मैंने अपना हैडबैग खिड़की के पास रखा और आराम से बैठ गई। कम सामान, खिड़की के किनारे की सीट, तो वह यात्रा जन्नत की सैर से कम नहीं लगती, अब सहयात्री भी जरा सभ्य सा आ जाये तो बाकी का रास्ता भी चैन से गुजरे। सोचते हुए जाने क्यों बचपन की रेल यात्राएं याद आ गई। खिड़की के पास बैठने के लिए हम दोनों बहनें झगड़ने लगती थीं। और फिर हमारे पापा सिक्का उछालकर पहले क्रम निश्चित करते, उसके पश्चात घड़ी देखकर बारी-बारी से पंद्रह-पंद्रह मिनट हम दोनों खिड़की के किनारे बैठकर बाहर के दृश्यों का मजा लूटते।
खोई हुई थी कि तीखा स्वर गूंज उठा, ''अरे जल्दी आओ.. क्या कर रही हो? सामान गिन लिये? बच्चों को अंदर बैठाओ.. अबे कुली धीरे रख!'' सामने देखा तो एक महाशय अपने परिवार के साथ प्रवेश कर रहे थे, दो बेटियां, पत्नी और सामान।
''मैंने तुमसे कहा था कि थोड़ा 'टाइम-मार्जिन' लेकर चला करो.. सामान और बच्चों के साथ, पर नहीं! तुम्हे तो आखिरी पल तक कुछ न कुछ काम याद आ जाता है। देखा नहीं, कुली ने दुगने पैसे ले लिये।'' साहब अपनी पत्नी पर नाराज हो रहे थे परन्तु पत्नी जी भी कोई कम न थीं, ''देर घर पर नहीं, शनिदेवता के मंदिर में हुई, आपसे कहा भी कि थोड़ा शॉर्ट कर लीजिए.. पर नहीं, पूरी आरती वो भी ऊंचे सुर में गानी जरूरी थी क्या?''
शर्मिन्दा होते हुए पतिदेव ने कनखियों से मेरी ओर देखा, परन्तु मैं बाहर देखने का नाटक करने लगी।
''मम्मी! खिड़की के किनारे मैं बैठूंगी।'' यह वाक्य सुनते ही मेरे चेहरे पर फिर से मुस्कराहट आ गई। मन उल्लासित सा हो गया और मैं कनखियों से दोनों बहनों के बीच होने वाली बहस का दृश्य देखने को लालायित सी हो उठी, परन्तु यह क्या! यहां पर तो पिता का निर्णय निष्पक्ष न था, ''दीदी का जो मन है वो करने दो।'' पिता व साथ में मां भी इस मुद्दे पर अपनी पिछली लड़ाई भूलकर, अचानक एकमत हो गये। मैं आश्चर्य में पड़ गई। मैंने छोटी के चेहरे की ओर देखा। उसकी उदासी मुझसे नहीं देखी गई और फिर मैंने अपनी जगह छोड़कर उसे बैठने को कहा, क्योंकि मैं जानती थी कि इस उम्र में ही इस सीट का असली सुख मिल सकता है।
''थैंक्यू आंटी!''- ''कोई बात नहीं बेटा, आप भी मुंबई जा रही हो क्या?''
