Tuesday, August 10, 2010

जरूरी है जाति की जनगणना


जरूरी है जाति की जनगणना
10 August, 2010 16:57;00 अनिल कुमार
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जाति आधारित जनगणना आखिरी बार 1931 में हुई थी। 1941 में सरकार का पूरा ध्यान दूसरे विश्व युद्ध पर था जिसके चलते जनगणना नहीं हो पाई। आजादी के बाद जब 1951 में पहली जनगणना शुरू हुई तो जाति का मसला उठाया गया। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा कि जाति आधारित जनगणना से सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा। उन्होंने इसे राष्ट्रभंजक मांग बताते हुए अस्वीकार कर दिया था।

वास्तव में जिन कारणों के आधार पर जाति आधारित जनगणना की मांग को खारिज किया था,वह आज भी जस के तस मौजूद हैं। असल में जाति आधारित जनगणना बहुत पहले ही कर लेनी चाहिए थी। जाति भारतीय समाज का फोड़ा है जिसे दूर करने के लिए उसके ल णों को जानना होगा। बिना विश्वसनीय आंकड़ों के न तो जाति का समाजशास्त्रीय विवेचन किया जा सकता है और न ही सामाजिक कल्याण योजनाओं को सही तरीके से लागू किया जा सकता है। जाति आधारित जनगणना का विरोध करने वाले राष्टवादी क्या नहीं जानते हैं कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, जाति के आधार पर नहीं। सवाल उठता है कि पिछली जनगणनाओं में जाति को शामिल नहीं किया गया तो क्या देश से जातिवाद दूर हो गया?

दरअसल सदियों से मलाई खा रहे लोग ही जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं। इन लोगों को भय है कि जनगणना के बाद वास्तविक तस्वीर सामने आएगी और मलाई चाटने का अधिकार पिछड़े वर्गो को मिल जाएगा। मेरी जाति हिन्दुस्तानी की दुआई देने वालों ने पिछले साठ सालों में कितने अवसर पिछड़ों के लिए छोड़ें और जाति व्यवस्था के खिलाफ कितने आंदोलन चलाए। देश के संसाधनों पर उन्हीं मुठ्ठी भर लोगों का अधिकार है जो आज जाति जनगणना के खिलाफ हाय-तौबा मचा रहे हैं। जिस देश में शिक्षा, नौकरी और चुनाव में टिकट देने से लेकर पानी पिलाने से पहले जाति पूछी जाती है वहां जाति आधारित जनगणना नहीं करना विडंबना ही कहा जाएगा। जब जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना की जाती है, धर्म पूछा जाता है तो पिछड़ी जातियों की जनगणना से परहेज क्यों? असल में पिछड़ी जातियों की संख्या से संबंधित सही आंकड़ा ही नहीं है। 1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने पिछड़ों की संख्या 52 फीसदी बताई है। इस आंकड़ें का व्यापक विरोध हुआ है। राष्टीय... सर्वे के मुताबिक पिछड़ों की तादाद 38 फीसदी है। सही सूचनाओं के अभाव में सामाजिक योजनाओं के क्रियान्वयन में आने वाली दिक्कतों का अनुमान लगाया जा सकता है। केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के मसले पर केन्द्र सरकार ने भी उच्चतम न्यायालय में स्वीकार किया था कि उसके पास पिछड़े वर्गो का कोई सही आंकड़ा नहीं है।

असल में मंडल आयोग के संबंध उच्चतम न्यायालय ने जो आदेश दिया उसमें पिछड़ें वर्गो की गिनती का आदेश भी निहित था। न्यायालय ने सशक्त जातियों को पिछड़ों की सूची से बाहर करने के लिए जो आदेश राष्टीय पिछड़ा आयोग के दिया उसे लागू करने के लिए पिछड़ों की वास्तविक संख्या पता लगाना जरूरी था। हालांकि आयोग ने इसके लिए सामाजिक आधिकारिता मंत्रालय को पत्र लिखे लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण लागू होने के बाद पहली जनगणना 2001 में हुई। जेडीयू और तृणमूल कांग्रेस उस समय गठबंधन सरकार में शामिल थी लेकिन सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया गया। जाति आधारित जनगणना के लिए संसद में एड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगाने वाले शरद यादव, लालू , मुलायम और गोपीनाथ मुंडे में से किसी ने राजग सरकार से यह मांग नहीं की। रामविलास पासवान और नीतीश कुमार तो उस समय मंत्री थे। इस बात में कोई दोराय नहीं है कि जाति आधारित जनगणना की मांग करने वाले लालू और मुलायम राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं और इस मुद्दें के आधार पर एपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। जाति आधारित जनगणना का तात्कालिक लाभ चाहे किसी दल को हो लेकिन इस बात में कोई दोराय नहीं है कि इस योजना के व्यापक प्रभाव होंगे। अगर हम जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं तो हमें सारी जातियों के विश्वसनीय आंकड़ें जुटाने होंगे।

