Monday, January 14, 2013

यह न्याय है कि जादू-टोना?


 यह न्याय है कि जादू-टोना?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने राहुल गांधी के बारे में जो बयान किया है, वह मीडिया का ध्यान खींच रहा है लेकिन उन्होंने भारत की न्याय-व्यवस्था पर जो नया सुझाव दिया है, वह हाशिए में चला गया है।  उन्होंने कहा है कि वादियों और प्रतिवादियों को अदालतों के फैसले उनकी भाषा में उपलब्ध करवाए जाएं। ऐसी समझदारी की बात इसके पहले किसी कानून मंत्री ने शायद कभी नहीं कही। किसी प्रधानमंत्री,  किसी कानून मंत्री या किसी राजनेता को यह बात अभी तक सूझी क्यों नहीं?
कारण स्पष्ट है। दो सौ साल की गुलामी ने भारत के दिमाग को ही ठस्स कर दिया है। हम यह कल्पना ही नहीं करते कि हमारा कानून हमारी भाषा में बन सकता है। अदालतों की बहस और फैसले अपनी भाषा में तभी होंगे, जबकि कानून अपनी भाषाओं में बनेंगे। खुर्शीद ने यह तो कह दिया कि फैसले स्वभाषाओं में उपलब्ध करवाए जाएं लेकिन यह नहीं कहा कि वे स्वभाषाओं में ही लिखे जाएं। वे होंगे तो अंग्रेजी में ही लेकिन खुर्शीद की बात मान ली जाए तो उनके अनुवाद कई भाषाओं में हो जाएंगे। सरकारी अनुवाद की लीला से कौन परिचित नहीं है? मक्खी पर मक्खी बिठाने में निष्णात हमारे बाबू उन अंग्रेजी फैसले का कचूमर हिंदी तथा अन्य भाषाओं में कैसा निकालेंगे, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। मूल अंग्रेजी फैसलों और अनुवाद से उठी समस्याओं को निपटाने के लिए नए मुकदमे दायर किए जाएंगे। भारत के न्यायालय पागलखानों में तब्दील हो जाएंगे। लोगों को न्याय सुलभ करवाना तो दूर रहा, वे अनुवाद की गुत्थियों में उलझ जाएंगे।
इसका मतलब यह नहीं कि खुर्शीद का सुझाव निरर्थक है। एक अर्थ में वह क्रांतिकारी है। उन्होंने आम आदमी की तकलीफ को समझा तो सही। वादी और प्रतिवादी को पहले तो यह ही ठीक से समझ में नहीं आता कि अदालत में हो क्या रहा है। उनके वकील आपस में क्या गिटपिट कर रहे हैं। फिर जो फैसला अंग्रेजी में आता है, वह भी उसकी समझ के परे होता है। वह जादू-टोने की तरह हो जाता है। उसका वकील उसे जो सार-संक्षेप समझा देता है, उससे उसे संतोष करना पड़ता है। कई लोगों को उम्र-कैद काट देने के बाद पता चलता है कि उनके वकील ने जज को वह मुख्य तर्क समझाया ही नहीं, जो उसे दोषमुक्त कर सकता था। सारा कानून, वकीली बहस और फैसले अंग्रेजी में होने के कारण वादी और प्रतिवादी अदालत में अपनी बात कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते। इसका अर्थ यह नहीं कि फैसले अंग्रेजी में होते हैं तो किसी को न्याय मिलता ही नहीं। न्याय मिलता तो है लेकिन जिसको न्याय मिलता है, वह इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं होता। यह मूल मानव अधिकार का पूर्ण उल्लंघन है। यह लोकतंत्र का भी मजाक है। जो कानून और न्याय-व्यवस्था लोक की समझ के परे है, उसे लोकतांत्रिक कैसे कहा जाए?
