Thursday, July 29, 2010

पुरुष फ्रंटपेज है, महिलाएं भीतर छपी हुई ख़बरें आवेश तिवारी *


पुरुष फ्रंटपेज है, महिलाएं भीतर छपी हुई ख़बरें
28 July, 2010 आवेश तिवारी

आज तक चैनल की एक एंकर ब्रेक के दौरान बाल संवारते हुए "अगर आपको अपना चेहरा दिखाकर या फिर बातों से प्रभावित करने या मक्खन लगाने की कला नहीं आती तो मीडिया आपके लिए नहीं है. अगर आपका कोई गाडफादर नहीं है तो भी मीडिया आपके लिए नहीं है. आप मेरी तरह फांकाकशी करेंगे और फिर थकहार कर किस्मत को कोसते हुए बैठ जायेंगे जैसे मै बैठी हूँ, ठूंठ! नौकरी छूट चुकी है जहाँ भी इंटरव्यू देने जाती हूँ हर जगह एक जैसा माहौल। किसी को आपके काम से मतलब नहीं। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब बड़े बैनर वाली जगहों पर भी यही होता है. मीडिया के भीतर और बाहर दोनों जगह एक जैसा माहौल। ऐसे में सोचना पड़ता है कि मै पत्रकार क्यों हूँ?"

ये बात कहते हुए दिल्ली की रचना बिफर पड़ती है “हो सके तो हम पर कुछ लिखिए।” ये सिर्फ रचना की कहानी नहीं है देश की ज्यादातर महिला पत्रकारों के लिए परिस्थितियां बिलकुल ऐसी ही हैं। प्राईम टाइम में दिखने वाले खुबसूरत चेहरों से लेकर देर रात की पाली के बाद थके हुए क़दमों से घर लौटने वाली महिला अखबारनवीसों की कहानी एक जैसी है। हिंदी के नामचीन अख़बारों में आज भी दो से चार हजार रूपए महीने में उन्हें जोता जाता है।

क्या आप यकीं करेंगे कुछ एक महिला पत्रकार माँ बनने से इसलिए डरती हैं कि उन्हें नौकरी से हटा दिया जायेगा ,जी हाँ ये सच है। ये भी सच है कि ज्यादातर अखबार जिनमे हिंदी पट्टी के अखबारों की संख्या सर्वाधिक है। महिलाओं को प्रसवकालीन अवकाश देने में आनाकानी करते हैं। अगर अवकाश दे भी दिया तो उनकी तनख्वाह से पैसे काट लिए जाते हैं। खुद को नंबर वन कह कर अपनी ही पींठ ठोकने वाले एक अखबार ने अपनी एक महिलाकर्मी के मामले में तो और भी अमानवीय रवैया अपनाया। पहले तो उसको मातृत्व काल के दौरान की तनख्वाह नहीं दी गयी और जब वो वापस कार्यालय पहुंची तो उसे बर्खास्तगी का पत्र थमा दिया गया। वहीँ लखनऊ की अनुपमा को पूरे प्रसवकाल के दौरान मजबूरी में कार्यालय आना पड़ा। ”वुमेन फीचर सर्विसेज“ ने पहले भी देश भर की लगभग ४५० महिला पत्रकारों के बीच में किये गए अपने सर्वेक्षण में पाया था कि महिला पत्रकारों के लिए सेवा सुविधाएँ किसी भी अन्य निजी या सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की अपेक्षा बेहद कम है। डब्ल्यूएफएस ने पाया था कि २९.२ फीसदी महिलाएं मानती हैं कि अगर वो माँ बन गयी तो उनके पदोन्नत्ति के रास्ते बंद हो जायेंगे। वही माँ बन चुकी ३७.८ फीसदी महिला पत्रकारों का ये मानना था कि प्रबंधन उन्हें रात्रिकालीन पली में काम करने के काबिल नहीं समझत।

