Wednesday, December 1, 2010
पेड न्यूज वर्तमान मीडिया विमर्श का सबसे चर्चित विषय है।
पेड न्यूज वर्तमान मीडिया विमर्श का सबसे चर्चित विषय है। समाचार को लेकर जिस पवित्रता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की शास्त्रीय कल्पना है, उसका विखंडन हम सब अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। मीडिया छवि बनाता और बिगाड़ता है। इस ताकत के बावजूद भारतीय मीडिया अपनी ही छवि का नाश होना नहीं रोक सका। देखते-देखते पत्रकार आदरणीय नहीं रहे। लोकतंत्र का चौथा खंभा आज धूल धूसरित गिरा पड़ा है। खबरें पहले भी बिकती थीं। सरकार और नेता से लेकर कंपनियां और फिल्में बनाने वाले खबरें खरीदते रहे हैं। बदलाव सिर्फ इतना है कि पहले खेल पर्दे के पीछे था। अब मीडिया अपना माल दुकान खोलकर और रेट कार्ड लगाकर बेच रहा है। विलेन के रूप में किसी खास मीडिया हाउस को चिन्हित करना काफी नहीं है। सारा कॉरपोरेट मीडिया ही बाजार में बिकने के लिए खड़ा है। बहरहाल, मीडिया की बंद मुट्ठी क्या खुली, एक मूर्ति टूटकर बिखर गई। यह किताब इसी विखंडन को दर्ज करने की कोशिश है।देश-काल की बड़ी समस्याओं पर लिखी गई किताबों में आम तौर पर समाधान की भी बात होती है। समस्या का विश्लेषण करने के साथ ही अक्सर यह भी बताया जाता है कि रास्ता किस ओर है। इस मायने में यह किताब आपको निराश करेगी। हाल के वर्षों में जनसंचार के क्षेत्र के सबसे विवादित और चर्चित विषय पेड न्यूज को केंद्र में रखकर लिखी गई यह किताब समस्या का कोई समाधान नहीं सुझाती।यह पुस्तक यह समझने की कोशिश भर है कि पेड न्यूज बीमारी है, या फिर बीमार का लक्षण। पुस्तक में मीडिया अर्थशास्त्र और व्यवसाय के जरिए यह बताने की कोशिश की गई है कि अपनी वर्तमान संरचना की वजह से मीडिया के लिए खबरें बेचना अस्वाभाविक नहीं है। मीडिया के लिए पैसा कमाना महत्वपूर्ण है और इसके लिए छवि की कुर्बानी कोई बड़ी कीमत नहीं है। मीडिया के लिए छवि की चिंता उसी हद तक है जहां उसकी कमाई पर बुरा असर न होने लगे। यह पुस्तक मीडिया के बारे में आपकी स्थापित मान्यताओं को लगातार चुनौती देगी, आपको नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करेगी। इसे मीडियाकर्मियों, मीडिया के विद्यार्थियों, शोधार्थियों के साथ ही उन तमाम लोगों को ध्यान में रखकर लिखा गया है जो भारतीय मीडिया को देखकर कहते हैं-यह क्या हो रहा है? (फ्लैप से)
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