Saturday, July 31, 2010
Thursday, July 29, 2010
चैनल के खिलाफ खबर चलाई तो मिलने लगी जान से मारने की धमकी
भारत में वेब के मीडिया बनने की अभी ठीक से शुरूआत भी नहीं हुई है. लेकिन वेब मीडिया के स्वतंत्र अस्तित्व को बाधित करने के लिए न केवल सरकार सक्रिय है बल्कि अपने आप को व्यवस्था का चौथा खंभा कहनेवाले मीडिया घराने भी इसकी औकात बताने पर उतारू हैं. आये दिन वेब मीडिया से जुड़े लोगों को धमकियां, नोटिस तो मिलती ही रहती हैं, अब जान से मारने की धमकी भी मिलने लगी है.
ताजा मामला पुष्कर पुष्प और उनकी वेबसाइट मीडियाखबर.कॉम से जुड़ा हुआ है. उन्होंने दिल्ली के एक झोलाछाप समाचार चैनल आजाद न्यूज के खिलाफ स्टोरी की सीरिज चलाई जिसमें चैनल के अंदर व्याप्त अनियमितताओं के बारे में लिखा. इसका परिणाम यह हुआ कि पुष्कर पुष्प को जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं जिससे घबराकर उन्होंने दिल्ली के पाण्डव नगर थाने में अपनी जान की सुरक्षा की गुहार लगाई है. इस वक्त वेबसाइट भी बंद है, हालांकि वेबसाइट ओनर का कहना है कि ऐसा उन्होंने नयी साइट लांच करने के लिए किया है.
आज़ाद न्यूज़ या इसके किसी भी व्यक्ति के खिलाफ ख़बर करोगे तो जान से जाओगे. यह धमकी पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया ख़बर.कॉम के संपादक को मिल रही है. धमकी फ़ोन से दी जा रही है. यह फ़ोन बार - बार आ रहा है. फ़ोन का नंबर है - (+911203140856 / +911204262205). फ़ोन के जरिये धमकाया जा रहा है कि कमलकांत गौरी (इनपुट हेड), रवींद्र शाह (आउटपुट हेड), नवीन सिन्हा (पॉलिटिकल एडिटर) या हिंदी समाचार चैनल आज़ाद न्यूज़ के खिलाफ कुछ भी लिखा तो अच्छा नहीं होगा. अंजाम बुरा होगा. कुछ भी हो सकता है. कुछ भी...
मीडियाखबर.कॉम के संपादक की खता इतनी है कि कुछ वक़्त पहले मीडिया खबर पर मिशन आज़ाद नाम से कुछ स्टोरीज प्रकाशित की गयी थी. उसमें चैनलों के अंदर चल रहे फर्जीवाड़े और उसमें संलिप्त ऊँचे पद पर बैठे कई कथित पत्रकारों का पर्दाफाश किया गया था. चैनलों के अंदर की अव्यवस्था, पत्रकारों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और श्रम कानूनों के उल्लंघन को बेनकाब किया गया था. हालाँकि किसी खास व्यक्ति का नाम नहीं दिया गया था. इससे कुछ लोग खफ़ा थे. लिहाजा, इन लोगों ने साम, दाम, दंड, भेद हर तरीके से ख़बरें रूकवाने की कोशिश की. लेकिन जब खबर रूकवा नहीं पाए तो ओछेपन पर उतर आये. पहले अलग - अलग माध्यमों से धमकाया गया. फिर झूठे केस में फंसाने की धमकी दी गयी. चैनल का रूतबा दिखाकर पुलिस से पिटवाना चाहा. लेकिन जब कुछ नहीं कर पाए तो लगे फ़ोन से धमकी देने.
इसके पहले आज़ाद न्यूज़ के इनपुट हेड कमलकांत गौरी, आउटपुट हेड रवींद्र शाह और पॉलिटिकल एडिटर नवीन सिन्हा ने मीडिया खबर.कॉम को मेल के जरिये नोटिस भेजा था जिसका जवाब मीडिया खबर के लीगल सेल की तरफ से दे दिया गया. लेकिन इस बीच, मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प को डराने और धमकाने की कोशिशें लगातार जारी रहीं. घर पर गुंडे भेजे गए. नोटिस मिला है की नहीं. यह पूछने के लिए कई लोगों को मीडिया खबर के संपादक के घर भेजा गया. यह लोग सफ़ेद रंग की कार से आये. कार में कई लोग थे. इनका मकसद नोटिस के बारे में पूछना नहीं बल्कि टोह (रेकी) लेना था. यदि नोटिस के बारे में ही पूछना था तो फोन करके या मेल के जरिए पूछा जा सकता था। मुंहज़बानी पूछने का क्या मतलब? यदि पूछने ही आये तो कार भर के आदमियों के साथ क्यों आये? उसके बाद भी कई संदिग्ध लोगों का आना - जाना जारी रहा. इसके बाद मीडिया खबर.कॉम के संपादक ने पांडव नगर थाने में शिकायत दर्ज करवा दी.
उसके बाद से फोन आने का सिलसिला शुरू हुआ. फोन करके मीडिया खबर के संपादक को कहा गया कि तुम्हारा घर देख लिया है. अब बाहर निकलो तो बताते हैं. बहुत रिपोर्ट लिखते हो. वेबसाईट बंद करवा देंगे. अभी तो नोटिस ही भेजा है. अब घर में घुस कर मारेंगे. तब अपनी रिपोर्ट बनाकर साईट पर लगाना. फिर भद्दी गालियों की बौछार की गयी. इससे भी मन नहीं भरा तो उठवा लेने की धमकी दी गई. यानी, डराने-धमकाने की हरसंभव कोशिश की गयी. गौरतलब है कि इन लोगों का मारपीट का इतिहास रहा है. कुछ वक़्त पहले आज़ाद न्यूज़ के दफ्तर में अलीगढ़ के स्ट्रिंगर चंद्रशेखर मिश्रा को बुलाकर बेदर्दी से उनकी पिटाई की गयी थी. चंद्रशेखर अपने हक के पैसे वापस पाना चाहते थे. लेकिन, पैसे तो वापस नहीं मिले. बदले में मिला लात, जूता और घूँसा. बाद में उन्होंने थाने में एफआईआर दर्ज करवायी. उस स्ट्रिंगर ने बयान दिया था कि आजाद में ऊँचे पद पर बैठे कई पत्रकारों ने उसके साथ खुद मारपीट की. चैनल के आउटपुट हेड रवींद्र शाह का भी स्ट्रिंगर ने नाम लिया था.
मीडिया खबर.कॉम के संपादक पुष्कर पुष्प का कहना है कि ऐसी किसी भी धमकी के आगे हमलोग नहीं झुकने वाले हैं. यह वर्चुअल स्पेस पर हमला है. नयी मीडिया से जुड़े लोगों के प्रति एक खतरनाक प्रवृति की शुरुआत है. मीडिया वेबसाईट को कुचलने की साजिश है और इसका प्रतिरोध जरूरी है. मीडिया से जुड़ी तमाम वेबसाइटों पर सभी पक्षों को समान रूप से जगह दी जाती है. यह खुला मंच है. यदि आप किसी वेबसाईट की रिपोर्ट से इत्तफाक नहीं रखते तो कलम के जरिए विरोध कीजिये. प्रतिकार का यह कैसा तरीका है?
ताजा मामला पुष्कर पुष्प और उनकी वेबसाइट मीडियाखबर.कॉम से जुड़ा हुआ है. उन्होंने दिल्ली के एक झोलाछाप समाचार चैनल आजाद न्यूज के खिलाफ स्टोरी की सीरिज चलाई जिसमें चैनल के अंदर व्याप्त अनियमितताओं के बारे में लिखा. इसका परिणाम यह हुआ कि पुष्कर पुष्प को जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं जिससे घबराकर उन्होंने दिल्ली के पाण्डव नगर थाने में अपनी जान की सुरक्षा की गुहार लगाई है. इस वक्त वेबसाइट भी बंद है, हालांकि वेबसाइट ओनर का कहना है कि ऐसा उन्होंने नयी साइट लांच करने के लिए किया है.
आज़ाद न्यूज़ या इसके किसी भी व्यक्ति के खिलाफ ख़बर करोगे तो जान से जाओगे. यह धमकी पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया ख़बर.कॉम के संपादक को मिल रही है. धमकी फ़ोन से दी जा रही है. यह फ़ोन बार - बार आ रहा है. फ़ोन का नंबर है - (+911203140856 / +911204262205). फ़ोन के जरिये धमकाया जा रहा है कि कमलकांत गौरी (इनपुट हेड), रवींद्र शाह (आउटपुट हेड), नवीन सिन्हा (पॉलिटिकल एडिटर) या हिंदी समाचार चैनल आज़ाद न्यूज़ के खिलाफ कुछ भी लिखा तो अच्छा नहीं होगा. अंजाम बुरा होगा. कुछ भी हो सकता है. कुछ भी...
मीडियाखबर.कॉम के संपादक की खता इतनी है कि कुछ वक़्त पहले मीडिया खबर पर मिशन आज़ाद नाम से कुछ स्टोरीज प्रकाशित की गयी थी. उसमें चैनलों के अंदर चल रहे फर्जीवाड़े और उसमें संलिप्त ऊँचे पद पर बैठे कई कथित पत्रकारों का पर्दाफाश किया गया था. चैनलों के अंदर की अव्यवस्था, पत्रकारों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और श्रम कानूनों के उल्लंघन को बेनकाब किया गया था. हालाँकि किसी खास व्यक्ति का नाम नहीं दिया गया था. इससे कुछ लोग खफ़ा थे. लिहाजा, इन लोगों ने साम, दाम, दंड, भेद हर तरीके से ख़बरें रूकवाने की कोशिश की. लेकिन जब खबर रूकवा नहीं पाए तो ओछेपन पर उतर आये. पहले अलग - अलग माध्यमों से धमकाया गया. फिर झूठे केस में फंसाने की धमकी दी गयी. चैनल का रूतबा दिखाकर पुलिस से पिटवाना चाहा. लेकिन जब कुछ नहीं कर पाए तो लगे फ़ोन से धमकी देने.
इसके पहले आज़ाद न्यूज़ के इनपुट हेड कमलकांत गौरी, आउटपुट हेड रवींद्र शाह और पॉलिटिकल एडिटर नवीन सिन्हा ने मीडिया खबर.कॉम को मेल के जरिये नोटिस भेजा था जिसका जवाब मीडिया खबर के लीगल सेल की तरफ से दे दिया गया. लेकिन इस बीच, मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प को डराने और धमकाने की कोशिशें लगातार जारी रहीं. घर पर गुंडे भेजे गए. नोटिस मिला है की नहीं. यह पूछने के लिए कई लोगों को मीडिया खबर के संपादक के घर भेजा गया. यह लोग सफ़ेद रंग की कार से आये. कार में कई लोग थे. इनका मकसद नोटिस के बारे में पूछना नहीं बल्कि टोह (रेकी) लेना था. यदि नोटिस के बारे में ही पूछना था तो फोन करके या मेल के जरिए पूछा जा सकता था। मुंहज़बानी पूछने का क्या मतलब? यदि पूछने ही आये तो कार भर के आदमियों के साथ क्यों आये? उसके बाद भी कई संदिग्ध लोगों का आना - जाना जारी रहा. इसके बाद मीडिया खबर.कॉम के संपादक ने पांडव नगर थाने में शिकायत दर्ज करवा दी.
उसके बाद से फोन आने का सिलसिला शुरू हुआ. फोन करके मीडिया खबर के संपादक को कहा गया कि तुम्हारा घर देख लिया है. अब बाहर निकलो तो बताते हैं. बहुत रिपोर्ट लिखते हो. वेबसाईट बंद करवा देंगे. अभी तो नोटिस ही भेजा है. अब घर में घुस कर मारेंगे. तब अपनी रिपोर्ट बनाकर साईट पर लगाना. फिर भद्दी गालियों की बौछार की गयी. इससे भी मन नहीं भरा तो उठवा लेने की धमकी दी गई. यानी, डराने-धमकाने की हरसंभव कोशिश की गयी. गौरतलब है कि इन लोगों का मारपीट का इतिहास रहा है. कुछ वक़्त पहले आज़ाद न्यूज़ के दफ्तर में अलीगढ़ के स्ट्रिंगर चंद्रशेखर मिश्रा को बुलाकर बेदर्दी से उनकी पिटाई की गयी थी. चंद्रशेखर अपने हक के पैसे वापस पाना चाहते थे. लेकिन, पैसे तो वापस नहीं मिले. बदले में मिला लात, जूता और घूँसा. बाद में उन्होंने थाने में एफआईआर दर्ज करवायी. उस स्ट्रिंगर ने बयान दिया था कि आजाद में ऊँचे पद पर बैठे कई पत्रकारों ने उसके साथ खुद मारपीट की. चैनल के आउटपुट हेड रवींद्र शाह का भी स्ट्रिंगर ने नाम लिया था.
मीडिया खबर.कॉम के संपादक पुष्कर पुष्प का कहना है कि ऐसी किसी भी धमकी के आगे हमलोग नहीं झुकने वाले हैं. यह वर्चुअल स्पेस पर हमला है. नयी मीडिया से जुड़े लोगों के प्रति एक खतरनाक प्रवृति की शुरुआत है. मीडिया वेबसाईट को कुचलने की साजिश है और इसका प्रतिरोध जरूरी है. मीडिया से जुड़ी तमाम वेबसाइटों पर सभी पक्षों को समान रूप से जगह दी जाती है. यह खुला मंच है. यदि आप किसी वेबसाईट की रिपोर्ट से इत्तफाक नहीं रखते तो कलम के जरिए विरोध कीजिये. प्रतिकार का यह कैसा तरीका है?
पुरुष फ्रंटपेज है, महिलाएं भीतर छपी हुई ख़बरें आवेश तिवारी *
पुरुष फ्रंटपेज है, महिलाएं भीतर छपी हुई ख़बरें
28 July, 2010 आवेश तिवारी
आज तक चैनल की एक एंकर ब्रेक के दौरान बाल संवारते हुए "अगर आपको अपना चेहरा दिखाकर या फिर बातों से प्रभावित करने या मक्खन लगाने की कला नहीं आती तो मीडिया आपके लिए नहीं है. अगर आपका कोई गाडफादर नहीं है तो भी मीडिया आपके लिए नहीं है. आप मेरी तरह फांकाकशी करेंगे और फिर थकहार कर किस्मत को कोसते हुए बैठ जायेंगे जैसे मै बैठी हूँ, ठूंठ! नौकरी छूट चुकी है जहाँ भी इंटरव्यू देने जाती हूँ हर जगह एक जैसा माहौल। किसी को आपके काम से मतलब नहीं। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब बड़े बैनर वाली जगहों पर भी यही होता है. मीडिया के भीतर और बाहर दोनों जगह एक जैसा माहौल। ऐसे में सोचना पड़ता है कि मै पत्रकार क्यों हूँ?"
ये बात कहते हुए दिल्ली की रचना बिफर पड़ती है “हो सके तो हम पर कुछ लिखिए।” ये सिर्फ रचना की कहानी नहीं है देश की ज्यादातर महिला पत्रकारों के लिए परिस्थितियां बिलकुल ऐसी ही हैं। प्राईम टाइम में दिखने वाले खुबसूरत चेहरों से लेकर देर रात की पाली के बाद थके हुए क़दमों से घर लौटने वाली महिला अखबारनवीसों की कहानी एक जैसी है। हिंदी के नामचीन अख़बारों में आज भी दो से चार हजार रूपए महीने में उन्हें जोता जाता है।
क्या आप यकीं करेंगे कुछ एक महिला पत्रकार माँ बनने से इसलिए डरती हैं कि उन्हें नौकरी से हटा दिया जायेगा ,जी हाँ ये सच है। ये भी सच है कि ज्यादातर अखबार जिनमे हिंदी पट्टी के अखबारों की संख्या सर्वाधिक है। महिलाओं को प्रसवकालीन अवकाश देने में आनाकानी करते हैं। अगर अवकाश दे भी दिया तो उनकी तनख्वाह से पैसे काट लिए जाते हैं। खुद को नंबर वन कह कर अपनी ही पींठ ठोकने वाले एक अखबार ने अपनी एक महिलाकर्मी के मामले में तो और भी अमानवीय रवैया अपनाया। पहले तो उसको मातृत्व काल के दौरान की तनख्वाह नहीं दी गयी और जब वो वापस कार्यालय पहुंची तो उसे बर्खास्तगी का पत्र थमा दिया गया। वहीँ लखनऊ की अनुपमा को पूरे प्रसवकाल के दौरान मजबूरी में कार्यालय आना पड़ा। ”वुमेन फीचर सर्विसेज“ ने पहले भी देश भर की लगभग ४५० महिला पत्रकारों के बीच में किये गए अपने सर्वेक्षण में पाया था कि महिला पत्रकारों के लिए सेवा सुविधाएँ किसी भी अन्य निजी या सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की अपेक्षा बेहद कम है। डब्ल्यूएफएस ने पाया था कि २९.२ फीसदी महिलाएं मानती हैं कि अगर वो माँ बन गयी तो उनके पदोन्नत्ति के रास्ते बंद हो जायेंगे। वही माँ बन चुकी ३७.८ फीसदी महिला पत्रकारों का ये मानना था कि प्रबंधन उन्हें रात्रिकालीन पली में काम करने के काबिल नहीं समझत।
इलाहाबाद की संध्या नवोदिता जो कई बड़े अखबारों में काम करने के बाद आज रक्षा पेंशन विभाग में नौकरी कर रही हैं कहती हैं पहले तो ये पुरुष या महिला पत्रकार शब्द ही खराब है। पत्रकार पत्रकार होता है। अगर आज महिलाएं या फिर लड़कियां मीडिया में अपना भविष्य संजोकर पछता रही हैं तो उसकी एक बड़ी वजह खुद मीडिया है। एक तरफ जहाँ ग्लैमर और पैसे की चकाचौंध से लबरेज माहौल में काम कर रहे बड़े चैनलों के चेहरे हैं वहीँ दूसरी तरफ ख़बरों के पीछे अपनी सुध-बुध भूलकर दौड़ने वाली लड़कियां जिनका घर भी बमुश्किल से चलता है। क्या ये कम शर्मनाक है कि दूसरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिला पत्रकार खुद ही सर्वाधिक शोषित होती हैं? ये बात शायद कभी गौर नहीं कि गयी मगर ये सच है कि प्रिंट मीडिया में काम करने वाली महिलाओं को अच्छी ख़बरों को भी बाई लाइन नहीं मिलती हैं जबकि उनके बनिस्बत पुरुषों को कूड़ा लिखने पर भी आसानी से बाई-लाइन मिल जाया करती है। यानी कि पैसे के साथ साथ उनके आत्म्समान को भी बार बार चोटिल किया जाता है।
हैदराबाद की एक पत्रकार मित्र बताती हैं कि जब पिछले दिनों उन्होंने लोक निर्माण विभाग के एक बड़े घोटाले के सम्बन्ध में एक्सक्लूसिव स्टोरी की तो उसे चार दिन तक पब्लिश नहीं किया गया। पांचवे दिन हमने देखा कि मेरी ही स्टोरी, थोड़ी बहुत फेरबदल करके मेरे पुरुष सहकर्मी के नाम से छाप दी गयी है ,जब मैंने इस बारे में संपादक से पूछा तो उनका कहना था कि आपकी रिपोर्टिंग में तथ्यों की कमी थी। आप फालोअप अनुमान के मुताबिक़ मीडिया सेक्टर में केवल ३५ फीसदी महिलाओं को ही स्थायी नौकरी मिल पायी, बाकी या तो अस्थायी तौर पर या निविदा के आधार पर रिपोर्टिंग कर रही हैं। हिंदी अखबारों के मामले में ये प्रतिशत २० से २२ के बीच ही है। लिंग असमानता का एक बड़ा नमूना उनकी पदोन्नति से जुड़ा हुआ है। जबरदस्त कार्य क्षमता और खुद को साबित करने के बावजूद बमुश्किल उनका प्रमोशन उप संपादक या वरिष्ठ रिपोर्टर तक ही हो पता है ,हालाँकि अंग्रेजी अखबार इस मामले में थोड़े अलग हैं। वहाँ पदोन्नति के अवसर अधिक हैं। एक बड़ी समस्या ये भी है कि प्रबन्धन महिलाओं को डेस्क रिपोर्टिंग के ही योग्य समझता है भले ही वो बीट रिपोर्टिंग के मामले में पुरुषों से बेहतर हों। महिलाओं ने अपनी अपार उर्जा और लगन की बदौलत हिन्दुतान में मीडिया का चेहरा बदलना चाहती है लेकिन मीडिया उनके अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर पाया है। भोपाल की स्वतंत्र पत्रकार रीमा अवस्थी कहती हैं पुरुषों के लिए पत्रकारिता खुद को साबित करने का जरिया हम खुद को साबित करने के बावजूद जहाँ के तहां है। पुरुष फ्रंटपेज है तो हम भीतर के पेजों में विज्ञापन के बीच छुपी ख़बरें हैं, इससे अधिक हमारी कोई औकात नहीं है। रीमा शायद सही कहती हैं.
