Thursday, December 23, 2010

आमचुनाव की आहट


इस बार न गडकरी गश खाकर गिरे और न आडवाणी को रैली आधे रास्ते रोकनी पड़ी. दोपहर बाद दिल्ली के रामलीला मैदान के मंच पर आ रही गुनगुनी धूप में नितिन गडकरी को भी कोई दिक्कत नहीं थी और भाजपा के वे सभी मैनेजरनुमा नेता महासंग्राम का ऐलान करते नजर आ रहे थे जो आम आदमी की राजनीति के नाम पर खास लोगों के बीच जगह बनाने को ही अपना कौशल समझते हैं. हाल में ही दिल्ली के नये निजाम नियुक्त किये गये विजेन्दर गुप्ता के जिम्मे मंच संचालन का जिम्मा था जो बार बार "लाखों लोगों" भीड़ का संबोधन देकर यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि उनका प्रदेश में नेतृत्व कामयाब हो रहा है.

आज की जो भाजपा हमें दिखती है वह लगभग पूरी की पूरी अटल बिहारी वाजपेयी की देन है. कुर्सियों के सेलेक्शन से लेकर पार्टियों के साथ तालमेल तक अटल बिहारी की छाप हर जगह दिखाई देती है. अटल का अंश दिखने की कोशिश कर रहे लालकृष्ण आडवाणी उन्हीं के नक्शेकदम पर अब एनडीए के अध्यक्ष हो चले हैं. अटल की ही तर्ज पर उन्होंने एक समाजवादी शरद यादव को अपना सेकुलर सिपहसालार नियुक्त कर दिया है जो एनडीए के बतौर संयोजक काम कर रहे हैं. अटल ने अगर सत्रह पार्टियों का कुनबा जोड़कर सरकार बनायी और चलायी तो आडवाणी के पास कम से कम चार पांच पार्टियों का सपोर्ट तो है ही. इसीलिए 22 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में जिस महासंग्राम रैली का आयोजन किया गया वह महज संसद सत्र खत्म हो जाने के बाद ऊब मिटाने के लिए आयोजित की गयी रैली भर नहीं थी.

स्पेक्ट्रम घोटाले के बहाने भ्रष्टाचार पर जो बहस खड़ी हुई है उसे अब महासमर में बदल देने की योजना साफ दिखाई दे रही है. महासंग्राम रैली में भाजपा के मैनेजर तो यह भी अंतर नहीं कर पाये कि वे एक रैली में बोल रहे हैं, किसी सेमिनार में नहीं. लेकिन शरद यादव, शिवसेना और अकाली दल के नेताओं ने जो भाषण दिये वह सरकार उखाड़ने का संकेत देते हैं. आखिर में आडवाणी ने इस बात की पुष्टि भी कर दी. उन्होंने जो कहा उसका मतलब यह था कि अगले संसद सत्र तक यह महासंग्राम जारी रहेगा. देशभर में ऐसी 12 रैलियां आयोजित की जाएंगी जिसमें तीन तय हो गयी हैं. और तय की जा रही हैं. यानी, अगले संसद सत्र में जेपीसी की जिद कायम रहेगी और उसे भी ठप रखने की पूरी कोशिश की जाएगी. भाजपा के मैनेजरनुमा नेताओं ने यहां जो समझाया उससे इतना तो समझ में आया कि कुछ एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रूपये राजा की कृपा से रिश्तेदार डकार गये हैं. पौने दो लाख करोड़ के इस घोटाले का बदला सिर्फ एक संसद सत्र को ठप करके नहीं लिया जा सकता. लक्ष्य ज्यादा बड़ा निर्धारित किया जा चुका है.

