Wednesday, August 18, 2010

सूख गये संघर्ष के आंसू


इंडियन एक्सप्रेस में कृषि रिपोर्टर रहे देवेन्द्र शर्मा अब कृषि और खाद्य मामलों में भारत के जाने-माने नाम हैं. दुनिया में जहां कहीं भी खेती-किसानी से जुड़ी नीतियों की बात चल09 July, 2010 10:53;00 देवेन्द्र शर्मा
नर्मदा पर बांधों की श्रृंखला की शुरुआत को 25 साल बीत गए हैं। इसके कारण 1.5 लाख से अधिक विस्थापित (जिनमें अधिसंख्य आदिवासी हैं) अब भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं। अब तक की तमाम सरकारों ने इन लोगों के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया है। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय स्वतंत्र पीपुल्स ट्रिब्युनल के सदस्य के तौर पर जब मैंने मध्य प्रदेश के निमद क्षेत्र का दौरा किया तो इन गरीब और असहाय लोगों को देखकर सिर घूम गया था। 25 साल से वे अहिंसक संघर्ष कर रहे हैं और फिर भी उन्हें न्याय नहीं मिल पाया है।

यह देखकर मुझे संदेह होता है कि क्या वास्तव में गांधीगीरी की सार्थकता है भी? जलसिंधी गांव के बावा महारिया भी उन लोगों में से हैं, जिनका मकान सन 2000 में बांध में समा गया था। तब से मध्य प्रदेश सरकार ने एक इंच जमीन भी विस्थापितों को देने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, जबकि सेज, औद्योगिक घरानों और मजहबी संस्थानों को देने के लिए उसके पास हजारों एकड़ जमीन है। जब जून के शुरू में हम बदवानी क्षेत्र में पहुंचे तो लोगों ने इस तरह की सैकड़ों अर्जियां हमारे सामने रख दीं। उनकी दुर्दशा देखकर और भविष्य में न्याय न मिलने की आशंका के मद्देनजर मुझे हैरत हुई कि इन लोगों ने हथियार क्यों नहीं उठाए हैं? ऐसे समय जब संप्रग सरकार छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में नक्सलियों से हथियार डालकर बातचीत में शामिल होने को कह रही है तब यह समझ से परे है कि सरकार उन लोगों से बात क्यों नहीं कर रही है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं? वहां जो कुछ मैंने देखा और सुना उससे बहुत दुख पहुंचा।

मैं महिलाओं की आंखों में छलकेदर्द को कभी भूल नहीं सकता। चौथाई सदी से संघर्ष करते-करते उनकी आंखों के आंसू सूख गए हैं। चिकाल्दा गांव की शन्नो भाभी कहती हैं, आप मुझे भिखारी बनाने पर क्यों तुले हो? हमारे साथ अन्याय क्यों हो रहा है? हमारा वैधानिक हक क्यों मारा जा रहा है? वह उन सैकड़ों लोगों में शामिल थीं, जिन्होंने ट्रिब्यूनल के सामने अपनी गुहार लगाई थी। जैसे ही भोपाल में हमने 84 पेज की रिपोर्ट जमा की, एक अखबार में खबर छपी कि योजना आयोग ने नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित नौ राज्यों के 35 जिलों के लिए 13,742 करोड़ रुपये की विकास योजना तैयार की है। इसके विपरीत हमें बताया गया कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय नर्मदा विस्थापितों के लिए एक और विशेषज्ञ समिति का गठन कर रहा है। पहले ही रिपोर्र्टो के भारी-भरकम पुलिंदे, नीतियां, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के फैसलों का हवाला, अनेक विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्ट, संबद्ध अंतरराष्ट्रीय फैसले और बांधों पर विश्व आयोग की रिपोर्ट मौजूद हैं। इन सब रिपोर्र्टो के बीच जो एकमात्र पहलू गैरहाजिर है वह यह कि विस्थापितों के पुनर्वास की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। नर्मदा बांध से प्रभावित क्षेत्रों के दौरे में हमने जो देखा-समझा वह चौंकाने वाला था।

