Sunday, December 26, 2010
छिन्नमस्तिका यंत्र के हिसाब से ही बना है।
रांची का एयरपोर्ट छोटा सा था। पर बाहर निकलने पर दोनों ओर की क्यारियों से मन हरा हो जाता है। सुबह की अलसाती किरणों के बीच हम झारखण्ड में थे। मंजिल थी रजरप्पा। आपे सुना है इसके बारे में। नहीं। देवी दुर्गा के दस महाविद्याओं में से एक छिन्नमस्तिका माता का रजरप्पा मंदिर रांची से 80 किलोमीटर दूर रामगढ़ जिले में है। रजरप्पा छोटा सा स्थान है। यहां मंदिर के अलावा दो नदियों का अनूठा संगम है, जिसके बारे में आपने कम ही सुना होगा। तो हमारी गाड़ी चल निकली। रास्ते में चाय-पानी और साथियों ने किया भरपेट नाश्ता। ये जो सफर में रूकना होता है, वो ही सबसे सुखद पलों में शुमार हो जाता है। रामगढ़ शहर से करीब 28 किमी दूर है रजरप्पा शहर।
यहां बसी मां की छवि पत्थर की जिस शिला पर उकेरी गई है, वो कम रोशनी में साफ नहीं दिखती। मंदिर का गर्भगृह छोटा है, आस्था के इस धाम में कुछ समय पहले चोरों ने असली मूर्ति को ही गायब कर दिया और फिर बाद में एक नई मूर्ति स्थापित की गई। मां छिन्नमस्तिका का रूप थोड़ा भयावह है, उन्होने अपना ही सिर काटकर अपने हाथ में ले रखा है, और उनके धड़ से निकली खून की धारा निकलती है। खास बात ये कि माता के पैरों के नीचे कामदेव और रति मौजूद हैं। इसका अभिप्राय है कि दुनिया की शुरूआत जिस प्रेम ओर संसर्ग से हुई है, उसकी अधिष्ठात्री देवी है मां छिन्नमस्तिका।
रजरप्पा में बना मां छिन्नमस्तिका का मंदिर छोटा ही है, लेकिन यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। हम नवरात्रि में यहां पहुंचे थे, चारों ओर इस देवीस्थान में भक्ति का एक अलग अहसास था। मंदिर देखने पर आपको कामाख्या के मंदिर की याद आती है, बस अंतर रंग और रोगन का है। नीले, लाल और सफेद रंगों से मंदिर को लुभावना बना दिया गया है। मंदिर निर्माण की सबसे खास बात ये है कि ये छिन्नमस्तिका यंत्र के हिसाब से ही बना है। इसका मतलब है इसके आठ मुख और चौसठ योगनियों का वास है।
दामोदर और भैरवी। दो नदियां। दो रूप। और प्रकृति के सुरम्य नजारों के बीच भक्ति का पावन स्थान। जरा कल्पना कीजिए। पहाड़ी पत्थरों के बीच से उछलकूद मचाते हुए नदी की एक धारा बह रही है और आप धूप में तपते पत्थरों पर जलते पैरों को बचाते हुए, ठंडे पानी की धारा में सुकून पाते हैं। ये रजप्पा की वो छटा है, जो किसी को भी मोह ले। मंदिर के सामने ही दामोदर और भैरवी का मिलन होता है। मान्यता है कि दामोदर कामदेव का रूप हैं, और भैरवी रति देवी का। और जैसा मंदिर में मां की मूर्ति के नीचे कामदेव-रति का रूप है, वैसे ही इन नदियों का भी रूप है, मतलब कामदेव यानि दामोदर नीचे और रति या भैरवी उनके ऊपर। खैर, नदी की इस धारा के पास रहना बहुत मन भाता है। मैं तो अपनी हड़बड़ाहट में एक बार पानी में गिर भी गया। पर मजा आया। हमने नदी को महसूस किया। ये बात अलग है कि मेरे सहयोगियों के पैर लाल हो गए।
मंदिर के अंदर कई खास स्थान हैं, नवरात्रि भर यहां बलि का सिलसिला कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। फरसे के एक वार में बकरे की जान जाते देखना पीड़ादायक होता है। पर एक लोकमान्यता भी यहां इसे जायज ठहराती है। जिस स्थान पर बलि दी जाती है, वहां खूनमखून होने पर भी मक्खियां नहीं भिनभिनाती। इसे लोग देवी का चमत्कार मानते हैं। बलि स्थान के सामने नारियल बलि भी दी जाती है।
और इन दोनों स्थानों के बीच में रक्षासूत्र में पत्थर बांधकर मनौती मांगने का एक स्थान भी है। मन की मुराद पर अगर मुहर लग जाए, तो आपको यहां वापस आकर पत्थर पर नदी में बहाना पड़ता है। अरे, मैनें भी मांगी है दुआ, पूरी हुई को जाना पड़ेगा। बड़ा मुश्किल है।
रजरप्पा जाने के लिए आपको रांची या बोकारो जाना पड़ता है। दोनों ही शहरों से इसकी दूरी समान ही है। रजरप्पा से जुड़ी मान्यताओं में जन्मकुंडली का राहुदोष दूर होना सबसे मान्य है। कहते है यहां के दर्शन से ही आपका राहु दोष गायब। इसके अलावा यहां शादी विवाह के मौसम में बड़ी भीड़ होती है। एक मॉर्डन मान्यता भी है...नई गाड़ी की यहां पूजा कराने से गाड़ी की उम्र और परफार्मेंस बढ़ जाती है। मारुति वाले सुनो।
रजरप्पा की इस यात्रा में थोड़े में बहुत कुछ मिला... आगे करेंगे वाराणसी की विशालाक्षी देवी के दर्शन। सामान उठाओं....गाड़ी से ही बनारस जाना है।
भव्य
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