यह लक्ष्य है आमचुनाव. शरद यादव बोले भी कि "इस सरकार को उखाड़ फेंकने की जरूरत है." सवा डेढ़ साल पुरानी एक ऐसी सरकार जिसको जरूरत से ज्यादा बहुमत है, को उखाड़ फेंकने की बातें अनायास नहीं है. दो तीन दिन पहले जिन लोगों ने दिल्ली में ही संपन्न हुए कांग्रेस के महाधिवेशन को नजदीक से देखा है वे भी यही बता रहे हैं कि आमचुनाव की आहट वहां भी सुनाई दे रही है. वहां कारण वे नहीं हैं जो एनडीए के पास हैं. लेकिन मनमोहन सिंह की दूसरी पारी कांग्रेस में कईयों को खटक रही है. फिर मुन्ना की राजनीतिक आयाओं के प्रचार अभियान भी अनोखे हैं जो मुन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का हौसला प्रदान कर रहे हैं. ऐसा ही एक अभियान यह चल रहा है कि किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी है कि 2011 में मुन्ना न केवल शादीशुदा हो जाएगा बल्कि वह देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है. मुन्ना की अम्मा और उसके राजनीतिक आया दोनों ही इस भविष्यवाणी से उत्साहित हैं. लेकिन यह सब कुछ इतनी आसानी से हो जाएगा ऐसा हो नहीं सकता. परिस्थितियां निर्माण करनी पड़ती है. मुन्ना के बजरंगियों को जेपीसी की मांग वह मुद्दा नजर आ रही है जिसपर एक तीर से दो शिकार किये जा सकते हैं.

आडवाणी सूचित कर रहे हैं कि पीएम तो जेपीसी देना चाहते हैं लेकिन न जाने उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वे चाहकर भी जेपीसी नहीं दे पा रहे हैं. इसका मतलब कांग्रेस के अंदर भी जेपीसी न देने का घनघोर घमासान है. अपना विपक्ष खुद रहनेवाली कांग्रेस के अंदर इस हवा को गर्म किया जा रहा है कि जेपीसी देने से अच्छा है सरकार को बदनाम हो जाने दो. कांग्रेस के वे तुर्रमखां जो संकट के समय बैरमखां बन जाते थे, इस वक्त थोड़े आरामतलब हो गये हैं. सारा संकट पीएमओ और डीएमके की ओर मोड़ दिया गया है. राजा राडिया और प्रधानमंत्री ही घिर रहे हैं और घेरे जा रहे हैं. उल्टे कांग्रेस ने तो बुराड़ी में भ्रष्टाचार से लड़ने का भी संकल्प ले लिया. जाहिर है कांग्रेस भी जानती है कि एनडीए इस मुद्दे को जितना अधिक हवा देगी पीएम उतने अधिक कमजोर साबित होंगे. और उधर पीएम पर दबाव यह कि किसी भी हाल में वे जेपीसी की घोषणा नहीं कर सकते. अब स्थिति थोड़ी स्पष्ट हो जाती है कि अगर स्पेक्ट्रम घोटाले के नाम पर जेपीसी दी जाती है तो पीएम फंसते हैं और उन्हें कहा जा सकता है कि अब आप आराम करें और अगर जेपीसी नहीं दी जाती है तो रास्ता आम चुनाव की ओर आगे निकलता है जिस पर चलने के लिए सिवाय मनमोहन के पूरी कांग्रेस तैयार है.

कांग्रेस की इस स्थिति का राजनीतिक फायदा लालकृष्ण आडवाणी को दिख रहा है. इसलिए आनन फानन में वे एक बार फिर बतौर पीएम इन वेटिंग मैदान में आ डटे हैं. महासंग्राम रैलियों का सिलसिला शुरू करने की योजना भी उन्हीं की है और जेपीसी से कम पर समझौता न करने का विचार भी. वरना इधर मुरली मनोहर जोशी और उधर मनमोहन सिंह दोनों ही पीएसी के जरिए मामला सुलटा लेना चाहते हैं. लेकिन न इधर जोशी की भी वही हैसियत है जो उधर मनमोहन सिंह की. दोनों ही ईमानदार और विद्वान हैं लेकिन दोनों का राजनीतिक बटखरे से तौलनेलायक भी नहीं है. इसलिए जोशी की पीएसी और वहां हाजिर होने की मनमोहन की मंशा दोनों को कोई कान भी नहीं दे रहा है. बात जेपीसी पर अटकी है और वहीं अटका दी गयी है. इससे उधर मुन्ना बतौर पीएम प्रोजेक्ट होते हैं तो इधर आडवाणी जी को पांच साल तक इंतजार किये बिना जंग का एक और मैदान साफ नजर आने लगता है. अब यह कितना सफल होता है इसे तो समय ही बताएगा लेकिन कांग्रेस का महाधिवेशन और एनडीए का महासंग्राम अभियान यही संकेत कर रहे हैं.

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