Thursday, December 2, 2010
भोपाल गैस दुर्घटना: भारतवासी कीड़ों-मकोड़ों की तरह
भोपाल, 2 दिसंबर, 2010। सरकारी न्याय व्यवस्था से तो अच्छी हमारे शनि महाराज की न्याय व्यवस्था है कि कोई कितना भी भारी दानी ही क्यों न हो यह पाप किया हे तो भुगतना ही पड़ेगा। एंडरसन जो की मुख्य अपराधी है को अदालत ने भगोड़ा घोषित किया है। उसके भागने में तो भारत सरकार ने मदद की थी। वह न्यूयार्क के एक उपनगरीय इलाके में रहता है। अमेरिका ने उसे सौंपने की बात तो नहीं कही। भारत एक गुलाम मानसिकता का देश उसे यहँ ला सकेगा, ऐसा लगता नहीं है। ऐसे में यही ठीक है की शनि महाराज से प्रार्थना की जाये की वे उसे सजा दें।
भोपाल गैस त्रासदी में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गए और 2 लाख से ज्यादा लोग निरंतर पीड़ा भोग रहे हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुखान्त्की है। इस दुर्घटना को टाला जा सकता था और रोका जा सकता था। मगर मालिक लोग कार्यरत मजदूरों को गुलाम समझते रहे और प्रशासन मालिकों को अपना मालिक समझता रहा। राजनैतिक लोग भी गुलाम रहे। अन्यथा यह कारखाना शहर से कम से कम 50-100 किलोमीटर दूर लगता। तमाम नियमों को सख्ती से पालन होता। समय समय पर होने वाली चेकिंग सही ढंग से होती। कर्मचारियों को उनके समझ में आने वाली भाषा में कार्यप्रणाली और सावधानियों की जानकारी दी जाती। इस कारखाने में काम करने वालों ने हिंदी में सावधानियों का पत्रक माँगा था। एक नहीं कई बार यह मांग हुई थी। जो कारखाना मलिकों ने नहीं दिया और जोर देने पर भी नहीं दिया। यह एक ऐसा अपराध था जिसके कारण बचाव से सभी अनभिज्ञ थे, कर्मचारी भी नागरिक भी।
3 दिसंबर 1984 को हुई भोपाल गैस दुर्घटना के भुक्तभोगी। इस दुर्घटना में मध्य रात्रि हुए रासायनिक गैैस के रिसाव के कारण तत्काल 7000 से 10,000 लोगों की मौत हो गई थी। तत्काल और इस दुर्घटना के कारण बाद के वर्षों में मरने वालों का कुल आंकड़ा करीब 20000 तक पहुंच गया। करीब 250000 लोग विकलांग हुए। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस दुर्घटना का दुष्प्रभाव भोपाल की स्थानीय आबादी पर 3-4 पीढ़ियों तक रहेगा
भोपाल गैस त्रासदी: ?भोपाल गैस ट्रेजडी विक्टिम्स एसोसिएशन? के शशिनाथ सारंगी का कहना है कि 14-15 फरवरी 1989 को हुए इस करार के तहत यूनियन कार्बाइड के भारत और विदेशी अधिकारियों को 47 करोड़ डॉलर की एवज में हर प्रकार के नागरिक और आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया।
सारंगी के अनुसार इस करार में कहा गया कि कंपनी के खिलाफ सभी आपराधिक मामले खत्म करने के साथ-साथ सरकार इस त्रासदी के कारण भविष्य में होने वाली किसी भी खामी मसलन से उसके अधिकारियों की हर प्रकार के नागरिक और कानूनी उत्तरदायित्व से हिफाजत भी करेगी।
सर्वाेच्च न्यायालय ने इस करार को अक्टूबर 1991 में आंशिक रूप से खारिज कर दिया था। उसके फैसले में कहा गया था कि वित्तीय हर्जाने के भुगतान से सिर्फ नागरिक उत्तरदायित्व पूरा होता है, लेकिन इससे कंपनी के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले खारिज नहीं हो जाते।