पुरुष फ्रंटपेज है, महिलाएं भीतर छपी हुई ख़बरें
मेरे लिए खबरें सिर्फ सूचनाओं को कलमबंद करने का जरिया नहीं है ,ये जरुरी है कि जिनके लिए भी हम खबरें लिख रहे हैं उनको उन ख़बरों से कुछ मिले |पिछले एक दशक से उत्तर भारत के सोन-बिहार -झारखण्ड क्षेत्र में आदिवासी किसानों की बुनियादी समस्याओं ,नक्सलवाद ,विस्थापन ,प्रदूषण और असंतुलित औद्योगीकरण को लेकर की गयी अब तक की रिपोर्टिंग में हमने अपने इस सिद्धांत को जीने की कोशिश की है | विगत २ वर्षों से लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट ' में ब्यूरो प्रमुख। aweshअगर आपको अपना चेहरा दिखाकर या फिर बातों से प्रभावित करने या मक्खन लगाने की कला नहीं आती तो मीडिया आपके लिए नहीं है. अगर आपका कोई गाडफादर नहीं है तो भी मीडिया आपके लिए नहीं है. आप मेरी तरह फांकाकशी करेंगे और फिर थकहार कर किस्मत को कोसते हुए बैठ जायेंगे जैसे मै बैठी हूँ, ठूंठ! नौकरी छूट चुकी है जहाँ भी इंटरव्यू देने जाती हूँ हर जगह एक जैसा माहौल। किसी को आपके काम से मतलब नहीं। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब बड़े बैनर वाली जगहों पर भी यही होता है. मीडिया के भीतर और बाहर दोनों जगह एक जैसा माहौल। ऐसे में सोचना पड़ता है कि मै पत्रकार क्यों हूँ?"
ये बात कहते हुए दिल्ली की रचना बिफर पड़ती है “हो सके तो हम पर कुछ लिखिए।” ये सिर्फ रचना की कहानी नहीं है देश की ज्यादातर महिला पत्रकारों के लिए परिस्थितियां बिलकुल ऐसी ही हैं। प्राईम टाइम में दिखने वाले खुबसूरत चेहरों से लेकर देर रात की पाली के बाद थके हुए क़दमों से घर लौटने वाली महिला अखबारनवीसों की कहानी एक जैसी है। हिंदी के नामचीन अख़बारों में आज भी दो से चार हजार रूपए महीने में उन्हें जोता जाता है।
क्या आप यकीं करेंगे कुछ एक महिला पत्रकार माँ बनने से इसलिए डरती हैं कि उन्हें नौकरी से हटा दिया जायेगा ,जी हाँ ये सच है। ये भी सच है कि ज्यादातर अखबार जिनमे हिंदी पट्टी के अखबारों की संख्या सर्वाधिक है। महिलाओं को प्रसवकालीन अवकाश देने में आनाकानी करते हैं। अगर अवकाश दे भी दिया तो उनकी तनख्वाह से पैसे काट लिए जाते हैं। खुद को नंबर वन कह कर अपनी ही पींठ ठोकने वाले एक अखबार ने अपनी एक महिलाकर्मी के मामले में तो और भी अमानवीय रवैया अपनाया। पहले तो उसको मातृत्व काल के दौरान की तनख्वाह नहीं दी गयी और जब वो वापस कार्यालय पहुंची तो उसे बर्खास्तगी का पत्र थमा दिया गया। वहीँ लखनऊ की अनुपमा को पूरे प्रसवकाल के दौरान मजबूरी में कार्यालय आना पड़ा। ”वुमेन फीचर सर्विसेज“ ने पहले भी देश भर की लगभग ४५० महिला पत्रकारों के बीच में किये गए अपने सर्वेक्षण में पाया था कि महिला पत्रकारों के लिए सेवा सुविधाएँ किसी भी अन्य निजी या सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की अपेक्षा बेहद कम है। डब्ल्यूएफएस ने पाया था कि २९.२ फीसदी महिलाएं मानती हैं कि अगर वो माँ बन गयी तो उनके पदोन्नत्ति के रास्ते बंद हो जायेंगे। वही माँ बन चुकी ३७.८ फीसदी महिला पत्रकारों का ये मानना था कि प्रबंधन उन्हें रात्रिकालीन पली में काम करने के काबिल नहीं समझत।
इलाहाबाद की संध्या नवोदिता जो कई बड़े अखबारों में काम करने के बाद आज रक्षा पेंशन विभाग में नौकरी कर रही हैं कहती हैं पहले तो ये पुरुष या महिला पत्रकार शब्द ही खराब है। पत्रकार पत्रकार होता है। अगर आज महिलाएं या फिर लड़कियां मीडिया में अपना भविष्य संजोकर पछता रही हैं तो उसकी एक बड़ी वजह खुद मीडिया है। एक तरफ जहाँ ग्लैमर और पैसे की चकाचौंध से लबरेज माहौल में काम कर रहे बड़े चैनलों के चेहरे हैं वहीँ दूसरी तरफ ख़बरों के पीछे अपनी सुध-बुध भूलकर दौड़ने वाली लड़कियां जिनका घर भी बमुश्किल से चलता है। क्या ये कम शर्मनाक है कि दूसरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिला पत्रकार खुद ही सर्वाधिक शोषित होती हैं? ये बात शायद कभी गौर नहीं कि गयी मगर ये सच है कि प्रिंट मीडिया में काम करने वाली महिलाओं को अच्छी ख़बरों को भी बाई लाइन नहीं मिलती हैं जबकि उनके बनिस्बत पुरुषों को कूड़ा लिखने पर भी आसानी से बाई-लाइन मिल जाया करती है। यानी कि पैसे के साथ साथ उनके आत्म्समान को भी बार बार चोटिल किया जाता है।
हैदराबाद की एक पत्रकार मित्र बताती हैं कि जब पिछले दिनों उन्होंने लोक निर्माण विभाग के एक बड़े घोटाले के सम्बन्ध में एक्सक्लूसिव स्टोरी की तो उसे चार दिन तक पब्लिश नहीं किया गया। पांचवे दिन हमने देखा कि मेरी ही स्टोरी, थोड़ी बहुत फेरबदल करके मेरे पुरुष सहकर्मी के नाम से छाप दी गयी है ,जब मैंने इस बारे में संपादक से पूछा तो उनका कहना था कि आपकी रिपोर्टिंग में तथ्यों की कमी थी। आप फालोअप अनुमान के मुताबिक़ मीडिया सेक्टर में केवल ३५ फीसदी महिलाओं को ही स्थायी नौकरी मिल पायी, बाकी या तो अस्थायी तौर पर या निविदा के आधार पर रिपोर्टिंग कर रही हैं। हिंदी अखबारों के मामले में ये प्रतिशत २० से २२ के बीच ही है। लिंग असमानता का एक बड़ा नमूना उनकी पदोन्नति से जुड़ा हुआ है। जबरदस्त कार्य क्षमता और खुद को साबित करने के बावजूद बमुश्किल उनका प्रमोशन उप संपादक या वरिष्ठ रिपोर्टर तक ही हो पता है ,हालाँकि अंग्रेजी अखबार इस मामले में थोड़े अलग हैं। वहाँ पदोन्नति के अवसर अधिक हैं। एक बड़ी समस्या ये भी है कि प्रबन्धन महिलाओं को डेस्क रिपोर्टिंग के ही योग्य समझता है भले ही वो बीट रिपोर्टिंग के मामले में पुरुषों से बेहतर हों। महिलाओं ने अपनी अपार उर्जा और लगन की बदौलत हिन्दुतान में मीडिया का चेहरा बदलना चाहती है लेकिन मीडिया उनके अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर पाया है। भोपाल की स्वतंत्र पत्रकार रीमा अवस्थी कहती हैं पुरुषों के लिए पत्रकारिता खुद को साबित करने का जरिया हम खुद को साबित करने के बावजूद जहाँ के तहां है। पुरुष फ्रंटपेज है तो हम भीतर के पेजों में विज्ञापन के बीच छुपी ख़बरें हैं, इससे अधिक हमारी कोई औकात नहीं है। रीमा शायद सही कहती हैं.
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यशवंत सिंह को एसपी सिंह पत्रकारिता पुरस्कार
मीडिया पोर्टल भड़ास4मीडिया संचालक और पत्रकार यशवंत सिंह को दिनांक 24/07/2010 को एसपी सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया. आइआरडीएस लखनऊ द्वारा आइआरडीएस 2010 पुरस्कार दिए जाने हेतु एक समारोह का आयोजन किया गया. ये पुरस्कार उन व्यक्तियों के नाम पर रखे गए हैं जिन लोगों ने अल्पायु में ही कई बड़ी उपलब्धियां हासिल कर ली थीं, किन्तु जिनकी असामयिक मृत्यु से देश और समाज को भारी नुक्सान हुआ था. ये पुरस्कार इन लोगों को इस आशा तथा विश्वास से दिए जा रहे हैं कि ये लोग अपने-अपने क्षेत्रों में उन संभावनाओं को पूरा करेंगे.
इस वर्ष जिन लोगों को ये पुरस्कार दिए गये हैं, वे हैं-
आनंदीबाई जोशी पुरस्कार- चिकित्सा तथा स्वास्थय- डॉ अमिता पाण्डेय, सहायक प्रोफ़ेसर, लखनऊ चिकित्सा विश्वविद्यालय
सफ़दर हाशमी पुरस्कार- मानवाधिकार- श्री संजय सिंह, कन्वेनर, परमार्थ , ओरई (जालोन)
सुरेन्द्र प्रताप सिंह पुरस्कार- पत्रकारिता- श्री यशवंत सिंह, संस्थापक, भड़ास मीडिया
वी एन शुक्ला पुरस्कार- विधि- श्री एस० एम० जैदी, आलिया पब्लिकेशन, इलाहबाद
एस० रामानुजम पुरस्कार- शिक्षा- श्री आनंद कुमार- सुपर 30, पटना
डॉ अमिता पाण्डेय को पुरस्कार शुश्री वन्दना मिश्रा, प्रख्यात पत्रकार द्वारा दिया गया जबकि श्री संजय सिंह को प्रक्यात सामजिक कार्यकर्ता श्री चितरंजन सिंह द्वारा. श्री यशवंत सिंह को प्रेस क्लब लखनऊ के अध्यक्ष श्री सिद्दार्थ कलहंस द्वारा सम्मानित किया गया तथा श्री जैदी को श्री ए० के० अवस्थी, डीन, लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा सम्मान दिया गया. श्री आनंद को श्री रमेश दीक्षित, प्रोफेसर, लखनऊ विश्वविद्यालय ने सम्मान दिया. इन सभी पुरस्कार विजेताओं ने अपने संघर्ष की कहानी उपस्थित लोगों के सम्मुख प्रस्तुत किया तथा साथ ही अपने भविष्य की योजना बी बताई. सभी का एक स्वर से मानना था कि अभी उनके पास करने को बहुत कुछ है. इन लोगों ने आइ० आर० डी० एस० पुरस्कार 2010 पाने पर ख़ुशी भी व्यक्त की. इसके अलावा सम्मान प्रदान करने वाले सभी व्यक्तियों ने भी सभा में अपने विचार रखे. उन लोगों ने इन सभी के मंगल भविष्य की कामना की तथा दुसरे सभी युवाओं को इनसे सीख लेगे का आह्वान किया.
इसके पूर्व आइआरडीएस के अध्यक्ष श्री अमिताभ ठाकुर ने संस्था के कार्यों से लोगों को अवगत कराया. यह बताया कि संस्था मानवाधिकार, सूचना का अधिकार, शिक्षा अदि के क्षेत्र में कार्य करती है. समस्त सभा का संचालन श्री उत्कर्ष कुमार सिन्हा, उपाध्यक्ष, आइ० आर० डी० एस ने किया जबकि अंत में धन्यवाद ज्ञापन संस्था की सचिव डॉ नूतन ठाकुर ने किया. साथ ही साथी संगठन नॅशनल आर० टी० आइ० फोरम के गुजरात इकाई के को- ओरडीनेटर श्री अमित जेठवा की ह्त्या हिने के परिप्रेक्ष्य में एक मिनट का मौन भी
संत आसाराम की सेवा में जुटी है मध्य प्रदेश सरकार
संत आसाराम की सेवा में जुटी है मध्य प्रदेश सरकार
08 January, 2010 18:47;00 सरिता अरगरे
भोपाल। आसाराम को लेकर भाजपा में ही अजीब सी असमंजस की स्थिति बन गयी है. जहां एक ओर विश्व हिन्दू परिषद भाजपा पर लगातार दबाव बना रहा है कि संत आसाराम को परेशान न किया जाए वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों का रुख आसाराम को लेकर अलग अलग है.
सुप्रीम कोर्ट में हत्या के प्रयास का मामला खारिज किए जाने की याचिका नामंजूर होने के बाद गुजरात सरकार आसाराम बापू को "सरकारी मेहमान" बनाने की कोशिश में जुटी है, तो वहीं मध्यप्रदेश सरकार बापू की मेहमान नवाज़ी में जुटी है । याचिका नामंजूर किए जाने के बाद आसाराम बापू वन मंत्री सरताज सिंह के अतिथि बने। आसाराम मंगलवार को होशंगाबाद के हर्बल पार्क में बने वन विभाग के विश्राम गृह में ठहरे थे। गाडि़यों के काफिले के साथ देर रात रेस्ट हाउस पहुँचे आसाराम और उनके चेले-चपाटों ने ज़बरदस्ती घुसकर जमकर धमाल मचाया। इन लोगों ने प्रभारी अधिकारी की आपत्ति को दरकिनार कर निर्माणाधीन हर्बल पार्क में बने सर्किट हाउस में बगैर अनुमति के प्रवेश कर रात गुजारी। बुधवार को दोपहर बाद तक गेस्ट हाउस में रहे। मीडिया वालों से उन्होंने मिलने से इंकार कर दिया। बाद में एक बंद गाड़ी में चुपके से निकल गये।
ऊपर के आदेश से अनजान हर्बल पार्क में चौकीदार भगवत सोनी और उप वनपाल आरआर सोनी का कहना है कि आसाराम बगैर अनुमति लिये ही रुके थे। वन विभाग के अधिकारियों ने जब इन लोगों से विश्रामगृह में रुकने की अनुमति के बारे में जानना चाहा, तो पहले तो उन्होंने धमकाने की कोशिश की और बाद में आला अफ़सरों से मौखिक अनुमति मिलने की बात कहकर अफ़सरों को चलता कर दिया। मीडिया में खबर आने के बाद बड़े अफ़सर दामन बचने के लिये घटना के दौरान पहले तो शहर से बाहर होने की बात कहते रहे । होशंगाबाद के वन संरक्षक वीके सिंह ने पहले यह कहते हुए कुछ भी बताने से इनकार कर दिया कि वे शहर में नहीं थे। बाद में उन्होंने कहा कि आसाराम से जुड़ी समिति ने धार्मिक कार्य के लिए विश्रामगृह की माँग की थी। आसाराम पर हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है और उनकी याचिका सुप्रीम कोर्ट ने नामंजूर कर दी है, यह बताने पर वीके सिंह ने कहा कि अनुमति देते समय उन्हें यह पता नहीं था कि आसाराम भी यहाँ रूकेंगे।
होशंगाबाद में विश्राम के बद नई ऊर्जा से भरे आसाराम ने हरदा पहुँचकर एक बार फ़िर हुँकार भरी । उन्होंने कहा कि दुनिया में कोई ताकत ऐसी नहीं है जो उन्हें गिरफ्तार कर सके। बुधवार देर शाम हरदा के निकट ग्राम चारखेड़ा स्थित अपने आश्रम में शिष्यों के सामने खुलासा किया कि मोदी उनसे सात बार माफी माँग चुके हैं। प्रवचन के नाम पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ आग उगलते आसाराम ने दावा किया कि मोदी उनसे सात बार माफ़ी माँग चुके हैं। उन्होंने खुद को मेरा भक्त बताते हुए कहा था कि आपके साथ गुजरात में जो हो रहा है उसमें उनका कोई दोष नहीं है। साथ ही उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में स्वयं उन्होंने कोई याचिका नहीं दायर की, बल्कि उनके वकील भक्तों ने अपनी ओर से लगाई थी और न्यायालय ने उस याचिका को खारिज नहीं किया, बल्कि उन्होंने स्वयं यह याचिका वापस ले ली थी। आसाराम ने कहा कि जिस तरह जयेन्द्र सरस्वती को गिरफ्तार करने पर तमिलनाडु में जयललिता का तख्ता पलट हुआ था उसी तरह उनके खिलाफ षड़यंत्र करने वालों की सत्ता पलट जाएगी।
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भूमाफियाओं की गिरफ्त में भाजपा सरकार सरिता अरगरे -
भूमाफियाओं की गिरफ्त में भाजपा सरकार
29 July, 2010 17:29;00 सरिता अरगरे
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मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सनसनीखेज़ और उत्तेजक बयानों ने प्रदेश की राजनीति में तूफ़ान ला दिया है। जहाँ शिवपुरी में भूमाफ़ियाओं पर उन्हें हटाने के लिये धन इकट्ठा करने का बयान दे कर सबको हक्का बक्का कर दिया, वहीं सदन के भीतर भूमाफ़ियाओं को चुनौती देने की शिवराज की दंभ भरी हुँकार से लोग सन्न हैं। विरोधियों को चुनौती देने के लिये उन्होंने संसदीय मर्यादाओं को बलाये ताक रखकर जिस भाषा शैली का इस्तेमाल किया, उसका उदाहरण प्रदेश के इतिहास में शायद ही मिले। मुख्यमंत्री भूमाफ़ियाओं पर उन्हें हटाने के लिये धन इकट्ठा करने का आरोप लगा रहे हैं, मगर भाजपा सरकार की कामकाज की शैली पर नज़र डालें, तो राज्य सरकार खुद ही भूमाफ़िया की सरमायेदार नज़र आती है।
शिवराज के सत्तारुढ़ होने के बाद से मंत्रिपरिषद के अब तक लिये गये फ़ैसले सरकार की शैली साफ़ करने के लिये काफ़ी हैं। हर चौथी-पाँचवीं बैठक में निजी क्षेत्र को सरकारी ज़मीन देने के फ़ैसले आम है। सदन में भूमाफ़ियाओं पर दहाड़ने वाले मुखिया का मंत्रिमंडल जिस तरह के फ़ैसले ले रहा है, उससे उद्योगपतियों, नेताओं और भूमाफ़िया ही चाँदी कूट रहे हैं। एक तरफ़ सरकारी ज़मीनों को कौड़ियों के भाव औद्योगिक घरानों के हवाले किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ बड़े बिल्डरों को फ़ायदा पहुँचाने के लिये नियमों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। सरकार के फ़ैसले से नाराज़ छोटे बिल्डरों को खुश करने के लिये भी नियमों को बलाए ताक रख दिया गया है। गोया कि सरकार नेताओं को चंदा देने वाली किसी भी संस्था की नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहती ।
