चूंकि ठेकेदारों ने माओवादियों को पैसे (लेव्ही) देने से इनकार कर दिया था।“ इसी पृष्ठ में आगे उल्लेख है कि “…..झारखंड के लौह अयस्क, खदानों तथा क्रशर ईकाईयों से माओवादी लगभग 500 करोड की उगाही करते हैं। पृष्ठ 133 में उल्लेख है “….दण्डकारण्य तथा अन्य प्रभाव के क्षेत्रों में उन ग्रामीणों को जिन पर पुलिस का मुखबिर होने का संदेश हुआ की गला रेत कर हत्या की गयी। इसी तरह पृष्ठ 155-156 में चीन से लाखों डॉलर की हथियार खरीद जैसे कुछ विवरण है जो भले ही जांच का विषय हो चौंकाते अवश्य हैं। मैं अनुराधा गाँधी और उनके द्वारा महाराष्ट्र में किये गये कार्यों के उल्लेख से प्रभावित हुआ। दण्डकारण्य के विवरण में जहाँ जहाँ अनुराधा गाँधी का उल्लेख आया मैंने जिज्ञासु हो कर पढा कि कहीं इस अंचल के लिये किये गये उनके कार्यों की बानगी भी किसी पंक्ति में मिले। संभवत: “आधार क्षेत्र” माओवादियों के लिये पनाह स्थली की तरह ही है..बस?
और अंत में -
इस वनांचल का शोधपरक विवरण देती पहली पुस्तक “बस्तर भूषण” 1908 में प्रकाशित हुई थी। इसके 2005 में प्रकाशित संस्करण के आमुख में रमेश नैय्यर लिखते हैं कि “भारत के ही अनेक हिस्सों में बस्तर को एक अजूबे की तरह देखा जाता है। मीडिया भी इसे कई बार विचित्र किंतु सत्य की शैली में प्रस्तुत करता है। बस्तर अनेक सूरदास विशेषज्ञों का हाथी है, सब अपने अपने ढंग से उसका बखान कर रहे हैं। बस्तर को वे कौतुक से बाहर बाहर को देखते हैं और वैसा ही दिखाते हैं।“ इतना ही नहीं इस अंचल की सांस्कृतिक विरासत पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं “….। “एल्विन के लेखन में बस्तर के आदिवासी का रुमान अपेक्षाकृत अधिक झलकता है। वह रुमान अब बस्तर में नक्सली उग्रवाद के विस्तार से बिखर चुका है”। अपने एक साक्षात्कार में “बस्तर की पहचान आदरणीय लाला जगदलपुरी” कहते हैं “यदि नक्सली भी मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये”।….। बस्तर के भीतर कोई कुछ भी कहे और कितना भी शोध कर ले चमकती हुई दिल्ली में चम चम करती लेखन की दुनिया है। वह वही परोसती है जो बिकता है।
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