Saturday, January 15, 2011

उदारता कहीं ले न डूबे

ये उदारता कहीं ले न डूबे


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विमल कुमार सिंह

निश्चित रूप से भारत सनातनी परंपरा का देश है और ‘अतिथि देवो भव’ का संस्कार हमारी रगों में समाया है। पिछली सहस्राब्दियों में हमने अनगिनत समुदायों को अपने यहां प्रश्रय दिया।

अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण जब यहूदी और पारसी अपने मूल स्थान पर सताए जा रहे थे तो हमने बाहें फैला उनका स्वागत किया। उन्हें हमारे देश में वह आजादी मिली जो वे अपनी मातृभूमि में खो चुके थे। अतीत की यह उदारता कहीं न कहीं आज भी हमारे समाज में विद्यमान है। अगर ऐसा नहीं होता तो अफगानी, बर्मी, तिब्बती तथा श्रीलंकाई शरणार्थियों की बड़ी संख्या हमारे देश में भला आज कैसे चैन से रह पाती।

यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जहां हमने अपने आतिथेय (मेजबान) होने का धर्म निभाया तो वहीं इन समुदायों ने अपने अतिथि धर्म का भी बखूबी पालन किया। हमारे और अपने हितों में टकराव की स्थिति उन्होंने कभी पैदा नहीं होने दी। लेकिन पिछले कुछ दशकों से एक समुदाय ने हजारों सालों की इस आदर्श स्थिति को तार-तार कर दिया है।

यह समुदाय है बांग्लादेशियों का। 1971 में जब उन्हीं के धर्म और उन्हीं के ‘राष्ट्र’ के लोगों ने मानवता की सारी हदें लांघकर उन पर अत्याचार करना शुरू किया तो हमने अपनी परंपरा को निभाते हुए उन्हें अपने यहां शरण दी। हमने न केवल उन्हें शरण दी बल्कि उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान की गुलामी से भी मुक्त किया।

इसके बाद होना यह चाहिए था कि शरणार्थियों के रूप में हमारे देश में आए बांग्लादेश के लोगों को अतिथि धर्म का पालन करते हुए अपने देश लौट जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वे न केवल यहां टिके रहे, बल्कि उन्होंने भारत में अपने लोगों की योजनाबद्ध घुसपैठ करवानी शुरू कर दी। आज डेढ़ करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी हमारे देश में हैं। इनमें से एक प्रतिशत भी वैध तरीके से यहां नहीं आए हैं। सभी जबरन या धोखाधड़ी करके ही आए हैं।

वर्तमान स्थिति तो ऐसी है कि घुसपैठियों की गतिविधियों से तंग आकर नागरिको को ही अपने स्थान से पलायन करना पड़ रहा है। इनकी बस्तियों में आतंकवादियों एवं समाजविरोधी तत्वों को शरण मिल रही है। इनके कारण भारत की बुनियादी सुविधाएं चरमरा रही हैं और भारतीय कामगारों का रोजगार छिन रहा है।

लेकिन सारा दोष बांग्लादेशी घुसपैठियों का ही नहीं है। वास्तव में उनकी घुसपैठ हमारे अपने लोगों की मिलीभगत से ही संभव हो रही है। चंद राजनेता अपने निहित स्वार्थों के लिए घुसपैठियों का साथ दे रहे हैं। उनके समर्थन में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार जैसे मूल्यों की दुहाई देते हैं। इस सबके बीच देश की आम जनता भी घुसपैठ की गंभीरता को समझ नहीं पा रही है। कुल मिलाकर कारण चाहे नेताओं का अंधा स्वार्थ हो, तथाकथित बुद्धिजीवियों की मूर्खतापूर्ण उदारता हो या आम जनता की इस मसले को लेकर उदासीनता हो, वास्तविकता यह है कि घुसपैठ को बढ़ावा देने के लिए सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं।

निस्संदेह भारत एशियाई देशों में एक बड़ा और जिम्मेदार राष्ट्र है। बड़ा होने की वजह से इसकी कुछ स्वाभाविक जिम्मेदारियां भी हैं। अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते लोगों को शरण देना इसका धर्म है। इससे भारत बच नहीं सकता है। और यह तो बड़ी बात होगी कि भारतीय सीमा मानवीय जीवन मूल्यों को ज्यादा महत्व दे, आवा-जाही में बाधक नहीं बने।

किन्तु एक कायदा तो हो। एक नियमावली तो बने जो राष्ट्रीय सुरक्षा और भारतीयों की सुविधा को ध्यान में रखे न कि यहां के लोगों की परेशानी का कारण बने। हमें अपने बीच मौजूद उन स्वार्थी और अति आदर्शवादी तत्वों को निष्क्रिय करना होगा जो बांग्लादेशियों की घुसपैठ में सहायक बने हुए हैं। और ऐसा करने के लिए आम जनता में इस मुद्दे के प्रति उदासीनता को खत्म करना बहुत जरूरी है। मूर्खता की हद तक उदार बनने से हमें बचना होगा।

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