सरकारी कायदों की आड़ में ज़मीनों के अधिग्रहण का खेल पुराना है, लेकिन अब मध्यप्रदेश में हालात बेकाबू हो चले हैं । मिंटो हॉल को बेचने के कैबिनेट के फ़ैसले ने सरकार की नीयत पर सवाल खडे कर दिये हैं। मध्य प्रदेश सरकार सूबे की संपत्ति को अपनी मिल्कियत समझकर मनमाने फ़ैसले ले रही है। मालदारों और रसूखदारों को उपकृत करने की श्रृंखला में अब बारी है भोपाल की शान मिंटो हॉल की , जिसे निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। स्थापत्य कला के नायाब नमूने के तौर पर सीना ताने खड़ी नवाबी दौर की इस इमारत का ऎतिहासिक महत्व तो है ही, यह धरोहर एकीकृत मध्यप्रदेश की विधान सभा के तौर पर कई अहम फ़ैसलों की गवाह भी है। सरकारी जमीन लीज पर देने का अपने तरह का यह पहला मामला होगा। राज्य सरकार की प्री-क्वालीफिकेशन बिड में चार कंपनियाँ रामकी (हैदराबाद), सोम इंडस्ट्री (हैदराबाद) जेपी ग्रुप (दिल्ली) और रहेजा ग्रुप (बाम्बे) चुनी गई हैं। इनमें से रामकी ग्रुप बीजेपी के एक बड़े नेता के करीबी रिश्तेदार का है। यूनियन कार्बाइड का कचरा जलाने का ठेका भी इसी कंपनी को दिया गया है। जेपी ग्रुप पर बीजेपी की मेहरबानियाँ जगज़ाहिर हैं।
भोपाल को रातोंरात सिंगापुर,पेरिस बनाने की चाहत में राज्य सरकार कम्पनियों को मनमानी रियायत देने पर आमादा है। इतनी बेशकीमती जमीन कमर्शियल रेट तो दूर,सरकार कलेक्टर रेट से भी कम दामों पर देने की तैयारी कर चुकी है । ऐसा लगता है कि सरकार किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों को अपने हिसाब से बना रही है। कलेक्टर रेट पर भी जमीन की कीमत लगभग 117.25 करोड़ है,जबकि 7.1 एकड़ के भूखंड की कीमत महज़ 85 करोड़ रुपए रखी गई है। शहर के बीचोबीच राजभवन के पास की इस जमीन की सरकारी कीमत सत्रह करोड़ रूपए प्रति एकड़ है। यहाँ जमीन का कामर्शियल रेट कलेक्टर रेट से तीन गुना से भी अधिक है। कीमत कम रखने के पीछे तर्क है कि उपयोग की जमीन मात्र साढ़े पांच एकड़ है। इतना ही नहीं 1.2 एकड़ में बने खूबसूरत पार्क को एक रूपए प्रतिवर्ष की लीज पर दिया जाएगा, जिसका उपयोग संबंधित कंपनी पार्टियों के साथ ही बतौर कैफेटेरिया भी कर पायेगी।
सरकार की मेहरबानियों का सिलसिला यहीं नहीं थमता । उद्योगपतियों को लाभ देने के लिए 85 करोड़ की राशि चौदह साल में आसान किश्तों पर लेने का प्रस्ताव है। पहले चार साल प्रतिवर्ष ढ़ाई करोड़ रूपए सरकार को मिलेंगे, जबकि पांचवे साल से सरकार को 14.90 करोड़ रूपए मिलेंगे। इस दौरान कंपनी सरकार को राशि पर महज़ 8.5 फ़ीसदी की दर से ब्याज अदा करेगी। इतनी रियायतें और चौदह साल में 85 करोड़ रूपए की अदायगी का सरकारी फ़ार्मूला किसी के गले नहीं उतर रहा है। सरकार मिंटो हॉल को साठ साल की लीज पर देगी, जिसे तीस साल तक और बढ़ाया जा सकता है। गौरतलब है कि गरीबों और मध्यमवर्गियों को मकान बनाकर देने वाला मप्र गृह निर्माण मंडल अपने ग्राहकों से आज भी किराया भाड़ा योजना के तहत 15 फ़ीसदी से भी ज़्यादा ब्याज वसूलता है। इसी तरह पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर मप्र पर्यटन विकास निगम ने महज़ 27 हजार 127 रुपए की सालाना लीज पर गोविंदगढ़ का किला दिल्ली की मैसर्स मैगपी रिसोर्ट प्रायवेट लिमिटेड के हवाले कर दिया है। इस तरह करीब 3.617 हेक्टेयर में फ़ैले गोविंदगढ़ किले को हेरिटेज होटल में तब्दील करके सैलानियों की जेब हल्की कराने के लिये कंपनी को हर महीने सिर्फ़ 2 हज़ार 260 रुपए खर्च करना होंगे। उस पर तुर्रा ये कि निगम के अध्यक्ष बड़ी ही मासूमियत के साथ कंपनी का एहसान मान रहे हैं,जिसने कम से कम किला खरीदने की हिम्मत तो की । वरना कई बार विज्ञापन करने के बावजूद कोई भी कंपनी किले को खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी ।
"मुफ़्त का चंदन" घिसने में मुख्यमंत्री किसी से पीछे नहीं हैं । ज़मीनों की रेवड़ियाँ बाँटने में उनका हाथ काफ़ी खुला हुआ है। पिछले छह सालों में केवल भोपाल ज़िले में सेवा भारती सहित कई सामाजिक और स्वयंसेवी संगठनों को करीब 95 एकड़ ज़मीन दे चुके हैं। इसमें वो बेशकीमती ज़मीनें शामिल नहीं हैं , जिन पर मंत्रियों और विधायकों से लेकर छुटभैये नेताओं के इशारों पर मंदिर,झुग्गियाँ तथा गुमटियाँ बन चुकी हैं। राजधानी के कमर्शियल एरिया महाराणा प्रताप नगर से लगी सरकारी ज़मीन पर बसे पट्टेधारी झुग्गीवासियों को बलपूर्वक खदेड़ दिया गया था। ज़मीन खाली कराने के पीछे प्रशासन का तर्क था कि सरकार को इसकी ज़रुरत है। विस्थापन के लिये सरकार ने झुग्गीवासियों को वैकल्पिक जगह दी और उनके विस्थापन का खर्च भी उठाया। बाद में मध्यप्रदेश गृह निर्माण मंडल के दावे को दरकिनार करते हुए बीजेपी सरकार ने बेशकीमती ज़मीन औने-पौने में दैनिक भास्कर समूह को "भेंट कर" दी। आज वहाँ डीबी मॉल सीना तान कर बेरोकटोक जारी सरकारी बंदरबाँट पर इठला रहा है। हाल ही में इस मॉल के प्रवेश द्वार में तब्दीली के लिये कैबिनेट के फ़ैसले ने एक बार फ़िर व्यावसायिक परीक्षा मंडल को अपना आकार सिकोड़ने पर मजबूर कर दिया । तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए कई पेड़ों की बलि देकर बेशकीमती ज़मीन डीबी मॉल को सौंप दी गई। करीब पाँच साल पहले भोपाल विकास प्राधिकरण ने भी एक बिल्डर पर भी इसी तरह की कृपा दिखाई थी। सरकारी खर्च पर अतिक्रमण से मुक्त कराई गई करीब पाँच एकड़ से ज़्यादा ज़मीन के लिये बिल्डर को कई सालों तक आसान किस्तों में रकम अदायगी की सुविधा मुहैया कराई थी। इसी तरह राजधानी भोपाल के टीनशेड, साउथ टीटीनगर क्षेत्र के सरकारी मकानों को ज़मीनदोज़ कर ज़मीन कंस्ट्रक्शन कंपनी गैमन इंडिया के हवाले कर दी गई।
सरकार के कई मंत्री और विधायक शहरों की प्राइम लोकेशन वाली ज़मीनों पर रातों रात झुग्गी बस्तियाँ उगाने, शनि और साँईं मंदिर बनाने के काम में मसरुफ़ हैं। नेताओं की छत्रछाया में बेजा कब्ज़ा कर ज़मीनें बेचने वाले भूमाफ़िया पूरे प्रदेश में फ़लफ़ूल रहे हैं । भाजपा के करीबियों ने कोटरा क्षेत्र में सरकारी ज़मीन पर प्लॉट काट दिये । गोमती कॉलोनी के करीब चार सौ परिवार नजूल का नोटिस मिलने के बाद अपने बसेरे टूटने की आशंका से हैरान-परेशान घूम रहे हैं । असली अपराधी नेताओं के संरक्षण में सरकारी ज़मीनों को "लूटकर" बेच रहे हैं । आलम ये है कि सरकार की नाक के नीचे भोपाल में करोड़ों की सरकारी ज़मीनें निजी हाथों में जा चुकी है । कई मामलों में नेताओं और अफ़सरों की मिलीभगत के चलते सरकार को मुँह की खाना पड़ी है ।
राज्य सरकार ने काफी मशक्कत के बाद भोपाल के मास्टर प्लान को रद्द करने का निर्णय लेने का मन बना लिया है। नगर तथा ग्राम निवेश संचालनालय ने राज्य शासन को नगर तथा ग्राम निवेश की धारा 18 (3) के तहत प्लान को निरस्त करने का प्रस्ताव भेज दिया है।शहरों में जमीन की आसमान छू रही कीमतों और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर आवास एवं पर्यावरण विभाग ने टाउनशिप विकास नियम-2010 का प्रारूप प्रकाशित कर दिया है। ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य घटनाक्रम दिखता है, लेकिन पूरे मामले की तह में जाने पर सारी धाँधली साफ़ हो जाती है । टाउनशिप विकास नियम-2010 के प्रकाशन से पहले भोपाल के मास्टर प्लान को रद्द करने की मुख्यमंत्री की घोषणा की टाइमिंग भूमाफ़ियाओं से सरकार की साँठगाँठ की पोल खोल कर रख देती है। सरसरी तौर पर टाउनशिप विकास नियम-2010 में कोई खोट नज़र नहीं आती, लेकिन प्रारूप में एक ऎसी छूट शामिल कर दी गई है, जिससे शहरों के मास्टर प्लान ही बेमानी हो जाएँगे । मास्टर प्लान में कई नियमों से बँधे कॉलोनाइजरों और डेवलपरों के लिये स्पेशल टाउनशिप नियम राहत का पैगाम है। राज्य सरकार ने टाउनशिप नियमों का जो मसौदा तैयार किया है, उसमें स्पेशल टाउनशिप को मंजूरी देने के लिए मास्टर प्लान के नियम बाधा नहीं बनेंगे। जहां भी मास्टर प्लान का क्षेत्र होगा, यदि वहां उक्त प्रस्ताव के नियमों और मास्टर प्लान के नियमों में विरोधाभास हुआ तो टाउनशिप के नियम लागू होंगे। इस तरह राज्य सरकार ने स्पेशल टाउनशिप के ज़रिये मास्टर प्लान से भी छेड़छाड़ की छूट दे दी है।
राज्य सरकार सामाजिक,राजनीतिक,शैक्षिक संस्थाओं के अलावा अब उद्योगपतियों पर भी मेहरबान हो रही है। राजधानी भोपाल,औद्योगिक शहर इंदौर,जबलपुर,ग्वालियर सहित कई अन्य शहरों में तमाम नियमों को दरकिनार कर सरकारी ज़मीन कौड़ियों के दाम नेताओं के रिश्तेदारों और उनके चहेते औद्योगिक घरानों को सौंपी जा रही हैं। 23 अप्रैल 2010 के पत्रिका के भोपाल संस्करण में सातवें पेज पर प्रकाशित ज़ाहिर सूचना में ग्राम सिंगारचोली यानी मनुआभान की टेकरी के आसपास की 1.28 एकड़ शासकीय ज़मीन एस्सार ग्रुप को कार्यालय खोलने के लिये आवंटित करने की बात कही गई है। नजूल अधिकारी के हवाले से प्रकाशित इस विज्ञापन में बेहद बारीक अक्षरों में पंद्रह दिनों के भीतर आपत्ति लगाने की खानापूर्ति भी की गई है।टाउनशिप के निर्माण के लिए असीमित कृषि भूमि खरीदने और इस जमीन को कृषि जोत उच्चतम सीमा अधिनियम के प्रावधानों से भी मुक्त करने जैसी बड़ी रियायतें भी देने का प्रस्ताव है। साथ ही टाउनशिप के बीच में आने वाली सरकारी जमीन प्रचलित दरों या अनुसूची(क) की दरों अथवा कलेक्टर की ओर से तय दरों पर पट्टे पर देने का प्रस्ताव भी आगे चलकर किसके लिये मददगार बनेगा,बताने की ज़रुरत शायद नहीं है। खतरनाक बात यह है कि कृषि भूमि पर भी टाउनशिप खड़ी हो सकेगी। खेती को लाभ का धँधा बनाने के सब्ज़बाग दिखाने वाले सूबे के मुखिया ने खेती की ज़मीनों पर काँक्रीट के जंगल उगाने की खुली छूट दे दी है । किसान तात्कालिक फ़ायदे के लिये अपनी ज़मीनें भूमाफ़ियाओं को बेच रहे हैं । सरकार की नीतियों के कारण सिकुड़ती कृषि भूमि ने धरतीपुत्रों को मालिक से मज़दूर बना दिया है। इससे पहले राज्य सरकार हानि में चल रहे कृषि प्रक्षेत्रों, जिनमें नर्सरियाँ और बाबई कृषि फ़ार्म भी निजी हाथों में देने का फ़ैसला ले चुकी है।
प्रारूप के नियमों में हर जगह लिखा गया है कि विकासकर्ता को अपने स्रोतों से ही टाउनशिप में सुविधाएँ उपलब्ध कराना होंगी जिनमें सड़क बिजली एवं पानी मुख्य है । वहीं यह भी जोड़ दिया कि वो चाहे तो इस कार्य में नगरीय निकाय की सहायता ले सकते हैं। नियम में इस शर्त को जोड़कर विकासकर्ता को खुली छूट दी गई है कि वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर टाउनशिप का पूरा विकास सरकारी एजेंसी के खर्चे से करवा ले। आवास एवं पर्यावरण विभाग की वेबसाइट पर मसौदे को गौर से पढ़ा जाए तो इसमें शुरू से लेकर आखिर तक सिर्फ बिल्डरों को उपकृत करने की मंशा साफ़ नज़र आती है। विभाग ने अपने ही नियमों को धता बताते हुए इस नए नियम से बड़े कॉलोनाइजरों और डेवलपरों की खुलकर मदद की है। स्पेशल टाउनशिप को पर्यावरण और खेती का रकबा घटने के लिये ज़िम्मेदार मानने वालों का तर्क है कि शहर के बाहर स्पेशल टाउनशिप बनाने के बजाए पहले सरकार को पुनर्घनत्वीकरण योजना के तहत शहर के पुराने, जर्जर भवनों के स्थान पर बहुमंजिला भवन बनाना चाहिए। अंग्रेजों द्वारा 1894 में बनाये गये कानून की आड़ में सरकारी ज़मीनों की खरीद फ़रोख्त का दौर वैसे ही उफ़ान पर है । ऎसे में खेती की ज़मीनों पर टाउनशिप विकसित करने का प्रस्ताव आत्मघाती कदम साबित होगा । इस प्रस्ताव से कृषि भूमि के परिवर्तन के मामलों में अंधाधुंध बढ़ोतरी की आशंका भी पर्यावरण प्रेमियों को सताने लगी है।
कृषि भूमि का अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने पर उतारु सरकार सरकारी संपत्ति की लूट खसोट के लिये जनता द्वारा सौंपी गई ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रही हैं। अरबों-खरबों के टर्नओवर वाली कंपनियों पर भी शिवराज सरकार की कृपादृष्टि कम नहीं है। इस बात को समझने के लिये इतना जानना ही काफ़ी होगा कि बीते एक साल के दौरान प्रदेश में बड़ी कंपनियों को सरकार 8000 हैक्टेयर से अधिक ज़मीन बाँट चुकी है। बेशकीमती ज़मीनें बड़ी कम्पनियों को रियायती दरों पर देने का यह खेल प्रदेश में उद्योग-धँधों को बढ़ावा देने के नाम पर खेला जा रहा है। पिछले एक साल में रिलायंस, बिड़ला समूह समेत 22 बड़ी कंपनियों को करीब 6400 हैक्टेयर निजी भूमि भू अर्जन के माध्यम से दी गई। वहीं 14 ऎसी कंपनियाँ हैं जिन्हें निजी के साथ ही करीब 1640 हैक्टेयर सरकारी ज़मीन भी उपलब्ध कराई गई है। इनमें भाजपा का चहेता जेपी ग्रुप भी शामिल है । अरबों के टर्नओवर वाली कंपनियों को रियायत की सौगात देने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे लोगों को स्थानीय स्तर पर रोज़गार मिल सकेगा लेकिन अब तक सरकारी दावे खोखले ही हैं ।
सरकारी संपत्ति पर जनता का पहला हक है। आम लोगों को अँधेरे में रखकर सरकार पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली की तरह काम कर रही है । नवम्बर 2005 के बाद प्रदेश की भाजपा सरकार के फ़ैसले भूमाफ़ियाओं के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली के से जान पड़ते हैं । पिछले छः दशकों में आदिवासी तथा अन्य क्षेत्रों की खनिज संपदा का तो बड़े पैमाने पर दोहन किया गया है मगर इसका फायदा सिर्फ पूँजीपतियों को मिला है। जो आबादियाँ खनन आदि के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापित हुईं, अपनी जमीन से उजड़ीं, उन्हें कुछ नहीं मिला। यहाँ तक कि आजीविका कमाने के संसाधन भी नहीं मिले, सिर पर एक छत भी नहीं मिली और पारंपरिक जीवनपद्धति छूटी, रोजगार छूटा, सो अलग। सरकार को उसकी हैसियत बताने के लिये जनता को अपनी ताकत पहचानना होगा और जागना होगा नीम बेहोशी से।.......क्योंकि ज़मीनों की इस बंदरबाँट को थामने का कोई रास्ता अब भी बचा है?
