Tuesday, April 13, 2010

फर्जी पत्रकार यानि भ्रष्ट तन्त्र की नाजायज औलाद

फर्जी पत्रकार यानि भ्रष्ट तन्त्र की नाजायज औलाद
राजधानी के कुछ पत्रकारों को शिखर स मान से नवाजे जाने वाली घटना की जो परतें खोलीं गई हैं उससे कई पत्रकार साथियों को अचंभा हो रहा है. यह कोई पहला आयोजन तो नहीं था जिसकी आलोचना लगभग गरियाने के अन्दाज में की जाए. अपने आयोजन की निन्दा से बैचेन कुछ लोगों ने कहना शुरु कर दिया है कि (नौकरशाही की नाकामियां छुपाने से गौरव गंध कैसे पा सकेंगे पत्रकार) शीर्षक से प्रकाशित लेख में पुरस्कार पाने वाले पत्रकारों को फर्जी कहा गया है. यह आरोप किसी गैर पत्रकार व्यçक्त की गढ़ी हुई कपोल कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं है.क्योंकि जब फर्जी पत्रकार कहा जाता है तो इस शब्द में ही पत्रकार शब्द छिपा हुआ है. उल्लेखित पूरे लेख में कहीं भी फर्जी पत्रकार शब्द ही नहीं लिखा गया है यह आसानी से देखा और पढ़ा जा सकता है. पुरस्कार पाने वाले साथियों को इस लेख में सलाह दी गई है कि ऐसे सतही आयोजनों में पुरस्कृत होने के बजाए वे यदि वास्तव में आम आदमी का दिल जीतेंगे और उसकी शुभकामनाएं पाएंगे तो वे स\"ो अथोZ में यशस्वी पत्रकार होंगे. सबसे बड़ी बात तो यह है कि पत्रकार क्या करना चाहते हैं और क्या कर रहे हैं यह उनका विशेषाधिकार है. उनके इस विशेषाधिकार को चुनौती देने का न तो हमारा साहस है और न ही उद्देश्य. इस लेख में जनता के संवेदनशील मुखयमन्त्री शिवराजसिंह चौहान को çझंझोड़ने की कोशिश की गई है ताकि वे अपने कार्यकाल में ऐसे कदम उठाएं जो उन्हें यशस्वी राजा के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने का काम करें. इसके लिए सरकार के जनसंपर्क महकमे की कुछ बुराईयों का उल्लेख भी किया गया. ये बुराईयां पिछली सरकारों के कार्यकाल में पनपीं थीं और उनके ही कारण वे सरकारें अधोगति को प्राप्त भी हुईं.इसके बावजूद भाजपा की सरकार ने उन्हीं परिपाटियों को जारी रखा है. पत्रकार साथियों की वेदना को समझने की ईमानदार कोशिशें अपदस्थ कर दीं गईं उमा भारती के शासनकाल में की गई थी. लेकिन आधे भाजपाई ही बन पाए बाबू भाई के मुखयमन्त्री बनने के बाद वे तमाम प्रयास ढप हो गए. इसके बाद मुखयमन्त्री शिवराजसिंह चौहान ने किसानों और आम आदमी को अपने विकास तन्त्र का आधार बनाया इसलिए आम पत्रकारों की ओर उनकी निगाहें अब तक नहीं पहुंच पाई हैं. जिस तरह से अपने निजी सूचना तन्त्र का उल्लेख उन्होंने उस दिन पत्रकारों के आयोजन में किया उससे साफ नज़र आता है कि वे समाज के हित वाली सूचनाएं पाने के लिए कितने बेचैन रहते हैं. उनकी इस बैचेनी की आग में से ही पत्रकारों की दुदüशा की तस्वीर भी उजागर हुई है. इसे देखकर वे पत्रकारों के हित में कुछ ठोस कदम अवश्य उठा सकेंगे. उस लेख में जनता के खजाने से पत्रकारों को दिए जाने वाले विज्ञापनों का उल्लेख किया गया है. इस आर्थिक सहयोग से पत्रकार साथी चप्पे चप्पे की सूचनाएं शासन तक पहुंचा सकते हैं. लेकिन उस धन का दुरुपयोग कुछ बौड़म किस्म की नीतियों के चलते धड़ल्ले से चल रहा है. भाजपा सरकार को खुश करने के लिए पत्रकारों के कोटे का धन कई सामाजिक संस्थाओं को विज्ञापन देने में किया जा रहा है. इन संस्थाओं में से अधिकतर फर्जी हैं. एक ऐसी ही संस्था का उदाहरण विवाद का कारण बन गया है यदि विज्ञापन और आर्थिक सहयोग पाने वाली सभी संस्थाओं की सूची खंगाली जाए तो ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे. इनमें से कई तो सिर्फ दिखावे के लिए अखबार या पत्रिका छपवाते हैं उनका मकसद सिर्फ जनता के खजाने की लूट करना होता है.ऐसे कथित पत्रकार बिचौलियों को कमीशन देने से भी कोई गुरेज नहीं करते हैं. इन पत्रकारों को बोलचाल की भाषा में फर्जी पत्रकार कह दिया जाता है. जबकि वे वास्तव में भ्रष्ट तन्त्र की अवैध सन्तानें हैं.ये लोग कलमजीवी पत्रकारों का हक मार रहे हैं.पिछली सरकार के कार्यकाल में भी इनका इकबाल बुलन्द था और आज भी वे भरपूर अवसर पा रहे हैं. दरअसल नकली और असली का खेल बड़ा निराला है. जो नागरिक अपने अखबार,चैनल या वेवसाईट से जनता और सरकार के बीच या जनता और दुनिया के बीच संवाद स्थापित करने का काम करते हैं. उन्हें सूचना प्रदाताओं की ओर से विज्ञापन पाने का पूरा हक है. ऐसे जो कलम शिल्पी सरकार और जनता के बीच संवाद स्थापित करते हैं वे सरकार से विज्ञापन पाने के हकदार हैं. लेकिन जो लोग कापोरेट जगत या बाजार और जनता के बीच संवाद स्थापित करते हैं वे भी जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा उड़ा रहे हैं. आम पत्रकार उनके सामने मुंह ताकता बैठा है. सरकार इन होडिZग किस्म के अखबारों पर अपने विज्ञापन देकर जनता से संवाद करती है तब उसका मकसद अखबार को आर्थिक मदद देना नहीं होता है.यह होना भी नहीं चाहिए. लेकिन जब वह छोटे पत्रकार को अखबार के प्रकाशन, वेवसाईट के प्रसारण या बीमारी में आर्थिक सहायता जैसे प्रकरणों से मदद की जाती है तब मकसद सूचना तन्त्र को मजबूत करना होता है. तब वास्तव में जनता के हित में अपना खून जलाकर सुधार के उपाय सुझाने वाले पत्रकारों को मदद पहुंचाना शासन का उद्देश्य होता है. यही पत्रकार का फर्ज है और यही उसकी पहचान है. जो लोग यह पहचान नहीं रखते वे पत्रकार कहलाने योग्य नहीं हैं. उन्हें फर्जी पत्रकार कहा जाए ,विज्ञापन कर्ता या शेर की खाल में भेçड़ए सभी जायज है. उन्हें पत्रकारों का हक मारकर मदद पहुंचाने वाले सरकारी अधिकारी हों या राजनेता वे वास्तव में पत्रकारों के दुश्मन हैं और उनका जनाजा पूरी जवाबदारी के साथ निकाला जाना चाहिए. (पीआईसीएमपीडॉटकॉम)

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