Friday, December 3, 2010

बाबा साहब ऐसे ही महापुरूष थे

कभी-कभी समाज की प्राचीनता के साथ उत्पन्न रूढ़ियां उस समाज की गति को अवरूद्ध कर देती हैं। उसके तरूणों की धमनियों का रक्त जमा हुआ दिखता है। लोग निराशा और हतोत्साह में अपना जीवन जीते रहते हैं। किसी की आखों में कोई स्वप्न दिखलाई नहीं पड़ता। उस समय कोई व्यक्ति अपनी अकल्पनीय संघर्ष शक्ति से उस समाज को झकझोर कर उठाता है और आगे बढ़ने की सामर्थ्य उत्पन्न करता है। धीरे-धीरे समाज स्वयं अपने सामर्थ्य को पहचानता है और उस व्यक्ति के कृतित्व से प्रेरणा ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ता चलता है। इसी व्यक्ति को महापुरूष कहते है।
बाबा साहब ऐसे ही महापुरूष थे, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन की सभी महत्वाकांक्षाओं को ठोकर मार कर आम-जन के जीवन में जागृति और प्रकाश लाने तथा जातिवाद की विसंगतियों के प्रति जागृत करने, उनमें उत्साह एवं स्फूर्ति लाने के लक्ष्य को अपने जीवन का ध्येय बना लिया तथा इस चिरंजीवी राष्ट्र के नवनिर्माण को ही अपना साध्य समझा।
आज कुछ लोग मात्र राजनीतिक स्वार्थों में कारण दलित और मुसलमानों के संगठन का प्रयत्न करते दिखलायी पड़ते हैं परंतु बाबा साहब ने राजनीतिक स्वार्थों के लिये इस प्रकार के गठजोड़ का विचार कभी नहीं किया। उन्होंने ‘‘माई थाट्स ऑन पाकिस्तान’’ नामक पुस्तक में मुस्लिम विचारों से संबंधित तथ्यों का जो वर्णन किया है, वह विचारणीय है। यद्यपि उनके इन विचारों को प्रकाश में आने में पर्याप्त विलम्ब हुआ है। परन्तु वे विचार इस देश के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत की तरह हैं।
उनकी दृष्टि में राष्ट्रहित सर्वोपरि था। इसलिये वे मुस्लिम विघटनकारी शक्तियों से सहमत नहीं थे उनका मानना था कि उनमें हिन्दुओं के साथ सह-अस्तित्व की बुनियादी भावना का अभाव है। इसके बिना देश की उन्नति असंभव है, इसी परिप्रेक्ष में सन् 1940 में उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग पर अपने जो विचार व्यक्त किये हैं वे पठनीय हैं। इसके लिये उन्होंने जनसंख्या की पूर्ण अदला-बदली को भी अनिवार्य बताया और स्पष्ट किया कि मुसलमानों द्वारा इस देश की उन्नति में सामान्यतया वांछित रूचि न लेना उनके रूढ़िवादी धार्मिक सोच के कारण ही है।
डा. साहब ने वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का खण्डन किया कि आर्य इस देश में बाहर से आए थे। तथा वर्तमान के शूद्र लोग आर्य नहीं हैं। उन्होंने यह बात आग्रहपूर्वक कही कि आर्य कोई वंश नहीं है तथा आर्य कहीं बाहर से नहीं आए। उन्होंने यह सुस्थापित किया कि शूद्र भी आर्य है, तथा क्षत्रिय हैं। इस प्रकार आर्यों के बाहर से आने वाले सिद्धांत को उन्होंने मनगढंत और निराधार बताया।
डा. अम्बेडकर का जीवन राष्ट्र तथा दीन हीनों की सेवा के समर्थित था। एक ओर करोड़ों दुखी- पीड़ित लोगों के अधिकारों की रक्षा का प्रश्न, वहीं दूसरी ओर राश्ट्रहित का सतत स्मरण। हम जहां भी उनको देखते हैं राष्ट्रहितों के संरक्षण-संवर्धन करता हुआ पाते हैं। यद्यपि वे अपने ही धर्मानुयायियों के ब्यवहार के कारण दुखी थे परंतु कष्ट और अपमान उनके देशभक्ति के विचार तथा व्यवहार को विचलित नहीं कर पाये।
बाबासाहब का जीवन इस बात का उदाहरण है कि व्यक्ति का दृढ़ निश्चय ही उसका निर्माण करता है, उसकी जाति, पारिवारिक निर्धनता, असुविधायें और समाज का विरोध उसकी प्रगति को रोक नहीं सकता। बाबा साहब का संपूर्ण जीवन युवकों के लिये प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने देश की युवा शक्ति से परिश्रमी तथा गुण संपन्न बनने का आहवान किया। बाबा साहब कहते हैं-”सम्मान की आकांक्षा करना कोई पाप नहीं है परंतु कार्य करते-करते सम्मान प्राप्त नहीं होता है तो आप अपना संघर्ष निराश होकर मत छोड़िये और यदि दुर्भाग्य से आप उस सम्मान से वंचित कर दिये जाये जिसके वास्तविक अधिकारी आप ही है फिर भी आप धैर्य छोड़ें।”
जिस सामाजिक कुव्यवस्था ने एक मनुष्य को दुसरे मनुष्य का गुलाम बना दिया, शासक को शोषित, बलवान को बलहीन और बुद्धिमान को पददलित बनाकर रख दिया उस कुव्यवस्था को बदले बिना न तो मानव अधिकार ही प्राप्त होंगे न ही बाबा साहब का सपना पूरा होगा, सामाजिक परिवर्तन ही सभी प्रकार की समस्याओं का निवारण है इस के द्वारा न केवल सामाजिक रूप से हमारी हैसियत बढेगी बल्कि हम मानसिक रूप से भी ज्यादा प्रखर और गतिशील हो जायेंगे, डा. अंबेडकर के मिशन को आगे बढाने के लिए सामाजिक परिवर्तन के धम्म चक्र की आज सख्त आवश्यकता है।
अम्बेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है। स्वतंत्रता के बाद के भारत मे उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच को सारे राजनीतिक हलके का सम्मान हासिल हुआ। उनकी इस पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे आज के भारत की सोच को प्रभावित किया। उनकी यह सोच आज की सामाजिक, आर्थिक नीतियों, शिक्षा, कानून और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से प्रदर्शित होती है।
एक विद्वान के रूप में उनकी ख्याति उनकी नियुक्ति स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में कराने मे सहायक सिद्ध हुयी। उन्हें व्यक्ति की स्वतंत्रता में अटूट विश्वास था और उन्होने समान रूप से रूढ़िवादी और जातिवादी हिंदू समाज और इस्लाम की संकीर्ण और कट्टर नीतियों की आलोचना की है। उसकी हिंदू और इस्लाम की निंदा ने उसको विवादास्पद और अलोकप्रिय बनाया है, हालांकि उनके बौद्ध धर्म मे परिवर्तित होने के बाद भारत में बौद्ध दर्शन में लोगों की रुचि बढ़ी है

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