सर्वप्रथम तो नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण और नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का दावा हैरान करने वाला है कि अब एक भी परिवार का पुनर्वास शेष नहीं है, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक गांव में सैकड़ों लोगों ने वहां की हकीकत से हमारा परिचय कराया। उन्होंने हमें बांध प्रभावित लोगों के विभिन्न मोहल्लों में बने मकानों, स्कूलों, पंचायत भवनों, मंदिरों, मस्जिदों और खेती की जमीन दिखाई। दूसरे, नर्मदा प्राधिकरणों के मिथ्या दावे ऐसे समय किए गए जब सुप्रीम कोर्ट ने 15 मार्च, 2005 के फैसले में रेखांकित किया था कि जिन परियोजनाओं से लोग जमीन और घर से बेदखल होते हैं, उन्हें शुरू करने से एक साल पहले ही प्रभावित लोगों के पुनर्वास और तमाम सुविधाओं से युक्त मकान उपलब्ध करा दिए जाने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार जिन परिवारों की जमीन परियोजना के दायरे में आती है उनके प्रत्येक बालिग बेटे और अविवाहित बेटी को कम से कम दो हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि दी जानी अनिवार्य है। महाराष्ट्र और गुजरात में जिन 10,500 आदिवासी परिवारों की जमीन परियोजनाओं में शामिल की गई थी, उन्हें लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप जमीन दे दी गई, किंतु अब तक मध्य प्रदेश में एक भी परिवार को जमीन नहीं दी गई। मध्य प्रदेश सरकार ने जमीन के बदले में जमीन देने में असमर्थता जता दी है। उसका कहना है कि उसके पास बेदखलों को देने के लिए कोई अतिरिक्त जमीन नहीं है, क्योंकि हाल के दिनों में जमीन की कीमत काफी बढ़ गई है। हालांकि उसने इंदौर के स्पेशल इकोनॉमिक जोन के लिए 4050 हेक्टेयर जमीन देने पर सैद्धांतिक रजामंदी जता दी है। इस एक सेज को जितनी जमीन दी जा रही है, करीब इतनी ही जमीन सरदार सरोवर परियोजना के बेदखलों के लिए चाहिए। निमद क्षेत्र में, जो कृषि उपजों जैसे गेहूं, मक्का, अरहर, मिर्च, गन्ना और फल के लिए बहुत उर्वर है, नहरों का जाल बिछाया जा रहा है। हमें पता चला कि ये नहरें न केवल ठेकेदारों द्वारा बनाई जा रही हैं, बल्कि इनके द्वारा ही इनकी योजना भी बनाई जा रही है।

कोई यह सवाल नहीं पूछ रहा है कि ऐसे क्षेत्र में नहरों की क्या आवश्यकता है, जो पहले ही सिंचित है? मुझे इंदिरा सागर और ओमकरेश्वर परियोजनाओं के तहत बनाई जा रही नहरों से 1.23 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को मिलने वाले संभावित लाभ के लिए एक लाख हेक्टेयर भूमि को नहरों में खपाने में कोई तुक नजर नहीं आता। पिछले अनुभवों को देखते हुए इन नहरों से केवल 34 प्रतिशत संभावित लक्ष्य की पूर्ति ही संभावित है। नर्मदा पुनर्वास की कहानी छल-कपट, भ्रष्टाचार, दबाव, उत्पीड़न, उदासीनता और घोर लापरवाही की कहानी है। यह इस बात का भी उदाहरण है कि सरकार किस तरह ऐसी स्थितियां पैदा करती है, जिनमें गरीब आदिवासियों के पास हथियार उठाने के अलावा कोई अन्य चारा नहीं बचता। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण और नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अध्यक्षों को गरीबों को उनके जीने के अधिकार से वंचित करने का दोषी ठहराया जाना चाहिए। मध्य प्रदेश को उद्योगों के लिए भूमि का आवंटन करने में कोई दिक्कत नहीं है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसी साल जनवरी में प्रवासी भारतीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए एनआरआई उद्योगपतियों को मध्य प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए खुले दिल से निमंत्रण दिया। इस मौके पर उन्होंने कहा, मध्य प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था की कोई समस्या नहीं है, भूमि की बहुतायत है और औद्योगिक प्रक्रिया तीव्र गति से संपन्न की जाती है। इससे तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाती है। उद्योगपतियों और सेज के लिए जमीन की उपलब्धता की कोई सीमा नहीं है, किंतु विस्थापितों को जमीन देने की कोई मंशा नहीं है, चाहे इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना भी करनी पड़े। बदवानी में जन सुनवाई में एक विस्थापित ने पूछा था, क्या सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का कानून राज्यों पर भी लागू होता है या फिर यह हम जैसे कमजोरों के लिए ही है? आखिर इस सवाल का जवाब कौन द

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