मीडिया की जो शक्ल आज हमारे सामने है,उस संदर्भ में मीडिया की लक्ष्मण रेखा या फिर मीडिया एथिक्स की बात करना एक साजिश का हिस्सा है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं,वे दरअसल मीडिया को बेहतर करने के बजाय उनके भीतर हो रही भारी गड़बड़ियों और लगभग अपराध की श्रेणी में आनेवाली गतिविधियों पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं। यह बहुत ही सीधा सवाल है कि आज जो मीडिया अपने को मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में अपना रजिस्ट्रेशन कराकर बाजार में शेयर जारी करने के लिए बेचैन है,उसके लिए मीडिया एथिक्स की बात किस हिसाब से की जा सकती है?
जो मीडिया फिक्की और सेवी जैसी संस्थाओं से अपने उपर मीडिया और मनोरंजन उद्योग की मुहर लगवाने के लिए तत्पर है,उसके साथ आज से चालीस-पचास साल पहले की मीडिया छवि को जोड़कर, महज भावनात्मक और नैतिक आधार पर विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? आज जब मीडिया खुद को बिजनेस और उद्योग की शक्ल में बदलने और उसके ही जैसा मजबूत होने के लिए हर संभव तरीके अपना रहा हो तो जरुरी है कि मीडिया विश्लेषण के काम में जुटे लोगों को न केवल विश्लेषण के तरीके बदल देने चाहिए बल्कि उन्हें मीडिया के साथ उन्हीं शर्तों को लागू करने की बात की जानी चाहिए,जिस क्षेत्र की तरफ वह अपने को विकसित कर रहा है। मेरी अपनी समझ है कि आज मीडिया बिजनेस और कार्पोरेट के पैटर्न पर काम कर रहा है, इसलिए उस पर मीडिया एथिक्स के बजाय मीडिया-बिजनेस एथिक्स की शर्तें लागू की जानी चाहिए।
पी.साईनाथ ने अपने लेख ‘दि रिपब्लिक ऑन ए बनाना पील’(दि हिन्दू 3 दिसंबर 2010) में साफ तौर पर लिखा है कि आज मीडिया कार्पोरेट के साथ नहीं बल्कि खुद कार्पोरेट होकर काम कर रहा है और कार्पोरेट का सहयोग और समर्थन करके एक तरह से अपना ही समर्थन कर रहा होता है। इस स्थिति में हम देखें तो मौजूदा मीडिया को दोहरा लाभ हमें किसी भी हाल में लेने से रोकना चाहिए। अपने लगातार प्रसार के लिए वह तमाम तरह की रणनीतियां बिजनेस और मार्केटिंग की तर्ज पर तैयार करता है और जैसे ही इन नीतियों में वह असफल होता है या फिर किसी तरह की अड़चने आती है,तब-तब वह अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ या अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मुहावरे का प्रयोग कर एक ऐसा मौहाल तैयार करने की कोशिश करता है कि विश्लेषण और आलोचना में जुटे लोग अपने पक्ष छोड़कर उसके बचाव में उतर आएं।
न्यूज चैनलों के मामले में ऐसी स्थिति बार-बार बनती है जब उसकी कंटेंट के स्तर पर आलोचना की जाती है,तब वह अपने को बाजार,टीआरपी और विज्ञापन के आगे विवश बतलाता है। इतना ही नहीं मेनस्ट्रीम मीडिया का एक वर्ग ऐसा है जो कि खुलेआम बाजार के आगे अपने को मजबूर करार देता है( सीएनएन-आइबीएन के एडीटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई लगातार इस वाक्य का प्रयोग करते आए हैं) लेकिन जैसे ही उस पर सहमतियों को लेकर हमले होते हैं,उस हमले को तुरंत लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला करार दे दिया जाता है। आज जो लोग मीडिया की लक्ष्मण रेखा पर बहस करते हुए सक्रिय नजर आ रहे हैं,वे या तो मीडिया की इस मौजूदा शक्ल से या तो पूरी तरह अंजान हैं या फिर सैद्धांतिक तौर पर इसका विरोध करते हुए भी व्यावहारिक तौर पर इसका समर्थन कर रहे हैं।
अगर मीडिया की लक्ष्मण रेखा के ध्वस्त होने की ही बात करनी है तो फिर वह साल 2010 ही क्यों,उस साल से बात क्यों नहीं शुरु की जानी चाहिए जब पब्लिक ब्राडकास्टिंग के तौर पर दूरदर्शन और आकाशवाणी ने समाज के एक खास वर्ग के साथ दुर्व्यवहार किया,उस समय से क्यों नहीं करनी चाहिए जब इस माध्यम का उपयोग सरकार ने विपक्ष को बतौर देशद्रोह साबित करने के लिए किया या फिर उस समय से क्यों नहीं किया जाना चाहिए,जिस समय सामाजिक विकास के इरादे से माध्यम की शुरुआत की गई औऱ जिसे आगे चलकर प्रोपेगेंडा,सत्ता,राजनीति और राजस्व हासिल करने के अखाड़े के तौर पर तब्दील कर दिया गया?