असल में कोई भी राजनीतिक दल नहीं चाहता है कि जातिवादी व्यवस्था खत्म हो। जाति आधारित जनगणना के मसले पर सभी दल जोड़-तोड़ के समीकरण में व्यस्त हैं। खुद कांग्रेस इस मसले पर दो फाड़ हो गई है। कांग्रेस का एक धड़ा मानता है कि पिछड़े वर्गो की जनगणना के बाद मंडल और कमंडल की राजनीति करने वाले फायदे में रहेंगे और कांग्रेस को सियासी तौर पर नुकसान ही होगा। विडंबना देखिए,जिन लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा दिया था, उनके आदर्शों पर चलने का दावा करने वाले राजनेता खुद ही जाति के बाड़े से बाहर नहीं निकल पाए हैं। बेशक जाति आधारित जनगणना से राजनीतिक दलों को अपने सियासत चमकाने का अवसर मिलेगा लेकिन इस आधार जाति जनगणना की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता है। वर्ष 2011 की जनगणना अब तक की सबसे महत्वपूर्ण जनगणनाी है। यह जनगणना दो चरणों में पूरी होगी जिसमें पहले चरण में मकानों की गणना और दूसरे चरण में आबादी की गिनती की जाएगी। इस जनगणना में पूछे जाने वाले 15 सवाल पिछले 10 सालों की प्रगति की तस्वीर पेश करेंगे। सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस जनगणना के आधार पर राष्टीय जनगणना रजिस्टर बनेगा और सभी नागरिकों को पहचान प0 भी दिया जाएगा। यह पहचान प0 सरकार की समावेशी विकास की प्राथमिकता का प्रमुख आधार होगा। यह सही समय है जब पिछड़े वर्गो की संख्या के बारे में कयास लगाने की बजाय उनकी वास्तविक संख्या जानी जाए। जिस वर्ग के उत्थान के नाम पर करोड़ो रूपए की योजनाएं बनायी जाती है उनकी वास्तविक संख्या जानने में हर्ज क्या है।

जाति आधारित जनगणना से देश टूटने की बात करना हास्यापद है। देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ इसके बावजूद जनगणना के दौरान धर्म पूछा जाता है। देशप्रेम अच्छी बात है और हर नागरिक में यह भावना होनी चाहिए लेकिन इसकी बलिवेदी पर दलितों और पिछड़ों को ही क्यों चढाया जाता है। हिन्दू धर्म के ठेकेदार प्रवीण तोगडिया ने कहा कि जाति आधारित जनगणना से समाज का ताना-बाना बिखर जाएगा और देश की एकता के लिए यह घातक होगा। सवाल यह है कि समाज को जोड़ने के लिए पिछड़ों को कितने अवसर दिए गए। चारो पीठ के शंकराचार्यो की नियुक्ती के समय समाज की एकता कहां चली जाती है। असल में देश की एकता की दुआई देने वाले इन लोगों को अपनी सत्ता छिनने का डर है।
जनगणना के बाद जब सही तस्वीर सामने आएगी और कई जातियां जब संसाधनों में अपना हक मांगेगी तो इन तथाकथित देशप्रेमियों की हकीकत सामने आएगी।

