Sunday, April 7, 2013

सवर्णों के कब्जे में आदिवासी संघर्ष



 शोषण और गरीबी के दलदल में धकेले गए आदिवासियों पर नजर पड़ी वैदिकों की ही एक और टीम की. वैदिकों की नंबर-3 टीम शोषण-गरीबी को हथियार बनाकर भारत में मार्क्स और माओ का सपना पूरा करने के लिए लोगों की तलाश में थी...
एच एल दुसाध 

चार दशक से चल रहे नक्सलवादी आन्दोलन के इतिहास में 6 मार्च 2010 एक खास दिन था. उस दिन माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने घोषणा किया था, ’हम 2050 के बहुत पहले भारत में तख्ता पलट कर रख देंगे. हमारे पास अपनी पूरी फ़ौज है.’ उनके उस बयान पर गृहसचिव जीके पिल्लई ने कहा था, ’माओवादी यह सपना देखते रहें, आखिर डेमोक्रेसी में सबको सपना देखने का अधिकार है.’ जाहिर है सरकार ने माओवदियों की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया था. किन्तु उसके बाद थोड़े-थोड़े अंतराल पर बड़ी-बड़ी वारदातों को अंजाम देकर यह संकेत देते रहे कि वे सिर्फ सपना ही नहीं देखते बल्कि उसे मूर्त रूप देने कि कूवत भी रखते हैं.
tribals-adivasis-of-indiaबहरहाल माओवादी जब-जब राष्ट्र को सकते में डालनेवाली घटनाओं को अंजाम देते हैं, तब-तब हमारे बुद्धिजीवी भी कलम के साथ सक्रिय हो जाते हैं. कोई सरकार को माओवादियों से कड़ाई से निपटने का सुझाव देता है तो कोई माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास की गंगा बहाने का नुस्खा पेश करता है. कुछ बुद्धिजीवी विदेशी विद्वानों के अध्ययन के आधार पर नए सिरे से इस समस्या के जड़ को पहचानने की कोशिश करते हैं. किन्तु ऐसे लोग इसकी जड़ों की पहचान के लिए संविधान निर्माता डॉ आंबेडकर की ओर मुखातिब नहीं होते. जबकि सच्चाई यही है कि डॉ आंबेडकर को पढ़े बिना न तो हम इस समस्या की सही पहचान कर सकते हैं और न ही उपयुक्त समाधान 
 षण औआजाआजाद भारत में शक्ति के स्रोतों का जो असमान बंटवारा हुआ। उससे सर्वाधिक प्रभावित होनेवाले आदिवासी ही रहे. ऐसा क्यों कर हुआ,इसका जवाब डॉ आंबेडकर की महानतम रचना ’जाति का उच्छेद’ में ढूंढा जा सकता है. उन्होंने आदिवासियों की दुर्दशा के कारणों की खोज करते हुए इसमें लिखा है, ’अपने को सुसंस्कृत एवं सभ्य माननेवाले हिंदुओं के बीच ही करोड़ों से अधिक असभ्य और अपराधी जीवन व्यतीत करनेवाले आदिवासी विद्यमान हैं, परन्तु हिंदुओं ने कभी इस स्थिति को लज्जाजनक अनुभव नहीं किया. इस लज्जाहीनता की मिसाल मिलना कठिन है. हिंदुओं की इस उदासीनता का क्या कारण हो सकता है? क्या कारण है कि आदिवासियों को सुसभ्य व सम्मानित जीवन बिताने का अवसर प्रदान करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?

हिंदुओं द्वारा ऐसा चाहते हुए भी संभव नहीं था. ईसाई मिशनरियों की भांति काम करके अदिवासियों को सम्मुनत बनाने का अर्थ होता, उन्हें अपने कुटुम्बियों की भांति अपनाना,उनके साथ रहना, उनमे परिजनों का भाव पैदा करना. सारांश यह कि उन्हें हर प्रकार से स्नेह प्रदान करना. किसी हिंदू के लिए यह कैसे संभव था ? हिंदू के जीवन का उद्देश्य ही अपनी संकुचित जाति की रक्षा करना है. जाति उसकी बहुमूल्य थाती है, जिसे वह किसी भी दशा में गंवा नहीं सकता, फिर भला वेदनिन्दित अनार्यों की संतान इन आदिवासियों के संसर्ग में आकर हिंदू अपनी जाति खोने को क्यों तैयार होते? बात यहीं तक नहीं है कि हिंदुओं को पतित मानवता के प्रति द्रवीभूत नहीं किया जा सकता. कठिनाई यह रही है कि कितना प्रभाव क्यों न डाला जाय, हिंदुओं को अपनी जाति निष्ठा छोडने के लिए राजी नहीं किया जा सकता .