मीडिया की लक्ष्मण रेखा तब भी पूरी तरह ध्वस्त हुई थी जब शिक्षा और सूचना के प्रसार के लिए भारतीय उपग्रह को लांच किया गया और मुनाफे के लिए ट्रांसपांडर को सीएनएन जैसे चैनल को किराये पर दिया गया? यह बात विवादास्पद जरुर हो सकती है कि अगर इस देश में मीडिया की लक्ष्मण रेखा निर्धारित करने औऱ उसके भीतर ही रहकर काम करने की परंपरा रही है तो उस लक्ष्मण रेखा को लगातार ध्वस्त करके मीडिया को आगे बढ़ाने की भी परंपरा कम मजबूत नहीं है,उनके भी अपने गहरे निशान हैं। मौजूदा दौर में जब मीडिया की लक्ष्मण रेखा टूटने की बात की जा रही है तो एक भ्रामक स्थिति पैदा हो रही है कि जैसे अब तक मीडिया की लक्षमण रेखा टूटी ही नहीं हो? वैसे लक्ष्मण रेखा शब्द का प्रयोग अपने आप में कम विवादास्पद नहीं है और कोशिश हो कि इस शब्द का प्रयोग जल्द से जल्द बंद कर देनी चाहिए।
आज जब हम स्त्री अस्मिता को मजबूती देने की बात करते हैं,खुलेपन और अपने को अभिव्यक्त करने की बात करते हैं,उस अर्थ में लक्ष्मण रेखा शब्द अपने-आप उसके विरोध में चला जाता है। लेकिन अगर इसका अर्थ मानवीयता,सरोकार और संवेदनशीलता के स्तर पर सक्रिय पत्रकारिता और मीडिया से लिया जाता है तो यह बात हमें बिना किसी दुविधा के स्वीकार करनी चाहिए कि मौजूदा मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसकी नींव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौरान पड़ी थी,अनिवार्य रुप से इस लक्ष्मण रेखा को ध्वस्त करके ही पड़ी थी। व्यवहार के स्तर पर यह पत्रकारिता के सैद्धांतिक रुप से बहुत आगे निकल चुका था लेकिन विश्लेषण के स्तर पर तब भी वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही बना हुआ था।
राबर्ट डब्ल्यू मैनचेस्नी ने इस दौरान विकसित होनेवाले ग्लोबल मीडिया के चरित्र को पहचानने के क्रम में उन्होंने सबसे पहले इसी बात पर जोर दिया कि मार्केट और बिजनेस आधारित मीडिया हमें ऑडिएंस के बजाय कन्ज्यूमर के तौर पर देखता है। ऐसे में वह हमसे नागरिक सुविधा की बात कैसे कर सकता है?( दि ग्लोबल मीडियाः दि न्यू मिशनरीज ऑफ कार्पोरेट कैपिटलिज्म,पेज नं-190)। मीडिया विश्लेषण में उस समय की भारी भूल थी कि उसे एथिक्स के तहत ही देखा-समझा जाता रहा,जबकि उसे उसी समय मीडिया बिजनेस एथिक्स की शर्तों पर लाया जाना चाहिए था। ऐसा होने से अतिरिक्त आग्रह के बजाय लोगों के बीच मीडिया को वास्तविक और ठीक-ठीक रुप में देखने की समझ विकसित हो पाती। ऐसा न करके विश्लेषण की धार भोथरी करने का काम हुआ है। आज बीस-बाइस साल बाद जबकि मीडिया की शक्ल अपने शुरुआती दौर से कहीं ज्यादा जटिल,बर्बर और विद्रूप हो चुका है,इसे नैतिकता और लक्ष्मण रेखा के खांचे में रखकर देखना एक खतरनाक स्थिति की ओर ले जाता है। यह काम कितनी बारीकी से किन्तु एक सोची-समझी रणनीति के तहत की जा रही है,इसे हाल की हुई घटना पर सरसरी तौर पर नजर डालने से स्पषट हो जाता है।
