Monday, December 6, 2010
अपने गिरेबान में झांकना होगा
मीडिया खुद अपने पर उठे सवालों पर कन्नी काटता नजर आयेगा तो इससे हर ईमानदार पत्रकार का कद छोटा होगा.
* बड़े-बड़े संपादक उद्योगपतियों की हाजिरी बजाते हैं, इनके दलालों के इशारे पर अपनी कलम नचाते हैं.
* नीतीश कुमार जैसे नफ़ीस और लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी मीडिया को मैनेज करने के हथकंडे अपनाते पाये जाते हैं.
पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद इसके एक संस्थागत पहलू का खुलासा हुआ. अनेक अखबारों ने चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवारों के पक्ष में खबरें छपने के दाम वसूले. कई आर्थिक अखबारों ने कंपनियों के हक में खबरें छापने के बाकायदा लिखित करार कर रखे हैं.
राडिया टेप को लीक करने वाले ने चाहे जिस नीयत से यह खुलासा किया हो, इस रहस्योदघाटन से लोकतंत्र का भला होगा. शुरुआत में जाहिर है सबका ध्यान बड़े नामों और उनके छोटे कामों पर जाएगा, लेकिन इस बहाने कुछ बुनियादी और संस्थागत सवाल उठाने की गुंजाइश बनी है.
बाकी सब पर उंगली उठाने वाला मीडिया खुद संदेह के घेरे में आया है.असली खतरा यह नहीं है कि इससे पत्रकारिता बदनाम हो जायेगी. इस देश में ईमानदार पत्रकारों की कमी नहीं है. देश के हर शहर के हर प्रेस क्लब में हर कोई जानता है कि कौन कितने पानी में है, कौन किसकी जेब में है और कौन किसी भी लालच और धमकी से ऊपर है.
पत्रकारिता को जांच के दायरे के भीतर लाने से एक नंबर और दो नम्बरी पत्रकारिता में अंतर साफ़ होगा, ईमानदार मीडियाकर्मियों का सर ऊंचा ही होगा. अगर नेताओं और बाबुओं के भ्रष्टाचार को लपक कर परोसने वाला मीडिया खुद अपने पर उठे सवालों पर कन्नी काटता नजर आयेगा तो इससे हर ईमानदार पत्रकार का कद छोटा होगा.
प्रेस परिषद्, ऐडटरज गिल्ड और ऐसी संस्थाओं कि जिम्मेवारी बनाती है कि वे रडिया टेप में जिन पत्रकारों का नाम आया है उनकी पारदर्शी जांच करवाएं और इस विषय में एक अचार संहिता बनायें.राडिया टेप से असली खतरा यह है कि या तो हम‘हर कोई चोर है’वाली मानसिकता में आ जायेंगे. या फ़िर कुछ दिन चस्का लेकर खेल खत्म चिंता हजम वाली राष्ट्रीय मुद्रा अपना लेंगे.
याद रहे कि अमर सिंह टेप वाले मामले में भी यही हुआ था. तमाम लोगों ने नेताओं और एक वरिष्ठ सम्पादक के ईल संवादों को मजे लेकर सुना और फ़िर एक स्टे आर्डर के बहाने सब कुछ रफ़ा-दफ़ा कर दिया. शर्मसार पत्रकारों की आंखें नीची हुइं लेकिन सम्पादक महोदय की कुर्सी बरकरार रही, वे खींसे निपोरते दूसरों कि आंखों में आंखें डाल सीधी बात करते रहे.
अगर इस बार भी हम इस कहानी का दोहराव नहीं चाहते तो इस अवसर पर पत्रकारिता और लोकतंत्र के रिश्तों के बारे में कुछ कड़वे सच का सामना करना होगा. इसे सिर्फ़ कुछ पत्रकारों की नैतिकता के सवाल से आगे, पूरे मीडियातंत्र के ढांचे से जोड़ना होगा. इसका मतलब होगा मीडिया और पूंजी, मीडिया और राजनीति तथा मीडिया और समाज के रिश्तो कि शिनाख्त करना.राडिया प्रकरण मीडिया और पूंजी के रिश्तों के एक छोटे से पहलू का पर्दाफ़ाश करता है.
बड़े-बड़े संपादक उद्योगपतियों की हाजिरी बजाते हैं, इनके दलालों के इशारे पर अपनी कलम नचाते हैं. हकीकत यह है कि अम्बानी बंधुओं की आपसी कलह से पहले इस साम्राज्य की करतूतों के बारे में लिखने की हिम्मत इने-गिने पत्रकारों को ही थी. पिछले लोक सभा चुनाव और उसके बाद इसके एक संस्थागत पहलू का खुलासा हुआ. अनेक अखबारों ने चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवारों के पक्ष में खबरें छपने के दाम वसूले. कई आर्थिक अखबारों ने कंपनियों के हक में खबरें छापने के बाकायदा लिखित करार कर रखे हैं.
अधिकांश अखबार और टीवी चैनेल पूंजीपति या कंपनी कि मिलकियत में हैं और मालिक मीडिया का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक हितों में करना चाहता है. या तो मीडिया के मालिक रियल एस्टेट का धंधा चलाते हैं, या फ़िर रियल एस्टेट में अनाप-शनाप पैसा कमाने वाले टीवी चैनेल खोल लेते हैं.