वेदनिन्दित अनार्य आदिवासियों के दुर्भाग्य से आजाद भारत की सत्ता वेदविश्वासियों के हाथ में आई, जिन्होंने शक्ति के स्रोतों में इनका प्राप्य नहीं दिया. आदिवासी इलाकों में लगने वाली परियोजनाओं में बाबु से मैनेजर आर्य संतानें ही रहीं.यदि इन्होंने इनको उन परियोजनाओं की श्रमशक्ति,सप्लाई,डीलरशिप,ट्रांसपोर्टेशन इत्यादि में न्यायोचित भागीदारी तथा विस्थापन का उचित मुआवजा दिया होता, इनकी स्थित कुछ और होती.

यही नहीं, उनका दुर्भाग्य यही तक सीमित नहीं रहा। निरीह आदिवासियों के बीच गैर-अदिवासी इलाकों के ढेरों और वेदविश्वासी पहुंचे. वैदिकों की नंबर-2 टीम ने अपनी तिकडमबाजी और जालसाजी के चलते अपना राज कायम कर, उन्हें गुलाम बना लिया. जमीन उनकी और मालिक बन गए बाबुसाहेब और बाबाजी. मेहनत उनकी और फसल काटते रहे बाबाजी-बाबूसाहेब. ये उनके श्रम के साथ उनकी इज्ज़त-आबरूआजाद भारत में शक्ति के स्रोतों का जो असमान बंटवारा हुआ। उससे सर्वाधिक प्रभावित होनेवाले आदिवासी ही रहे. ऐसा क्यों कर हुआ,इसका जवाब डॉ आंबेडकर की महानतम रचना ’जाति का उच्छेद’ में ढूंढा जा सकता है. उन्होंने आदिवासियों की दुर्दशा के कारणों की खोज करते हुए इसमें लिखा है, ’अपने को सुसंस्कृत एवं सभ्य माननेवाले हिंदुओं के बीच ही करोड़ों से अधिक असभ्य और अपराधी जीवन व्यतीत करनेवाले आदिवासी विद्यमान हैं, परन्तु हिंदुओं ने कभी इस स्थिति को लज्जाजनक अनुभव नहीं किया. इस लज्जाहीनता की मिसाल मिलना कठिन है. हिंदुओं की इस उदासीनता का क्या कारण हो सकता है? क्या कारण है कि आदिवासियों को सुसभ्य व सम्मानित जीवन बिताने का अवसर प्रदान करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?

हिंदुओं द्वारा ऐसा चाहते हुए भी संभव नहीं था. ईसाई मिशनरियों की भांति काम करके अदिवासियों को सम्मुनत बनाने का अर्थ होता, उन्हें अपने कुटुम्बियों की भांति अपनाना,उनके साथ रहना, उनमे परिजनों का भाव पैदा करना. सारांश यह कि उन्हें हर प्रकार से स्नेह प्रदान करना. किसी हिंदू के लिए यह कैसे संभव था ? हिंदू के जीवन का उद्देश्य ही अपनी संकुचित जाति की रक्षा करना है. जाति उसकी बहुमूल्य थाती है, जिसे वह किसी भी दशा में गंवा नहीं सकता, फिर भला वेदनिन्दित अनार्यों की संतान इन आदिवासियों के संसर्ग में आकर हिंदू अपनी जाति खोने को क्यों तैयार होते? बात यहीं तक नहीं है कि हिंदुओं को पतित मानवता के प्रति द्रवीभूत नहीं किया जा सकता. कठिनाई यह रही है कि कितना प्रभाव क्यों न डाला जाय, हिंदुओं को अपनी जाति निष्ठा छोडने के लिए राजी नहीं किया जा सकता .

 

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