शीला की जवानी से अभी पूरा देश थर्रा रहा है। ऐसी जवानी इससे पहले न कभी किसी ने देखी, न सुनी। लेकिन अब ये जवानी खूब देखी जा रही है, खूब सुनी जा रही। लोग थिरक रहे हैं। शीला के जवान होने का जश्न मना रहे हैं। मुन्नी की बदनामी के सदमे से अभी लोग उबर भी नहीं पाये थे कि शीला अचानक जवान हो गई। ऐसी जवान हुई कि बस हर जगह सिर्फ शीला ही शीला। टीवी खोलते ही शीला एलान-ए-जवानी करती नजर आ जाती है। आधे-अधूरे कपड़ों में।
शीला की इस जवानी का प्रचार-प्रसार को देख सी ग्रेड फिल्मों की शीला और पीले कवर में कैद मस्तराम कपूर जैसे लेखकों की शीला भी मुहं छिपाती फिर रही होगी। या फिर हो सकता है कि पीले कवर वाली शीला शापमुक्त हो गई है। पीले कवर को फाड़ वो सीधे हमारे-आपके ड्राइंग रूम में घुस आई है।
इससे पहले मुन्नी बदनाम हुई थी। ऐसी बदमानी जिसने मुन्नी को पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया। बदनामी के इस भोंपू पर वो लोग भी खूब थिरक रहे हैं, जो कभी बदनाम नहीं हुए। मुन्नी की बदनामी में कोई शर्मबोध नहीं है, बल्कि गर्वबोध है। बदलते जमाने के साथ सोच में ऐसा बदलाव खतरनाक ही माना जाएगा, जब बदनामी डराती नहीं बल्कि सीना फूला कर चलने का एहसास देती है। ये सिर्फ हिंदी फिल्मी संगीत में आ रही लगातार गिरावट का ही परिचायक नहीं है बल्कि कहीं न कहीं हमारे चारित्रिक अधो:पतन का भी संकेत है। अब लोग अपनी बिटिया को प्यार से मुन्नी बुलाने से पहले सौ बार सोचेंगे।
हिंदी फिल्मी गानों का ऐसा पतन देख, उन सभी लोगों को बड़ी तकलीफ हो रही होगी, जो बॉलीवुड के उस हसीन दौर के दीवाने हैं, जब गाने के बोल सार्थक होते थे और संगीत कर्णप्रिय। अब तो गाने की एक एक लाइन ही याद रहती है—शीला की जवानी....और मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए। न कोई सिर न कोई पैर, बस संगीत के नाम पर शोर और बोल के नाम पर अश्लीलता की भरमार। मुन्नी और शीला के बाद अब शकीरा के कमर के लोच और ठुमकों को चुनौती देने वाले गाने भी बज रहे हैं।
संगीत पहले साधना थी। गीतकार साहित्य रचने की कोशिश करता था। कुछ नया रचने की कोशिश थी। अब रचना नहीं है, बेचना है और बेचने के लिए वो सब कुछ करने की जरूरत है, जिससे सामान बिक जाय। अब हर आदमी सेल्समैन है, चाहें हो संगीतकार हो या गीतकार। चाहें निर्माता हो या निर्देशक। देखना है बॉलीवुड का ये नया दौर कब तक चलता है। ये भी देखना होगा कि हम और नीचे गिरते हैं, या फिर इससे उबर कर वापसी की
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