29 July, 2010 17:29;00 सरिता अरगरे
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मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सनसनीखेज़ और उत्तेजक बयानों ने प्रदेश की राजनीति में तूफ़ान ला दिया है। जहाँ शिवपुरी में भूमाफ़ियाओं पर उन्हें हटाने के लिये धन इकट्ठा करने का बयान दे कर सबको हक्का बक्का कर दिया, वहीं सदन के भीतर भूमाफ़ियाओं को चुनौती देने की शिवराज की दंभ भरी हुँकार से लोग सन्न हैं। विरोधियों को चुनौती देने के लिये उन्होंने संसदीय मर्यादाओं को बलाये ताक रखकर जिस भाषा शैली का इस्तेमाल किया, उसका उदाहरण प्रदेश के इतिहास में शायद ही मिले। मुख्यमंत्री भूमाफ़ियाओं पर उन्हें हटाने के लिये धन इकट्ठा करने का आरोप लगा रहे हैं, मगर भाजपा सरकार की कामकाज की शैली पर नज़र डालें, तो राज्य सरकार खुद ही भूमाफ़िया की सरमायेदार नज़र आती है।
शिवराज के सत्तारुढ़ होने के बाद से मंत्रिपरिषद के अब तक लिये गये फ़ैसले सरकार की शैली साफ़ करने के लिये काफ़ी हैं। हर चौथी-पाँचवीं बैठक में निजी क्षेत्र को सरकारी ज़मीन देने के फ़ैसले आम है। सदन में भूमाफ़ियाओं पर दहाड़ने वाले मुखिया का मंत्रिमंडल जिस तरह के फ़ैसले ले रहा है, उससे उद्योगपतियों, नेताओं और भूमाफ़िया ही चाँदी कूट रहे हैं। एक तरफ़ सरकारी ज़मीनों को कौड़ियों के भाव औद्योगिक घरानों के हवाले किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ बड़े बिल्डरों को फ़ायदा पहुँचाने के लिये नियमों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। सरकार के फ़ैसले से नाराज़ छोटे बिल्डरों को खुश करने के लिये भी नियमों को बलाए ताक रख दिया गया है। गोया कि सरकार नेताओं को चंदा देने वाली किसी भी संस्था की नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहती ।
सरकारी कायदों की आड़ में ज़मीनों के अधिग्रहण का खेल पुराना है, लेकिन अब मध्यप्रदेश में हालात बेकाबू हो चले हैं । मिंटो हॉल को बेचने के कैबिनेट के फ़ैसले ने सरकार की नीयत पर सवाल खडे कर दिये हैं। मध्य प्रदेश सरकार सूबे की संपत्ति को अपनी मिल्कियत समझकर मनमाने फ़ैसले ले रही है। मालदारों और रसूखदारों को उपकृत करने की श्रृंखला में अब बारी है भोपाल की शान मिंटो हॉल की , जिसे निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। स्थापत्य कला के नायाब नमूने के तौर पर सीना ताने खड़ी नवाबी दौर की इस इमारत का ऎतिहासिक महत्व तो है ही, यह धरोहर एकीकृत मध्यप्रदेश की विधान सभा के तौर पर कई अहम फ़ैसलों की गवाह भी है। सरकारी जमीन लीज पर देने का अपने तरह का यह पहला मामला होगा। राज्य सरकार की प्री-क्वालीफिकेशन बिड में चार कंपनियाँ रामकी (हैदराबाद), सोम इंडस्ट्री (हैदराबाद) जेपी ग्रुप (दिल्ली) और रहेजा ग्रुप (बाम्बे) चुनी गई हैं। इनमें से रामकी ग्रुप बीजेपी के एक बड़े नेता के करीबी रिश्तेदार का है। यूनियन कार्बाइड का कचरा जलाने का ठेका भी इसी कंपनी को दिया गया है। जेपी ग्रुप पर बीजेपी की मेहरबानियाँ जगज़ाहिर हैं।
भोपाल को रातोंरात सिंगापुर,पेरिस बनाने की चाहत में राज्य सरकार कम्पनियों को मनमानी रियायत देने पर आमादा है। इतनी बेशकीमती जमीन कमर्शियल रेट तो दूर,सरकार कलेक्टर रेट से भी कम दामों पर देने की तैयारी कर चुकी है । ऐसा लगता है कि सरकार किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों को अपने हिसाब से बना रही है। कलेक्टर रेट पर भी जमीन की कीमत लगभग 117.25 करोड़ है,जबकि 7.1 एकड़ के भूखंड की कीमत महज़ 85 करोड़ रुपए रखी गई है। शहर के बीचोबीच राजभवन के पास की इस जमीन की सरकारी कीमत सत्रह करोड़ रूपए प्रति एकड़ है। यहाँ जमीन का कामर्शियल रेट कलेक्टर रेट से तीन गुना से भी अधिक है। कीमत कम रखने के पीछे तर्क है कि उपयोग की जमीन मात्र साढ़े पांच एकड़ है। इतना ही नहीं 1.2 एकड़ में बने खूबसूरत पार्क को एक रूपए प्रतिवर्ष की लीज पर दिया जाएगा, जिसका उपयोग संबंधित कंपनी पार्टियों के साथ ही बतौर कैफेटेरिया भी कर पायेगी।
सरकार की मेहरबानियों का सिलसिला यहीं नहीं थमता । उद्योगपतियों को लाभ देने के लिए 85 करोड़ की राशि चौदह साल में आसान किश्तों पर लेने का प्रस्ताव है। पहले चार साल प्रतिवर्ष ढ़ाई करोड़ रूपए सरकार को मिलेंगे, जबकि पांचवे साल से सरकार को 14.90 करोड़ रूपए मिलेंगे। इस दौरान कंपनी सरकार को राशि पर महज़ 8.5 फ़ीसदी की दर से ब्याज अदा करेगी। इतनी रियायतें और चौदह साल में 85 करोड़ रूपए की अदायगी का सरकारी फ़ार्मूला किसी के गले नहीं उतर रहा है। सरकार मिंटो हॉल को साठ साल की लीज पर देगी, जिसे तीस साल तक और बढ़ाया जा सकता है। गौरतलब है कि गरीबों और मध्यमवर्गियों को मकान बनाकर देने वाला मप्र गृह निर्माण मंडल अपने ग्राहकों से आज भी किराया भाड़ा योजना के तहत 15 फ़ीसदी से भी ज़्यादा ब्याज वसूलता है। इसी तरह पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर मप्र पर्यटन विकास निगम ने महज़ 27 हजार 127 रुपए की सालाना लीज पर गोविंदगढ़ का किला दिल्ली की मैसर्स मैगपी रिसोर्ट प्रायवेट लिमिटेड के हवाले कर दिया है। इस तरह करीब 3.617 हेक्टेयर में फ़ैले गोविंदगढ़ किले को हेरिटेज होटल में तब्दील करके सैलानियों की जेब हल्की कराने के लिये कंपनी को हर महीने सिर्फ़ 2 हज़ार 260 रुपए खर्च करना होंगे। उस पर तुर्रा ये कि निगम के अध्यक्ष बड़ी ही मासूमियत के साथ कंपनी का एहसान मान रहे हैं,जिसने कम से कम किला खरीदने की हिम्मत तो की । वरना कई बार विज्ञापन करने के बावजूद कोई भी कंपनी किले को खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी ।
"मुफ़्त का चंदन" घिसने में मुख्यमंत्री किसी से पीछे नहीं हैं । ज़मीनों की रेवड़ियाँ बाँटने में उनका हाथ काफ़ी खुला हुआ है। पिछले छह सालों में केवल भोपाल ज़िले में सेवा भारती सहित कई सामाजिक और स्वयंसेवी संगठनों को करीब 95 एकड़ ज़मीन दे चुके हैं। इसमें वो बेशकीमती ज़मीनें शामिल नहीं हैं , जिन पर मंत्रियों और विधायकों से लेकर छुटभैये नेताओं के इशारों पर मंदिर,झुग्गियाँ तथा गुमटियाँ बन चुकी हैं। राजधानी के कमर्शियल एरिया महाराणा प्रताप नगर से लगी सरकारी ज़मीन पर बसे पट्टेधारी झुग्गीवासियों को बलपूर्वक खदेड़ दिया गया था। ज़मीन खाली कराने के पीछे प्रशासन का तर्क था कि सरकार को इसकी ज़रुरत है। विस्थापन के लिये सरकार ने झुग्गीवासियों को वैकल्पिक जगह दी और उनके विस्थापन का खर्च भी उठाया। बाद में मध्यप्रदेश गृह निर्माण मंडल के दावे को दरकिनार करते हुए बीजेपी सरकार ने बेशकीमती ज़मीन औने-पौने में दैनिक भास्कर समूह को "भेंट कर" दी। आज वहाँ डीबी मॉल सीना तान कर बेरोकटोक जारी सरकारी बंदरबाँट पर इठला रहा है। हाल ही में इस मॉल के प्रवेश द्वार में तब्दीली के लिये कैबिनेट के फ़ैसले ने एक बार फ़िर व्यावसायिक परीक्षा मंडल को अपना आकार सिकोड़ने पर मजबूर कर दिया । तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए कई पेड़ों की बलि देकर बेशकीमती ज़मीन डीबी मॉल को सौंप दी गई। करीब पाँच साल पहले भोपाल विकास प्राधिकरण ने भी एक बिल्डर पर भी इसी तरह की कृपा दिखाई थी। सरकारी खर्च पर अतिक्रमण से मुक्त कराई गई करीब पाँच एकड़ से ज़्यादा ज़मीन के लिये बिल्डर को कई सालों तक आसान किस्तों में रकम अदायगी की सुविधा मुहैया कराई थी। इसी तरह राजधानी भोपाल के टीनशेड, साउथ टीटीनगर क्षेत्र के सरकारी मकानों को ज़मीनदोज़ कर ज़मीन कंस्ट्रक्शन कंपनी गैमन इंडिया के हवाले कर दी गई।
सरकार के कई मंत्री और विधायक शहरों की प्राइम लोकेशन वाली ज़मीनों पर रातों रात झुग्गी बस्तियाँ उगाने, शनि और साँईं मंदिर बनाने के काम में मसरुफ़ हैं। नेताओं की छत्रछाया में बेजा कब्ज़ा कर ज़मीनें बेचने वाले भूमाफ़िया पूरे प्रदेश में फ़लफ़ूल रहे हैं । भाजपा के करीबियों ने कोटरा क्षेत्र में सरकारी ज़मीन पर प्लॉट काट दिये । गोमती कॉलोनी के करीब चार सौ परिवार नजूल का नोटिस मिलने के बाद अपने बसेरे टूटने की आशंका से हैरान-परेशान घूम रहे हैं । असली अपराधी नेताओं के संरक्षण में सरकारी ज़मीनों को "लूटकर" बेच रहे हैं । आलम ये है कि सरकार की नाक के नीचे भोपाल में करोड़ों की सरकारी ज़मीनें निजी हाथों में जा चुकी है । कई मामलों में नेताओं और अफ़सरों की मिलीभगत के चलते सरकार को मुँह की खाना पड़ी है ।
राज्य सरकार ने काफी मशक्कत के बाद भोपाल के मास्टर प्लान को रद्द करने का निर्णय लेने का मन बना लिया है। नगर तथा ग्राम निवेश संचालनालय ने राज्य शासन को नगर तथा ग्राम निवेश की धारा 18 (3) के तहत प्लान को निरस्त करने का प्रस्ताव भेज दिया है।शहरों में जमीन की आसमान छू रही कीमतों और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर आवास एवं पर्यावरण विभाग ने टाउनशिप विकास नियम-2010 का प्रारूप प्रकाशित कर दिया है। ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य घटनाक्रम दिखता है, लेकिन पूरे मामले की तह में जाने पर सारी धाँधली साफ़ हो जाती है । टाउनशिप विकास नियम-2010 के प्रकाशन से पहले भोपाल के मास्टर प्लान को रद्द करने की मुख्यमंत्री की घोषणा की टाइमिंग भूमाफ़ियाओं से सरकार की साँठगाँठ की पोल खोल कर रख देती है। सरसरी तौर पर टाउनशिप विकास नियम-2010 में कोई खोट नज़र नहीं आती, लेकिन प्रारूप में एक ऎसी छूट शामिल कर दी गई है, जिससे शहरों के मास्टर प्लान ही बेमानी हो जाएँगे । मास्टर प्लान में कई नियमों से बँधे कॉलोनाइजरों और डेवलपरों के लिये स्पेशल टाउनशिप नियम राहत का पैगाम है। राज्य सरकार ने टाउनशिप नियमों का जो मसौदा तैयार किया है, उसमें स्पेशल टाउनशिप को मंजूरी देने के लिए मास्टर प्लान के नियम बाधा नहीं बनेंगे। जहां भी मास्टर प्लान का क्षेत्र होगा, यदि वहां उक्त प्रस्ताव के नियमों और मास्टर प्लान के नियमों में विरोधाभास हुआ तो टाउनशिप के नियम लागू होंगे। इस तरह राज्य सरकार ने स्पेशल टाउनशिप के ज़रिये मास्टर प्लान से भी छेड़छाड़ की छूट दे दी है।
राज्य सरकार सामाजिक,राजनीतिक,शैक्षिक संस्थाओं के अलावा अब उद्योगपतियों पर भी मेहरबान हो रही है। राजधानी भोपाल,औद्योगिक शहर इंदौर,जबलपुर,ग्वालियर सहित कई अन्य शहरों में तमाम नियमों को दरकिनार कर सरकारी ज़मीन कौड़ियों के दाम नेताओं के रिश्तेदारों और उनके चहेते औद्योगिक घरानों को सौंपी जा रही हैं। 23 अप्रैल 2010 के पत्रिका के भोपाल संस्करण में सातवें पेज पर प्रकाशित ज़ाहिर सूचना में ग्राम सिंगारचोली यानी मनुआभान की टेकरी के आसपास की 1.28 एकड़ शासकीय ज़मीन एस्सार ग्रुप को कार्यालय खोलने के लिये आवंटित करने की बात कही गई है। नजूल अधिकारी के हवाले से प्रकाशित इस विज्ञापन में बेहद बारीक अक्षरों में पंद्रह दिनों के भीतर आपत्ति लगाने की खानापूर्ति भी की गई है।टाउनशिप के निर्माण के लिए असीमित कृषि भूमि खरीदने और इस जमीन को कृषि जोत उच्चतम सीमा अधिनियम के प्रावधानों से भी मुक्त करने जैसी बड़ी रियायतें भी देने का प्रस्ताव है। साथ ही टाउनशिप के बीच में आने वाली सरकारी जमीन प्रचलित दरों या अनुसूची(क) की दरों अथवा कलेक्टर की ओर से तय दरों पर पट्टे पर देने का प्रस्ताव भी आगे चलकर किसके लिये मददगार बनेगा,बताने की ज़रुरत शायद नहीं है। खतरनाक बात यह है कि कृषि भूमि पर भी टाउनशिप खड़ी हो सकेगी। खेती को लाभ का धँधा बनाने के सब्ज़बाग दिखाने वाले सूबे के मुखिया ने खेती की ज़मीनों पर काँक्रीट के जंगल उगाने की खुली छूट दे दी है । किसान तात्कालिक फ़ायदे के लिये अपनी ज़मीनें भूमाफ़ियाओं को बेच रहे हैं । सरकार की नीतियों के कारण सिकुड़ती कृषि भूमि ने धरतीपुत्रों को मालिक से मज़दूर बना दिया है। इससे पहले राज्य सरकार हानि में चल रहे कृषि प्रक्षेत्रों, जिनमें नर्सरियाँ और बाबई कृषि फ़ार्म भी निजी हाथों में देने का फ़ैसला ले चुकी है।
प्रारूप के नियमों में हर जगह लिखा गया है कि विकासकर्ता को अपने स्रोतों से ही टाउनशिप में सुविधाएँ उपलब्ध कराना होंगी जिनमें सड़क बिजली एवं पानी मुख्य है । वहीं यह भी जोड़ दिया कि वो चाहे तो इस कार्य में नगरीय निकाय की सहायता ले सकते हैं। नियम में इस शर्त को जोड़कर विकासकर्ता को खुली छूट दी गई है कि वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर टाउनशिप का पूरा विकास सरकारी एजेंसी के खर्चे से करवा ले। आवास एवं पर्यावरण विभाग की वेबसाइट पर मसौदे को गौर से पढ़ा जाए तो इसमें शुरू से लेकर आखिर तक सिर्फ बिल्डरों को उपकृत करने की मंशा साफ़ नज़र आती है। विभाग ने अपने ही नियमों को धता बताते हुए इस नए नियम से बड़े कॉलोनाइजरों और डेवलपरों की खुलकर मदद की है। स्पेशल टाउनशिप को पर्यावरण और खेती का रकबा घटने के लिये ज़िम्मेदार मानने वालों का तर्क है कि शहर के बाहर स्पेशल टाउनशिप बनाने के बजाए पहले सरकार को पुनर्घनत्वीकरण योजना के तहत शहर के पुराने, जर्जर भवनों के स्थान पर बहुमंजिला भवन बनाना चाहिए। अंग्रेजों द्वारा 1894 में बनाये गये कानून की आड़ में सरकारी ज़मीनों की खरीद फ़रोख्त का दौर वैसे ही उफ़ान पर है । ऎसे में खेती की ज़मीनों पर टाउनशिप विकसित करने का प्रस्ताव आत्मघाती कदम साबित होगा । इस प्रस्ताव से कृषि भूमि के परिवर्तन के मामलों में अंधाधुंध बढ़ोतरी की आशंका भी पर्यावरण प्रेमियों को सताने लगी है।
कृषि भूमि का अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने पर उतारु सरकार सरकारी संपत्ति की लूट खसोट के लिये जनता द्वारा सौंपी गई ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रही हैं। अरबों-खरबों के टर्नओवर वाली कंपनियों पर भी शिवराज सरकार की कृपादृष्टि कम नहीं है। इस बात को समझने के लिये इतना जानना ही काफ़ी होगा कि बीते एक साल के दौरान प्रदेश में बड़ी कंपनियों को सरकार 8000 हैक्टेयर से अधिक ज़मीन बाँट चुकी है। बेशकीमती ज़मीनें बड़ी कम्पनियों को रियायती दरों पर देने का यह खेल प्रदेश में उद्योग-धँधों को बढ़ावा देने के नाम पर खेला जा रहा है। पिछले एक साल में रिलायंस, बिड़ला समूह समेत 22 बड़ी कंपनियों को करीब 6400 हैक्टेयर निजी भूमि भू अर्जन के माध्यम से दी गई। वहीं 14 ऎसी कंपनियाँ हैं जिन्हें निजी के साथ ही करीब 1640 हैक्टेयर सरकारी ज़मीन भी उपलब्ध कराई गई है। इनमें भाजपा का चहेता जेपी ग्रुप भी शामिल है । अरबों के टर्नओवर वाली कंपनियों को रियायत की सौगात देने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे लोगों को स्थानीय स्तर पर रोज़गार मिल सकेगा लेकिन अब तक सरकारी दावे खोखले ही हैं ।
सरकारी संपत्ति पर जनता का पहला हक है। आम लोगों को अँधेरे में रखकर सरकार पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली की तरह काम कर रही है । नवम्बर 2005 के बाद प्रदेश की भाजपा सरकार के फ़ैसले भूमाफ़ियाओं के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली के से जान पड़ते हैं । पिछले छः दशकों में आदिवासी तथा अन्य क्षेत्रों की खनिज संपदा का तो बड़े पैमाने पर दोहन किया गया है मगर इसका फायदा सिर्फ पूँजीपतियों को मिला है। जो आबादियाँ खनन आदि के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापित हुईं, अपनी जमीन से उजड़ीं, उन्हें कुछ नहीं मिला। यहाँ तक कि आजीविका कमाने के संसाधन भी नहीं मिले, सिर पर एक छत भी नहीं मिली और पारंपरिक जीवनपद्धति छूटी, रोजगार छूटा, सो अलग। सरकार को उसकी हैसियत बताने के लिये जनता को अपनी ताकत पहचानना होगा और जागना होगा नीम बेहोशी से।.......क्योंकि ज़मीनों की इस बंदरबाँट को थामने का कोई रास्ता अब भी बचा है?
Monday, July 26, 2010
आयोडेक्स मलिए, पर चलिए कहां ?
आयोडेक्स मलिए, पर चलिए कहां ?
