Friday, December 31, 2010

दिल्ली पुलिस ने लेखिका अरुंधति राय, हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी और अन्य लोगों पर पिछले महीने एक सेमिनार में ‘भारत विरोधी’ भाषण देने के मामले में


दिल्ली पुलिस ने लेखिका अरुंधति राय, हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी और अन्य लोगों पर पिछले महीने एक सेमिनार में ‘भारत विरोधी’ भाषण देने के मामले में देशद्रोह का मामला दर्ज किया है।

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि सुशील पंडित नामक व्यक्ति की याचिका पर शनिवार को एक स्थानीय अदालत के दिशानिर्देश के बाद प्राथमिकी दर्ज की गई। पंडित ने आरोप लगाया था कि गिलानी और राय ने 21 अक्टूबर को ‘आजादी : द ओनली वे’ के बैनर तले हुए एक सेमिनार में भारत विरोधी भाषण दिया था।

राय और अन्य पर धारा 124-ए (देशद्रोह), 153-ए (वर्गों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना), 153-बी (राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुँचाने के लिए लांछन), 504 (शांति भंग करने के इरादे से अपमान) और 505 (विद्रोह के इरादे से झूठे बयान, अफवाहें फैलाना या जन शांति के खिलाफ अपराध) के तहत मामले दर्ज किए गए हैं।

अरुंधति राय के मामले से इतना तो स्पष्ट हुआ है कि मात्र पुरस्कारों को घर में सजा लेने से कोई भी व्यक्ति सही मायनों में लेखक नहीं हो जाता। लेखक होने की अनिवार्य, पहली और एकमात्र शर्त यह होती है( होनी चाहिए) कि उसके सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार बेहद स्पष्ट हो। अगर राष्ट्रीय मुद्दों की गहरी समझ ना हो तो उन मुद्दों पर लिखना या बोलना भी अनुचित है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि आप राष्ट्रीय हितों को नजरअंदाज करते हुए ऐसा कुछ कह जाए जो देश के सबसे नाजुक मसले को और अधिक कमजोर कर दे। यह पीड़ा इसलिए भी घनीभूत हो जाती है कि अरुंधति जैसी युवा लेखिका से इस तरह की नादानी की उम्मीद किसी संवेदनशील पाठक ने नहीं की थी। कश्मीर का मसला सस्ती बयानबाजी का नहीं है यह बात अरुंधति को समझाने की जरूरत नहीं है यह उनके 'स्वविवेक' से की जाने वाली एक सहज अपेक्षा है।

यह उम्मीद हम गिलानी से नहीं करते, यह उम्मीद हम किसी राजनेता या कम समझ वाले सामान्य नागरिक से भी नहीं करते पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए गौरव का परचम लहरा चुकी अरूंधति से यह आशा करना हम सबका सहज अधिकार है। आखिर किस आधार पर अरुंधति ने यह बयान दिया कि कश्मीर भारत का अंग नहीं है।

सब जानते हैं कि कश्मीर मसला तथ्यों के आइने में आज भी उलझा हुआ है। एक तरफ खूनी मंजर दूसरी तरफ कश्मीरवासियों का अव्यक्त दर्द। एक तरफ पड़ोसी देश की बेइमान निगाहें, दूसरी तरफ राष्ट्र की स्थिरता और प्रगति के प्रश्न।

ऐसे में अरुंधति की सोच महज इतनी ही दूर तक चल पाई कि एक अत्यत संवेदनशील मसले पर गैर जिम्मेदाराना बयान देकर सस्ती लोकप्रियता हासिल की जाए। जब तक हम कश्मीर के रहवासी को मन और भावनाओं से अपने से नहीं जोड़ते तब तक अरुंधति और गिलानियों के संस्करण निकलते रहेंगे।

बात अरुंधति पर आकर फिर अटकती है कि लेखन के धर्म से उनका विमुख होना इस बात का संकेत है कि मन के किसी कोने में राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने अँगड़ाई ली है। लोकप्रियता के लिए मीडिया में छा जाने का खुमार। लेखक समाज को रोशनी देता है, समाज के वंचितों की आवाज बनता है, समाज की सोच किस दिशा में प्रवृत्त हो इस बात का मार्गदर्शन करता है, राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा हो सके ऐसे विचारों को पोषित करता है।

पाठकों में एक प्रखर और उजली सोच का जन्म हो, अपनी लेखनी से ऐसे फूल झरता है। अरुंधति की वाणी से यह संकेत मिल रहा है कि देश के अहम मामलों में अब कड़े अनुशासन की जरूरत है। अगर स्व-अनुशासन एक 'संवेदनशील' लेखक में नहीं है तो यह अनुशासन उन पर दंड के रूप में थोपा जाए। यहाँ एक बात ना चाहते हुए भी लेखनी पर आ रही है कि अगर लेखिका होने की गरिमा अरुंधति नहीं निभा सकीं तो उन्हें अपनी नारीत्व की गंभीरता का परिचय तो देना ही था आखिर यह समूचे देश की अस्मिता का सवाल है। आप क्या सोचते हैं?

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