Wednesday, January 12, 2011

कालजयी महानायक स्वामी विवेकानंद


सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार गिरीशजी साहित्य अकादेमी, दिल्ली के सदस्य एवं रायपुर (छत्तीसगढ) से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका सद्भावना दर्पण के संपादक हैं।गिरीश पंकज

स्वामी विवेकानंद के जीवन की शुरुआत देखें तो अद्भुत रोमांच होता है। कैसे एक संघर्षशील नवयुवक धीरे-धीरे महागाथा में तब्दील होता चला जाता है। उनका जीवन हम सबके लिए प्रेरणास्पद है। अपनी महान मेधा के बल पर दुनिया में भारत की आध्यात्मिक पहचान बनाने में सफल हुए स्वामी विवेकानंद ने सौ साल पहले जो चमत्कार कर दिखाया, वह आज दुर्लभ है। यह ठीक है कि तकनीकी या आर्थिक क्षेत्र में कुछ उपलब्धियाँ अर्जित करके कुछ लोगों ने यश और धन अर्जित किया है, मगर वह उनका व्यक्तिगत लाभ है, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने व्यक्तिगत लाभ अर्जित नहीं किया, वरन देश की साख बनाने में अपना योगदान किया। उनके कारण पूरी दुनिया भारत की ओर निहारने लगी। वेद-पुराणों के हवाले से उन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय चिंतन की नूतन व्याख्या की। ‘लेडीज एंड जेंटलमेन’ कहने की परम्परा वाले देश को उन्होंने यह ज्ञान पहली बार दिया कि बहनों और भाइयों जैसा आत्मीय संबोधन भी दिया जा सकता है। उन्होंने दुनिया को मनुष्य या परिवार का एक सदस्य समझने का संस्कार दिया क्योंकि स्वामी विवेकानंद को यही ज्ञान मिला था। यानी वसुधैव कुटुम्बकम का ज्ञान ।

स्वामी विवेकानंद की जीवन-यात्रा की शुरुआत देखें तो उनका जीवन भी मध्यमवर्गीय परेशानियों से भरा रहा। पढ़ाई में वे मेधावी थे तो खेल-कूद में भी माहिर थे। कुश्ती में निपुण थे। कुशल तैराक थे। तलवार चलाने में माहिर थे। नाटक और संगीत कला में रुचि थी। इसीलिए उन्होंने एक नाटक कम्पनी भी बनाई थी। उनका शरीर भी सुगठित था। किशोरावस्था में ही उन्होंने एक व्यायाम शाला बनाई थी। इसलिए आज जब हम युवा पीढ़ी के सामने कोई आदर्श प्रस्तुत करने की बात हो तो सबसे पहले कम से कम मुझे तो स्वामी विवेकानंद का नाम ही याद आता है। दुर्भाग्य से नई पीढ़ी के सामने नायक के रूप में फिल्मी कलाकार ही आ कर खड़े हो जाते हैं। इन कलाकारों में ज्यादातर का जीवन अनेक लंपटताओं से भरा रहता है। उनकी हरकतें देख कर युवक समझते हैं कि यही सब हमें ग्रहण करना है। फटी चिथड़ी जींस फुलपैंट भी अब फैशन है. यह विवेकहीनता का चरम है. आज समाज में जो पतन नजर आता है, उसका असली कारण सिनेमा और टीवी के अश्लील कार्यक्रम भी है। इसलिए नई पीढ़ी का ध्यान इन सबसे हटाने के लिए कुछ न कुछ जतन करना जरूरी है। सिनेमा के नकली नायक हमारे आदर्श बिल्कुल नहीं हो सकते । हमारे सामने महान नायकों की लम्बी फेहरिश्त मौजूद है। इनमें स्वामी विवेकानंद अग्रिम पंक्ति में हैं। उन्होंने किसी पटकथा के सहारे अभिनय नहीं किया और न संवाद बोले। उन्होंने तो अपने महान ग्रंथों का अवगाहन करके जीवन जीने की नई वैज्ञानिक-आध्यात्मिक-दृष्टि अर्जित की।

स्वामी जी युवकों से कहते थे, कि ”अपने पुट्ठे मजबूत करने में जुट जाओ। वैराग्य-वृत्ति वालों के लिए त्याग-तपस्या उचित है लेकिन कर्मयोग के सेनानियों को चाहिए-विकसित शरीर, लौह मांस-पेशियाँ और इस्पात के स्नायु।” तरुण मित्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने हमेशा यही संदेश दिया कि ”शक्तिशाली बनो। मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुँच सकोगे। तुम्हारे स्नायु और माँसपेशियाँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अच्छी तरह समझ सकोगे। तुम अपने शरीर में शक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों और उनकी अपार शक्ति को हृदयंगम कर पाओगे।” स्वामी विवेकानंद यह नहीं कहते थे, कि पूजा-पाठ करो, भगवत-भजन करो या अध्यात्म में डूब जाओ। वे अपने समकाल से काफी आगे की सोच वाले थे। वे दकियानूस नहीं थे। वैज्ञानिक दृष्टिसम्पन्न युवक थे। एक युवक जब एक बार स्वामी जी से मिला तो उसने कहा कि मैं घर के सारे दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करके आँखें मींच लेता हूँ। पर ध्यान ही नहीं लगाता। मन को शांति ही नहीं मिलती। तब स्वामी जी ने मुसकराते हुए कहा था, कि ”तुम सबसे पहले दरवाजे-खिड़कियाँ खोल दो और अपनी खुली आँखों से बाहर की दुनिया देखो। तुम्हें सैकड़ों गरीब-असहाय लोग दिखाई देंगे। तुम उनकी सेवा करो। इससे तुम्हें मानसिक शांति मिलेगी। वे गरीबों की सेवा करने के लिए सबको प्रेरित करते थे। भूखे को खाना खिलाना, बीमार को दवाई देना और जो अनपढ़ हैं उन्हें ज्ञान देना। यही है सच्चा अध्यात्म। इसी से मिलती है मन की शांति।”