रेडियो और दूरदर्शन का एक विज्ञापन हमें ज्ञान देता है कि 'आयोडेक्स मलिए, काम पर चलिए'। लेकिन अफसोस कि विज्ञापन वाले अधूरी बात ही बताते हैं। वे आखिर यह क्यों नहीं बताते कि काम पर कहां चलें? हिंदुस्तान में करोड़ों बेराजगार काम तलाशने के काम में लगे हुए हैं। निष्काम भाव से काम की तलाश में देश का एक बड़ा तबका लगा हुआ है।
फिर काम पर चलने से पहले आयोडेक्स का मलना ही क्यों जरूरी है ? क्या बिना आयोडेक्स मले हम काम पर नहीं चल सकते ? आयोडेक्स मलने के बाद उसकी सुगंध वैसे भी घर पर रुकने नहीं देगी और आदमी घर छोड़ेकर बाहर की ओर जाएगा ही। जब बाहर जाएगा, तो कुछ न कुछ काम भी जरूर करेगा।
चोर-उचक्कों को यह विज्ञापन खूब भाया। शाम हुई नहीं कि आयोडेक्स लगाया और लूट-पाट, मार-काट के काम पर निकल पड़े। विज्ञापन ने कभी यह नहीं बताया कि किस काम पर निकलना है? काम अच्छा हो या बुरा, यह करने वाले को तय करना है। विज्ञापन वाला तो सिर्फ काम पर चलने की बात करता है।
अब एक नई बहस शुरू हो गई है। अभी तक सिर्फ सरकारी नौकरियों में आरक्षण था। अब निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की आवाजें सुनाई देने लगी हैं। आप चाहें, तो निजी क्षेत्र की ओर रूख कर सकते हैं और चाहें, तो सरकारी नौकरियों की ओर। जोर तो सिर्फ चलने पर है।
साधु-महात्माओं को इस विज्ञापन का विरोध करना चाहिए, क्योंकि धर्म तो काम, क्रोध, लोभ और मोह से बचने की बात करता है। काम से विरक्ति धर्म का मूल है और काम पर चलना विज्ञापन का मूल। दोनों के मूल में विरोधाभास है। एक कहता है कि काम पर चलो, तो दूसरा कहता है, काम को छोड़ो।
मशहूर शायर गालिब ने कहा था, 'इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के ।' गालिब ने कहा कि वह भी आदमी काम के थे, लेकिन यह नहीं स्पष्ट किया कि वह किस काम के थे ? अगर काम के ही थे, तो काम पर क्यों नहीं चलते थे ? लेकिन सवाल यह उठता है कि काम पर आखिर जाते भी कहां, क्योंकि वह तो बकौल खुद, निकम्मे हो चुके थे।
आम हिंदुस्तानी काम पर चलने से पहले हाथों में खैनी मलता है और यदि काम न बने, तो खाली हाथ मलता है। धार्मिक अनुष्ठान से पहले माथे पर चंदन मलता है। मौक्का लग जाए, तो दूसरों पर गोबर मलता है। हिंदुस्तान में मलने के लिए बहुत-सी चीजें मौजूद हैं, इसलिए किसी विज्ञापन के जरिये हिंदुस्तानियों को इस प्रकार की नेक सलाह की कतई जरूरत नहीं।
मूल सवाल फिर वही है कि आखिर आयोडेक्स मल कर जाएं, तो जाएं कहां ? सड़कें पैदल चलने लायक नहीं बचीं। रेलों में अब चोर-उचक्के, लुटेरे, धक्का देने वाले चल रहे हैं, इसलिए उसमें यात्रा करने का सवाल ही नहीं है। हवाई जहाज में उड़ने की अभी हमारी औकात हुई नहीं है। हे विज्ञापन वालो, हमें यह तो बताओ कि आखिर हम काम पर कहां जाएं ?
रेडियो और दूरदर्शन का एक विज्ञापन हमें ज्ञान देता है कि 'आयोडेक्स मलिए, काम पर चलिए'। लेकिन अफसोस कि विज्ञापन वाले अधूरी बात ही बताते हैं। वे आखिर यह क्यों नहीं बताते कि काम पर कहां चलें? हिंदुस्तान में करोड़ों बेराजगार काम तलाशने के काम में लगे हुए हैं। निष्काम भाव से काम की तलाश में देश का एक बड़ा तबका लगा हुआ है।
फिर काम पर चलने से पहले आयोडेक्स का मलना ही क्यों जरूरी है ? क्या बिना आयोडेक्स मले हम काम पर नहीं चल सकते ? आयोडेक्स मलने के बाद उसकी सुगंध वैसे भी घर पर रुकने नहीं देगी और आदमी घर छोड़ेकर बाहर की ओर जाएगा ही। जब बाहर जाएगा, तो कुछ न कुछ काम भी जरूर करेगा।
चोर-उचक्कों को यह विज्ञापन खूब भाया। शाम हुई नहीं कि आयोडेक्स लगाया और लूट-पाट, मार-काट के काम पर निकल पड़े। विज्ञापन ने कभी यह नहीं बताया कि किस काम पर निकलना है? काम अच्छा हो या बुरा, यह करने वाले को तय करना है। विज्ञापन वाला तो सिर्फ काम पर चलने की बात करता है।
अब एक नई बहस शुरू हो गई है। अभी तक सिर्फ सरकारी नौकरियों में आरक्षण था। अब निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की आवाजें सुनाई देने लगी हैं। आप चाहें, तो निजी क्षेत्र की ओर रूख कर सकते हैं और चाहें, तो सरकारी नौकरियों की ओर। जोर तो सिर्फ चलने पर है।
साधु-महात्माओं को इस विज्ञापन का विरोध करना चाहिए, क्योंकि धर्म तो काम, क्रोध, लोभ और मोह से बचने की बात करता है। काम से विरक्ति धर्म का मूल है और काम पर चलना विज्ञापन का मूल। दोनों के मूल में विरोधाभास है। एक कहता है कि काम पर चलो, तो दूसरा कहता है, काम को छोड़ो।
मशहूर शायर गालिब ने कहा था, 'इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के ।' गालिब ने कहा कि वह भी आदमी काम के थे, लेकिन यह नहीं स्पष्ट किया कि वह किस काम के थे ? अगर काम के ही थे, तो काम पर क्यों नहीं चलते थे ? लेकिन सवाल यह उठता है कि काम पर आखिर जाते भी कहां, क्योंकि वह तो बकौल खुद, निकम्मे हो चुके थे।
आम हिंदुस्तानी काम पर चलने से पहले हाथों में खैनी मलता है और यदि काम न बने, तो खाली हाथ मलता है। धार्मिक अनुष्ठान से पहले माथे पर चंदन मलता है। मौक्का लग जाए, तो दूसरों पर गोबर मलता है। हिंदुस्तान में मलने के लिए बहुत-सी चीजें मौजूद हैं, इसलिए किसी विज्ञापन के जरिये हिंदुस्तानियों को इस प्रकार की नेक सलाह की कतई जरूरत नहीं।
मूल सवाल फिर वही है कि आखिर आयोडेक्स मल कर जाएं, तो जाएं कहां ? सड़कें पैदल चलने लायक नहीं बचीं। रेलों में अब चोर-उचक्के, लुटेरे, धक्का देने वाले चल रहे हैं, इसलिए उसमें यात्रा करने का सवाल ही नहीं है। हवाई जहाज में उड़ने की अभी हमारी औकात हुई नहीं है। हे विज्ञापन वालो, हमें यह तो बताओ कि आखिर हम काम पर कहां जाएं ?
बाहुबली पत्रकार बने आदित्याज के संपादक
बाहुबली पत्रकार बने आदित्याज के संपादक
ग्वालियरअखबारों का प्रकासन कभी रास्त्र्भाक्ति और स्वधीनता का प्रतीक माना जाता था ! लेकिन अब ऐसा नहीं रहा ! अब अखबारों का प्रकाशन ज्यादातर बे लोग या संस्थान करना चाहते है जो अपने काले धन्धों के कारण कानून और पुलिस से खोफजदा है !अखबारों के प्रकासन से ऐसे लोगो को दो फायदे नज़र आते है एक पुलिस और कानून से सुरक्षा और दूसरा अधिकारियों और राजनीतिज्ञों पर दबाब ग्वालियर में भी ऐसा ही हो रहा है चालू दशक में कई व्यापारिक संस्थानों और लोगो ने अखबारों का प्रकासन और टीवी न्यूज़ चेनल शुरू किये हे जिनका पत्रिकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा हे !ऐसी स्तिथि में समस्या आती हे अख़बार या चैनल के नियमित खर्चो की आपूर्ति की ! इसके लिए संचालक तरह तरह के हथकंडे अपनाते हे !गत वर्स सुरु हुए एक अख़बार ने संपादन और प्रबंधन आरम्भ में ऐसे लोगो को सोपा था जिनकी सहर में पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि प्रबंधको के रूप में पहचान बनी हुई हे !संचालक खर्चो की पूर्ति करते रहेगे और उनका अखबार चलता रहेगा !किन्तु हुआ उल्टा प्रबंधको ने अपनी जेबे भरी और रास्ता बदल दिया इनमे से एक रीयल स्टेट कारोबारी की सरन में हे और दुसरे ने संस्था बदल दी हे ! संपादक प्रबधन का भार सोपने इस अखबार के संचालको ने नवभारत के संपादक सुरेश सम्राट से संपर्क स्थापित किया किन्तु वह सायद पत्रिकार्ता छोड़ कर प्रबंधन के लिए तैयार नहीं हुए तब प्रबंधन ने सीधे एक बाहुबली पत्रकार पर डोरे डाले !
ज्ञात हुआ हे की अरविन्द सिंह चौहान नामक यह पत्रकार मात्र कुछ साल पहले प्रदेश की पत्रिकारिता में आए हे और कुछ समय में एक मुकाम हासिल कर लिया हे !सुनने में आया हे की श्री चौहान यू पी के अखबार में भी काम कर चुके हे ! ऐसे पत्रकार को संपादक और प्रबंधक का भार सोपने के पीछे सायद अखबार संचालको की सोच हे की अब उनका अखबार गति पकड़ेगा ! निश्चित ही उनकी सोच सही प्रतीत होती हे अरविन्द चौहान जेसे युबा खून के सहारे इस अखबार की डूबती नैया पर हो जाबेगी ! नयी पारी के लिए अरविन्द को शुभकामनाये !
ग्वालियरअखबारों का प्रकासन कभी रास्त्र्भाक्ति और स्वधीनता का प्रतीक माना जाता था ! लेकिन अब ऐसा नहीं रहा ! अब अखबारों का प्रकाशन ज्यादातर बे लोग या संस्थान करना चाहते है जो अपने काले धन्धों के कारण कानून और पुलिस से खोफजदा है !अखबारों के प्रकासन से ऐसे लोगो को दो फायदे नज़र आते है एक पुलिस और कानून से सुरक्षा और दूसरा अधिकारियों और राजनीतिज्ञों पर दबाब ग्वालियर में भी ऐसा ही हो रहा है चालू दशक में कई व्यापारिक संस्थानों और लोगो ने अखबारों का प्रकासन और टीवी न्यूज़ चेनल शुरू किये हे जिनका पत्रिकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा हे !ऐसी स्तिथि में समस्या आती हे अख़बार या चैनल के नियमित खर्चो की आपूर्ति की ! इसके लिए संचालक तरह तरह के हथकंडे अपनाते हे !गत वर्स सुरु हुए एक अख़बार ने संपादन और प्रबंधन आरम्भ में ऐसे लोगो को सोपा था जिनकी सहर में पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि प्रबंधको के रूप में पहचान बनी हुई हे !संचालक खर्चो की पूर्ति करते रहेगे और उनका अखबार चलता रहेगा !किन्तु हुआ उल्टा प्रबंधको ने अपनी जेबे भरी और रास्ता बदल दिया इनमे से एक रीयल स्टेट कारोबारी की सरन में हे और दुसरे ने संस्था बदल दी हे ! संपादक प्रबधन का भार सोपने इस अखबार के संचालको ने नवभारत के संपादक सुरेश सम्राट से संपर्क स्थापित किया किन्तु वह सायद पत्रिकार्ता छोड़ कर प्रबंधन के लिए तैयार नहीं हुए तब प्रबंधन ने सीधे एक बाहुबली पत्रकार पर डोरे डाले !
ज्ञात हुआ हे की अरविन्द सिंह चौहान नामक यह पत्रकार मात्र कुछ साल पहले प्रदेश की पत्रिकारिता में आए हे और कुछ समय में एक मुकाम हासिल कर लिया हे !सुनने में आया हे की श्री चौहान यू पी के अखबार में भी काम कर चुके हे ! ऐसे पत्रकार को संपादक और प्रबंधक का भार सोपने के पीछे सायद अखबार संचालको की सोच हे की अब उनका अखबार गति पकड़ेगा ! निश्चित ही उनकी सोच सही प्रतीत होती हे अरविन्द चौहान जेसे युबा खून के सहारे इस अखबार की डूबती नैया पर हो जाबेगी ! नयी पारी के लिए अरविन्द को शुभकामनाये !
Sunday, July 25, 2010
सफेद घर में आपका स
सफेद घर में आपका स
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Sunday 25 July 2010
संडे के दिन पत्नी के बजाय जब मैंने डोसा बनाया... कुछ रोचक राजनीतिक अनुभव हुए .....जाना कि डोसा बनाना भी एक कला है....आखिर देश एक तवा जो ठहरा.........सतीश पंचम
आज sunday वाली छुट्टी के दिन जब घर में डोसा बनाया जा रहा था तब उसी वक्त पीने का पानी भी आ गया। अब या तो डोसा बनाया जाय या पानी भरा जाय। ऐसे में पत्नी को मैंने कहा कि चलो आज तुम पानी भरो और मैं डोसा बनाता हूँ। वैसे पहले कभी मैंने डोसा नहीं बनाया था....हाँ खाया खूब है।
तो, मैं कूद गया डोसा बनाओ अभियान में। पहले पैन में तेल की परत लगाने हेतु आधे कटे प्याज को तेल में डुबोकर उसे रगड़ा। सीं सीं की सनसनाहट हुई। लगा कि हाँ बर्तन गरम हो गया है। तुरंत एक कलछुल डोसा पेस्ट डाला। अब उसे फैलाना भी जरूरी है। सो उसी कलछुल से फैलाने भी लगा....लेकिन वह पेस्ट न जाने कौन सा आकर्षण बल लिए था कि गर्मी में फैलने की बजाय वह थोड़ा कड़ा होकर कलछुल से ही लिपट गया। जितना ही फैलाने की कोशिश करूँ.....उतना ही चिपका जाय। अब क्या तो तवे पर फैलाउं और क्या तो डोसा बनाउँ। लग रहा था जैसे कि मेरा कलछुल बंगाल है और सफेद डोसा पेस्ट ..... ममता बनरजी...जितना ही पूरे देश के तवे में रेल फैलाने की कोशिश करूँ ............ममता उतनी ही सख्ती से बंगाल से चिपकी रहें ।
खैर, किसी तरह से खराब-खुरूब बना कर रख दिया। अब सोचा कि अबकी तेल की परत थोड़ा मोटा रहना चाहिए ताकि चिपके नहीं.....इसलिए ज्यादा तेल डाल दिया। अब जैसे ही डोसा पेस्ट को तवे में डाला तो किनारे पर कुछ पेस्ट का हिस्सा चला गया। तवे के उसी किनारे पर सारा तेल जाकर पहले से इकट्ठा हो गया था। अब क्या...एक ओर सफेद डोसा पेस्ट.....दूसरी ओर तेलीहर क्षेत्र.........दोनों के मिलन स्थल पर सनसनाहट सी दिखने लगी.....पतले किनारे तो तेल की परत से हल्के हल्के फड़फड़ाने लगे। लग रहा था जैसे कि सीमा विवाद उत्पन्न हो गया हो। डोसा कहे यह मेरा क्षेत्र है....तेल कहे यह मेरा.....अब नीचे से आग तो नेताओं की तरह मैंने ही लगाई थी.....सो जाहिर है दोनों के मिलन स्थल पर हलचल होगी ही। लेकिन यह माजरा ज्यादा देर तक न चला। आग से कुछ ही देर में डोसा की वह गीली परत सूख गई और तेल भी समझ गया कि अब लड़ने झगड़ने से कोई फायदा नहीं है.....अब समय काफी बीत चुका है.... सो ठीक हमारी जनता की अन्य समस्याओं की तरह खुद- ब - खुद मामला सुलट गया......समय बड़ा बलवान होता है यह फिर साबित हो गया।
लेकिन अभी कहां....अभी तो मुझे और डोसा बनाना था। सो फिर एक बार डोसा पेस्ट डाला। अबकी डोसा पेस्ट तवे पर डालते समय उसके कुछ हिस्से डोसा के मूल बड़े भाग से अलग गिर गए हांलाकि वह गिरे तवे पर ही थे। जब मैंने ध्यान दिया तो लगा कि अरे यार यह वाला हिस्सा तो श्रीलंका की तरह अलग थलग द्वीप सा लग रहा है। इसे भी मूल डोसा का हिस्सा होना चाहिए। इसलिए मैंने मूल डोसा के गीले हिस्से को कलछुल से खींच खांच कर इस छोटे द्वीप से मिलाने की कोशिश की लेकिन मूल डोसे का उपरी हिस्सा तब तक आँच से सख्त हो गया था। भारत की तरह। मानों कह रहा हो...श्रीलंका की समस्या उसकी अपनी है। वह अलग थलग पड़ा तो तुम क्यों उसे मिलाने पर तुले हो। लेकिन डोसे का तमिलनाडु वाला हिस्सा कह रहा था कि नहीं...आखिर वहां के लोग भी तो हमारे डोसा पेस्ट वाले ही है। उन्हें यूँ नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी जद्दोजहद में समय बीतता गया और डोसा कड़क हो गया। जो जहां था वहीं का रहा। डोसे का मूल हिस्सा भारत की तरह अपनी जगह....श्रीलंका का छोटा हिस्सा अपनी जगह। समय फिर बलवान साबित हुआ।
अब फिर मैने पहले वाले डोसे को तवे से अलग कर तेल की परत जमाना शुरू किया। लेकिन तेल लगाते समय जो आधा कटा प्याज था वह अचानक खलरा छोड़ने लगा.... उसका छिलका उतरने लगा....मानों कह रहा हो कि क्या मैं ही बचा हूँ सीआरपीएफ की तरह हमेशा नक्सलियों से आफत मोल लेने के लिए। चमचों का इस्तेमाल क्यों नहीं करते इस तेल लगाउ अभियान में। अगर तुम्हारे चम्मचों ने सही से काम किया होता.....विकास की परत हर ओर बराबर फैलाई होती तो क्या मजाल जो नक्सली आँच का सामना करना पड़ता। लेकिन तुम अपने चम्मचों को तो शोकेस में सजाए हो और तेज आँच के बीच तेल लगाने मुझे भेज रहे हो...यह कहाँ का न्याय है। चलो हटो....अब मेरी परतें झड़ने लगी हैं।
मजबूरन मुझे चम्मच का सहारा लेना पड़ा और जब उससे तेल फैलाने लगा तवे पर.... तब आदतन तेल एक विशेष क्षेत्र की ओर जा कर टिक जाता....ठीक वैसे ही जैसे आरामपसंद राजनीतिज्ञ अपनी राजनीति की मलाईएक विशेष कोने में रखे हुए होते हैं। चूँकि पहला वाला आधा प्याज काफी घायल हो चुका था इसलिए मैने प्याज के बाकी बचे दूसरे टुकड़े वाले हिस्से को उपयोग में लाना शुरू किया। लेकिन वह प्याज चूँकि नया था सो तेल की परत लगाते समय ज्यादा सनसना रहा था। सीआरपीएफ की पुरानी टुकड़ी के मुकाबले उसे अनुभव कम था....जाहिर है....प्याज बयानबाजी कर रहा था। अनदेखे इलाके में आँच लगना स्वाभाविक था नये प्याज को।
इधर मैं अपनी पत्नी को एक से एक बहाने गढ़ कर बता रहा था कि आँच तेज थी...प्याज जल उठा.... इसलिए डोसा काला पड़ गया.... वगैरह वगैरह....ठीक चिदंबरम जैसी हर हमले के बाद वाली बातें .... बहाने वगैरह वगैरह।
थोड़ी देर बाद फिर वही हाल.....डोसा अब जल कर बहुत काला पड़ गया। मैंने पत्नी से कहा कि आसपास जरूर कोई रेडिओएक्टिव तत्व है जिसकी वजह से डोसे काले पड़ रहे हैं।
यह सिलसिला काफी देर चला। राम राम कर किसी तरह डोसे बन गए।
मैं अब सोचता हूँ कि यह देश एक डोसा मेकिंग एक्टिविटी की तरह है....नीचे से आँच तो नेता लोग लगाते ही रहते हैं.....लेकिन हर मसला समय बीतने के साथ या तो खुद ब खुद सुलझ जाता है या सख्त होकर कभी न सुलझने के लिए काला पड़ जाता है । इसी बीच रह रह कर काला पड़ने के लिए किसी बाहरी तत्व यानि की रेडियोएक्टिव तत्व की दलील जरूर दी जाती है :)
इन सारी बतियों में समय का बड़ा महत्व होता है। जब तक गीला है तब तक तेज आँच के बीच भी मामला सुलझ सकता है...समय बीतने पर .......दंतेवाडा़ और कश्मीर बनते देर नहीं लगती।
- सतीश पंचम
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Sunday 25 July 2010
संडे के दिन पत्नी के बजाय जब मैंने डोसा बनाया... कुछ रोचक राजनीतिक अनुभव हुए .....जाना कि डोसा बनाना भी एक कला है....आखिर देश एक तवा जो ठहरा.........सतीश पंचम
आज sunday वाली छुट्टी के दिन जब घर में डोसा बनाया जा रहा था तब उसी वक्त पीने का पानी भी आ गया। अब या तो डोसा बनाया जाय या पानी भरा जाय। ऐसे में पत्नी को मैंने कहा कि चलो आज तुम पानी भरो और मैं डोसा बनाता हूँ। वैसे पहले कभी मैंने डोसा नहीं बनाया था....हाँ खाया खूब है।