जो अपने अखबार या चैनेल का प्रसार कर इससे पैसा कमाना चाहे उसे तो धर्मात्मा मानना चाहिए. असली दिक्कत यह है कि मीडिया का इस्तेमाल दलाली और ब्लैकमेल के लिया होता है. मीडिया और पूंजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशे लगनी जरी हैं. हर अखबार या चैनेल के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह अपने मालिक के हर अन्य व्यवसायिक हितों की घोषणा करे. मालिक के स्वार्थ से जुड़ी हर खबर में इस संबंध का जिक्र करना जरी हो.
खबरों कि खरीद फ़रोख्त पर पाबन्दी लगे.मीडिया और राजनीति का रिश्ता परोक्ष से प्रत्यक्ष तक पूरी इबारत से बंधा है. देश के कई इलाकों में राजनेता या इनके परिवार मीडिया के मालिक हैं और इसका इस्तेमाल खुल्लमखुल्ला अपनी राजनीति के लिए करते हैं. एक मायने में यह प्रत्यक्ष नियंत्रण कम खतरनाक है क्योंकि हर कोई इसे जानता है.
इससे ज्यादा खतरनाक है‘स्वतंत्र’ मीडिया पर पिछले दरवाजे से कब्जा. तमाम राज्य सरकारें अखबारों पर न्यूजप्रिंट, विज्ञापन और प्रलोभन के जरिये दबाव बनाती हैं. हरियाणा में चौटाला जैसी सरकार के दौरान इन हथकंडों में दादागिरी भी जुड़ जाती है. लेकिन नितीश कुमार जैसे नफ़ीस और लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी मीडिया को ‘मैनेज’ करने के हथकंडे अपनाते पाए जाते हैं. कश्मीर और पूवरेत्तर में सुरक्षाबल भी मीडिया पर बंदिश लगाते हैं.
मीडिया को इस दबाव से मुक्त करने के लिए चुनाव आयोग को मीडिया और राजनीति के रिश्तों की शिनाख्त करने का अधिकार मिलाना चाहिए. सिर्फ़ चुनाव के वक्त या इससे कुछ पहले ही नहीं, चुनाव आयोग को मीडिया पर दबाव की हर शिकायत की जांच करने और उस पर कार्यवाही का अधिकार मिलना चाहिए.मीडिया और समाज के रिश्ते में दो पक्ष चिंताजनक हैं.
पहला तो यह कि हमारा मीडिया और मीडियाकर्मी महानगरों के उपभोक्तावादी वर्ग कि चिंताओं से ग्रस्त हैं. देश के आम नागरिक के दुख-सुख खबरों की दुनिया से कमोबेश गायब हैं. हाल ही में मेरे संस्थान सी एस डी एस (विकासशील समाज अध्ययन पीठ) के एक शोध ने देश के शीर्ष हिंदी और अंगरेजी अखबारों की खबरों का विेषण कर एक खौफ़नाक तस्वीर पेश की.
इस विेषण के मुताबिक शीर्ष छ: अखबारों में कुल छपी खबरों में महज दो फ़ीसद गांव-देहात के बारे में थीं. इन दो फ़ीसद में भी अधिकांश हिंसा और आपदा से जुड़ी थीं, गांव की महज एक चौथाई खबरों का ताल्लुक खेती या गांव के विकास से था.
दूसरा चिंताजनक पक्ष मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है. कोई चार साल पहले अनिल चमड़िया, जीतेन्द्र कुमार और मैंने मिलकर दिल्ली के‘राष्ट्रीय मीडिया’के शीर्ष पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का खुलासा किया था. उस वक्त देश के खबरें तय करने वालों में 83 फ़ीसद पुरुष थे, और 86 फ़ीसद हिन्दू द्विज जातियों से.
मुसलमान सिर्फ़ 4 फ़ीसद, पिछड़ी जातियां भी सिर्फ़ 4 फ़ीसद और दलित-ओदवासी शून्य थे. पिछले साल प्रमोद रंजन द्वारा बिहार के हिंदी मीडिया के शोध से पता लगा कि 87 फ़ीसद पत्रकार सवर्ण हिन्दू परिवार से थे. हर किसी का विचार अपनी जाति-समुदाय से बंधा नहीं होता, लेकिन अगर मीडिया समाज के चरित्र से इतना अलग हो तो इसका खबरों पर असर पड़ना अवश्यम्भावी है. जाहिर है, मीडिया और समाज के रिश्तों पर कोई कानून नहीं बन सकता.
लेकिन हमें ऐसी संस्थाओं कि जरत है जो इन रिश्तों की लगातार पड़ताल करें और मीडिया को आइना दिखा सकें. मीडियाकर्मियों कि सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की जरत है.पुनश्च: कहीं यह लेख पत्रकार बंधुओं को पर-उपदेश जैसा न लगे इसलिए यहां जिक्रकर दूं कि मैं कई बार चुनावी सर्वे पर एक अचार संहिता की वकालत कर चुका हूं.
चुनाव के दौरान ऐग्जट पोल भविष्यवाणियों पर पाबन्दी का समर्थन कर चुका हूं. तमाम सर्वेक्षणों के लिए अनिवार्य होना चाहिए कि वो अपने पैसे के स्रोत, सैम्पलिंग तकनीक और सैम्पल की सामाजिक पृष्ठभूमि का खुलासा करे.
(लेखक सीएसडीएस में फ़ेलो और समाजशास्त्री हैं)
अपने गिरेबान में झांकना होगा
12/6/2010
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