Monday, January 14, 2013

भारतीय संदर्भ में भाषायी मीडिया की स्वतंत्रता

भारतीय संदर्भ में भाषायी मीडिया की स्वतंत्रता
मृणाल पांडे
भाषायी मीडिया के लिए मीडिया की नैतिकता और स्वतंत्रता दोनों अपने आधुनिक मायनों में कुछ अजनबी, अपेक्षाकृत नये किस्म के विचार हैं। भारतीय प्रेस परिषद की सालगिरह पर जारी एक विशेष स्मृतिग्रंथ में आधुनिक तेलुगू पत्रकारिता के शिखर-पुरूष ''ईनाडु’ समूह के प्रमुख रामोजी राव लिखते हैं: ''मैं स्वीकारता हूँ कि मुझे (विमर्श के लिए) चुने गए विषय : मीडिया नैतिकता:’ ''श्रृंखला या स्वतंत्रता?’ ने कुछ चकरा दिया। मैं तो पुरानी रवायतों का पक्षधर हूँ और साफ कहना चाहता हूँ कि इस विषय पर दो राय हो ही नहीं सकती। स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और विश्वसनीय मीडिया नैतिक बुनियाद पर ही खड़ा किया जाता है, और वह एक नैतिक दायरे में ही काम करता है। इसकी लक्ष्मण रेखा को पार करने वाले ऐसा अपने जोखिम पर करते हैं, और उनकी आजादी और विश्वसनीयता दोनों अंतत: नष्ट हो जाते हैं। उपरोक्त पंक्तियों के पीछे का सोच भारतीय दर्शन पर आधारित है। इसके अनुसार नैतिकता एक सनातन धु्रवसत्य है। समय या देश या कार्यक्षेत्र विशेष के संदर्भ में उसमें उन्नीस-बीस जैसा कुछ नहीं होता। यह दर्शन ''स्वतंत्रता’ शब्द को भी अंग्रेजी के शब्द ''फ्रीडम’ के समतुल्य नहीं मानता। भारतीय मन के लिए अत्यंतिक स्वतंत्रता का मतलब है ''मुक्ति’ और मुक्ति तो तमाम भौतिक रिश्तों, संदर्भों के परित्याग के बाद ही संभव है। इसलिए भौतिक जीवन के स्त्री-स्वतंत्रता या मीडिया की स्वतंत्रता जैसे (अंग्रेजी से अनूदित) सवालों से रामोजी की ही तरह कई लोगों को स्वेच्छाचारिता और स्वैछाचार की बू आती है आर लक्ष्मणरेखा का सिद्घांत भी उन्हें स्त्रियों के संदर्भ में किसी तरह के गैरवाजिब या प्रकाशन समूहों के लिए कुंठा की संभावित वजह भी नहीं प्रतीत होता। मनुष्य की परतंत्रता और देश-काल से जुड़े विचारों से उठते सवालों के जवाब भारतीय दर्शन ठोस आर्थिक तथा समाजिक संदर्भों में प्राय: नहीं खोजता है। वह मानव-जीवन की संपूर्णता को लेकर ऐसे बुनियादी सवाल उठाता  है, जिनके आगे किसी खास मनुष्य या भौतिक इकाई की स्वतंत्रता या नैतिकता के मसले निहायत क्षुद्र प्रतीत होते हैं। इस दर्शन के अनुसार, हर धंधे की जड़ में एक समाज स्वीकृत सनातन नैतिकता होती है और उसकी लक्ष्मण रेखा द्वारा तय कार्यविधि ही उसकी सीमा और परिणाम तय करती है। अत: नए मीडिया के लिए नैतिक मूल्यांकन में बदलाव की जरूरत और इसके पक्ष में बदलते सामाजिक और निजी संदर्भों की बात उठाना परंपरावादियों की राय में बेमतलब ही है।
  इसका आशय कतई यह नहीं कि मीडिया की आजादी या नैतिकता को लेकर रामोजीराव का कथन एक अधूरी कल्पना और एक असम्पूर्ण व्याख्या है। लेकिन हमारी राय है कि नई सूचना तकनीकी द्वारा तेजी से परस्पर जुड़ती दुनिया में मीडिया के ठोस जमीनी संदर्भों में बदलाव आ गया है। भाषा पूँजी और राज-समाज में आए ऐतिहासिक बदलावों से परे जाकर सिर्फ पारंपरिक अमूर्त नैतिकता के उजास में मीडिया के विगत की उपलब्धि मापना या उसके आगत-अनागत के फलादेशों की सटीक व्याख्या कर पाना, आज यह दोनों ही बातें असंभव बन गई हैं। इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण स्वयं रामोजी राव और उनकी पत्रकारिता है। इमर्जेंसी काल के बाद मूलत: फिल्म फाइनांसियर रहे रामोजी ने अपने अखबार ''ईनाडु का अपने परम मित्र और सुपरस्टार एन.