तो, मैं कूद गया डोसा बनाओ अभियान में। पहले पैन में तेल की परत लगाने हेतु आधे कटे प्याज को तेल में डुबोकर उसे रगड़ा। सीं सीं की सनसनाहट हुई। लगा कि हाँ बर्तन गरम हो गया है। तुरंत एक कलछुल डोसा पेस्ट डाला। अब उसे फैलाना भी जरूरी है। सो उसी कलछुल से फैलाने भी लगा....लेकिन वह पेस्ट न जाने कौन सा आकर्षण बल लिए था कि गर्मी में फैलने की बजाय वह थोड़ा कड़ा होकर कलछुल से ही लिपट गया। जितना ही फैलाने की कोशिश करूँ.....उतना ही चिपका जाय। अब क्या तो तवे पर फैलाउं और क्या तो डोसा बनाउँ। लग रहा था जैसे कि मेरा कलछुल बंगाल है और सफेद डोसा पेस्ट ..... ममता बनरजी...जितना ही पूरे देश के तवे में रेल फैलाने की कोशिश करूँ ............ममता उतनी ही सख्ती से बंगाल से चिपकी रहें ।
खैर, किसी तरह से खराब-खुरूब बना कर रख दिया। अब सोचा कि अबकी तेल की परत थोड़ा मोटा रहना चाहिए ताकि चिपके नहीं.....इसलिए ज्यादा तेल डाल दिया। अब जैसे ही डोसा पेस्ट को तवे में डाला तो किनारे पर कुछ पेस्ट का हिस्सा चला गया। तवे के उसी किनारे पर सारा तेल जाकर पहले से इकट्ठा हो गया था। अब क्या...एक ओर सफेद डोसा पेस्ट.....दूसरी ओर तेलीहर क्षेत्र.........दोनों के मिलन स्थल पर सनसनाहट सी दिखने लगी.....पतले किनारे तो तेल की परत से हल्के हल्के फड़फड़ाने लगे। लग रहा था जैसे कि सीमा विवाद उत्पन्न हो गया हो। डोसा कहे यह मेरा क्षेत्र है....तेल कहे यह मेरा.....अब नीचे से आग तो नेताओं की तरह मैंने ही लगाई थी.....सो जाहिर है दोनों के मिलन स्थल पर हलचल होगी ही। लेकिन यह माजरा ज्यादा देर तक न चला। आग से कुछ ही देर में डोसा की वह गीली परत सूख गई और तेल भी समझ गया कि अब लड़ने झगड़ने से कोई फायदा नहीं है.....अब समय काफी बीत चुका है.... सो ठीक हमारी जनता की अन्य समस्याओं की तरह खुद- ब - खुद मामला सुलट गया......समय बड़ा बलवान होता है यह फिर साबित हो गया।
लेकिन अभी कहां....अभी तो मुझे और डोसा बनाना था। सो फिर एक बार डोसा पेस्ट डाला। अबकी डोसा पेस्ट तवे पर डालते समय उसके कुछ हिस्से डोसा के मूल बड़े भाग से अलग गिर गए हांलाकि वह गिरे तवे पर ही थे। जब मैंने ध्यान दिया तो लगा कि अरे यार यह वाला हिस्सा तो श्रीलंका की तरह अलग थलग द्वीप सा लग रहा है। इसे भी मूल डोसा का हिस्सा होना चाहिए। इसलिए मैंने मूल डोसा के गीले हिस्से को कलछुल से खींच खांच कर इस छोटे द्वीप से मिलाने की कोशिश की लेकिन मूल डोसे का उपरी हिस्सा तब तक आँच से सख्त हो गया था। भारत की तरह। मानों कह रहा हो...श्रीलंका की समस्या उसकी अपनी है। वह अलग थलग पड़ा तो तुम क्यों उसे मिलाने पर तुले हो। लेकिन डोसे का तमिलनाडु वाला हिस्सा कह रहा था कि नहीं...आखिर वहां के लोग भी तो हमारे डोसा पेस्ट वाले ही है। उन्हें यूँ नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी जद्दोजहद में समय बीतता गया और डोसा कड़क हो गया। जो जहां था वहीं का रहा। डोसे का मूल हिस्सा भारत की तरह अपनी जगह....श्रीलंका का छोटा हिस्सा अपनी जगह। समय फिर बलवान साबित हुआ।
अब फिर मैने पहले वाले डोसे को तवे से अलग कर तेल की परत जमाना शुरू किया। लेकिन तेल लगाते समय जो आधा कटा प्याज था वह अचानक खलरा छोड़ने लगा.... उसका छिलका उतरने लगा....मानों कह रहा हो कि क्या मैं ही बचा हूँ सीआरपीएफ की तरह हमेशा नक्सलियों से आफत मोल लेने के लिए। चमचों का इस्तेमाल क्यों नहीं करते इस तेल लगाउ अभियान में। अगर तुम्हारे चम्मचों ने सही से काम किया होता.....विकास की परत हर ओर बराबर फैलाई होती तो क्या मजाल जो नक्सली आँच का सामना करना पड़ता। लेकिन तुम अपने चम्मचों को तो शोकेस में सजाए हो और तेज आँच के बीच तेल लगाने मुझे भेज रहे हो...यह कहाँ का न्याय है। चलो हटो....अब मेरी परतें झड़ने लगी हैं।
मजबूरन मुझे चम्मच का सहारा लेना पड़ा और जब उससे तेल फैलाने लगा तवे पर.... तब आदतन तेल एक विशेष क्षेत्र की ओर जा कर टिक जाता....ठीक वैसे ही जैसे आरामपसंद राजनीतिज्ञ अपनी राजनीति की मलाईएक विशेष कोने में रखे हुए होते हैं। चूँकि पहला वाला आधा प्याज काफी घायल हो चुका था इसलिए मैने प्याज के बाकी बचे दूसरे टुकड़े वाले हिस्से को उपयोग में लाना शुरू किया। लेकिन वह प्याज चूँकि नया था सो तेल की परत लगाते समय ज्यादा सनसना रहा था। सीआरपीएफ की पुरानी टुकड़ी के मुकाबले उसे अनुभव कम था....जाहिर है....प्याज बयानबाजी कर रहा था। अनदेखे इलाके में आँच लगना स्वाभाविक था नये प्याज को।
इधर मैं अपनी पत्नी को एक से एक बहाने गढ़ कर बता रहा था कि आँच तेज थी...प्याज जल उठा.... इसलिए डोसा काला पड़ गया.... वगैरह वगैरह....ठीक चिदंबरम जैसी हर हमले के बाद वाली बातें .... बहाने वगैरह वगैरह।
थोड़ी देर बाद फिर वही हाल.....डोसा अब जल कर बहुत काला पड़ गया। मैंने पत्नी से कहा कि आसपास जरूर कोई रेडिओएक्टिव तत्व है जिसकी वजह से डोसे काले पड़ रहे हैं।
यह सिलसिला काफी देर चला। राम राम कर किसी तरह डोसे बन गए।
मैं अब सोचता हूँ कि यह देश एक डोसा मेकिंग एक्टिविटी की तरह है....नीचे से आँच तो नेता लोग लगाते ही रहते हैं.....लेकिन हर मसला समय बीतने के साथ या तो खुद ब खुद सुलझ जाता है या सख्त होकर कभी न सुलझने के लिए काला पड़ जाता है । इसी बीच रह रह कर काला पड़ने के लिए किसी बाहरी तत्व यानि की रेडियोएक्टिव तत्व की दलील जरूर दी जाती है :)
इन सारी बतियों में समय का बड़ा महत्व होता है। जब तक गीला है तब तक तेज आँच के बीच भी मामला सुलझ सकता है...समय बीतने पर .......दंतेवाडा़ और कश्मीर बनते देर नहीं लगती।
- सतीश पंचम
बिहार में एक बार फ़िर घोटालों की राजनीति-ब्रज की दुनिया
बिहार में एक बार फ़िर घोटालों की राजनीति-ब्रज की दुनिया
Posted: 21 Jul 2010
बिहार में इन दिनों चार साल के अवकाश के बाद फ़िर से घोटालों की राजनीति चल पड़ी है.समय ने पलटी खाई है और कभी चारा घोटाला में उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता रहे लोग खुद को ही कटघरे में पा रहे हैं.ठीक इसी तरह बहुचर्चित पशुपालन घोटाले के समय भी तब की राज्य सरकार पशुपालन विभाग में हुए खर्च का उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दे पाई थी और बाद में सनसनीखेज घोटाले का पर्दाफाश हुआ था.विकास की बात करनेवाले नीतीश कुमार को पहली बार सुरक्षात्मक रवैय्या अपनाना पड़ा है और इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.विकास के नाम पर पैसों की व्यापक पैमाने पर बर्बादी हुई है.मनरेगा के तहत होनेवाले कामों के लिए उप विकास आयुक्त खुलेआम ग्राम प्रधानों से ५ से १० प्रतिशत तक का कमीशन खा रहे हैं.सरकार को अगर इससे इनकार है तो सभी उप विकास आयुक्तों की संपत्ति की जाँच करा कर देख ले.मैंने अपने जिले के जिला परिषद् कार्यालय में पाया कि मनरेगा मजदूरों की भुगतान पंजी पर कदाचित ९९.९९ प्रतिशत से भी ज्यादा मजदूरों के अंगूठों के निशान लगे हुए थे.ठीक वैसे ही जैसे मतदान के समय बूथ कब्ज़ा होने पर सारे वोटर अचानक अनपढ़ हो जाते हैं.गांवों में १० प्रतिशत राशि भी वास्तव में खर्च नहीं की जा रही,कहीं कोई काम नहीं हो रहा और ९० प्रतिशत से भी ज्यादा राशि स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की जेबों में चली जाती है.ऐसा संभव नहीं है कि पंचायती राज में क्या हो रहा है से सरकार पूरी तरह नावाकिफ हो लेकिन शायद उसका सोंचना है कि ग्राम प्रधान और अधिकारी ही उनकी चुनावी नैया पार लगाने में काफी साबित होंगे.लालू प्रसाद जो एक लम्बे समय से चारा घोटाले में लगे गंभीर आरोपों को झेलने के लिए अभिशप्त हैं, को अचानक बहुत बड़ा मुद्दा हाथ लग गया है और वे मेरा घोटाला-तेरा घोटाला का खेल खेलने लगे हैं.लेकिन दोनों मामलों में भारी अंतर है जहाँ चारा घोटाले में कुछ लोग ही सारी राशि चट कर गए थे वहीँ इस घोटाले में मामला धन देकर खर्च की निगरानी नहीं कर पाने का है.वास्तव में जिस तरह से भ्रष्टाचार हमारी संस्कृति में शामिल हो चुका है.इस तरह के माहौल में जब तक सरकार दृढ ईच्छाशक्ति नहीं दिखाती इस तरह के गबन होते रहेंगे.सरकार ने नौकरशाही को अनियंत्रित छूट दे रखी है.यहाँ तक कि मंत्री भी खुद को लाल फीताशाही के आगे लाचार महसूस कर रहे हैं.नौकरशाही की जनता के प्रति कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं होती.जनता के बीच जाकर हाथ पसारना पड़ता है नेताओं को.इस सरकार में नौकरशाही और लोकशाही के बीच का संतुलन कायम नहीं रह पाया इसलिए भी सरकार वित्तीय अनियमितता को समय रहते नहीं रोक पाई.वास्तव में मुख्यमंत्री नीतीश को खादी पर बिलकुल भी भरोसा नहीं था.मुख्यमंत्री की देखा-देखी जिलाधिकारी भी जनता दरबार लगाने लगे,लेकिन वे जनता की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए और मुख्यमंत्री के जनता दरबार की तरह उनका दरबार भी महज दिखावा बनकर रह गया.भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी विभाग ने सक्रियता जरूर दिखाई लेकिन बाद के समय में निगरानी के अधिकारी भी घूस खाने लगे.अब इन पर कौन निगरानी रखे.पिछले दो दिनों से विधान सभा में विपक्ष जिस तरह का व्यवहार कर रहा है उसे संसदीय तो नहीं ही कहा जा सकता है,गुंडागर्दी की श्रेणी में भी शामिल किया जा सकता है.विधायिका शांतिपूर्वक बहस करने और कानून बनाने का मंच है न कि गुंडागर्दी और पशुबल के प्रदर्शन का.बिहार में चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं बचा है ऐसे में पूरा विपक्ष अगर विधायिका से इस्तीफा दे भी देता है तो वो त्याग की श्रेणी में नहीं आएगा बल्कि उसे राजनीतिक बढ़त प्राप्त करने का हथकंडा ही माना जायेगा.
Posted: 21 Jul 2010
बिहार में इन दिनों चार साल के अवकाश के बाद फ़िर से घोटालों की राजनीति चल पड़ी है.समय ने पलटी खाई है और कभी चारा घोटाला में उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता रहे लोग खुद को ही कटघरे में पा रहे हैं.ठीक इसी तरह बहुचर्चित पशुपालन घोटाले के समय भी तब की राज्य सरकार पशुपालन विभाग में हुए खर्च का उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दे पाई थी और बाद में सनसनीखेज घोटाले का पर्दाफाश हुआ था.विकास की बात करनेवाले नीतीश कुमार को पहली बार सुरक्षात्मक रवैय्या अपनाना पड़ा है और इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.विकास के नाम पर पैसों की व्यापक पैमाने पर बर्बादी हुई है.मनरेगा के तहत होनेवाले कामों के लिए उप विकास आयुक्त खुलेआम ग्राम प्रधानों से ५ से १० प्रतिशत तक का कमीशन खा रहे हैं.सरकार को अगर इससे इनकार है तो सभी उप विकास आयुक्तों की संपत्ति की जाँच करा कर देख ले.मैंने अपने जिले के जिला परिषद् कार्यालय में पाया कि मनरेगा मजदूरों की भुगतान पंजी पर कदाचित ९९.९९ प्रतिशत से भी ज्यादा मजदूरों के अंगूठों के निशान लगे हुए थे.ठीक वैसे ही जैसे मतदान के समय बूथ कब्ज़ा होने पर सारे वोटर अचानक अनपढ़ हो जाते हैं.गांवों में १० प्रतिशत राशि भी वास्तव में खर्च नहीं की जा रही,कहीं कोई काम नहीं हो रहा और ९० प्रतिशत से भी ज्यादा राशि स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की जेबों में चली जाती है.ऐसा संभव नहीं है कि पंचायती राज में क्या हो रहा है से सरकार पूरी तरह नावाकिफ हो लेकिन शायद उसका सोंचना है कि ग्राम प्रधान और अधिकारी ही उनकी चुनावी नैया पार लगाने में काफी साबित होंगे.लालू प्रसाद जो एक लम्बे समय से चारा घोटाले में लगे गंभीर आरोपों को झेलने के लिए अभिशप्त हैं, को अचानक बहुत बड़ा मुद्दा हाथ लग गया है और वे मेरा घोटाला-तेरा घोटाला का खेल खेलने लगे हैं.लेकिन दोनों मामलों में भारी अंतर है जहाँ चारा घोटाले में कुछ लोग ही सारी राशि चट कर गए थे वहीँ इस घोटाले में मामला धन देकर खर्च की निगरानी नहीं कर पाने का है.वास्तव में जिस तरह से भ्रष्टाचार हमारी संस्कृति में शामिल हो चुका है.इस तरह के माहौल में जब तक सरकार दृढ ईच्छाशक्ति नहीं दिखाती इस तरह के गबन होते रहेंगे.सरकार ने नौकरशाही को अनियंत्रित छूट दे रखी है.यहाँ तक कि मंत्री भी खुद को लाल फीताशाही के आगे लाचार महसूस कर रहे हैं.नौकरशाही की जनता के प्रति कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं होती.जनता के बीच जाकर हाथ पसारना पड़ता है नेताओं को.इस सरकार में नौकरशाही और लोकशाही के बीच का संतुलन कायम नहीं रह पाया इसलिए भी सरकार वित्तीय अनियमितता को समय रहते नहीं रोक पाई.वास्तव में मुख्यमंत्री नीतीश को खादी पर बिलकुल भी भरोसा नहीं था.मुख्यमंत्री की देखा-देखी जिलाधिकारी भी जनता दरबार लगाने लगे,लेकिन वे जनता की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए और मुख्यमंत्री के जनता दरबार की तरह उनका दरबार भी महज दिखावा बनकर रह गया.भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी विभाग ने सक्रियता जरूर दिखाई लेकिन बाद के समय में निगरानी के अधिकारी भी घूस खाने लगे.अब इन पर कौन निगरानी रखे.पिछले दो दिनों से विधान सभा में विपक्ष जिस तरह का व्यवहार कर रहा है उसे संसदीय तो नहीं ही कहा जा सकता है,गुंडागर्दी की श्रेणी में भी शामिल किया जा सकता है.विधायिका शांतिपूर्वक बहस करने और कानून बनाने का मंच है न कि गुंडागर्दी और पशुबल के प्रदर्शन का.बिहार में चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं बचा है ऐसे में पूरा विपक्ष अगर विधायिका से इस्तीफा दे भी देता है तो वो त्याग की श्रेणी में नहीं आएगा बल्कि उसे राजनीतिक बढ़त प्राप्त करने का हथकंडा ही माना जायेगा.
हिंदी के प्रति आप क्या बनेंगे,नमक-हलाल,या हरामखोर.....?
हिंदी के प्रति आप क्या बनेंगे,नमक-हलाल,या हरामखोर.....?
दोस्तों , बहुत ही गुस्से के साथ इस विषय पर मैं अपनी भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त- रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....???एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम ,अपितु आप उससे अभिक " " परेशान "हो जायेंगे.....!!
थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही " रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वास्तु को एकदम से बिलकुल ही नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!...तो थोडा-बहुत तो क्या बल्कि उससे बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे अधिकाधिक प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा ही लिया गया है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को बड़े बेशर्म ढंग से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा है बल्कि रोमन लिपि में लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि युवा तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी प्रसार-संख्या बढाने के " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....??तो फिर दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो जाएगा....तो फिर उसमें आपके बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या आप उन्हें भी...."वो सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब कौवे काले हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस तरह का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर क्यूँ डाल देते हो....??
मैं बहुत गुस्से में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह कहना चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना चाह रहे हों....या कि आप मुझे नफरत की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें से जो भी बात आप पर लागू हो,उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको नागवार लगेगा बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार गुजर रहा है....तो फिर आप ही बताईये ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा को तिलांजलि देने में लगे हुए हैं ??
आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण आप इसकी हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हुए रहते है...???....हिंदी ने आपका कौन-सा काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं बनाया है कि आपको उसे बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस होती है....क्या आपको अपनी बूढी माँ को देखकर शर्म आती है...??यदि हाँ ,तो बेशक छोड़ दीजिये माँ को भी और हिंदी को अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी की हिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य नहीं आपके जीवन में...??
क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...??क्या हिंदी में आगे बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं होते....??मेरी समझ से तो हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व का सिरमौर का रह चुका है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में भी...क्या उस समय इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका भट्टा बिठाया है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे संस्कार का...भी...!!
आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका कारण यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह देश अपना स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक करोड़ लोगों की सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का मुगालता पालना...यह गलतफहमी पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के साधनों पर न हुआ होता...और उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी होती तो....जैसे उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद ही कोई गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई होती...!!
हिंदी के साथ वही हुआ , जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ हुआ....आज देश अपनी तरक्की पर चाहे जितना इतरा ले...मगर यहाँ के अमीर-से-अमीर व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान तो खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी पनपने भी देंगे.....!!ऐसे हालात में कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की भाषा बन सकती है....उसे हमने कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का घर....तो कहीं जानबूझकर नज़रंदाज़ किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे कहते हुए भी शर्म आती है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की खाता है....ओढ़ता है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर सार्वजनिक जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी "रंडी" को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!!ऐसे बेशर्म वर्ग को क्या कहें ,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता है.....जिसे जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग लगा देते हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर घर से बाहर कर देते हैं....तो हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला....हाकिम....हिंदी ने भी आपका क्या बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी मृत्यु तक आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी लतियायें,अपने माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही हिंदी का अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि उसके प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??
http://baatpuraanihai.blogspot.com/
दोस्तों , बहुत ही गुस्से के साथ इस विषय पर मैं अपनी भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त- रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....???एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम ,अपितु आप उससे अभिक " " परेशान "हो जायेंगे.....!!
थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही " रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वास्तु को एकदम से बिलकुल ही नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!...तो थोडा-बहुत तो क्या बल्कि उससे बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे अधिकाधिक प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा ही लिया गया है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को बड़े बेशर्म ढंग से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा है बल्कि रोमन लिपि में लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि युवा तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी प्रसार-संख्या बढाने के " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....??तो फिर दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो जाएगा....तो फिर उसमें आपके बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या आप उन्हें भी...."वो सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब कौवे काले हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस तरह का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर क्यूँ डाल देते हो....??
मैं बहुत गुस्से में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह कहना चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना चाह रहे हों....या कि आप मुझे नफरत की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें से जो भी बात आप पर लागू हो,उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको नागवार लगेगा बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार गुजर रहा है....तो फिर आप ही बताईये ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा को तिलांजलि देने में लगे हुए हैं ??
आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण आप इसकी हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हुए रहते है...???....हिंदी ने आपका कौन-सा काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं बनाया है कि आपको उसे बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस होती है....क्या आपको अपनी बूढी माँ को देखकर शर्म आती है...??यदि हाँ ,तो बेशक छोड़ दीजिये माँ को भी और हिंदी को अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी की हिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य नहीं आपके जीवन में...??
क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...??क्या हिंदी में आगे बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं होते....??मेरी समझ से तो हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व का सिरमौर का रह चुका है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में भी...क्या उस समय इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका भट्टा बिठाया है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे संस्कार का...भी...!!
आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका कारण यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह देश अपना स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक करोड़ लोगों की सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का मुगालता पालना...यह गलतफहमी पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के साधनों पर न हुआ होता...और उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी होती तो....जैसे उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद ही कोई गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई होती...!!
हिंदी के साथ वही हुआ , जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ हुआ....आज देश अपनी तरक्की पर चाहे जितना इतरा ले...मगर यहाँ के अमीर-से-अमीर व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान तो खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी पनपने भी देंगे.....!!ऐसे हालात में कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की भाषा बन सकती है....उसे हमने कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का घर....तो कहीं जानबूझकर नज़रंदाज़ किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे कहते हुए भी शर्म आती है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की खाता है....ओढ़ता है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर सार्वजनिक जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी "रंडी" को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!!ऐसे बेशर्म वर्ग को क्या कहें ,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता है.....जिसे जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग लगा देते हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर घर से बाहर कर देते हैं....तो हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला....हाकिम....हिंदी ने भी आपका क्या बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी मृत्यु तक आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी लतियायें,अपने माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही हिंदी का अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि उसके प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??
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Saturday, July 24, 2010
Thursday, July 22, 2010
नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में जर्नलिस्ट फॉर पीपुल की ओर से ‘ ‘अघोषित आपातकाल में पत्रकारों की भूमिका’ विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस विषय पर बोलते हुए समाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेष ने कहा कि आज देश में आपातकाल जैसी स्थितियां हैं, और ऐसी स्थितियां कमोबेश हर दौर में रहती हैं।
स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता कॉमरेड आजाद की कथित मुठभेड़ में पर सवाल उठाते हुए स्वामी जी ने उनकी शहादत को याद किया और कहा कि इस इस दौर में पत्रकारों को साहस के साथ खबरें लिखने की कीमत चुकानी पड़ रही है।
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के सलाहकार संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा माओवादी के प्रवक्ता आजाद की हत्या को शांति प्रयासों के लिए धक्का बताया। गौतम ने कहा कि आज राजसत्ता का दमन अपने चरम पर है। देश के अलग अलग हिस्सो में सरकार अलग-अलग तरीके पत्रकारों का दमन कर रही है। इसके खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष को एक करके देखना होगा। समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि अब सरकारें अपने बताए हुए सच को ही प्रतिबंधित कर रही हैं। और जो भी इसे उजागर करने की कोशिश करता है उसे गोली मार दी जाती है। या देशद्रोही करार दे दिया जाता है।
इस मौके पर अंग्रेजी पत्रिका हार्ड न्यूज के संपादक अमित सेन गुप्ता भी मौजूद थे। उन्होने कहा कि आज के दौर में पत्रकारित कारपोरेट घरानों के मालिकों के इशारे पर संचालित हो रही है। देश के अलग अलग हिस्से में हुई घटनाओं को अलग अलग तरीके से पेश किया जाता है। खासकर एक संप्रदाय विशेष के लिए मुख्यधारा की मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। गुजरात दंगों और बाटला हाउस एनकाउंटर की रिपोर्टिग पर भी अमित सेन ने सवाल उठाए।
कवि और सामाजिक कार्यकर्ता नीलाभ ने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता को बचाने के लिए एक सांस्कितक आंदोलन की जरूरत है। सरकारी दमन के मसले पर हिंदी के लेखकों की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्होने सांस्कृति कर्मियों, कलाकारों, चित्रकारों की एकता और आंदोलन की जरूरत पर बल दिया। इस मौके पर पत्रकार पूनम पांडेय ने कहा कि आपातकाल केवल बाहर ही नहीं है बल्कि समाचार पत्रों के दफ्तर के अंदर भी एक किस्म के अघोषित आपातकाल का सामना करना पड़ता है। इस मौके पर हिंदी के तीन अखबारों (नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण) के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया गया। इन अखबारों ने पत्रकार हेमचंद्र पांडेय को पत्रकार मानने से ही इंकार कर दिया था।
इस मौके पर पत्रकार हेमचंद्र की याद में हर साल दो जुलाई को एक व्याख्यान माला शुरु करने की घोषणा की गई। इस गोष्ठी को समायकि वार्ता की मेधा, उत्तराखंड पत्रकार परिषद के सुरेश नौटियाल, जेयूसीएस के शाह आलम समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट, पीयूसीएल के संयोजक चितरंजन सिंह ने भी संबोधित किया। गोष्ठी का संचालन पत्रकार भूपेन ने किया। इस कार्यक्रम में बड़ी तादात में पत्रकार, साहित्यका
Friday, July 16, 2010
C.M. For district, block level committees of committed social workers
C.M. For district, block level committees of committed social workers
Stresses transparency in administration
Bhopal:Friday, July 16, 2010:
The Chief Minister Shri Shivraj Singh Chouhan has given instructions for constituting district and block level committees of social workers in order to enlist their contribution in rebuilding of the state under Madhya Pradesh Banao drive.
Holding dialogue with divisional commissioners, collectors and senior district officers through video conferencing at Parakh monitoring programme, here today Shri Chouhan asked them to include all those willing to serve people and contribute to good governance. He said that all villages should have such committees. As many as 37 thousand 815 such committees constituted so far should be given responsibility to accomplish development tasks that need public participation.
The Chief Minister said that district convention of all these committees should be held after rainy season. They should be informed about the district wise action plan under the Madhya Pradesh Banao Campaign. He asked the concerning officers to chalk out an action plan for Sidhi district in next ten days.
The Chief Minister informed about including Chalo Anganwadi and family planning campaign in the Madhya Pradesh Banao campaign saying that these two subjects must have public participation so that it becomes a public movement.
Transparency in governance
Stressing the need for greater transparency in administrative processes, Shri Chouhan said that laxity in performance of duties would not be tolerated and those performing well will be rewarded. He appreciated state’s performance in wheat procurement in which Madhya Pradesh got third rank in the country. He congratulated the officials concerned for the achievement.
Referring to School Chalein Hum Shri Chouhan praised for effective campaign and informed that the drive has been extended upto July 31 in order to ensure hundred percent enrolment of all eligible children.
Family Planning
Underlining importance of family planning, he said that the people should be made aware of advantages of small family. It should become a public movement. It was informed that so far 16 thousand family planning operations have been performed during the family planning week. The maximum number of 5500 operations were done in Bhopal division. The Chief Minister gave instructions to motivate social workers, industrial units and voluntary organizations for adopting Anganwadis and malnourished children.
Implementation of welfare schemes
Shri Chouhan stressed on effective implementation of schemes meant for advancement of the poor including social welfare schemes. He said that he would review and monitor the status of implementation of such schemes during visits.
He reviewed appointment of contractual teachers in time bound manner, appointment of hand pump mechanics on honorarium basis, appointment of Anganwadi workers and asked for prompt action. He apprised himself of the drinking water and, rainfall and sowing in different parts of the state.
The Chief Minister gave instructions to take action in case of sub health centres and primary health centres, which are found closed and where Auxiliary Nurse Midwives and Multipurpose Health Workers remain absent. Stressing the need for providing land for constructing building of health centres and completing the ongoing building works, he asked the officers to hold inquiry into cases of depot holders without medicines in many villages of Rewa, Chhindwara, Damoh and Singroli and take action against the responsible officers.
Chief Minister’s instructions
Shri Chouhan gave instructions on a number of issues, which mainly include-
Guidance to farmers in rainfall deficient areas.
Optimum utilization of funds under centrally sponsored
schemes.
Check black-marketeering of farm inputs like fertilizers and ensure
timely supply.
All precautionary measures for prevention of diseases during rainy
seasons.
Ensuring availability of medicines to prevent epidemic diseases.
Awareness about swine flue and ensuring availability of treatment facilities.
Strengthen health information systems so that timely treatment is
available through emergency response teams.
Use of healthy plants in Hariyali Mahotsava drive.
Seeking public participation and cooperation of people’s representatives in plantation.
Constantly monitoring survival of plants.
Open flood control cells round the clock in all districts.
Readiness to combat flood situations. Set up rescue teams, have all arrangements for temporary relief camps, identify flood-prone areas. Provide mobile sets and vehicles to army if needed. Equipping fishermen’s groups with rescue materials.
Inform people in advance before releasing water from dams.
Making advance arrangements for medical teams, an prevention of epidemic diseases in floor-prone areas.
Birth-death and marriage registration be done compulsorily.
Funds required for transportation of drinking water should be released immediately for the critical areas reporting shortage of dirking water.
The Chief Secretary Shri Avani Vaish asked the offices to constantly monitor the performance of development programmes and give feed back to the state government. He instructed the officers of Rewa, Sheopur, Umaria, and Jhabua districts to speed up appointment of contractual teachers. He stressed on achieving hundred percent vaccination of children in Sehore, Dhar, Betul and Rewa districts.
Stresses transparency in administration
Bhopal:Friday, July 16, 2010:
The Chief Minister Shri Shivraj Singh Chouhan has given instructions for constituting district and block level committees of social workers in order to enlist their contribution in rebuilding of the state under Madhya Pradesh Banao drive.
Holding dialogue with divisional commissioners, collectors and senior district officers through video conferencing at Parakh monitoring programme, here today Shri Chouhan asked them to include all those willing to serve people and contribute to good governance. He said that all villages should have such committees. As many as 37 thousand 815 such committees constituted so far should be given responsibility to accomplish development tasks that need public participation.
The Chief Minister said that district convention of all these committees should be held after rainy season. They should be informed about the district wise action plan under the Madhya Pradesh Banao Campaign. He asked the concerning officers to chalk out an action plan for Sidhi district in next ten days.
The Chief Minister informed about including Chalo Anganwadi and family planning campaign in the Madhya Pradesh Banao campaign saying that these two subjects must have public participation so that it becomes a public movement.
Transparency in governance
Stressing the need for greater transparency in administrative processes, Shri Chouhan said that laxity in performance of duties would not be tolerated and those performing well will be rewarded. He appreciated state’s performance in wheat procurement in which Madhya Pradesh got third rank in the country. He congratulated the officials concerned for the achievement.
Referring to School Chalein Hum Shri Chouhan praised for effective campaign and informed that the drive has been extended upto July 31 in order to ensure hundred percent enrolment of all eligible children.
Family Planning
Underlining importance of family planning, he said that the people should be made aware of advantages of small family. It should become a public movement. It was informed that so far 16 thousand family planning operations have been performed during the family planning week. The maximum number of 5500 operations were done in Bhopal division. The Chief Minister gave instructions to motivate social workers, industrial units and voluntary organizations for adopting Anganwadis and malnourished children.
Implementation of welfare schemes
Shri Chouhan stressed on effective implementation of schemes meant for advancement of the poor including social welfare schemes. He said that he would review and monitor the status of implementation of such schemes during visits.
He reviewed appointment of contractual teachers in time bound manner, appointment of hand pump mechanics on honorarium basis, appointment of Anganwadi workers and asked for prompt action. He apprised himself of the drinking water and, rainfall and sowing in different parts of the state.
The Chief Minister gave instructions to take action in case of sub health centres and primary health centres, which are found closed and where Auxiliary Nurse Midwives and Multipurpose Health Workers remain absent. Stressing the need for providing land for constructing building of health centres and completing the ongoing building works, he asked the officers to hold inquiry into cases of depot holders without medicines in many villages of Rewa, Chhindwara, Damoh and Singroli and take action against the responsible officers.
Chief Minister’s instructions
Shri Chouhan gave instructions on a number of issues, which mainly include-
Guidance to farmers in rainfall deficient areas.
Optimum utilization of funds under centrally sponsored
schemes.
Check black-marketeering of farm inputs like fertilizers and ensure
timely supply.
All precautionary measures for prevention of diseases during rainy
seasons.
Ensuring availability of medicines to prevent epidemic diseases.
Awareness about swine flue and ensuring availability of treatment facilities.
Strengthen health information systems so that timely treatment is
available through emergency response teams.
Use of healthy plants in Hariyali Mahotsava drive.
Seeking public participation and cooperation of people’s representatives in plantation.
Constantly monitoring survival of plants.
Open flood control cells round the clock in all districts.
Readiness to combat flood situations. Set up rescue teams, have all arrangements for temporary relief camps, identify flood-prone areas. Provide mobile sets and vehicles to army if needed. Equipping fishermen’s groups with rescue materials.
Inform people in advance before releasing water from dams.
Making advance arrangements for medical teams, an prevention of epidemic diseases in floor-prone areas.
Birth-death and marriage registration be done compulsorily.
Funds required for transportation of drinking water should be released immediately for the critical areas reporting shortage of dirking water.
The Chief Secretary Shri Avani Vaish asked the offices to constantly monitor the performance of development programmes and give feed back to the state government. He instructed the officers of Rewa, Sheopur, Umaria, and Jhabua districts to speed up appointment of contractual teachers. He stressed on achieving hundred percent vaccination of children in Sehore, Dhar, Betul and Rewa districts.
Digvijay Singh always favours Naxalites: Jha
Bhopal, July 16:
Taking the war of words with Congress General Secretary Digvijay Singh further, Madhya Pradesh BJP President Prabhat Jha today alleged that Singh always favour the Naxalites.
"Singh has always been in favour of Naxalites and anti-social elements," Jha said last night at a conference here of BJP workers.
He was responding to Singh's allegations yesterday at Indore that RSS was the mastermind behind Ajmer blasts.
Jha said that Digvijay Singh was a 'well-wisher' of the Naxalites.
Jha also said that there should not be any doubt that the party would contest the next Assembly polls in the state under the leadership of Chief Minister Shivraj Singh Chouhan.
He said that neither was he in the race for the Chief Minister's post and nor would he contest Lok Sabha or Vidhan Sabha elections. Jha claimed that BJP would perform a hat-trick by returning to power in Madhya Pradesh for the third time in a row in 2013.
On a query, he said, "I will retire from active politics on reaching age of 62."
Jha further said that the Centre was not providing necessary coal to the state due to political discrimination.
"This is happening even though Madhya Pradesh happens to be a coal producing state," he said.
The second UPA government had promised to bring down prices within 100 days but the situation was so bad that the people were being forced to commit suicide, he said adding coal was being denied to MP to make sure that the power situation worsens in the state.
Taking the war of words with Congress General Secretary Digvijay Singh further, Madhya Pradesh BJP President Prabhat Jha today alleged that Singh always favour the Naxalites.
"Singh has always been in favour of Naxalites and anti-social elements," Jha said last night at a conference here of BJP workers.
He was responding to Singh's allegations yesterday at Indore that RSS was the mastermind behind Ajmer blasts.
Jha said that Digvijay Singh was a 'well-wisher' of the Naxalites.
Jha also said that there should not be any doubt that the party would contest the next Assembly polls in the state under the leadership of Chief Minister Shivraj Singh Chouhan.
He said that neither was he in the race for the Chief Minister's post and nor would he contest Lok Sabha or Vidhan Sabha elections. Jha claimed that BJP would perform a hat-trick by returning to power in Madhya Pradesh for the third time in a row in 2013.
On a query, he said, "I will retire from active politics on reaching age of 62."
Jha further said that the Centre was not providing necessary coal to the state due to political discrimination.
"This is happening even though Madhya Pradesh happens to be a coal producing state," he said.
The second UPA government had promised to bring down prices within 100 days but the situation was so bad that the people were being forced to commit suicide, he said adding coal was being denied to MP to make sure that the power situation worsens in the state.
Thousands of years old Bhutnath temple to be reconstructed
Bhopal, July 16:
The Bhojpur temple is world famous, but very few people know about the Bhutnath temple, which is situated only four kilometers away from there at village Ashapuri. It is said that the Bhopal's Upper Lake once spread up to Gauharganj and Mandideep and Singaldeep and these were its islands. The Parmar-era Bhutnath temple was situated at village Ashapur near Singaldeep.
Unfortunately, only ruins of this temple are remaining now. Culture and Public Relations Minister Shri Laxmikant Sharma launched the project to reconstruct this temple today. Shri Sharma said that so far the work of reconstruction is concerned it is being done by Archaeological Survey of India only. This is the first occasion when this work is being undertaken by the Archaeology Department of Madhya Pradesh government. The reconstruction work is likely to be completed in two years.
There are a number of ruins of temples exist in Ashapuri. A glance at these ruins shows that the biggest of these temples was constructed on the banks of a vast lake. Though this lake was a natural one but the Pratihar and Parmar rulers of 8th to 12th centuries had constructed stone walls around it. A large ghat was also constructed here, whose remains still exist. Apart from Bhutnath temple, remains of other temples are also present at Ashapuri including Ashadevi temple, Bilota and Satmasia temples. These temples will also be reconstructed.
The Bhutnath temple which was built in the architecture of those times called Bhumij style, was the most fabulous and gorgeous temple of the temples series in Ashapuri and was dedicated to Lord Vishnu.
The Directorate, Archives and Museum is maintaining the local Ashapuri Museum where statues and idols of Pratihar and Parmar eras have been kept. Some of these statues are important from the artistic point of viewt.
Commissioner Archaeology Shri Ashok Shah was also present on the occasion.
The Bhojpur temple is world famous, but very few people know about the Bhutnath temple, which is situated only four kilometers away from there at village Ashapuri. It is said that the Bhopal's Upper Lake once spread up to Gauharganj and Mandideep and Singaldeep and these were its islands. The Parmar-era Bhutnath temple was situated at village Ashapur near Singaldeep.