22-27 नवम्बर 2010 को अंग्रेजी में छपनेवाली ओपन पत्रिका ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में लाबिइस्ट नीरा राडिया का भी हाथ होने के साथ यह भी बता गया कि उसके साथ बातचीत में देश के कुछ प्रमुख मीडियाकर्मी भी शामिल हैं और जिसमें बरखा दत्त( मैनेजिंग एडीटर NDTV24X7) और वीर सांघवी( काउंटर प्वाइंट नाम से हिन्दुस्तान टाइम्स में कॉलम लिखनेवाले पत्रकार और एचटी के एडीटोरियल एडवायजर) का नाम प्रमुखता से लिया गया। पत्रिका के संपादक मनु जोसफ ने टेप की बातचीत को प्रकाशित करते हुए लिखा कि समूचा मीडिया इस मामले में बहुत ही रणनीतिक फैसले के तहत चुप रहा लेकिन अब भारतीय पत्रकारिता का पवित्र समझा जानेवाला चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। 29 नबम्वर 2010 वाले अंक में अंग्रेजी की आउटलुक पत्रिका ने भी इसी मसले पर अंक निकाला और इस मामले में मीडियाकर्मियों के नाम आने की बात कही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया 2G स्पेक्ट्रम मामले को पहले से ही कवर कर रहा था लेकिन मीडिया के मामले में पूरी तरह खामोश था। पत्रिका में बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम आने से मीडिया जगत में हंगामा मच गया। सबसे पहले सीएनएन-आइबीएन पर करन थापर ने दि लास्ट वर्ड शो में इस पर चर्चा शुरु की जिसमें कि बरखा दत्त और वीर सांघवी को भी बुलाया गया और दोनों ने आने से मना कर दिया। मनु जोसेफ ने इस बातचीत में साफ तौर पर कहा कि यह मामला सिर्फ मीडिया एथिक्स का नहीं है। NDTV24X7 के सीइओ नारायण राव ने आधिकारिक तौर पर मेल जारी करते हुए इस पूरे मामले को आधारहीन बताया लेकिन 30 नबम्बर 2010 को रात 10 बजे बरखा दत्त ने NDTV24X7 पर खुद आधे घंटे के शो में अपनी बात रखी और प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों के सामने “एरर ऑफ जजमेंट” शब्द का प्रयोग किया। जाहिर यह बरखा दत्त ने नीरा राडिया के साथ जो भी और जिस अंदाज में बातचीत की थी,उसे सिर्फ एरर ऑफ जजमेंट के तहत नहीं रखा जा सकता था। बहरहाल संजय बारु(बिजनेस स्टैन्डर्ड के संपादक) ने कहा कि लाइफ में हम सबसे गलतियां होती रहती है,बरखा जस्ट से सॉरी। इस पूरे मामले को मीडिया एथिक्स का मामला बनाने में सबसे जोरदार तरीके की कोशिश इस दिन हुई और गलती हो जाने की स्थिति में भी इसे आपसी समझौते के तहत सुलझा लेने का मामला बनाया जाने लगा। 1 दिसंबर 2010 को हेडलाइंस टुडे ने इसी मसले पर रात 9 बजे एक शो किया। इस शो में प्रभु चावला को भी शामिल किया गया क्योंकि आगे टेप में उनकी भी बातचीत शामिल थी। इस शो में भी यही रवैया रहा और दि हिन्दू के संपादक एन.राम ने प्रभु चावला को क्लीन चिट दे दी। 3 दिसंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से इसी मामले पर बातचीत रखी गयी और राजदीप सरदेसाई ने एडीटर्स गिल्ड की तरफ से बात करते हुए कहा कि यह सच है कि कुछ पत्रकारों ने मीडिया की लक्ष्मण रेखा लांघी है। उन्होंने वो किया है जो कि उन्हें नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह खेल का छोटा हिस्सा है। बड़ा हिस्सा है कि कैसे कार्पोरेट चीजों को अपने मुताबिक बदलना चाहता है और हम उनके आगे मजबूर हैं। राजदीप सरदेसाई के लक्ष्मण रेखा शब्द के इस्तेमाल किए जाने के बाद 