''जी हां।'' जवाब पिताजी ने दिया क्योंकि वो तो कुछ महत्वपूर्ण बात बताने के लिए उतावले से हुए जा रहे थे, ''असल में हमारी इस बेटी का 'सुर साधना' के ऑडीशन में सेलेक्शन हो गया है। अब उन लोगों ने हमें मुंबई बुलाया है।'' कहते हुए उन्होंने अपनी बड़ी बेटी की ओर इशारा किया। अपना जिक्र आते ही उस बेटी ने अपनी गर्वपूर्ण मुस्कान के साथ मेरी ओर देखा। उसे देख कर मुझे बड़ा अफसोस सा हुआ, क्योंकि उसके चेहरे पर भोलेपन की झलक नहीं थी, समय से पहले ही परिपक्वता आ चुकी थी।
- ''तभी तो पापा शनि देवता के मंदिर में जोर-जोर से आरती गा रहे थे ताकि पचास-लाख का इनाम दीदी को मिल जाये और फिर हम बड़ा वाला फ्लैट ले लें।'' कहते हुए छोटी-बेटी ने परिवार का सीक्रेट-आउट कर दिया।
- ''चुप रहो, बहुत बोलती हो।'' कहते हुए मां ने अपनी बेटी को जोर से डांट लगाकर चुप कर दिया। दोनों बच्चियों को देखकर मेरे मन को अत्यधिक कष्ट हुआ.. कैसा भाग्य लेकर आए है ये बच्चे!.. इनके माता-पिता ने इनके कमजोर कंधों पर अपना 'रेत का महल' खड़ा करने की ठान ली है। ठीक इसी प्रकार हमारे कॉलोनी के सिंह साहब ने किया था। उनका बेटा अपने कॉलेज की क्रिकेट टीम में था और उसने कई बार शतक बना कर कॉलेज की टीम को जिता क्या दिया कि लोगों ने उसे 'जूनियर धोनी' का खिताब दे दिया। धीरे-धीरे लड़के ने भी अपने आपको धोनी मानकर अपने बाल बढ़ा लिये और कुछ समय पश्चात सिंह साहब को भी लगने लगा कि उन्होंने थोड़ा और प्रयास किया तो मान, शान.. धन सभी मिल जायेगा। अत: वे एक साल की 'लीव विद आऊट पे' लेकर तथा गांव की अपनी जमीन बेचकर, मुंबई अपने बेटे को कोचिंग दिलाने चले गये। किन्तु उनका बेटा नेशनल-टीम में कभी नहीं दिखा।
बच्चों की योग्यता पहचानकर, उन्हे उस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित करने का अर्थ यह तो नहीं कि पूरा परिवार उनके नाजुक कंधों पर अपनी आकांक्षाओं का बोझ डालकर उनका स्वाभाविक विकास ही रोक दे। मेरा मन अत्यन्त बोझिल होने लगा था कि अचानक पूरी व अचार की सुगंध ने मेरा ध्यान बरबस ही मेरे सहयात्रियों की ओर आकर्षित कर दिया।
वे लोग खाना खाने की तैयारी कर रहे थे।
''मम्मी! मैं भी आम का अचार लूंगी।'' बड़ी बेटी अपनी मां से मनुहार कर रही थी। - ''तुम्हारा डिनर अलग पैक है बेटा! न खट्टा, न चिकना, आपको तो फल, ब्रैड व सॉस, जैम ही खाना है ना। नहीं तो गला खराब हो जायेगा।''- ''ओफ्फो! मम्मी।'' कहते-कहते बच्ची का गला भर आया। मेरा मन फिर व्याकुल होने लगा, जब मैं इस उम्र में खुशबू से ही ललचा गई तो ये तो बिचारी.. सोचते हुए मैंने कनखियों से उधर देखा। ये क्या? बड़ी बेटी ने चुपचाप एक आम के अचार की फांक अपनी मुट्ठी में दबा ली थी। मैं मुस्करा दी।- ''मम्मी मैं खा चुकी, अब हाथ धोने जा रही हूं।'' कहते हुए वह लपककर बाहर निकली।
मुझे भी हाथ तो धोने ही थे। मैं भी उठी। उत्सुकता भी थी!! उस बच्ची को देखने की, देखा तो दृश्य अत्यन्त मर्मस्पर्शी था। उस समय मुझे महसूस हुआ कि महाकवि सूरदास के माखनचोर कृष्ण मेरे सामने खड़े है। वह बच्ची आंखें बन्द कर अत्यन्त संतुष्ट भाव से, अचार की फांक को कसकर मुंह में दबाकर तृप्त हो रही थी। बेचारी!! घर पर तो मां का पहरा होगा, अत: मौका लगते ही बालमन सारे बंधन तोड़कर अपना करतब दिखा गया। मैं आगे बढ़ी, क्योंकि मैं उसके सुख में व्यवधान डालने का अपराध नहीं कर सकती थी, परन्तु अचानक उसने अपनी आंखें खोल दीं डर के मारे उसका चेहरा सफेद पड़ गया, ''आण्टी प्लीज! मम्मी से मत कहियेगा।''
- ''बिल्कुल नहीं बेटा! डरो मत।'' स्नेह से कहते हुए मैं हाथ धोकर वापस आ गई। इतने बंधन, इतनी रोक-टोक, वो भी इस उम्र में। सोचते-सोचते मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गई। - ''आण्टी! क्या अब मैं आपके पास बैठ सकती हूं?'' देखा तो वही लड़की बाहर से आकर मुझसे ये प्रश्न कर रही थी। हो सकता है कि उसे, चोरी करने में, मेरे द्वारा दिया गया संरक्षण एक प्रकार का मित्रवत् व्यवहार सा लगा हो और इसीलिये अब वह मेरे पास बैठकर ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रही हो।
''हां-हां आओ, बैठो बेटा और बताओ कि तुम कौन सा गाना गाने वाली हो प्रतियोगिता में?''