Unfortunately, only ruins of this temple are remaining now. Culture and Public Relations Minister Shri Laxmikant Sharma launched the project to reconstruct this temple today. Shri Sharma said that so far the work of reconstruction is concerned it is being done by Archaeological Survey of India only. This is the first occasion when this work is being undertaken by the Archaeology Department of Madhya Pradesh government. The reconstruction work is likely to be completed in two years.
There are a number of ruins of temples exist in Ashapuri. A glance at these ruins shows that the biggest of these temples was constructed on the banks of a vast lake. Though this lake was a natural one but the Pratihar and Parmar rulers of 8th to 12th centuries had constructed stone walls around it. A large ghat was also constructed here, whose remains still exist. Apart from Bhutnath temple, remains of other temples are also present at Ashapuri including Ashadevi temple, Bilota and Satmasia temples. These temples will also be reconstructed.
The Bhutnath temple which was built in the architecture of those times called Bhumij style, was the most fabulous and gorgeous temple of the temples series in Ashapuri and was dedicated to Lord Vishnu.
The Directorate, Archives and Museum is maintaining the local Ashapuri Museum where statues and idols of Pratihar and Parmar eras have been kept. Some of these statues are important from the artistic point of viewt.
Commissioner Archaeology Shri Ashok Shah was also present on the occasion.
Cyber cell coming up with mobile van
Bhopal, July 16:
In view of the increasing number of cyber crime incidents in State now Cyber Cell is going to induct a mobile van. This will be the first mobile van of cyber cell in the country. This van will be equipped with all kinds of modern equipment. One dish will be installed on this van which will be connected with the entire network. Team of cyber cell has started the work of preparing this van. According to the officers of cyber cell this van will be developed in three-four months. Although officers are not giving any information in this connection, they are of the opinion that after the van is developed only then they will be able to tell that how will this van function. At present team of cyber cell is engaged in developing this van.
How will cyber cell van function:
This van of cyber cell will operate in every corner of State. Officer operating this van will be able to get connect with any server and trace the criminal. This van will be used in that area where any incident related to cyber crime has occurred. With the help of this van cyber cell branch of police will be able to trace the criminal committing the crime and nab him. If any person receives threatening e-mail or message then cyber cell team of police will get connected with the computer on the spot and with the help of Internet take out complete bio-date of the accused who has given threat. Thus the criminal will be easily traced and police will nab him.
Why there is need of van?
According to the sources of cyber cell in the recent past incidents of cyber crime are continuously increasing but cyber cell has failed to nab the accused. Therefore the officers of cyber cell apprised the administration of the situation. Then it was decided to develop a cyber van whose work is going to be completed soon. Now it remains to be seen that how long will it take to develop the van. To develop this van a team of Delhi has arrived which is doing the work of developing this van in Bhopal.
What will be available in cyber mobile van?
In the first cyber mobile van of country all types of software and hardware will be available. There will be one dish installed on top of this van which will help in doing work through Internet. To run this van a special team has been prepared whose name is cyber investigation team.
What do officers say?
IG Cyber Cell Rajendra Mishra
This mobile van of cyber cell will reach on the spot and do investigation and help police in nabbing the accused.
In view of the increasing number of cyber crime incidents in State now Cyber Cell is going to induct a mobile van. This will be the first mobile van of cyber cell in the country. This van will be equipped with all kinds of modern equipment. One dish will be installed on this van which will be connected with the entire network. Team of cyber cell has started the work of preparing this van. According to the officers of cyber cell this van will be developed in three-four months. Although officers are not giving any information in this connection, they are of the opinion that after the van is developed only then they will be able to tell that how will this van function. At present team of cyber cell is engaged in developing this van.
How will cyber cell van function:
This van of cyber cell will operate in every corner of State. Officer operating this van will be able to get connect with any server and trace the criminal. This van will be used in that area where any incident related to cyber crime has occurred. With the help of this van cyber cell branch of police will be able to trace the criminal committing the crime and nab him. If any person receives threatening e-mail or message then cyber cell team of police will get connected with the computer on the spot and with the help of Internet take out complete bio-date of the accused who has given threat. Thus the criminal will be easily traced and police will nab him.
Why there is need of van?
According to the sources of cyber cell in the recent past incidents of cyber crime are continuously increasing but cyber cell has failed to nab the accused. Therefore the officers of cyber cell apprised the administration of the situation. Then it was decided to develop a cyber van whose work is going to be completed soon. Now it remains to be seen that how long will it take to develop the van. To develop this van a team of Delhi has arrived which is doing the work of developing this van in Bhopal.
What will be available in cyber mobile van?
In the first cyber mobile van of country all types of software and hardware will be available. There will be one dish installed on top of this van which will help in doing work through Internet. To run this van a special team has been prepared whose name is cyber investigation team.
What do officers say?
IG Cyber Cell Rajendra Mishra
This mobile van of cyber cell will reach on the spot and do investigation and help police in nabbing the accused.
Vishnoi inspects Bargi fish seedlings area
Bhopal, July 16:
Fisheries Minister Shri Ajay Vishnoi inspected Bargi fish seedlings area in Jabalpur on Thursday. The Madhya Pradesh Fisheries Federation is undertaking the work of fish production in Bargi reservoir. Fisheries Federation managing director Smt. Veena Ghanekar was also present during the inspection.
Shri Vishnoi inspected the hatchery being developed at a cost of Rs 1.5 crore. The Fisheries Minister said that several members of Fishermen's Cooperative Societies are engaged in the fisheries work in the Bargi Dam. With this in view, the hatchery should be developed as per their requirements. Officers told Shri Vishnoi that less water is the major problem of the hatchery. In this connection, Shri Vishnoi instructed officers of Narmada Valley, Public Health Engineering and Water Resources departments for making proper planning and arrangements for regular and uninterrupted water supply to the hatchery.
The Madhya Pradesh Fisheries Federation is undertaking fish procuction in 10 reservoirs of the state. Last year, 305 tonnes of fish was produced in the Bargi reservoir, which was 101 per cent of the target. Shri Vishnoi also apprised himself of the process of collecting fish seeds.
Credit cards distributed among fishermen
After the inspection, Fisheries Minister Shri Vishnoi gave away credit cards worth Rs 10 thousand each to 18 fishermen, who are members of Fishermen's Cooperative Society. Committee member Shri Shobha Ram said that the committee comprises 78 members and has Rs 3 lakh in its account. Shri Vishnoi informed the fishermen about Jaldeep Yojana being run for their benefit by the federation. Under this scheme, arrangements for health, education, fair-price food articles etc are being made for the fishermen and their families, who reside on islands in the reservoirs for fish breeding.
16jul2010
Fisheries Minister Shri Ajay Vishnoi inspected Bargi fish seedlings area in Jabalpur on Thursday. The Madhya Pradesh Fisheries Federation is undertaking the work of fish production in Bargi reservoir. Fisheries Federation managing director Smt. Veena Ghanekar was also present during the inspection.
Shri Vishnoi inspected the hatchery being developed at a cost of Rs 1.5 crore. The Fisheries Minister said that several members of Fishermen's Cooperative Societies are engaged in the fisheries work in the Bargi Dam. With this in view, the hatchery should be developed as per their requirements. Officers told Shri Vishnoi that less water is the major problem of the hatchery. In this connection, Shri Vishnoi instructed officers of Narmada Valley, Public Health Engineering and Water Resources departments for making proper planning and arrangements for regular and uninterrupted water supply to the hatchery.
The Madhya Pradesh Fisheries Federation is undertaking fish procuction in 10 reservoirs of the state. Last year, 305 tonnes of fish was produced in the Bargi reservoir, which was 101 per cent of the target. Shri Vishnoi also apprised himself of the process of collecting fish seeds.
Credit cards distributed among fishermen
After the inspection, Fisheries Minister Shri Vishnoi gave away credit cards worth Rs 10 thousand each to 18 fishermen, who are members of Fishermen's Cooperative Society. Committee member Shri Shobha Ram said that the committee comprises 78 members and has Rs 3 lakh in its account. Shri Vishnoi informed the fishermen about Jaldeep Yojana being run for their benefit by the federation. Under this scheme, arrangements for health, education, fair-price food articles etc are being made for the fishermen and their families, who reside on islands in the reservoirs for fish breeding.
16jul2010
Tuesday, July 13, 2010
देखो मीडिया बना रहा है बजरंगबली
देखो मीडिया बना रहा है बजरंगबली : बजरंगबली बेहद बलशाली थे लेकिन कहते हैं, उन्हें अपनी ताकत का गुमान नहीं था. वो तब जाग्रत होते थे जब उन्हें ताकत का भान कराया जाता था. मीडिया भी ऐसी ही ताकत का भान कराकर कई लोगों को बजरंगबली बनाता है.
अब बारी पीपली लाइव के लिए गाना लिखने वाले रायसेन जिले के बड़बई गाँव के मास्साब गया प्रसाद प्रजापति की है. पहले तो बेचारे मास्साब ये सोच कर खुश थे की उनके गांव में शूटिंग हो रही है, चलो देश भर के लोग उनके गांव के बारे में जान जायेंगे. फिर उन्हें भी उनकी मण्डली के साथ गाते-बजाते फिल्म में लिया गया. मास्साब का लिखा गाना भी फिल्म में ले लिया गया. न केवल ले लिया गया बल्कि उसे फिल्म के प्रोमो में डाल दिया गया. मास्साब गदगद थे कि अब गांव के साथ उन्हें भी देश के लोग पहचानने लगेंगे. फिर शुरू हुए खबरिया चैनलों के गांव में फेरे. मास्साब और खुश....
आये दिन प्रेस की हुई कमीज़ पहने किसी न किसी चैनल में मण्डली के साथ गाते दिख जाते. उनके लिए ये सपने से कम नहीं था कि अचानक किसी ने उन्हें बजरंगबली बनाने की सोची. मास्साब को ज्ञान दिया गया कि आपके गाने के कारण ही फिल्म को लोकप्रियता मिल रही है और ना केवल लोकप्रियता मिल रही है बल्कि उसे भाजपा बिहार चुनाव में इस्तेमाल करना चाहती है. मास्साब को बताया गया कि भाजपा से मोटी रकम प्रोड्यूसर लेगा और आपका गाना बेचेगा. उन्हें बताया गया कि आपने इतना अच्छा गाना लिखा और उसका कापीराईट भी आपके पास नहीं है. आपको क्या मिला?
बस अचानक मास्साब की चेतना जाग्रत. उन्होंने बाहें चढ़ा लीं. अभी तक वे बेचारे कापी-किताब की दुनिया में जीते थे लेकिन इस नए कापीराइट से उनका पाला नहीं पड़ा था, लेकिन जैसे ही उसमें गुम्फित माल के सपने मास्साब को दिखाए गए, मास्साब हुंकार भरने लगे. कल तक आमिर खान को दिल की अंतरतम गहराइयों से दुआ देने वाले मास्साब अब उन्हें पानी पी पी कर कोस रहे हैं. उनका कहना है कि वे भारी शोषण के शिकार हुए हैं.
मास्साब कह रहे हैं कि उन्हें इसके लिए आमिर खान से दस लाख और मण्डली के प्रत्येक सदस्यों के लिए एक एक लाख रूपये चाहिए. मास्साब ने आमिर खान से खतो किताबत शुरू कर दी है. आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने साजिश करके अंग्रेजी में लिखे पत्र में दस्तखत करवा कर कापीराइट ले लिया गया. खबर है आमिर खान ने उन्हें मुंबई बुलाने पर विचार किया है.
मास्साब कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे हैं जो मौजूदा दौर में गलत हो. प्रोफेशनलिज्म उनमे नहीं था तो मीडिया ने इसका उन्हें बोध करवाया और इसमें गलत कुछ भी नहीं है. जब गाने के कारण कमाई होगी तो उसे बंटना ही चाहिए.
गानों को लेकर विवाद कोई नया नहीं है. इसके पहले दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के फोक सोंग- 'ससुराल गोंदा फूल' पे बबाल हुआ. इसे 'ससुराल गेंदा फूल' करके इस्तेमाल किया गया. जबकि असली गाना 'गोंदा फूल' था जिसका मायना होता है नाज़ुक सा फूल. खैर इस गाने को किसने लिखा है ये तो अभी तक विवादों में है लेकिन सबसे पहले इसे हबीब तनवीर ने अपने थियेटर में इस्तेमाल किया था. इस फिल्म के रिलीज़ के वक्त भी बेहद दावे- प्रतिदावे हुए लेकिन बाद में मामला सुलटा लिया गया.
फिर आई इश्किया जिसके इब्नबतूता गाने में सर्वेश्यर दयाल सक्सेना को क्रेडिट ना मिलने पर हंगामा हुआ. अप्रत्यक्ष तौर से गुलज़ार को भी चोरी के आरोप झेलने पढ़े. अब ये नया मामला मास्साब का. कहते हैं कि फिल्म की पब्लिसिटी में विवाद अहम् रोल अदा करते हैं. उसे देख कर लगता है कि आमिर इस मसले को रिलीज़ के कुछ पहले तक रबर के तरह तानेंगे. इस बात का ध्यान रखते हुए कि वो बीच से टूटे ना. उसके बाद हो सकता है मास्साब का मुंह नोट देकर बंद करा दिया जाए.
जो भी हो मास्साब की तो निकल पड़ी है, यदि उनका गाना भाजपा ने लिया तो उनके दिन बहुरने तय हैं. एमपी में भाजपा की सरकार है, हो सकता है शिवराज उन्हें स्कूली पढ़ाई से मुक्ति दिलाकर किसी निगम मंडल का सदस्य बनाकर भोपाल में रख लें और उनके गाने से विरोधी दलों पर हमला करवाएं. यानी मास्साब के दोनों हाथों में लड्डू आने वाले हैं. उन्होंने कागज़ के टुकड़ों में जो भी टेड़ा मेड़ा लिखा और अखबारों में छपने भेजने की भी हिम्मत वे नहीं जुटा पाते थे मगर अब शान से बताते हैं कि कितनी मेहनत लगी उन्हें ये गाना लिखने में. जैसे मास्साब के दिन फिरे वैसे ही सब पर इश्वर की कृपा हो.
जय हो पीपली लाइव!
लेखक प्रवीण दुबे न्यूज चैनल 'न्यूज़24' के भोपाल में विशेष संवाददाता हैं.
अब बारी पीपली लाइव के लिए गाना लिखने वाले रायसेन जिले के बड़बई गाँव के मास्साब गया प्रसाद प्रजापति की है. पहले तो बेचारे मास्साब ये सोच कर खुश थे की उनके गांव में शूटिंग हो रही है, चलो देश भर के लोग उनके गांव के बारे में जान जायेंगे. फिर उन्हें भी उनकी मण्डली के साथ गाते-बजाते फिल्म में लिया गया. मास्साब का लिखा गाना भी फिल्म में ले लिया गया. न केवल ले लिया गया बल्कि उसे फिल्म के प्रोमो में डाल दिया गया. मास्साब गदगद थे कि अब गांव के साथ उन्हें भी देश के लोग पहचानने लगेंगे. फिर शुरू हुए खबरिया चैनलों के गांव में फेरे. मास्साब और खुश....
आये दिन प्रेस की हुई कमीज़ पहने किसी न किसी चैनल में मण्डली के साथ गाते दिख जाते. उनके लिए ये सपने से कम नहीं था कि अचानक किसी ने उन्हें बजरंगबली बनाने की सोची. मास्साब को ज्ञान दिया गया कि आपके गाने के कारण ही फिल्म को लोकप्रियता मिल रही है और ना केवल लोकप्रियता मिल रही है बल्कि उसे भाजपा बिहार चुनाव में इस्तेमाल करना चाहती है. मास्साब को बताया गया कि भाजपा से मोटी रकम प्रोड्यूसर लेगा और आपका गाना बेचेगा. उन्हें बताया गया कि आपने इतना अच्छा गाना लिखा और उसका कापीराईट भी आपके पास नहीं है. आपको क्या मिला?
बस अचानक मास्साब की चेतना जाग्रत. उन्होंने बाहें चढ़ा लीं. अभी तक वे बेचारे कापी-किताब की दुनिया में जीते थे लेकिन इस नए कापीराइट से उनका पाला नहीं पड़ा था, लेकिन जैसे ही उसमें गुम्फित माल के सपने मास्साब को दिखाए गए, मास्साब हुंकार भरने लगे. कल तक आमिर खान को दिल की अंतरतम गहराइयों से दुआ देने वाले मास्साब अब उन्हें पानी पी पी कर कोस रहे हैं. उनका कहना है कि वे भारी शोषण के शिकार हुए हैं.
मास्साब कह रहे हैं कि उन्हें इसके लिए आमिर खान से दस लाख और मण्डली के प्रत्येक सदस्यों के लिए एक एक लाख रूपये चाहिए. मास्साब ने आमिर खान से खतो किताबत शुरू कर दी है. आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने साजिश करके अंग्रेजी में लिखे पत्र में दस्तखत करवा कर कापीराइट ले लिया गया. खबर है आमिर खान ने उन्हें मुंबई बुलाने पर विचार किया है.
मास्साब कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे हैं जो मौजूदा दौर में गलत हो. प्रोफेशनलिज्म उनमे नहीं था तो मीडिया ने इसका उन्हें बोध करवाया और इसमें गलत कुछ भी नहीं है. जब गाने के कारण कमाई होगी तो उसे बंटना ही चाहिए.
गानों को लेकर विवाद कोई नया नहीं है. इसके पहले दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के फोक सोंग- 'ससुराल गोंदा फूल' पे बबाल हुआ. इसे 'ससुराल गेंदा फूल' करके इस्तेमाल किया गया. जबकि असली गाना 'गोंदा फूल' था जिसका मायना होता है नाज़ुक सा फूल. खैर इस गाने को किसने लिखा है ये तो अभी तक विवादों में है लेकिन सबसे पहले इसे हबीब तनवीर ने अपने थियेटर में इस्तेमाल किया था. इस फिल्म के रिलीज़ के वक्त भी बेहद दावे- प्रतिदावे हुए लेकिन बाद में मामला सुलटा लिया गया.
फिर आई इश्किया जिसके इब्नबतूता गाने में सर्वेश्यर दयाल सक्सेना को क्रेडिट ना मिलने पर हंगामा हुआ. अप्रत्यक्ष तौर से गुलज़ार को भी चोरी के आरोप झेलने पढ़े. अब ये नया मामला मास्साब का. कहते हैं कि फिल्म की पब्लिसिटी में विवाद अहम् रोल अदा करते हैं. उसे देख कर लगता है कि आमिर इस मसले को रिलीज़ के कुछ पहले तक रबर के तरह तानेंगे. इस बात का ध्यान रखते हुए कि वो बीच से टूटे ना. उसके बाद हो सकता है मास्साब का मुंह नोट देकर बंद करा दिया जाए.
जो भी हो मास्साब की तो निकल पड़ी है, यदि उनका गाना भाजपा ने लिया तो उनके दिन बहुरने तय हैं. एमपी में भाजपा की सरकार है, हो सकता है शिवराज उन्हें स्कूली पढ़ाई से मुक्ति दिलाकर किसी निगम मंडल का सदस्य बनाकर भोपाल में रख लें और उनके गाने से विरोधी दलों पर हमला करवाएं. यानी मास्साब के दोनों हाथों में लड्डू आने वाले हैं. उन्होंने कागज़ के टुकड़ों में जो भी टेड़ा मेड़ा लिखा और अखबारों में छपने भेजने की भी हिम्मत वे नहीं जुटा पाते थे मगर अब शान से बताते हैं कि कितनी मेहनत लगी उन्हें ये गाना लिखने में. जैसे मास्साब के दिन फिरे वैसे ही सब पर इश्वर की कृपा हो.
जय हो पीपली लाइव!
लेखक प्रवीण दुबे न्यूज चैनल 'न्यूज़24' के भोपाल में विशेष संवाददाता हैं.
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