Tuesday, August 10, 2010

गाय धर्म नहीं जानवर है


स्वामी श्री अड़गड़ानंद
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आये दिन ‘गो-वध बन्द हो’ का नारा लगता है। धर्माचार्यों के अनशन और लाखों रूपये के चन्दे इसी के नाम पर होते हैं। इन सबका परिणाम केवल इतना निकला है कि यदि सन् 1942 में 17,000 गायें नित्य दिन कटती थीं तो आज उनकी संख्या 50,000 तक पहुंच चुकी है। विचारणीय है कि क्या गाय हमारा धर्म है ?क्या इसके समर्थन में हमारे पूर्वजों ने वेद, गीता और रामचरितमानस-जैसे आर्षग्रन्थों में कुछ कहा है ? यदि नहीं कहा तो यह एक धोखा है। इससे हम सबको सतर्क हो जाना चाहिए।

गाय को धर्म मानने का दुष्परिणाम समूचे भारत को भोगना पड़ा है। गाय की ओट से निशाना लेकर मुट्ठीभर तुर्कों ने वीर राजपूतों को उनके ही देश में हरा दिया। अंग्रेजों ने हिन्दू और मुसलामानों में फूट डालने के लिए इसी गाय को साधन बनाया। स्वतंत्र भारत के साम्प्रदायिक दंगों के पीछे गाय कहीं-न-कहीं अवश्य रहती है। इस पागलपन के पीछे अवधारणा यह है कि गाय हमारा धर्म है, किन्तु क्या आप इसके समर्थन में प्रमाण दे सकते हैं? श्री रामचरितमानस के अनुसार भगवान का अवतार केवल चार के लिए होता है-

गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी।। (मानस, 5/38/3)
निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ, सुर महि गो द्विज लागि।। (मानस, 4/26)
बिप्र धेनु सुर सन्त हित, लीन्ह मनुज अवतार।। (मानस, 1/192) ...इत्यादि।

जनसाधारण में इन दोहे-चौपाइयों का यह अर्थ प्रचलित है कि भगवान जब भी अवतार लेते हैं तो पशुओं में एक पशु गाय-विशेष के लिए और मनुष्यों में एक वर्ग-विशेष ब्राह्मण के लिए लेते हैं और वह द्विज-समुदाय केवल भारत में ही पाया जाता है। जब गाय और ब्राह्मण पर विपत्ति आती है- ‘सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी’ (मानस, 1/120/7) तभी भगवान अवतार लेते हैं। यह विपत्ति ब्राह्मणेतर जाति ही तो डालेगी, भगवान उनको मारकर गो और द्विज को निर्भय बनाते हैं। तब हर देश, हर जाति के लोग ऐसे भगवान से कौन-सी आशा लगाये बैठे हैं ?तो क्या भगवान सबके लिए नहीं हैं ?यह रामचरितमानस कहना क्या चाहता है ? विचारणीय है कि भगवान गाय के लिए अवतार तो लेते हैं किन्तु गाय से परे हैं। यह गाय कौन-सा शिकंजा है जिसमें सारा संसार फंसा है, किन्तु भगवान उससे पार हैं। गाय क्या है ?यहां एक प्रश्न है- माया श्री रामचरितमानस के अनुसार भगवान का अवतार केवल चार के लिए होता है-

गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी।। (मानस, 5/38/3)

तो काली गाय की तरह, किन्तु सियराम का यश इसमें अंकित है इसलिए सभी इसे स्वीकार करेंगे। यहां गाय मात्र उदाहरण है, धर्म नहीं। रामजन्म के अवसर पर ‘हाटक धेनु बसन मनि’ (मानस, 1/193) राजा ने दान में दिया। विशवामित्र की याचना पर दशरथ ने सहरोष कहा- ‘मागहु भूमि धेनु धन कोसा’ (मानस, 1/207/3) जमीन, गाय, धन और खजाना सभी एक श्रेणी में हैं। जनकजी ने ‘गज रथ तुरग दास अरू दासी। धेनु अलंकृत काम दुहासी।।’ (मानस, 1/325/4) दहेज में दिया। हाथी-घोड़ा की तरह गाय भी यहां एक वस्तु के रूप में है। पिता की मृत्यु के पश्चात् भरतजी ‘धेनु बाजि गज बाहन नाना’ (मानस, 2/169/8) का दान देकर विशुद्ध हुए। रामराज्य में भी विदेह नगर की तरह ‘मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं।’ (मानस, 7/22/5) मनचाही दूध देनेवाली गायें थीं। कम दूध देने वाली गायों को कहां खपा दिया यह तो नहीं बताया लेकिन थीं एक भी नहीं। तात्पर्य यह है कि हाथी, घोड़ा, गाय, दास, दासी, वस्त्र, सोना और मणि लेन-देन की वस्तुएं थीं, धर्म नहीं। अब आइये उन चालीस प्रसंगों में से कुछेक देखें, जहां ‘गो’ शब्द इन्द्रियों का प्रतीक है-