''आण्टी! कई गाने तैयार किये है और मुझे लगता भी है कि मैं जीत जाऊंगी।'' कहते-कहते अचानक वो फिर से अपनी उम्र से बहुत बड़ी लगने लगी।
''हां बेटा, अभ्यास किया है तो जीतोगी ही।'' मैंने भी उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा।
''वो तो है आण्टी पर जानती है ये प्रतियोगिता शुक्रवार को है इसीलिये मम्मी ने मुझसे शुक्रवार के व्रत शुरू करवाये है और हमारे बाबाजी महाराज ने कहा है कि उस दिन जब मैं 'बड़ा-पाठ' करके गाना गाऊंगी तो कोई ताकत मुझे फर्स्ट आने से नहीं रोक सकती।'' कहते-कहते उसका चेहरा खुशी से सराबोर हो गया। उसकी आंखों में हजारों सपने दिखाई दे रहे थे। उफ् क्या होगा यदि यह बच्ची जीत न पाई तो..।
जीतने की चाह रखना बुरा नहीं.. परन्तु कोमल नाजुक कन्धों पर अपनी इच्छाओं के महल की बुनियाद रखना तो घृणित पाप करने जैसा है। कहीं ऐसा न हो कि 'रेत का महल' ढहने से ये नन्हीं जान भी उसी के नीचे कुचल जाये। मैं सिहर उठी परन्तु कुछ कह न सकी।
अगले दिन मुंबई आने पर उस परिवार, विशेष कर उस बच्ची से विदा लेकर, मैं अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी, घर पहुंच कर फिर मैं अपनी दिनचर्या व परिवार में इतनी व्यस्त हो गई कि ट्रेन की यह घटना बिल्कुल भूल गई किन्तु शनिवार की सुबह जब समाचार-पत्र खोला, तो अचानक 'सुर-साधना' के समाचार पर दृष्टि पड़ी। फाइनल-राउन्ड में पहुंचने वाले बच्चों की फोटो छपी थी, जिसमें मेरी नन्हीं सहयात्री नहीं थी.. वही हुआ जिसका अंदेशा था। मेरी आंखें भर आर्इं.. कितनी दुखद घटना थी और उसके जिम्मेदार उस बच्ची के माता-पिता ही थे.. उनके कारण उस बच्ची ने जाने कितना स्वर्णिम-समय यानी अपना बचपन गंवा दिया। जो कभी भी लौटकर नहीं आयेगा। हे ईश्वर! उस निरपराध बच्ची की रक्षा करना, कहते-कहते मैंने आंखें बन्द कर, सच्चे मन से प्रार्थना की।
[डॉ. रेनू मित्तल]
द्वारा- प्रो.ए.के. मित्तल, कुलपति,
डॉ. रा.म.लो. अवध विश्वविद्यालय
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