यह महज संयोग नहीं है कि जब भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्केण्डेय काटजू राज्य सरकारों द्वारा प्रेस के साथ किये जा रहे दोहरे व्यवहार की बात करते हैं उनकी सूची में भाजपा अथवा भाजपा के सहयोगी दलों द्वारा शासित राज्य ही सबसे ऊपर होते हैं। अब चाहे अरुण जेटली या भाजपा के अन्य नेता समेत केन्द्र की राजनीति में विपक्षी दलों की भूमिका अदा कर रहे तमाम राजनीतिक दल भले ही उन्हें कोसने लगें लेकिन उनकी विद्वता पर किसी प्रकार का कोई ऐतराज नहीं किया जा सकता और यह संदेह जायज भी नहीं है।
संभवत: गुजरात और बिहार की पत्रकारिता कम से कम मध्य प्रदेश की तुलना में ज्यादा निर्भीक और जुझारू है जिसकी बात पत्रकारिता और पत्रकारों के हितों की लड़ाई का झंडा उठाए व्यक्ति तक पहुंच तो रही है। मगर भाजपा शासित मध्य प्रदेश का क्या जहां भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और अपने आप को पत्रकार कहने में गर्व महसूस करने वाले प्रभात झा को अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली को लेकर न्यायमूर्ति काटजू के खिलाफ राष्ट्रपति को पत्र लिखना तो याद रहता है मगर राज्य सरकार के चंद लाड़ले अधिकारियों द्वारा लागू की जा रही अघोषित सेंसरशिप नजर नहीं आती। उन्हें नजर नहीं आता कि प्रदेश में लागू अघोषित सेंसरशिप का दंश कुछ निर्भीक पत्रकार झेल रहे हैं।
इसकी एक बानगी राज्य विधान सभा के बजट सत्र के लिए पत्रकारों को जारी किए गये प्रवेश पत्रों की सूची से मिल जाती है जिसमें छांट-छांट कर सत्ता प्रतिष्ठान और सरकार के चहेतों के खिलाफ लिखने वाले समाचार पत्रों और उनके प्रतिनिधियों को अलग कर दिया गया है। पराकाष्ठा यह कि असल पत्रकारों के पास काट कुछ ऐसे लोगों को पत्रकार दीर्घा के पास जारी कर दिये गये हैं जिनका कोई कवरेज किसी अखबार में छपता ही नहीं।
लेकिन बात यह नहीं कि इन्हें क्यों पास दिये गये, भाड़ में जाऐं ऐसे अधिकारी जिन्हें ये पत्रकार नजर आते है। सरकार के फंड का अहम हिस्सा ऐसे लोगों के हाथों रेवडिय़ों की तरह बंट रहा है जो नाम मात्र का प्रकाशन करते हैं और पार्ट टाइम पत्रकार हैं। इस तालमेल की जानकारी हमने स्वयं मुख्यमंत्री सहित, वरिष्ठ अधिकारियों को दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने भी इस संबंध में प्रमुख सचिव को पत्र लिखा है पत्रकारों का आंदोलन भी हो चुका पर अधिकारियों का अभी तक कोई बाल भी बांका नहीं कर सका है।
क्यों अखबारों में अक्सर पहले पेज पर सरकार की नीतियों की समीक्षा नहीं होती, क्यों भ्रष्टाचार की खबरों की गहराई अधिकारियों से कहीं गहरे उतरे उनके आकाओं तक नहीं पहुंच रहीं, क्यों सत्तारूढ़ दल के अलावा अन्य दलों की गतिविधियाँ पहले पेज पर स्थान नहीं पातीं.... क्योंकि कलम को पेट से बाँध दिया गया है और पेट पालना पहली प्राथमिकता है।
और यह भी कि जमीनी हकीकत ऊपर पहुंचना नहीं चाहिये पहुँचे तो सिर्फ तारीफ ही तारीफ जिससे फीलगुड में सरकार रहे मदमस्त और अफसर उड़ायें मजे। सरकार बदलने पर भी अफसरों की पालिसी कुछ ऐसी ही रहती है। अटलजी का इंडिया शाइनिंग याद आता है।
