Monday, May 10, 2010

सूचना अधिकार पर नौकरशाही की नकेल
08 May, 2010 16:12;00 पंकज चतुर्वेदी
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आजादी के बाद इस देश में तमाम तरीके के कायदे कानून बनाये गये जिनका उद्देश्य जनहित था । कौन सा कानून अपने उद्देश्य में कितना सफल है, उस पैमाने पर यदि सूचना के अधिकार अधिनियम का आंकलन किया जाये तो यह अधिनियम अच्छे के उद्देश्य के बाद भी अच्छे क्रियान्वयन की बाट जोह रहा है।

देश के नौकरशाही और सरकारी कर्मचारियों का गिरोह, आज सबसे ज्यादा इस आर.टी.आई. के खिलाफ हैं, क्योंकि इसने सन् 2005 से इन सबकी नाक में दम कर रखा है । पहले पहल तो यह गिरोह इस प्रयास में था कि ऐसा कोई कानून ही ना बन पाये पर शायद इस बार राजनीतिक इच्छाशक्ति की प्रबलता के आगे नौकरशाही का विरोध कमजोर पड़ गया और इस सोच ने बकायदा एक कानून का रूप ले लिया ।

यदि ऐसा कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आर.टी.आई. ने भारत के हर आम नागरिक को इस अधिनियम के द्वारा सांसद और विधायक जैसी शक्तियां प्रदान कर दी हैं। जहां साधारण नागरिक भी इस नियम के तहत बिना किसी सत्र के सरकार से उसके हर विभाग की हर जानकारी मांग सकता है। यद्यपि यह कानून भारत में अभी अपनी शैशव अवस्था में ही है, और सवाल यह है कि यह कैसे युवा बने? और फिर चिरयुवा बना रहे। क्योंकि भारत भर के अधिकारी और उनके मातहत कर्मचारी पग पग पर इस कानून को चोट पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि यह अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा ना हो सके क्योंकि जिस दिन यह कानून और इसकी कार्यवाही सशक्त हो जावेगी वह दिन सही मायनों में इस देश से भ्रष्टाचार के खात्मे की शुरूआत होगी ।

ऐसा नहीं कि आर.टी.आई. की अवधारणा दुनिया में कोई नई बात हो, स्वीडन जैसे देश ने आज से लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व ही इस तरह का कानून लागू कर लिया था। हमारे यहां हम निसंदेहः देर से आये हैं परंतु दुरस्त नहीं आये हैं। वर्तमान स्थिति में नौकरशाही द्वारा प्रथम प्रयास तो आर.टी.आई. के आवेदन को किसी भी आधार पर अस्वीकृत करने का किया जाता है। यदि आपने पंजीकृत डाक के माध्यम से आवेदन भेजा है जो स्वीकृत करना विभाग की मजबूरी है, तो यह प्रयास किया जाता है कि इसे निरस्त कर दिया जाये या फिर इसे अपने ही विभाग की किसी अन्य शाखा की ओर अग्रेषित कर अपना पिण्ड छुड़ाया जाये। जबकि ऐसा करना आर.टी.आई. एक्ट 2005 की धारा 25 के प्रावधानों का उल्लंघन है, जिसके अनुसार इस अधिनियम का अमल प्रभावी रूप से हो यह सुनिश्चित करना संबंधित विभाग के लोक सूचना अधिकारी का दायित्व है।

सामान्य तौर पर लोक सूचना अधिकारी इस नियम के तहत पूछे गये प्रश्न, दस्तावेज आदि की जानकारी नहीं देते जबकि आर.टी.आई. एक्ट की धारा 8 में यह स्पष्ट है कि किन 11 संवेदनशील विषयों को छोड़कर अन्य सब की जानकारी देना अनिवार्य है। आर.टी.आई. एक्ट ने तो यहां तक अधिकार दिया है कि कोई भी व्यक्ति इस कानून के तहत शासकीय कार्यों की गुणवत्ता एवं सामग्री का भी निरीक्षण कर सकता है। पर दुखद यह है कि यह लोक सूचना अधिकारी ही जाने-अनजाने इस नियम की कमर तोड़ रहा है। इस सब में पूरा-पूरा दोष उस सरकारी तंत्र का भी है जिन्होंने यह अधिनियम तो लागू कर दिया लेकिन यह नहीं सोचा कि अच्छी सैद्धांतिक सोच और अच्छे व्यवहारिक अमल में जमीन आसमान का फर्क है।

हमारे लोक सूचना अधिकारी इस नियम को लेकर शायद इसलिये भयभीत रहते हैं कि सूचना देने पर कोई उन्हें या उनके सहकर्मी अधिकारी या कर्मचारी को ब्लैकमेल ना करे या कहीं ऐसा ना हो कि आर.टी.आई. के आवेदन की प्रक्रिया से बहुत से अन्य आवश्यक शासकीय कार्य पिछड़ जायें। और इस सबके अतिरिक्त आर.टी.आई. पर किये जाने वाले व्यय को लेकर भी भ्रांतियां हैं। वर्तमान समय में देश के अनेक राज्यों ने केन्द्र से आर.टी.आई. के प्रभावी अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिये आर्थिक सहयोग मांगा है।

यदि आर.टी.आई. को उसकी मूल अवधारणा के अनुरूप देश भर में लागू करना है तो सबसे पहले ऐसी सोच बदलनी होगी जिससे कि शासकीय अधिकारी और कर्मचारी इस आर.टी.आई. का उचित सम्मान कर उत्तर देवें। अन्यथा होगा यह कि आर.टी.आई. कानून इस देश में रेंग-रेंग कर धीरे-धीरे दम तोड़ देगा और एक बार फिर भ्रष्टाचारी तंत्र निरंकुश होकर अपना खेल खेलने लगेगा। यह सब तभी संभव है जब आर.टी.आई. के लाभ का व्यापक प्रचार-प्रसार हो और आर.टी.आई. का प्रयोग इस प्रकार से हो कि लोगों को सरकारी तंत्र महज उनका "प्रतिनिधि” महसूस ना होकर उनका "सहयोगी” महसूस हो।

कई राज्यों में राज्य स्तरीय सूचना आयोग की नियुक्ति भी लोगों की समझ में नहीं आ सकी है। यदि इसमें और पारदर्शिता लाई जा सके तो बेहतर होगा क्योंकि जनता अपनी शिकायतों के लिये पहले राज्य स्तर पर ही जाती है। कई बार ऐसा भी प्रतीत हुआ है कि इन राज्य सूचना आयुक्त कार्यालयों पर काम का बोझ भी इतना है कि कई-कई महीनों तक पुरानी शिकायतों का निपटारा लंबित रहता है । इसके लिये आर.टी.आई. मद में और अधिक आर्थिक एवं मानव संसाधन लगाने होंगे तभी शीघ्र परिणाम प्राप्त होना संभव है। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि इन शिकायतों के बाद निर्धारित अर्थदंड को किस मद से लिया जायेगा एवं कहां जमा किया जावेगा, इस तक को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है।

इस व्यवस्था में परिवर्तन या सुधार तभी संभव है जबकि दृढ़ इच्छाशक्ति वाले राजनीतिज्ञ जो सरकार का भाग हैं । जानकारी ना देने वाले या टालनेवाले लोक सूचना अधिकारी के विरूद्ध कड़ी कार्यवाहीं करें, वरना देश में व्यापक रूप से फैले भ्रष्टाचार से लड़ने का यह अचूक हथियार जल्दी ही अपनी धार खो देगा।

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