इस सचाई से कोई इंकार नहीं करेगा कि जातिवाद की विषबेल को खत्म किया जाना चाहिए लेकिन यह संसाधनों के सही वितरण से ही संभव है। जाति आधारित जनगणना ही वह रास्ता है जिस पर चलकर सरकार अपनी विकास योजनाओं को कारगर तरीके से लागू कर पाएगी। जातिप्रथा भारतीय समाज की कड़वी सचाई है जो सदियों से चली आ रही है और आगे भी खत्म हो जाएगी, यह भी कोई नहीं कह सकता है। जब मायावती करोड़ो की मालकिन होकर भी दलित है, ए राजा और पासवान अपने को दलितों की सूची में सबसे उपर मानते हैं तो जातिवाद मिटाने की नौटंकी क्यों की जा रही है। कुछ लोगों का तर्क है कि सर्वे के आधार पर पिछड़े वर्गो की संख्या का पता लगाया जा सकता है लेकिन अनेक विविधताओं वाले इस देश में यह विधी कारगर नहीं है। कहा जा सकता है कि यह समस्या से ध्यान हटाने के लिए यह तीर चलाया गया है। जनगणना में इस पिछड़े वर्गो की गणना करने से वास्तविक संख्या के साथ ही इस समुदाय की आर्थिक-सामाजिक और शैक्षणिक स्थिती के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी हासिल होगी। इस बात को स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि जनगणना हिन्दुस्तानी का भी एक खाना होना चाहिए। जाति और धर्म से परे समझने वाले लोगों को हिन्दुस्तानी के वर्ग में रखा जा सकता है।

जाति आधारित जनगणना को राजनीति से जोड़कर देखने वालों को समझना होगा कि चुनाव केवल जाति के आधार पर ही नहीं जीते जाते हैं। मंडल-कमंडल की राजनीति का दांव एक चली हुई गोली ही जिसे दुबारा नहीं चलाया जा सकता है।
जातिगत समीकरण चुनावों को प्रभावित करते हैं लेकिन इस आधार पर पिछड़े वर्गो की गणना की वाजिब मांग को नकारना गलत है। केवल पिछड़ों वर्गो की ही क्यों बल्कि समाज के सभी जातियों की गणना की जानी चाहिए। यह समाज के सभी तबकों के हित में है कि विकास योजनाओं का फायदा जरूरतमंदों तक पहुंचे। हमेशा की तरह पश्चिमी देशों का उदाहरण भी जाति आधारित जनगणना के विरोध में दिया जा रहा है। कहा जा रहा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में जाति की गणना नहीं की जाती है। सबसे पहली बात तो यह है कि पाश्चात्य देशों की भारत जैसी जटिल जाति व्यवस्था नहीं है। दूसरी बात वहां जनगणना का समय नस्ल की गणना की जाती है। अमेरिका की जनगणना में यह लिखा जाता है
कि संबंधित व्यक्ति एशियाई है, अफ्रीकी है या रेड इंडियन। सारे यूरोपीय देशों में जनगणना इसी आधार पर होती है और इन आंकड़ों का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जा किया जाता है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर वहां योजनाएं बनाई जाती हैं और उनका क्रियान्वयन होता है।

हालांकि जाति आधारित जनगणना की राह में मुश्किलों की कमी नहीं है। जनगणना के लिए जिम्मेदार गृह मंत्रालय के मुखिया पी. चिदमबरम ही इसके पक्ष में नहीं है। गृह मंत्री का कहना है कि जाति आधारित जनगणना के लिए विशेष रूप से
प्रशिक्षित किए गए कर्मचारियों की जरूरत होगी। सवाल यह है कि जनगणनाी में लगे शिक्षक क्या इस काम को अंजाम नहीं दे पाएंगे जो खुद इसी जातिवादी समाज में पले-बढे हैं। वास्तव में अवसरों के बराबर बंटवारें में विश्वास नहीं रखने वाले लोग ही जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद यह साफ नहीं है कि जनगणना में जाति को शामिल किया जाएगा या नहीं। असल में कांग्रेस जाति आधारित जनगणना से होने वाले सियासी फायदे और नुकसान का आकलन करने में जुटी है। काग्रेस की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक जाति आधारित जनगणना की दिशा में कदम नहीं उठाया गया है लेकिन पूरे सदन की राय को दरकिनार करना भी कांग्रेस के लिए संभव नहीं है। कई रंगों के चश्मों से हटकर देखा जाए तो साफ है कि जाति आधारित जनगणना एक ऐसाी कदम है जिसे अविलंब उठाया जाना चाहिए, इसी में सबका भला है।

(अनिल कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विशिष्ट संस्कृत अध्ययन केन्द्र के छात्र हैं.)

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