अनवद्य अखंड न गोचन गो।
सब रूप सदा सब होइन गो।। (मानस, 6/110)

जो ‘अनवद्य’ अर्थात् निर्दोष हैं, अखण्ड हैं, वे न तो गोचर हैं न तो गो ही हैं। अथात् वह भगवान न तो इन्द्रियां हैं और न इन्द्रियां जहां से अपनी खुराक पाती हैं वह विषय ही भगवान हैं।

सो नयन गोचर जासु गुन, नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि, मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं।।

आज मेरी आंखों के समक्ष वही भगवान उपस्थित हैं, ‘न इति न इति’ कहकर श्रुति जिसका गायन करती है, पवन और मन को जीतकर तथा गो को निरस कर मुनि लोग कदाचित् ही उन्हें ध्यान में पाते हैं। गो को निरस करने पर ही वह भगवान ध्यान में आते हैं, तो क्या गाय का दूध, खून तथा हड्डियां सुखा दें तब भगवान ध्यान में आएंगे। गो निरस से तात्पर्य क्या है ? वास्तव में गो का अर्थ है मनसहित इन्द्रियां। जब तक एक भी इन्द्रिय को एक भी विषय में तनिक भी रस मिलता है तब तक ध्यान में वही विषय आएंगे। तब तक ध्यान में भगवान कदापि नहीं दिखायी देंगे, भगवान धूमिल पड़ जायेंगे। तो कैसे करें गो को निरस ?

बलं अप्रमेय अनादि अजम् अव्यक्त एकं गोचरम्।
गोविन्द गोपर द्वन्द हर, विज्ञान घन धरणी धरम्।।

उन भगवान का बल अतुलनीय है। वे अनादि हैं, अजन्मा हैं, अव्यक्त हैं, एक हैं, अगोचर हैं अर्थात् इन्द्रियों के विषय नहीं हैं फिर भी इन्हीं इन्द्रियों के बीच हृदय-देश में उनका निवास है इसलिए वे गोविन्द हैं, वस्तुतः ‘गो’ से परे हैं। वे इन्द्रियों के द्वन्द का अपहरण करनेवाले हैं। हम अपनी बुद्धि से इन विकारों का पार नहीं पा सकते। इन्द्रियों में इतनी क्षमता कहां कि यथार्थ निर्णय ले सकें, कारण कि-

गो गोचर जहं लगि मन जाई ।
सो सब माया जानेहु भाई।। (मानस, 3/14/3)

इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषय में जहां तक मन जाता है, बुद्धि जहां तक निर्णय लेती है वह सब की सब माया है, इसलिए आप अपने भरोसे गो को निरस नहीं कर सकते। यदि बुद्धि-विवेक या विचार से कोई निर्णय लेंगे तो वह मायिक क्षेत्र का ही छोटा-बड़ा निर्णय होगा; क्योंकि बुद्धि इसके आगे का हाल नहीं जानती। इसलिए मनसहित इन्द्रियों (गो) को निरस करने के लिए भगवान का अवतार होता है। भगवान विज्ञान-घन हैं, अनुभवस्वरूप हैं। वह आत्मा से रथी होकर (अनुभव या आन्तरिक निर्देशनों द्वारा) इस पृथ्वी को धरण करते हैं। इसी गाय कीे सुरक्षा के लिए भगवान अवातार लेते हैं। गो या इन्द्रियजनित विकारों को दूर करने के लिए ही अवतार की व्यवस्था साधक के हृदय में प्रसारित है, किन्तु किसी-किसी लगनशील साधक के हृदय-देश में यह घटना घटित होती है, अवतार होता है।