केवल इतना ही नहीं प्रदेश के जनसंपर्क विभाग ने ऐसे अधिकारी को विज्ञापन का काम सौंपा गया है जो चीन्ह चीन्ह कर विज्ञापन दे रहा है और ऐसे अखबरों को निपटा रहा है जो सरकार की विरूदावलि नहीं गाते। अनेक वेबसाइटों और चेनलों पर योजनाओं की जानकारी से ज्यादा सरकार की गान गाथा सरकारी खर्च पर गाई जा रही है। अब इसे क्या समझें?SATURDAY, 23 FEBRUARY 2013 22:35
संभवत: गुजरात और बिहार की पत्रकारिता कम से कम मध्य प्रदेश की तुलना में ज्यादा निर्भीक और जुझारू है जिसकी बात पत्रकारिता और पत्रकारों के हितों की लड़ाई का झंडा उठाए व्यक्ति तक पहुंच तो रही है। मगर भाजपा शासित मध्य प्रदेश का क्या जहां भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और अपने आप को पत्रकार कहने में गर्व महसूस करने वाले प्रभात झा को अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली को लेकर न्यायमूर्ति काटजू के खिलाफ राष्ट्रपति को पत्र लिखना तो याद रहता है मगर राज्य सरकार के चंद लाड़ले अधिकारियों द्वारा लागू की जा रही अघोषित सेंसरशिप नजर नहीं आती। उन्हें नजर नहीं आता कि प्रदेश में लागू अघोषित सेंसरशिप का दंश कुछ निर्भीक पत्रकार झेल रहे हैं।
इसकी एक बानगी राज्य विधान सभा के बजट सत्र के लिए पत्रकारों को जारी किए गये प्रवेश पत्रों की सूची से मिल जाती है जिसमें छांट-छांट कर सत्ता प्रतिष्ठान और सरकार के चहेतों के खिलाफ लिखने वाले समाचार पत्रों और उनके प्रतिनिधियों को अलग कर दिया गया है। पराकाष्ठा यह कि असल पत्रकारों के पास काट कुछ ऐसे लोगों को पत्रकार दीर्घा के पास जारी कर दिये गये हैं जिनका कोई कवरेज किसी अखबार में छपता ही नहीं।
लेकिन बात यह नहीं कि इन्हें क्यों पास दिये गये, भाड़ में जाऐं ऐसे अधिकारी जिन्हें ये पत्रकार नजर आते है। सरकार के फंड का अहम हिस्सा ऐसे लोगों के हाथों रेवडिय़ों की तरह बंट रहा है जो नाम मात्र का प्रकाशन करते हैं और पार्ट टाइम पत्रकार हैं। इस तालमेल की जानकारी हमने स्वयं मुख्यमंत्री सहित, वरिष्ठ अधिकारियों को दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने भी इस संबंध में प्रमुख सचिव को पत्र लिखा है पत्रकारों का आंदोलन भी हो चुका पर अधिकारियों का अभी तक कोई बाल भी बांका नहीं कर सका है।
क्यों अखबारों में अक्सर पहले पेज पर सरकार की नीतियों की समीक्षा नहीं होती, क्यों भ्रष्टाचार की खबरों की गहराई अधिकारियों से कहीं गहरे उतरे उनके आकाओं तक नहीं पहुंच रहीं, क्यों सत्तारूढ़ दल के अलावा अन्य दलों की गतिविधियाँ पहले पेज पर स्थान नहीं पातीं.... क्योंकि कलम को पेट से बाँध दिया गया है और पेट पालना पहली प्राथमिकता है।
और यह भी कि जमीनी हकीकत ऊपर पहुंचना नहीं चाहिये पहुँचे तो सिर्फ तारीफ ही तारीफ जिससे फीलगुड में सरकार रहे मदमस्त और अफसर उड़ायें मजे। सरकार बदलने पर भी अफसरों की पालिसी कुछ ऐसी ही रहती है। अटलजी का इंडिया शाइनिंग याद आता है।
केवल इतना ही नहीं प्रदेश के जनसंपर्क विभाग ने ऐसे अधिकारी को विज्ञापन का काम सौंपा गया है जो चीन्ह चीन्ह कर विज्ञापन दे रहा है और ऐसे अखबरों को निपटा रहा है जो सरकार की विरूदावलि नहीं गाते। अनेक वेबसाइटों और चेनलों पर योजनाओं की जानकारी से ज्यादा सरकार की गान गाथा सरकारी खर्च पर गाई जा रही है। अब इसे क्या समझें?SATURDAY, 23 FEBRUARY 2013 22:35
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