यही नहीं, उनका दुर्भाग्य यही तक सीमित नहीं रहा। निरीह आदिवासियों के बीच गैर-अदिवासी इलाकों के ढेरों और वेदविश्वासी पहुंचे. वैदिकों की नंबर-2 टीम ने अपनी तिकडमबाजी और जालसाजी के चलते अपना राज कायम कर, उन्हें गुलाम बना लिया. जमीन उनकी और मालिक बन गए बाबुसाहेब और बाबाजी. मेहनत उनकी और फसल काटते रहे बाबाजी-बाबूसाहेब. ये उनके श्रम के साथ उनकी इज्ज़त-आबरू भी बेरोक-टोक लुटते रहे.इन इलाकों में सपोर्टेशन,सप्लाई,डीलरशिप इत्यादि सहित जो भी थोड़ी बहुत आर्थिक गतिविधियां थी,सब पर इनका कब्ज़ा कायम हो गया.
उनके दुर्भाग्य का चक्का यहीं नहीं थमा. शोषण और गरीबी के दलदल में धकेले गए आदिवासियों पर नजर पड़ी वैदिकों की ही एक और टीम की. वैदिकों की नंबर-3 टीम शोषण-गरीबी को हथियार बनाकर भारत में मार्क्स और माओ का सपना पूरा करने के लिए उपयुक्त लोगों की तलाश में थी. उन्होंने पहाड़ी-विद्रोह(1756-1773 ),चुवार-विद्रोह(1793-1800),गोंड-विद्रोह(1819-1842),कोल-विद्रोह(1831-1832),संथाल-विद्रोह(1855-1856)और सरदार मुंडा-विद्रोह (1859-1894)के इतिहास के आईने में यह गणित तैयार कर लिया कि सिद्धू-कानू-विरसा मुंडा की संतानों को गरीबी-और शोषण के सहारे क्रांति के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसे में अपने लक्ष्य के लिए विस्तृत भूभाग में फैले आदिवासियों पर ही ध्यान केंद्रित किया और इनके लिए बड़ी चालाकी से जल-जंगल और जमीन के अधिकार की लड़ाई का सुरक्षित अजेंडा स्थिर किया. इससे वे अपने सजाति वैदिकों की नंबर-२ टीम के उद्योग-व्यापार आदि पर कब्जे को सुरक्षित रखते हुए जल-जंगल-जमीन की अंतहीन लड़ाई में खुद को व्यस्त रख सकते थे.
आदिवासी इलाकों में माओवाद/नक्सलवाद के प्रसार के साथ माओवादियों के समर्थन में हाथ में कलम लिए वैदिकों की एक और टीम मैदान में उतर आई. वैदिकों की इस टीम नंबर-4 में लेखक –पत्रकार, कालेज और विश्वविद्यालयों के अध्यापक तथा विदेशों से करोड़ो-करोड़ों का अनुदान पानेवाले एनजीओ संचालक हैं. माओवाद के बौद्धिक समर्थक विलासितापूर्ण जीवन शैली के अभ्यस्त हैं.
ये महंगी से महंगी शराब और सिगरेट का सेवन करते तथा शहरों के आभिजात्य इलाकों में वास करते हैं.ये मंचों से अमेरिका की बखिया उधेड़ते हैं किन्तु अपने बच्चो को वहां सेटल करने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं.इन बौद्धिकों की मिडिया में सीधी पहुँच है, लिहाजा माओवाद तथा आदिवासी मामलों के एक्सपर्ट के रूप में ये अपनी छवि स्थापित का लिए हैं. आदिवासी समस्या पर आमलोग इनकी ही भाषा बोलते नजर आते हैं.
आदिवासी और माओवादियों के बीच इनका बेरोक-टोक आना-जाना रहता है. आदिवासियों की बेहतरी के लिए इनका क्या अजेंडा है? इनका पहला अजेंडा यह है कि आदिवासी इलाकों में उद्योग-धंधे न लगें. इससे उनका विस्थापन और शोषण होता है. दूसरा,आदिवासी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाया जाय और आदिवासियों को जल,जंगल और जमीन का बेरोक-टोक अधिकार दिया जाय. तीसरा,कुछ हद तक हिडेन है और वह यह है कि आ
उनके दुर्भाग्य का चक्का यहीं नहीं थमा. शोषण और गरीबी के दलदल में धकेले गए आदिवासियों पर नजर पड़ी वैदिकों की ही एक और टीम की. वैदिकों की नंबर-3 टीम शोषण-गरीबी को हथियार बनाकर भारत में मार्क्स और माओ का सपना पूरा करने के लिए उपयुक्त लोगों की तलाश में थी. उन्होंने पहाड़ी-विद्रोह(1756-1773 ),चुवार-विद्रोह(1793-1800),गोंड-विद्रोह(1819-1842),कोल-विद्रोह(1831-1832),संथाल-विद्रोह(1855-1856)और सरदार मुंडा-विद्रोह (1859-1894)के इतिहास के आईने में यह गणित तैयार कर लिया कि सिद्धू-कानू-विरसा मुंडा की संतानों को गरीबी-और शोषण के सहारे क्रांति के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसे में अपने लक्ष्य के लिए विस्तृत भूभाग में फैले आदिवासियों पर ही ध्यान केंद्रित किया और इनके लिए बड़ी चालाकी से जल-जंगल और जमीन के अधिकार की लड़ाई का सुरक्षित अजेंडा स्थिर किया. इससे वे अपने सजाति वैदिकों की नंबर-२ टीम के उद्योग-व्यापार आदि पर कब्जे को सुरक्षित रखते हुए जल-जंगल-जमीन की अंतहीन लड़ाई में खुद को व्यस्त रख सकते थे.
आदिवासी इलाकों में माओवाद/नक्सलवाद के प्रसार के साथ माओवादियों के समर्थन में हाथ में कलम लिए वैदिकों की एक और टीम मैदान में उतर आई. वैदिकों की इस टीम नंबर-4 में लेखक –पत्रकार, कालेज और विश्वविद्यालयों के अध्यापक तथा विदेशों से करोड़ो-करोड़ों का अनुदान पानेवाले एनजीओ संचालक हैं. माओवाद के बौद्धिक समर्थक विलासितापूर्ण जीवन शैली के अभ्यस्त हैं.
ये महंगी से महंगी शराब और सिगरेट का सेवन करते तथा शहरों के आभिजात्य इलाकों में वास करते हैं.ये मंचों से अमेरिका की बखिया उधेड़ते हैं किन्तु अपने बच्चो को वहां सेटल करने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं.इन बौद्धिकों की मिडिया में सीधी पहुँच है, लिहाजा माओवाद तथा आदिवासी मामलों के एक्सपर्ट के रूप में ये अपनी छवि स्थापित का लिए हैं. आदिवासी समस्या पर आमलोग इनकी ही भाषा बोलते नजर आते हैं.
आदिवासी और माओवादियों के बीच इनका बेरोक-टोक आना-जाना रहता है. आदिवासियों की बेहतरी के लिए इनका क्या अजेंडा है? इनका पहला अजेंडा यह है कि आदिवासी इलाकों में उद्योग-धंधे न लगें. इससे उनका विस्थापन और शोषण होता है. दूसरा,आदिवासी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाया जाय और आदिवासियों को जल,जंगल और जमीन का बेरोक-टोक अधिकार दिया जाय. तीसरा,कुछ हद तक हिडेन है और वह यह है कि आ
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