गीता का उपदेश करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- सात्विक गुण के कार्यकाल में जो शरीर का त्याग करता है, वह देव इत्यादि उन्नत योनियों को प्राप्त करता है। राजसी गुण की अधिकता में शरीर त्यागनेवाला मनुष्य मानव होता है और तामसी गुण के कार्यकाल में जो शरीर का त्याग करता है वह पशु-पक्षी, कीट-पतंग इत्यादि अधम योनियों को प्राप्त होता है। गीता के अनुसार पशु एक अधम योनि है। जो स्वयं निकृष्ट योनि भोग रही है, वह गाय आपको शाश्वत धाम कैसे देगी? जो आपसे गहरे दलदल में फंसा हो, वह आपको निकाल कैसे सकेगा ? योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार, जिस प्रकार पुराने वस्त्र को त्यागकर पुरूष नया वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक उसी प्रकार भूतादिकों का स्वामी यह आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर संस्कारों के अनुरूप नया शरीर धारण कर लेता है। अर्जुन! यह शरीर अनित्य है। जो स्वयं नश्वर है, वह अधम शरीर शाश्वत धाम कैसे देगा ?उन शरीरों में से गाय का भी एक शरीर है, वह शाश्वत सनातन कैसे बन जायेगी ? आश्चर्य है कि स्मृतियों और पुराणों में गाय की पूंछ पकड़कर उस वैतरणी को पार करने का विधान है जिसमें कोई तरणी काम नहीं करती। दिनभर में सैकड़ों लोग जिसकी पूंछ पकड़कर (खींचकर) उसे अधमरा बना देते हैं, उन पुजारियों को दया नहीं आती। मरियल-सी गाय आपको वैतरणी पार करा देती है, क्योंकि गाय के शरीर में देवताओं का निवास बताया गया है। यदि गाय के मल-मूत्र, रोम-रोम में देवता भी हैं तब तो गाय और बड़ा धोखा है। डूब मरने के लिये गाय ही काफी थी, जिस पर यह देवता, देवता तो स्वयं बह रहे हैं-

‘भव प्रबाह संतत हम परे’ (मानस, 6/109/12) आप ही की तरह वे बेचारे बह रहे हैं, आपको क्या तारेंगे ?

कृतकृत्य विभो सब बानर ए।
निरखंति तवानन सादर ए।।
धिग जीवन देव शरीर हरे।
तव भक्ति बिना भव भूलि परे।। (मानस, 6/110 छन्द)

इस देव-शरीर को धिक्कार है, आपकी भक्ति के बिना ‘भव भूलि परे’- भव में भूलकर पड़े हुए हैं। महाभारतकार का निर्णय है कि इस सृष्टि में मनुष्य सर्वोत्कृष्ट है,

‘गुह्यं ब्रह्म तदीतं ब्रवीमि।
न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।’

श्रीकृष्ण भी कहते हैं, अर्जुन! तू इन्द्रियों को सब ओर से समेटकर मेरा ही चिन्तन कर। मैं प्रतीज्ञा करता हूं कि तू मेरे स्वरूप को प्राप्त होगा। अर्थात् जैसा स्वरूप श्रीकृष्ण का है उसी स्वरूप में अर्जुन भी स्थिर होगा। जो मनुष्य इसी स्वरूप में इस स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेता श्रीकृष्ण उसे आत्महत्यारा कहते हैं। स्पष्ट है कि मानव का परमधर्म परमात्मा तक की दूरी तय करना, उन्हें प्राप्त कर लेना है। मनुष्य-शरीर ही साधन-शरीर है। देवता तक मुक्ति के लिये इसी नर-तन से आशावान् हैं जो बड़े सौभाग्य से आपको प्राप्त है। इस शरीर-प्राप्त में आप देवताओं से भी बढ़कर हैं; फिर पत्थर, पानी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आपका धर्म, आपका आदर्श कैसे बन सकते हैं ?

योगेश्वर श्रीकृष्ण की गीता में दो स्थानों पर गाय का स्पष्ट उल्लेख भी मिलता है। एक तो वैश्यश्रेणी के साधक के लिये गो-रक्षा अर्थात् इन्द्रिय संयम के सन्दर्भ में और दूसरा तत्वदर्शी महापुरूष की रहनी के सन्दर्भ में कि ऐेसे पण्डितजन गाय, कुत्ता, हाथी, चाण्डाल में समान दृष्टि रखनेवाले होते हैं। उनकी दृष्टि में गाय न कोई धर्म है और न कुत्ता कोई अधर्म, अथवा न विशालकाय हाथी ही कोई विशेषता रखता है; क्योंकि उस महापुरूष की दृष्टि चमड़ी पर नहीं अपितु इन सबके हृदय में आत्मिक संचार पर पड़ती है।

