Wednesday, January 12, 2011

स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ

स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ
दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद ने एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद युवाओं के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। दिल्ली रामकृष्ण आश्रम के सचिव स्वामी शांतमात्मानंद का कहना है कि स्वामी विवेकानंद को देश और युवाओं से काफी प्यार था और उन्होंने युवकों को प्रेरित करने के लिए काफी कुछ कहा। विवेकानंद का मानना था कि विश्व मंच पर भारत की पुर्नप्रतिष्ठा में युवाओं की बहुत बड़ी भूमिका है।

दरअसल स्वामी विवेकानंद में मेधा, तर्कशीलता, युवाओं के लिए प्रासंगिक उपदेश जैसी कुछ ऐसी बातें हैं कि युवा उनसे प्रेरणा लेते हैं।

मध्यप्रदेश सरकार में पुस्तकालय अध्यक्ष रह चुके नीलमणि दुबे के अनुसार स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि युवकों को गीता पढ़ने के बजाय फुटबॉल खेलना चाहिए। विवेकानंद कहते थे कि युवाओं की स्नायु पौलादी होनी चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है।

शांतमात्मानंद का हालाँकि यह भी कहना है कि आजकल युवाओं को स्वामी विवेकानंद के सिद्धांत भाते जरूर हैं परंतु उनके जीवन में इन सिद्धांतों का कोई खास असर नहीं दिख रहा है, लेकिन उन्हें उम्मीद है कि स्थिति धीरे-धीरे बदलेगी। स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता में विश्वनाथ दत्ता के कुलीन परिवार में 12 मई, 1863 को हुआ था। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अटार्नी दत्ता बहुत ही उदार एवं प्रगतिशील व्यक्ति थे।

विवेकानन्द की माँ भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था और उन पर अपने पिता के तर्कसंगत विचारों तथा माँ की धार्मिक प्रवृति का असर था।

विवेकानंद पढ़ाई लिखाई में बहुत तेज थे। स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्राचार्य डॉ. विलियम हस्टी ने उनके बारे में लिखा है, ‘मैंने काफी भ्रमण किया है लेकिन दर्शन शास्त्रों के छात्रों में ऐसा मेधावी और संभावनाओं से पूर्ण छात्र कहीं नहीं दिखा, यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं देखा।’

स्वामी विवेकानंद ने धर्मग्रंथों के अलावा विविध साहित्यों का भी गहन अध्ययन किया।
वह ब्रह्म समाज से जुड़े लेकिन वहाँ उनका मन नहीं रमा। एक दिन वह अपने मित्रों के साथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के यहाँ गए।

दुबे कहते हैं कि जब नरेंद्रनाथ ने भजन गाया तब परमहंस बहुत प्रसन्न हुए। कर्मशील नरेंद्रनाथ ने परमहंस से पूछा, ‘क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं। क्या आप उन्हें दिखा सकते हैं।’

परमहंस ने उनके सवालों का ‘हाँ’ में जवाब दिया। हालाँकि विवेकानंद ने प्रारंभ में परमहंस को अपना गुरू नहीं माना लेकिन काफी समय तक उनके संपर्क में रहकर वह उनके प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी शांतमात्मानंद कहते हैं कि परमहंस के आध्यात्मिक सपंर्क से उनके मन की अशांति जाती रही। बताया जाता है कि दुनियाभर में स्वामी रामकृष्ण को स्वामी विवेकानंद के चलते ही ख्याति मिली।

वर्ष 1893 में विश्व धर्म संसद में उनके ओजपूर्ण भाषण से ही विश्वमंच पर न केवल हिंदू धर्म बल्कि भारत की भी प्रतिष्ठा स्थापित हुई। ग्यारह सितंबर 1893 को इस संसद में जब उन्होंने अपना संबोधन ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ से प्रांरभ किया तब काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। उनके तर्कपूर्ण भाषण से लोग अभिभूत हो गए। उन्हें निमंत्रणों का ताँता लग गया।

स्वामी विवेकानंद ने देश और दुनिया का काफी भ्रमण किया। वह नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे। उन्होंने रामकृष्ण के नाम पर रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना की।

चार जुलाई, 1902 को उन्होंने बेल्लूर मठ में अपने गुरूभाई स्वामी प्रेमानंद को मठ के भविष्य के बारे में निर्देश देने के बाद महासमाधि ले ली।

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