Monday, August 2, 2010

'आप भी चले गये राय साहब, छिनारों की तरह'


लोकतंत्र कुत्तों के संभोग का नाम नहीं है और न ही विद्वतजनों और अभिजनों की भाषणबाजी से लोकतंत्र को परिभाषित किया जायेगा। कल जो हंस के सालाना जलसे में हुआ वो हिंदुस्तान में लोकतंत्र के जागृत होने का जीता जगता नमूना था, ये सत्ता के दमनचक्र में शामिल लोगों के खिलाफ सामूहिक क्रांति के शुरू होने का प्रत्यक्ष प्रमाण था। कार्यक्रम की सार्थकता विभूति राय और आलोक मेहता के भाषण नहीं थे. वो नारेबाजी थी, जिसकी गूंज हम अब तक सुन रहे हैं।

गनीमत ये है कि कार्यक्रम दिल्ली में हो रहा था, अगर यही कार्यक्रम बिहार, झारखंड या छतीसगढ़ के किसी आदिवासी इलाके में होता तो शायद ये जलसा आज के अखबारों की सुर्खियाँ होता, संभव है उस एक वक्त विभूति नारायण राय और आलोक मेहता घर पर जाकर चैन की नींद सो गए होंगे, लेकिन ये सच है कल के कार्यक्रम में शामिल तमाम युवा सारी रात जागे रहे। एक ने मुझसे कहा मुझे नहीं बर्दाश्त होता ये सीना ठोककर सत्ता की दलाली करेंगे। रोटी दाल, पानी ,जंगल से जुडी बुनियादी जरूरतों के लिए किये जा रहे संघर्ष को देशद्रोह बताएँगे और हम हाँथ पर हाँथ धरे बैठे रहेंगे? हम अब चुप कैसे रह सकते हैं? आलोक मेहता आप सुन रहे हैं न? वो अरुंधती राय के चेला चापड़ों की आवाज नहीं थी वो उस जनता की आवाज थी जो आपकी शातिर चालों को समझ चुकी है। अभी तो एक आपके खिलाफ हुआ कल को पूरे समुदाय के खिलाफ होगा। क्यूंकि अब समय आ गया है कि मीडीया भी आम आदमी के प्रति अपनी जवाबदेही तय करे ,सत्ता की दलाली और महानगरों के वैभव को भोगते हुए निपढ़ निरीह आदिवासियों को खतरनाक जनसमूह बताकर उनकी गणहत्या कराना भला कब तक बर्दाश्त किया जा सकता है?

कब तक बर्दाश्त किया जा सकता है कि जान लड़ाकर लिखने वाले किसी पत्रकार को आप उसकी पहचान से सिर्फ इसलिए बेदखल कर दें, क्यूंकि इससे आपकी सत्ता समर्थित छवि पर असर पड़ रहा हो। सच कहूँ कल रात मैंने सपना देखा था कि पत्रकारों की भीड़ को जनता दौड़ा दौड़ा कर पीट रही है ,पीटने वालों के एक हाथों में रोटियां और दूसरे हाँथ में लाठियां थी। आलोक जी आप कहते हैं कि सरकार ने आपसे माओवादियों से बातचीत में मध्यस्तता करने को कहा था आपसे सरकार ने जरुर कहा होगा, पर क्यूँ करेगा कोई आदिवासी किसी आलोक मेहता से बातचीत ?वो कुछ भी नहीं बोलेगा, आपसे भी नहीं बोलेगा, आदिवासियों से बातचीत आत्मीयता के माहौल में ही जा सकती है और दुःख है कि कम से कम आप और वी एन राय सरीखे लोग आत्मिक सम्बन्ध बनाने में नहीं अनुबंध में विश्वास करते हैं,और इस प्रकार के कांट्रेक्टर टाइप लोगों को फिलहाल न तो कोई आदिवासी किसान सुनना चाहता है और न ही बर्दाश्त करने की स्थिति में है।

किसी छिनार महिला और मंच बीच में छोड़कर चले जाने वालों में कोई ज्यादा फर्क नहीं होता। दोनों आत्मसंतुष्टि के बाद वापस घर लौट जाते हैं। आप भी चले गए राय साहब, छिनारों की तरह। आप राज्य समर्थित हिंसा का समर्थन करते हैं ये कोई असामान्य बात नहीं है. इसकी भी वजहें बड़ी भौतिक हैं। आप कुलपति भी राज्य के रहमोकरम से हैं और आपकी विद्वता भी राज्य उत्पादित विद्वता है सो ऐसे में आप जिसकी खायेंगे उसकी गायेंगे ही। लेकिन एक बात तो आप भी जानते हैं कि जहाँ असहमति का अधिकार नहीं मिलता वहाँ प्रतिरोध होता है। आंदोलन होते हैं क्रांति होती है। वर्धा में असहमति पर लगाए गए आपके अंकुश का परिणाम आप देख रहे होंगे। इस असहमति को खत्म करने की आपकी सारीकोशिशों पर वहाँ के छात्र और हम गैर छात्र लगातार नाकाम कर रहे हैं। फिर देश तो किसी भी संस्थान से बड़ा है यहाँ पर असहमति को खत्म करने की सारी कोशिशों का तो मुंहतोड जवाब दिया जायेगा। आप भी असहमत थे मुर्दाबाद हो गए ,आलोक भी असहमत थे वो भी मुर्दाबाद हो गए और हाँ अपने ज्ञान को सुधारें। देश में चल रहा माओवादी आंदोलन, राज्य के अस्तित्व को खत्म करने के लिए नहीं है, बल्कि सही मायने में में लोकतंत्र को स्थापित करने की बहा सुलझी हुई प्रतिक्रिया है। चूंकि ये प्रतिक्रिया आम आदमी के खुद के अस्तित्व से जुडी है इसलिए इसमें हिंसा का भी समावेश है। अब आप खुद सोचिये राय साहब रोटी को सही ढंग से पकाने के लिए आग और आटे के बीच लोहे को तो आना पड़ेगा ही। वैसे में क्या आप भूखी नंगी एक पूरी पीढ़ी की हत्या कर डालेंगे? वैसे भी जो व्यक्ति महिलाओं के आत्मलेखन को उनके बिस्तर के बटवारे से जोड़ने की बात लिखता हो, उससे किसी स्वस्थ चिंतन की उम्मीद रखा बेईमानी है।

हमें जानकारी मिली कि गोष्ठी के बाद आप जिस पार्टी में गए वहाँ आपने कहा कि “कुछ माओवादी छात्र हंगामा करने लगे “वो सिर्फ हंगामा नहीं था डॉ राय, और न ही वहाँ जुटे लोग माओवादी थे। वो आप लोगों से उकताई अपार भीड़ का एक हिस्सा था जो ये बताने में कामयाब रहा कि अब आपको और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ये आपके सामाजिक बहिष्कार की शुरुआत एक हिस्सा भर था उसका सेकेण्ड एपिसोड आज विभिन्न महिला लेखिकाओं की टिपण्णी में आपने देखा ही होगा। और अंत में एक शिकायत राजेंद्र यादव जी से। आधुनिक भारत में मीडीया, शिक्षा और साहित्य के नामचीन चेहरों से हिंसा और अहिंसा के विभेद को समझने समझाने की कोई भी कोशिश सिर्फ चोंचलेबाजी है। बकौल धूमिल लोहे का स्वाद लोहार से नहीं उस घोड़े से पूछना होगा जिसके मुंह में लगाम है। अफ़सोस मुंह में लगाम वाले घोड़ों तक न “हंस “पहुँचता है न राजेंद्र यादव ने पहुँचने की कोशिश की।
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