Sunday, December 5, 2010
लेकिन अब बात यहीं तक सीमित नहीं रही. जैसाकि नीरा राडिया के टेप्स से जाहिर है कि वरिष्ठ पत्रकार अब सीधे सत्ता के गलियारों में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हक में दलाली कर रहे हैं. वे पी.आर और लाबीइंग कंपनियों के टाप मैनेजरों से सिर्फ खबरों के लिए बात नहीं कर रहे हैं बल्कि उससे कहीं आगे बढ़कर उनके लिए काम कर रहे हैं. पी.आर और लाबीइंग कंपनियां उनके लेखन/खबरों का एजेंडा तय कर रही हैं. हालांकि बरखा दत्त का अपनी सफाई में कहना है कि जो लोग ऐसे आरोप लगा रहे हैं, उन्हें यह साबित करना चाहिए कि “मुझे दलाली के बदले में क्या मिला है? क्या मैंने खबरों से कोई समझौता किया है?”
लेकिन क्या बरखा दत्त यह बताएंगी कि 2 जी घोटाले में ए. राजा को क्या मिला है? राजा को अनियमितताओं के बदले में क्या मिला है, यह अभी किसी को पता नहीं है और न ही यह साबित हुआ है कि राजा ने पक्षपात के बदले में क्या लिया है? इसलिए सवाल यह नहीं है कि दलाली के बदले क्या मिला है बल्कि सवाल यह है कि नीरा राडिया जैसे लाबीइंग और पावर ब्रोकिंग की खुली खिलाड़ी से बात करते समय एक पत्रकार की लक्ष्मण रेखा क्या होनी चाहिए? दूसरे, वीर संघवी के सन्दर्भ में उससे बड़ा सवाल यह कि एक पत्रकार को अपनी टिप्पणियां लिखते या टी.वी पर बोलते हुए किस हद तक पी.आर और लाबीइंग मैनेजरों पर निर्भर रहना चाहिए?
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि हाल के वर्षों में न सिर्फ पेड न्यूज के रूप में बल्कि बड़े देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों, पार्टियों, मंत्रियों-नेताओं और सरकार के लिए पी.आर और लाबीइंग करनेवाली कंपनियों की घुसपैठ समाचार कक्षों में बढ़ी है. यह चिंता की बात इसलिए है कि पी.आर और लाबीइंग कंपनियों के प्रभाव से न सिर्फ खबरों की स्वतंत्रता, तथ्यात्मकता और निष्पक्षता प्रभावित होती है बल्कि खबरों का पूरा एजेंडा बदल जाता है.
पी.आर और लाबीइंग कंपनियों को खबरों में अपने क्लाइंट के हितों के मुताबिक तोड़-मरोड़ करने, मनमाफिक खबरें प्लांट करने और नकारात्मक खबरों को रुकवाने के लिए जाना जाता है. यही कारण है कि समाचार मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए संपादकों की एक जिम्मेदारी पी.आर और लाबीइंग कंपनियों और उनके मैनेजरों को समाचार कक्ष से दूर रखने की भी रही है.
लेकिन जब संपादक और वरिष्ठ पत्रकार ही पी.आर और लाबीइंग कंपनियों से प्रभावित और उनके लिए काम करने लगें तो अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इन कंपनियों ने किस हद तक समाचार कक्षों का टेकओवर कर लिया है. नीरा राडिया प्रकरण इसी टेकओवर का सबूत है. असल में, भारत में लाबीइंग की घनघोर ताकत पर अभी बात नहीं हो रही है जबकि देश में अधिकांश बड़े आर्थिक और व्यावसायिक फैसले उसी के जरिये हो रहे हैं.
लाबीइंग के महत्व को स्पष्ट करते हुए जानी-मानी पी.आर और लाबीइंग कंपनी परफेक्ट रिलेशंस के मालिक दिलीप चेरियन कहते हैं कि, “ ..सभी चाहते हैं कि सरकार उनके पक्ष में रहे. इस बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में कई लोग कह सकते हैं कि उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है अगर सरकार उनके पक्ष में नहीं है बशर्ते वह उनके खिलाफ न हो. लेकिन यह सच नहीं है. सच यह है कि फ़िलहाल और आनेवाले वर्षों में भी सरकार को प्रभावित करना किसी भी कंपनी के सी.इ.ओ का सबसे महत्वपूर्ण काम होगा.”
चेरियन का कहना बिल्कुल सही है. हालत यह हो गई है कि सरकार को अपने पक्ष में और विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कार्पोरेट समूह अपने मनपसंद मंत्री और अफसर भी नियुक्त कराने लगे हैं. टेलीकाम मंत्री के रूप में ए. राजा की नियुक्ति के लिए लाबीइंग इसका एक उदाहरण है. इसी तरह, अन्य आर्थिक मंत्रालयों में हुई मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति में भी लाबीइंग की जबरदस्त भूमिका रही है.
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