कुछ लोग गाय के पीछे इसलिए जान देने के लिए तुले हैं कि श्रीकृष्ण गाय चराते थे। यादव वंश में तो जन्म व पालन-पोषण हुआ था, गाय न चराते तो हाथी-घोड़ा कहां से पाते ? रैदास को चमड़ा मिला, कबीर को सांचा, राम को धनुष, तो क्या यह सब धर्म हो गया ? श्रीकृष्ण ने तो एक चंचल बलरूपी धेनुकासुर को मारा। द्वारिकाधीश बनने पर वे एक दिन भी गाय नहीं चरा पाये। पशु के रूप में गाय धन है-

‘गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान’। प्राचीनकाल में गोधन एक विशिष्ट सम्पत्ति थी। जुताई, बुआई, मड़ाई, खराई, खाद, पानी, प्रदूषण निवारण, पौष्टिक आहार, वाहन एवं भारवाहक साधन के रूप में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध थी। गो-वंश के संवर्द्धन पर समाज की सतर्क दृष्टि थी। जिस प्रकार नागासाकी को फिर से बसाने के प्रयास में उन्तीस बच्चे पैदा करनेवाली महिला को वहां मदरलैण्ड की उपाधि से सम्मानित किया गया, कुछ इसी प्रकार गाय की उपयोगिता को देखते हुए प्राचीनकाल में उसे ‘गो माता’ की पदवी प्रदान की गयी थी। जिस प्रकार आजकल शेर को राष्ट्रीय पशु घोषित कर उसकी हत्या करनेवाले को दण्डित करने का विधान है, कुछ ऐसी ही व्यवस्था प्राचीनकाल में गाय के साथ थी। आज दण्ड-संहिता है, विधान है; तब स्मृतियां थीं।

वस्तुतः विशेषता गाय में नहीं, मानव मस्तिष्क में है, जिसने गाय में इतनी उपयोगिता का दर्शन किया। विशेषता लोहे में नहीं, अणु में नहीं वरन् उस मनुष्य में है जो उसका प्रयोग कर अन्तरिक्ष में उड़ रहा है, सागर की लहरों पर तैर रहा है। आवश्यकता के अनुरूप नये अविष्कार करना मानव-मस्तिष्क का स्वभाव है। इसलिये आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के समक्ष गाय धन के स्थान से च्युत हो चली है। गो-वंश के इस अवमूल्यन से मन में कसक चाहे जितनी हो, गाय को धर्म कहने वाले कितने लोग स्वयं गाय पालते, चराते हैं ? सात्विक आहार में फलों के पश्चात् गाय के दूध का ही स्थान है तो क्या फल हो गये धर्म? गाय मात्र सम्पत्ति है और सबकी है।

प्राचीनकाल में गाय विनिमय का माध्यम भी थी। आज के रूपयों की तरह उन दिनों गाय के माध्यम से वस्तुएं आपस में बदली जाती थीं। वैदिककालीन सामाजिक व्यवस्था में इसका व्यवहार अपने उत्कर्ष पर था। इतना ही नहीं, ‘सोमयाग’ के प्रकरण में तो गाय के द्वारा सोम का लिया जाना आवश्यक माना जाता था। इसका संग्रह समृद्धि का प्रतीक था। अतएव उस समय के बुद्धिजीवी वर्ग ने इन्हें अािधक से अधिक पाने का नयी-नयी स्मृतियों के माध्यम से उद्योग किया। सामाजिक स्मृतियां न्यायशास्त्र हैं। दैनिक जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप को पाप की संज्ञा देना और प्रत्येक पाप के निवारण के लिये गाय का दान देने का विधान उन्हीं की देन है। क्योंकि उनकी जीविका के लिये निर्धारित तीन साधन भिक्षा, शीलोंछवृत्ति और दान में से केवल दान का क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है और उन्होंने बढ़ाया भी। नेवला मारने पर कम से कम दस गाय के दान का विधान है मनुस्मृति में। प्रशासन को अपने शिकंजे में रखकर अधिकांश जनता को निरक्षर बनाकर वे ही धर्म के व्याख्याता बन बैठे। उन्होंने परिभाषाएं बदल दीं, जैसे- ऋषि उसे कहते हैं जो गुरूकुल में पढ़ाता हो।