इसके बाद जाकर कंपनी के खिलाफ नवंबर 1991 में आपराधिक मामले की सुनवाई शुरू हुई। निचली अदालत ने 1993 में आठ अधिकारियों को गैर इरादतन हत्या के प्रावधानों के तहत आरोपी बनाया। इसे आरोपियों ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की जबलपुर पीठ में चुनौती दी। उच्च न्यायालय द्वारा अपील खारिज कर दिए जाने पर उन्होंने सर्वाेच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सर्वाेच्च न्यायालय के 1996 के फैसले के बाद मामले की सुनवाई फिर से शुरू हुई।
इस पूरे मामले ने यह साबित कर दिया कि प्रशासन और राजनेताओं की तरह न्यायपालिका भी कायर और गुुलामी की मानसिकता से पीड़ित हे, अन्यथा उन्हें तो न्याय के हित के लिए कदम उठाना चाहिए थे। उन्होंने इतना तक नहीं सोचा कि इससे भारत में न्यायपालिका की क्या फजीहत होगी। न्यायलय को इस पाखंड को समझते हुए, प्रत्येक व्यक्ति को एक पार्टी मानते हुए सजा पर व्यक्ति के हिसाब से देनी चाहिए थी, प्रति व्यक्ति के हिसाब से क्षतिपूर्ति का भी निर्णय देना चाहिए था।
इस निर्णय से यह संदेश चला गया कीए भारत में आज भी ईस्ट इंडिया कंपनी जेसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साम्राज्य है। भारतवासी आज भी जर-खरीद गुलामों की तरह ही है। उन्हें आज भी कीड़ों-मकोड़ों की तरह मारा जाना आसन है। वहां स्वतंत्रता का परोक्ष मतलब बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साम्राज्य है। पहले राजे-महाराजे उनके गुलाम थे अब राजनेता उनके गुलाम है। प्रशासन उनका पहरेदार है। विधान संविधान भाड़ में जाये, कायदे कानून चूल्हे में जाये, भारत में विदेशी ख़ुशी रहें, लूटते रहें, सारे गैर कानूनी काम करते रह, न्यू गुलामी जिन्दाबाद।
यही केस किसी पश्चिमी देश की अदालत में चलता तो यूनियन कार्बाइड की सारी संपत्ति जप्त हो जाती और उसके बीमा धारक कंपनियों की भी संपत्ति बिक जाती, क्योंकि हर व्यक्ति को न्याय मिलता। उनका न्यायालय इस तरह नहीं डरता। इस तरह की भयानक किस्म की लीपापोती उनके देश में नहीं होती।
कितनी सजा
भादवि की धारा 304 के तहत केशव महेंद्रा, विजय गोखले, किशोर कामदार, जे. मुकुंद, एसपी चौधरी, केवी शेट्टी, एसआई कुरैशी को दो साल की जेल और एक लाख रुपए जुर्माना। इसी धारा में यूका पर पांच लाख रुपए का जुर्माना।
धारा 338 में केशव महेंद्रा सहित सातों आरोपियों को एक साल की जेल और एक हजार का जुर्माना।
धारा 337 में केशव महेंद्रा सहित सातों आरोपियों को छह महीने की जेल और पांच सौ का जुर्माना।
धारा 336 में केशव महेंद्रा सहित सातों को तीन माह की जेल और प्रत्येक पर 250 रु पए का जुर्माना।
अमेरिका की हिम्मत देखो कि उसने भारतवासियों के जले पर नमक छिड़कते हुए कहा है- अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता पी.जे. क्राउले ने आशा जताई कि यह भयावह त्रासदी भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंधों के विस्तार में अवरोधक नहीं बनेगी। यह परोक्ष धमकी नहीं तो क्या है।
Date: 02-12-2010 Time: 17:19:03
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