अंबेडकर के नाम पर
दर्शन रत्न रावण
Sunday, December 05, 2010
आज डॉ. भीमराव अंबेडकर की पुण्यतिथि पर उनकी प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार करना जरूरी है। उन्होंने अपना सारा जीवन दलित कौम की गुलामी से मुक्ति के लिए लगाया। वह समाज में दलित समाज की स्वीकृति चाहते थे-यह स्वीकृति भी सम्मानपूर्वक हो, दया या कृपापूर्वक नहीं। देश की पहली संसद में जब महिलाओं के अधिकारों के लिए विधेयक पेश किया जाना था, तब भी उन्होंने मिसाल पेश की। कानून मंत्री के तौर पर उन्हें ही विधेयक पेश करना था। 10 अगस्त, 1951 को उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर कहा, मेरे स्वास्थ्य की मुझे और मेरे डॉक्टरों को चिंता लग रही है। तदापि डॉक्टरों के अधीन खुद को सौंप देने से पहले हिंदू कोड बिल पूरा करने की उत्कंठा लगी हुई है। अतः आप विधेयक को प्राथमिकता देकर 16 अगस्त को लोकसभा के सामने विचार-विमर्श के लिए पेश करें, ताकि सितंबर तक उस पर चर्चा पूरी हो जाए।
महिला आरक्षण बिल के साथ इन दिनों जो हो रहा है, वही हाल तब हिंदू कोड बिल के साथ हुआ। जैसे ही बाबा साहब सदन में खड़े हुए, सदस्यों ने हंगामा शुरू कर दिया, क्योंकि हिंदू मत में मान्यता है कि आदमी सर्वोच्च है और औरत उसकी गुलाम। जबकि बाबा साहब ‘जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है’ के अनुरूप महिला अधिकारों के प्रति वचनबद्ध होकर कार्य कर रहे थे। हाल की सरकारों की तरह तब की सरकार ने भी पुरुष प्रधानता को स्वीकारते हुए विधेयक वापस ले लिया। महिलाओं की यह उपेक्षा बाबा साहब अंबेडकर नहीं देख सकते थे, इसलिए उन्होंने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
26 जनवरी, 1950 को हमारी संसद ने भारतीय संविधान को अंगीकार कर भारत को गणतंत्र घोषित किया। इस संविधान को अंबेडकर जी ने दो साल, 11 महीने, 18 दिन में रात-दिन जागकर बनाया था। आज गणतंत्र और संविधान के प्रसंग में नेहरू जी और दूसरे नेताओं का तो जिक्र होता है, पर बाबा साहब का नहीं।
कम लोग जानते हैं कि उनका जीवन मुश्किलों से भरा हुआ था। पहले गोलमेज सम्मेलन के समय उनका बेटा गंगाधर बीमार था। पैसे हाथ में थे। लेकिन यह तय करना था कि इन पैसों से दलित हितों की बात करने के लिए लंदन जाया जाए या गंगाधर की बीमारी का इलाज करवाया जाए। जब देश की आजादी की बात चल रही थी, तब बाबा साहब ने दलितों की बात करते हुए दलितों के लिए वोट की मांग की थी। मगर महात्मा गांधी दलित अधिकारों की मांग के विरुद्ध मरण-व्रत रखकर बैठ गए। यह घटना पूना पैक्ट के नाम से चर्चित है।
यह अलग बात है कि आज का दलित नेतृत्व दूसरे नेताओं की तरह अत्यंत स्वार्थी हो गया है। सुशील कुमार शिंदे महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने के समय तो दलित हो गए थे, लेकिन शेष समय उन्हें अपनी जमीन याद नहीं रहती। इसी तरह, वह चाहे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हों या रामविलास पासवान हों, ये बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जैसों की कोशिशों से हासिल किए गए आरक्षण और अन्य अधिकारों का लाभ लेने के लिए दलित हैं, पर उनके जैसी कुरबानी नहीं दे सकते।
पिछले दिनों अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा यहां आए थे। इस देश के दलित उन्हें स्वाभाविक ही अपनी परपंरा से जोड़कर देखते हैं। लेकिन खुद ओबामा ने यहां आकर दलित हितों की कोई बात नहीं की। अगर वह मुंबई में चैत्य भूमि या दिल्ली में 26, अलीपुर रोड पर जाकर बाबा साहब अंबेडकर को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते, तो समझ में भी आता। तब मार्टिन लूथर किंग जूनियर के प्रति उनकी आस्था का सुबूत तो मिलता ही, अमेरिका के अश्वेतों और भारत के दलितों में उनके प्रति विश्वास बढ़ता। मार्टिन लूथर किंग ने पूरे अमेरिका में सफाई कर्मचारियों का नेतृत्व करते हुए गोली खाई थी। यहां सीवर की सफाई के लिए उतरने वाले कितने ही लोग हर साल मारे जाते हैं। इसके बावजूद अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन को एक पत्र लिखकर सरकार से जवाब मांगने की हिम्मत नहीं होती। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अध्यक्षों को तो इसकी कभी चिंता ही नहीं रही। बाबा साहब को याद करते हुए बहुत दुःख के साथ कहना पड़ता है कि करीब छह दशक बाद भी हम उनका कोई उत्तराधिकारी पैदा नहीं कर पाए।
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