इन्द्रियों के स्थान पर गो का समीकरण पशु में बैठाना, पशु गाय को धर्म के नाम पर उछालना, महाराजाओं या महापुरूषों का नाम लेकर नये-नये नियम गढ़ना उनकी देन है। ये स्मृतियां एक वर्ग-विशेष की भोजन-व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं। स्वतन्त्र भारत के प्रत्येक नागरिक से, जिन्हें सौभाग्य से अब पढ़ने का अधिकार मिला है उन सबसे हमारा निवेदन है कि इन स्मृतियों को एक बार पढ़ें; क्योंकि न्यायालयों में आज भी हिन्दू-विधि के मामले में हिन्दू धर्मावलम्बियों को न्याय देने के लिए स्मृतियों को ही प्रमाण माना जाता है। त्याग, तपस्या और साधन की तो बात ही छोड़िये, पूरी की पूरी स्मृति में एक बार भगवान का नाम तक नहीं आया है और यह भी लिख मारा कि पाराशर स्मृति और वेद पढ़ना एक ही बात है। आप इसी को पढ़ें, तब भी आप वेदज्ञ हैं। इन्हीं स्मृतिकारों की देन है कि आज हम गाय के नश्वर पिण्ड में सनातन धर्म देखने लगे हैं। गाय की पूजा आप करें और वह आशीर्वाद दे रही हैं डेनमार्क में, तब तो हमारा धर्म चला गया वहां, जहां कि गायें दूध देने में कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं। वहां वे पूजा नहीं करते, नस्ल उत्पन्न करते हैं। यदि गाय धर्म है तो सबसे बड़ा धार्मिक भी वह है जो गाय के अत्यंत समीप है और वह है ग्वाल परिवार, जिसने सैकड़ों वर्षों, पीढ़ियों से उन्हीं गाय की सेवा की है। आज न उनके शरीर पर वस्त्र है और न खाने को भरपेट अन्न। बुद्धि के स्तर पर मूर्ख-चपाट कहकर उनकी खिल्ली आप ही तो उड़ाते हैं। न केवल प्राचीन शास्त्रों में अपितु हर युग की सन्तवाणियों में भी गो का अर्थ इन्द्रिय ही है। सन्त कबीर तो गाय को काटने की बात करते हैं-

माता मारि परमपद पावै, पिता बधे सुख होय।
गो काटे बैकुण्ठ सिधावै, सन्त कहावै सोय।।

शास्त्रों का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि भगवान गो और द्विज के लिए अवतार लेते हैं; किन्तु उस गो का अर्थ गाय नामक पशु नहीं बल्कि मनसमेत इन्द्रियां हैं। इन्द्रियजन्य विकारों को दूर करने के लिये भगवान का अवतार होता है। इसी प्रकार जगजामिनी में से जब योगी जाग जाता है, गर्भवास की यातनाओं से भिन्न आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर होने लगता है, वह द्विज है। द्वितीय जन्म पाया है इसलिए वह द्विज है। इन्हीं भक्तों, साधकों, विरही अनुरागियों के लिए भगवान का अवतार होता है, न कि किसी जाति या पशु के लिए। हम यह नहीं कहते कि आप गाय को न मानें। जब गो-रक्षा न तो आप्तपुरूषों की वाणी में है और न वरिष्ठ शास्त्रों में ही इसका उल्लेख है, तब क्यों लकीर पीटते हैं? यदि कहीं है तो मानें, बतायें तो हम भी मानेंगे। यदि यह पहले से चली आ रही है जो भूलमात्र है, तो सुधारने के लिए हम सारे समाज का आवाहन करते हैं कि आप साहस के साथ आगे आयें अन्यथा गाय के प्रति यह पूर्वाग्रह हमें, आपको, सबको नष्ट करके छोड़ेगा। निःसन्देह गाय उपयोगी पशु है, मूल्यवान् धन है, धन की सरुक्षा कौन नहीं चाहेगा ? आप रक्षा करें; किन्तु ‘गाय धर्म है’, ‘गाय ही सनातन धर्म है’- ऐसा कहकर समाज को गुमराह न करें। विमर्श हेतु आपका सदैव स्वागत है।

(स्वामी श्री अड़गड़ानंद सिद्ध और क्रांतिकारी संत हैं.)

2 comments:

  1. पोस्ट में एक तथ्यात्मक भूल है,

    भगवन श्रीकृष्ण के पिता महाराज वासुदेव थे, जो की क्षत्रिय राजा थे. सुरक्षा के लिए उनका पालन नन्द के घर हुआ जो की अहीर थे. इसका अर्थ है श्रीकृष्ण की जाती क्षत्रिय थी, बलराम (नन्द के पुत्र) की जाति अहीर थी.

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  2. महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशवी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है
    राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्‍य वै द्विज
    द्वे सहस्रे तु वध्‍येते पशूनामन्‍वहं तदा
    अहन्‍यहनि वध्‍येते द्वे सहस्रे गवां तथा
    समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
    अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम ---- महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10

    अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं
    मांस सहित अन्‍न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई.
    इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्‍यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय

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