इसीलिए खुर्शीद के सुझाव में से लोकतंत्र की सुगंध आती है लेकिन यह सुगंध इत्र की नहीं, परफ्यूम की है। इस सुंगध को गहरी और सुदीर्घ बनाने के लिए यह जरूरी है कि देश के सारे कानून मूल रूप से हिंदी में बनें। समस्त भाषाओं में मौलिक कानून आगे जाकर बन सकते हैं। उनका अनुवाद हिंदी से अन्य भारतीय भाषाओं में हो सकता है। अब यहां प्रश्न किया जा सकता है कि यदि आप अंग्रेजी कानून के अनुवाद रद्द करते हैं तो हिंदी कानून के अनुवाद को मान्य कैसे करते हैं? इसका उत्तर सरल है। पहला, समस्त भारतीय भाषाओं की भाव-भूमि एक ही है। उनकी मूल धारणाएं, मुहावरें, कहावतें, शैलियां लगभग एक जैसी हैं। उनके परस्पर अनुवाद में विभ्रम की गुंजाइश अंग्रेजी के मुकाबले बहुत कम है। दूसरा, उन्हें संस्कृत, अरबी, फारसी जैसी प्राचीन भाषाओं की शब्द-राशि सहज उपलब्ध है। तीसरा, अंग्रेजी के मुकाबले इन भाषाओं के अनुवादकों की संख्या काफी बड़ी होगी। चैथा, अपनी भाषा में कानून बनने के कारण अंग्रेजी कानून की गुलामी से भी भारत तत्काल मुक्त हो जाएगा। भाषा के साथ-साथ संस्कार, परंपराएं, अवधारणाएं, प्रतिक्रियाएं और चित्तवृत्तियां भी ढलती जाती हैं। स्वभाषा में कानून बनेगा तो न्याय के बारे में हमारा सोच स्वदेशी और मौलिक होगा।
यदि कानून अंग्रेजी में बनता है तो बहस और फैसले भी अंग्रेजी में ही होते हैं। इसका नतीजा तो यह है कि मुकदमे द्रौपदी के चीर की तरह लंबे होते चले जाते हैं। देश में लगभग तीन करोड़ मुकदमे अधर में लटके हुए हैं। कई-कई तो 30-30 बरसों से लटके हुए हैं। अन्य कारणों के अलावा इसका एक बड़ा कारण अंग्रेजी भी है। विदेशी भाषा को समझना, बोलना और लिखना अपनी भाषा के मुकाबले कठिन होता है। इसीलिए अंग्रेज के पूर्व गुलाम देशों के अलावा दुनिया के लगभग सभी देशों में न्याय स्वभाषा में दिया जाता है।  जॉन स्टुअर्ट मिल ने क्या खूब कहा है,  ‘देर से दिया गया न्याय, वास्तव में अन्याय है।’  इस देरी का कारण अंग्रेजी है।  अंग्रेजी के कारण हमारी न्याय-व्यवस्था अन्यायकारी बन गई है।
यदि न्याय स्वभाषा में मिले तो उसका अध्ययन-अध्यापन भी स्वभाषाओं में होगा। वकील या जज बनना अधिक आसान होगा। अभी तो उनकी सारी ताकत अंग्रेजी के बाल की खाल उखाड़ने में ही नष्ट हो जाती है। देश में हजारों नए जजों की जरूरत है। इसकी पूर्ति में अंग्रेजी सबसे बड़ा रोड़ा है। यह रोड़ा डॉक्टरी, इंजीनियरी, वैज्ञानिकी आदि सभी मार्गों में अड़ा हुआ है। यदि भारत में कानून और चिकित्सा की पढ़ाई स्वभाषाओं में होती रहती तो भारत के वकील और डॉक्टर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते और उनकी संख्या भी प्रचुर होती। अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई ने भारतीय न्याय को किताबी ज्ञान में कैद कर दिया है। न्याय तो मूलतः उचित और अनुचित के सहज-संज्ञान को कहते हैं। कानूनी ग्रंथ, पुराने फैसले, नजीर वगैरह न्याय करने में सहायक जरूर होते हैं लेकिन यह सहायता हमारे न्याय पर काफी भारी पड़ती है, क्योंकि वह अंग्रेजी में होती है। यह ऐसा ही है, जैसे किसी श्रेष्ठ गायक पर उसके तबले और हारमोनियमवाले भारी पड़ जाएं। यदि कानून का किताबी ज्ञान स्वभाषाओं में हो तो वह न्याय-प्रक्रिया की सहज-संगति करेगा। शिक्षा में यह मूलभूत क्रांतिकारी परिवर्तन करना हमारे वर्तमान राजनीतिज्ञों के बस की बात नहीं है। इसीलिए फिलहाल फैसलों के अनुवाद का ही स्वागत है।

(लेखक भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

No comments:

Post a Comment