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, नीरा राडिया और मीडिया प्रकरण के संदर्भ में यह शब्द एक मुहावरे की तरह चल निकला और अधिकांश अखबारों और चैनलों ने इस पूरे मामले के संदर्भ में इसका प्रयोग किया। उसी रात आजतक चैनल ने प्राइम टाइम पर मीडिया की लक्ष्मण रेखा नाम से आधे घंटे की स्टोरी चलायी। बाकी के चैनलों ने भी इसी तरह के आसपास शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया।
इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि लगभग सभी चैनलों ने इसे मीडिया एथिक्स का मामला बताकर जिन-जिन पत्रकारों के नाम आए,उन सबों को परिचर्चा के दौरान क्लीन चिट दे दी लेकिन चैनल और मीडिया संस्थान खुद एक-एक करके उनके अधिकारों में या तो कटौती करने लग गए या फिर उन्हें अपनी संस्थान से अलग हो जाने का संकेत दिया। एनडीटीवी ने बरखा दत्त की सोशल साइट से नाम गायब होने लग गए। वीर सांघवी ने 27 नबम्वर 2010 को हिन्दुस्तान टाइम्स में अपना आखिरी कॉलम काउंटर पार्ट लिखते हुए कहा कि जब दिन सामान्य होगें तो फिर से लिखना शुरु करेंगे। इसी कॉलम को हिन्दुस्तान में हिन्दी अनुवाद करके छापा गया। इसके साथ ही पद में कटौती कर दी गयी। इधर एन राम से क्लीन चिट मिल जाने के बाद 11 दिसंबर 2010 को प्रभु चावला ने इंडिया टुडे ग्रुप से इस्तीफा दे दिया। वेबसाइट पर जो खबरें प्रकाशित हुई उसके अनुसार इस प्रकरण के बाद प्रभु चावला को जाने के संकेत मिलने लगे थे। सवाल है कि इन मीडियाकर्मियों ने अपने संस्थान से मुक्त करने या उनके दायरे में कटौती करनी शुरु कर दी तो क्या यह सिर्फ उनकी ओर से लक्ष्मण रेखा का पार किया जाना था? अगर ऐसा है तो यकीन मानिए,मीडिया के लिए लक्ष्मण रेखा बहुत ही मामूली शब्द है जिसे कि काम करते हुए दिनभर में एक न एक बार इसकी सीमा लांघ ही ली जाती है। कार्पोरेट मीडिया का ढांचा ही ऐसा है कि वह इसे लांघे अस्तित्व में बने नहीं रह सकता। इसलिए जो भी लोग इसे एक घटना का हिस्सा मानकर इसके भीतर ही रहने की बात करते हैं,वे दरअसल मीडिया की वस्तुस्थिति को नजरअंदाज करने की साजिश रचते हैं।
अगर मीडिया कार्पोरेट औऱ बाजार की जमीन पर खड़ा है तो उसकी सजा उसी जमीन पर दी जानी चाहिए न कि नैतिकता और कोरी उपदेशात्मक धरातल पर। आज मीडिया के लिए यह सब बहुत मायने नहीं रखते,इस आधार पर विश्लेषण करनेवाले लोगों को बौद्धिक विमर्श के दायरे में तो अपनी सक्रिय होने का मौका जरुर मिल जाता है लेकिन अगर गंभीरता से नतीजे पर बात करें तो वे जिन चीजों के प्रतिरोध में खड़े होते हैं,वह उनके समर्थन में काम करने लग जाता है। आज के संदर्भ में यही हो रहा है। मीडियाकर्मियों को भी विश्लेषकों के साथ सुर में सुर मिलाकर मीडिया एथिक्स और लक्ष्मण रेखा पर बात करना इसलिए अच्छा लग रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि इसका व्यावहारिक रुप कुछ नहीं है,हां यह मीडिया के भीतर की संडाध पर मोटे पर्दे के तौर पर ढंकने के काम जरुर आ जा रहा है।
मूलतःप्रकाशित "पाखी" पत्रिका जनवरी 2011
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