Sunday, December 19, 2010

कूडियाट्टम - केरल की प्राचीनतम नाट्यकला से रूबरू हुआ हमारा शहर




छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में स्पिक मैके के सौजन्य से केरल की एक प्राचीन कला देखने का 17 दिसंबर को मौका मिला। इस विरासत को कूडियाट्टम के नाम से जाना जाता है। अद्वितीय, अप्रतिम, बेमिसाल, अनोखी जितने भी विशेषण इसके लिये इस्तेमाल किये जाएँ, कम हैं। युवाओं को सांस्कृतिक रूप से शिक्षित करने का उद्देश्य लिये ये संस्था भारतीय पारंपरिक संस्कृति को अपने मूल रूप में प्रस्तुत करने का कार्य देश भर में करती है। जिसके तहत विभिन्न कलाओं के कला गुरु अलग अलग स्थानों में जाकर इसका प्रदर्शन करते हैं और बिलासपुर में केरल से आए कलाकार मारगी मधु ने अपने सहयोगी कलाकारों के साथ ये प्रस्तुति स्थानीय देवकीनंदन सभागृह में दी।
हमारा देश सांस्कृतिक रूप से बेहद समृद्ध है। देश के विभिन्न हिस्सों की विरासत देखने समझने के लिये एक जीवन भी कम पड़ जाए ऐसा महसूस होता है। हालांकि प्रसार के साधनों के विकसित होने के कारण जानकारियाँ उपलब्ध हो जाती हैं लेकिन प्रशिक्षित कलाकारों द्वारा क्षेत्र विशेष की खास प्रस्तुति देखना अपने आप में एक अनुभव से गुजर जाना होता है।
कूडियाट्टम केरल की प्राचीनतम संस्कृत नाट्यकला मानी जाती है जो मूलतः रामायण के प्रसंगों पर आधारित होती है और केरल के हिंदू मंदिरों में प्रस्तुत की जाने वाली कला रही है। लगभग 2000 साल पुरानी इस कला में महान नाटककारों मास, कालिदास, शक्तिभद्रा, कुलशेखर, नीलकंठ आदि के नाटकों को आधार बनाकर अभिनय प्रस्तुत किया जाता है। नाटक के एक अंग की प्रस्तुति के लिये 12 से 41 दिन लग जाते हैं। यह केरल की पारंपरिक कला व विरासत है जिसे यूनेस्को ने 2001 में ‘संरक्षणीय मानवीय सांस्कृतिक कला’ घोषित किया है। केरल के एक पुराने राजा कुलशेखर वर्मा चेरामन पेरूमल को इस कला का जनक माना जाता है। पारंपरिक तौर पर केरल की एक प्रजाति चक्यार लोगों द्वारा इस नृत्य-नाट्य को प्रस्तुत किया जाता रहा है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में लिखी गई प्राचीन व्याकरण को आधार मानकर ही आज तक इस नाट्य की प्रस्तुति की जाती है।
हमारी नजरों के समक्ष प्रस्तुत इस कला मे मारगी मधु जी ने ‘सुग्रीव राममिलाप, बाली वध प्रसंग’ प्रस्तुत किया। भारी भरकम पोशाक, चेहरे पर प्राकृतिक तत्वों से तैयार मुखौटे सा लगता लाल, काला व सफेद रंग का मेकअप और लगभग एक घंटे में से 50 मिनट तक एक स्थान पर बैठकर सिर्फ हस्त मुद्राओं, आँखों व चेहरे से भावों की अभिव्यक्ति करके समस्त दर्शकों को लगातार शांति पूर्वक, एकटक देखने को मजबूर कर दिया मात्र एक कलाकार ने। लेकिन उनके अभिनय के साथ वाद्य यंत्रों का समन्वय बेजोड़ था। मिजबाबू, कुजीरातम, इटाअक्का, कुरूम कुजुहल, संकायु वाद्ययंत्रो के आल्हादित करने वाले स्वर अद्भुत थे। ये यंत्र हमारी भाषा में तबले, ढोल व मंजीरे के समान थे लेकिन बिल्कुल भिन्न भी थे जिनसे तेज, मध्यम व मंद ध्वनियों का निकाला

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