टी.आर. और उनकी तेलुगूदेसम पार्टी को क्षेत्रीय राजनीति में उतारने के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। चुनावी जीत के बाद पार्टी ज्यों-ज्यों निखरी, उनका अखबार भी चमका और अंतत: दोनों ही ''तेलुगू स्वाभिमान’ के पर्याय बने। इसके बाद ईनाडु का व्यावसायिक फैलाव ऐसा होता गया, कि आज आंध्र के 70 प्रतिशत पाठक ईनाडु पढ़ते हैं, और इसी समूह के चैनल ई.टी.वी को देखते हैं। रामोजी राव एक कुशल मीडियाकार और व्यापारी ही नहीं, राजनीतिज्ञ भी हैं। समयानुसार उन्होंने मार्केट की चाल पकड़ी, और उससे लाभान्वित हुए हैं।
 दूसरा उदाहरण भुरासोली पत्रिका का है जो तमिलनाडु के ख्यातनामा भारान परिवार से जुड़ी हैं। उनके प्रकाशन और उनका चैनल सन टी.वी. आज तमिल राजनीति में वही हैसियत रखते हैं जो आंध्र में ईनाडु समूह। रामोजी तथा मारान परिवार जैसे दमदार और जुझारू जनों से जुड़े यह दोनों उत्पाद व्यावसायिक तौर से चुस्त और द्रमुक राजनीति के बड़े भागीदार भी हैं। ऐसे ही बहुबंधी मीडिया जनों के जहूरे से हमारा मीडिया परिदृश्य आज 400 खरब की पूँजी के वारिधि का निर्माण कर चुका है। 18 प्रतिशत प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ रहे इस महासागर का सबसे बड़ा भाग हिन्दी मीडिया का है। इसलिए (इस लेखिका सरीखा) एक क्षुद्र भाषायी पत्र-संपादक जब अपनी स्वतंत्रता का पारंपरिक निर्वाण या मुक्ति के हवाई दर्शन की बजाए, राज-समाज के ठोस आर्थिक, भौतिक (यानी तकनीकी) संदर्भों से जोडऩे का आग्रह करें, तो इसका सीधा अर्थ है कि हिन्दी के पत्र भी अब अपनी नई स्थिति को समझें और उसके लिए युग तथा समाज-सापेक्ष ऐसी व्यावहारिक नैतिकता की खोज करें जो उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और धंधई रूप से तटस्थ बना दें। सफल भाषायी प्रकाशनों तथा टेलीविजन चैनलों की यह युति क्रमश: एक ऐसी दुनिया बना रही है जो आज हिन्दी पट्टी में दिल्ली, लखनऊ, प्रयाग, वाराणसी या पटना जैसे बड़े नगरों  के सम्पन्न लोगों और विद्वानों ही नहीं खगडिय़ा से खरगौन तक के सामान्य हैसियत वाले स्वप्नजीवी नवसाक्षरों की चेतना में एक सुहाने सपने की तरह मौजूद है। हिन्दी मीडिया का यही नया रूप वर्तमान पत्रकारिता का ही नहीं, पूरी हिन्दी पट्टी का एक उत्तेजक राजनैतिक भविष्य भी बना सकता है और जब ऐसा हुआ, तभी हिन्दी भी भारत की दूरदराज के क्षेत्रों के लाखों स्त्री-पुरूषों की इच्छा, आहï्लाद, स्वप्न और उत्कण्ठा की प्रसन्नमुखी अभिव्यक्ति का सच्चा स्त्रोत बनेगी। अगर अब तक आंध्र या तमिलनाडु के विपरीत हिन्दी के अखबारों से जुड़े सम्पादकीय कर्मियों और उनके करोड़ों पाठकों ने अपने राज-समाज से जुड़े स्वप्न साकार होते नहीं देखे, तो इसकी सीधी वजह यह है, कि उनकी हीन आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक हैसियत के चलते अब तक राज-समाज में उनके स्वप्नों का गंभीरता से लिया जाना संभव ही नहीं था। पर अब, जबकि नए-नए समूह जागकर लोकतंत्र में भागीदार बन रहे हैं, चीजें बदल रही हैं। हिन्दी मीडिया ही क्यों जड़ बैठा रहे? पुरानी