इलाहाबाद की संध्या नवोदिता जो कई बड़े अखबारों में काम करने के बाद आज रक्षा पेंशन विभाग में नौकरी कर रही हैं कहती हैं पहले तो ये पुरुष या महिला पत्रकार शब्द ही खराब है। पत्रकार पत्रकार होता है। अगर आज महिलाएं या फिर लड़कियां मीडिया में अपना भविष्य संजोकर पछता रही हैं तो उसकी एक बड़ी वजह खुद मीडिया है। एक तरफ जहाँ ग्लैमर और पैसे की चकाचौंध से लबरेज माहौल में काम कर रहे बड़े चैनलों के चेहरे हैं वहीँ दूसरी तरफ ख़बरों के पीछे अपनी सुध-बुध भूलकर दौड़ने वाली लड़कियां जिनका घर भी बमुश्किल से चलता है। क्या ये कम शर्मनाक है कि दूसरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिला पत्रकार खुद ही सर्वाधिक शोषित होती हैं? ये बात शायद कभी गौर नहीं कि गयी मगर ये सच है कि प्रिंट मीडिया में काम करने वाली महिलाओं को अच्छी ख़बरों को भी बाई लाइन नहीं मिलती हैं जबकि उनके बनिस्बत पुरुषों को कूड़ा लिखने पर भी आसानी से बाई-लाइन मिल जाया करती है। यानी कि पैसे के साथ साथ उनके आत्म्समान को भी बार बार चोटिल किया जाता है।

हैदराबाद की एक पत्रकार मित्र बताती हैं कि जब पिछले दिनों उन्होंने लोक निर्माण विभाग के एक बड़े घोटाले के सम्बन्ध में एक्सक्लूसिव स्टोरी की तो उसे चार दिन तक पब्लिश नहीं किया गया। पांचवे दिन हमने देखा कि मेरी ही स्टोरी, थोड़ी बहुत फेरबदल करके मेरे पुरुष सहकर्मी के नाम से छाप दी गयी है ,जब मैंने इस बारे में संपादक से पूछा तो उनका कहना था कि आपकी रिपोर्टिंग में तथ्यों की कमी थी। आप फालोअप अनुमान के मुताबिक़ मीडिया सेक्टर में केवल ३५ फीसदी महिलाओं को ही स्थायी नौकरी मिल पायी, बाकी या तो अस्थायी तौर पर या निविदा के आधार पर रिपोर्टिंग कर रही हैं। हिंदी अखबारों के मामले में ये प्रतिशत २० से २२ के बीच ही है। लिंग असमानता का एक बड़ा नमूना उनकी पदोन्नति से जुड़ा हुआ है। जबरदस्त कार्य क्षमता और खुद को साबित करने के बावजूद बमुश्किल उनका प्रमोशन उप संपादक या वरिष्ठ रिपोर्टर तक ही हो पता है ,हालाँकि अंग्रेजी अखबार इस मामले में थोड़े अलग हैं। वहाँ पदोन्नति के अवसर अधिक हैं। एक बड़ी समस्या ये भी है कि प्रबन्धन महिलाओं को डेस्क रिपोर्टिंग के ही योग्य समझता है भले ही वो बीट रिपोर्टिंग के मामले में पुरुषों से बेहतर हों। महिलाओं ने अपनी अपार उर्जा और लगन की बदौलत हिन्दुतान में मीडिया का चेहरा बदलना चाहती है लेकिन मीडिया उनके अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर पाया है। भोपाल की स्वतंत्र पत्रकार रीमा अवस्थी कहती हैं पुरुषों के लिए पत्रकारिता खुद को साबित करने का जरिया हम खुद को साबित करने के बावजूद जहाँ के तहां है। पुरुष फ्रंटपेज है तो हम भीतर के पेजों में विज्ञापन के बीच छुपी ख़बरें हैं, इससे अधिक हमारी कोई औकात नहीं है। रीमा शायद सही कहती हैं.

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