हिन्दी-पत्रकारिता की उपलब्धियाँ हम नगण्य नहीं मानते, लेकिन उनका मुख्य लक्ष्य प्राय: हिन्दी क्षेत्र की परतंत्रता का भावुक विरोध करने और हिन्दी वाली की खीझ को स्वर देने का ही रहा है। अब जरूरी है कि हम हिन्दी वाले अपनी पट्टी की राजनैतिक सड़ाँध, धँधई काहिली और आर्थिक परतंत्रता की एक निर्मम परख करें। उसकी सही वजहें समझें, और सामूहिक तौर से अपनी नियति बदलने की ईमानदार तथ्यपरक मुहिम से जुटें। आज के स्वस्थ-सबल हिन्दी अखबार बहुत हद तक इन्हीं जरूरतों को महसूस कर अपनी तरह से अपनी आर्थिक, सामाजिक तथा भाषाई जड़ों की (अभी वह अस्पष्ट ही सही) तलाश करने भी लगे हैं। यही नहीं, छूँछे, क्रोध, खीझ, झुंझलाहट और असंतोष से अर कर वे अब विश्वपटल पर हिन्दी मीडिया की ऐतिहासिक नियति के मद्देनजर दिलेर तथा स्पष्ट निवेश  संबंधी फैसले भी लेने लगे हैं। लगभग हर वर्ष विदेशों में हिन्दी का एक नया चैनल, एक नया अखबारी संस्करण लांच होगा, किसने सोचा था? अत: भली हो या बुरी, राज-समाज की स्थिति की ईमानदार परिभाषा बनाना और उसके उजास में नैतिकता की परिधि खोजना हर प्रकार की बुनियादी जिम्मेदारी है। इस दिशा में कार्य स्थितियों में बेहतरी की पुरजोर माँग के साथ रिपोर्टिंग और व्याख्या द्वारा बदलती स्थितियों को भी परिभाषित करते जाने का हिन्दी मीडिया में आया ताजा सिलसिला स्वागत योग्य है। सिद्घांतत: आज यह संभव है कि कोई हिन्दी दैनिक, जो 20 से लेकर 24 तक पन्ने रोज छापता है, अंग्रेजी अखबारों की ही तरह अच्छी दरों पर भरपूर विज्ञापन छापकर अपने उपभोक्ता को एक हद तक अखबार खरीदने में रियासत दे सके। मुनाफे के साथ कागज की कीमत, छपने की लागत, कर्मचारियों के वेतन आदि सबके खर्चों को मिलाकर भी एक अच्छे हिन्दी अखबार को विज्ञापन से मिल रही राशि बीस बैठती है। जरूरत अब हिन्दी या राष्ट्रभक्ति के नाम पर सब्सिडी तथा चंदा उगाहने की नहीं, सीधे बाजार में जाकर विज्ञापन देने वालों को अपनी उत्तमता, पहुँच तथा पाठकीय साख का भरोसा दिलाने की है। हम यह जरूर प्रचार करें कि प्रेस को आजाद और राष्ट्रप्रेमी वगैरह होना चाहिए, लेकिन यह भी याद रखें कि यह आजादी कितनी बड़ी हद तक आयायित न्यूजप्रिंट, सूचना संचार के ग्लोबल सरोवर और उस अद्भूत मुद्रण तकनीकी पर निर्भर है, जो हम पश्चिम से मँगाते जा रहे हैं।
  हमारे यहाँ एक अरसे तक भारतीय भाषाओं के मीडियाकार की छवि चना-सत्तू फांककर फटे पुराने कपड़ों में वन-जंगल भटकने और जान हथेली पर रखकर अधकचरी खबर बटोरने, देने वाले की ही रही। जरूरत इस छवि से उबरने की भी है। रूमानी गरीबी के तर्क अब किसी को प्रभावित नहीं करते। न पाठक को, न सरकार को। क्योंकि पाठकों ने देख लिया है कि गुजरे बरसों में गरीबों का नाम लेकर ढेर लोगों ने ढेर सारी रेवडिय़ाँ जमा कीं। और फिर वे दनादन अपनों में बाँटी। न ऐसी इमदाद देते जाना कोई समझदार सत्ता चाहेगी, और न ही उसे पाने को झोली फैलाना किसी भी सक्षम स्वाभिमानी भाषायी मीडियाकार को गवारा होगा। ऐसा दान दाता को कितना घमंडी और आततायी बना सकता है, और याचक को कितना क्षुद्र और सतत-भीरू, यह हम सब देख चुके हैं, आज इस विगत से हिन्दी मीडिया को स्वतंत्र होना है। यही हमारा धर्म है, और यही हमारी नैतिकता।

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