स्वामी विवेकानंद का सौभाग्य था, कि उन्हें अपने माता-पिता से अच्छे संस्कार मिले। सत्य निष्ठा की सीख मिली। बेहतर गुरू मिले। रामकृष्ण परमहंस जैसे सच्चे मार्गदर्शक मिले। पिता विश्वनाथदत्त जी के असामयिक निधन के बाद घर चलाने के लिए नरेंद्र नाथ को नौकरी भी करनी पड़ी। यानी उनके जीवन में सघर्ष का यह दौर भी आया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन को कर्मयोग के साथ-साथ आध्यात्मिकता से भी अनुप्राणित करते रहे। और एक समय आया जब वे विदेश जाने से पहले स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित हुए और पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति की पहचान के रूप में आलोकित हो गए। स्वामी जी के जीवन एवं विचारों को पढ़ते हुए मैंने यह महसूस किया कि उन्होंने कहीं भी साम्प्रदायिकता को या नफरत को बढ़ाने वाले संकुचित विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं किया। उन्हाने विदेश में प्रवचन देते हुए कहा था, कि ”हमें मानवता को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है और न कुरान। लेकिन यह काम वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय द्वारा किया जाना है। मानवता को सीख देनी है कि सभी धर्म उस अद्वितीय धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जो एकत्व है। सभी को छूट है कि वे जो मार्ग अनुकूल लगे उसको चुन लें।” स्वामी जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है, कि वे ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ कहने के बावजूद वैसे हिंदू बिल्कुल नहीं थे, जैसे आजकल के नजर आते हैं। ये लोग अलगाव फैलाने का काम करते हैं। दंगे भड़काने में सहायक होते हैं। हमें बनना है तो स्वामी विवेकानंद जैसा हिंदू बनना है। शिकागों में व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, कि ”मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमें से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ। वे स्वयं चाहे किसी रूप में उपासना करते हों। मैं मुसलमानों के मस्जिद जाऊँगा। मैं ईसाइयों के गिरजा में क्रास के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना करूँगा: मैं बौद्ध मंदिरों में जा कर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। मैं वन में जा कर हिंदुओं के साथ ध्यान करूँगा जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।” सच्चा मनुष्य धर्मस्थलों में भेद नहीं करता। मुझे याद आती है गोस्वामी तुलसीदास की पंक्तियाँ कि ‘माँग के खाइबो और मसीद में सोइबो’। महान ग्रंथ रामचरित मानस के रचयिता ने समाज को जागरण का पथ दिखाने के साथ यह भी साबित कर दिया कि मुझे कट्टर हिंदू समझने की भूल न करना। कोई भी सच्चा ज्ञानी साम्प्रदायिक बातें नहीं करेगा। स्वामी जी का समूचा जीवन-दर्शन देखें तो वे कहीं भी यह नहीं कहते कि हिंदुओं, तुम अपनी ताकत पहचानो और जो विधर्मी हैं, उनका नाश कर दो। या फिर यह भी नहीं कहते कि यह देश केवल तुम्हारा है। जो गैर हिंदू हैं उन्हें यहाँ रहने का हक नहीं है। उल्टे स्वामी जी समूची उदारता के साथ बार-बार यही कहते हैं, कि च्मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।..मनुष्य। केवल मनुष्य ही हमें चाहिए। समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना को देख कर वे आहत होते थे इसीलिए उन्होंने कहा था, ”भूल कर भी किसी को हीन मत मानो। चाहे वह कितना ही अज्ञानी, निर्धन अथवा अशिक्षित क्यों न हो और उसकी वृत्ति भंगी की ही क्यों न हो क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वे सब भी हाड़-माँस के पुतले हैं और हमारे बंधु-बांधव हैं।”

कुल मिला कर देखें तो स्वामी विवेकानंद अपने आप में समूची पाठशाला हैं। यहाँ आने वाला गंभीर विद्यार्थी जीवन में कभी फेल हो ही नहीं सकता। हर हालत में पास ही होगा। बशर्ते वह इनकी पाठशाला में भरती तो होना चाहे. स्वामी जी का जीवन, उनका चिंतन हमें सौ साल बाद भी ऊर्जा से, जोश से भर देता है। वे अपने जीवन के चालीस साल भी पूर्ण नहीं कर सके थे। चालीस साल में उन्होंने दुनिया को जो ज्ञान दिया, जो दृष्टि दी, वह हमें मार्ग दिखाने के लिए पर्याप्त है। सिखों के दसवें गुरू गुरू गोबिंदसिंघ जी भी चालीस साल तक ही जीए मगर उन्होंने भी अपने जीवन को एक मिसाल बना दिया था। ये सब उदाहरण हैं जिन्हें देख कर लगता है कि प्रतिभा के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं रहता। ऐसे अनेक उदाहरण है जो हमें बताते हैं, कि विचारों का अमृत-पान कराने में युवा पीढ़ी का ही ज्यादा अवदान है। गाँधी जी भले ही अस्सी साल के आसपास हमारे बीच से गए लेकिन उनका युवाकाल में ही अपने कर्म से दक्षिण अफ्रीका और और बाद में भारत आ कर सामाजिक जागरण का सूत्रपात कर दिया था। चालीस साल की उम्र में लिखी गई उनकी कृति ‘हिंद स्वराज’ आज भी ताजा लगती है। इसलिए यह मान लेना कि युवा काल मौजमस्ती का काल होता है, बहुत बड़ी नादानी है। मूर्खतापूर्ण सोच है। युवा पीढ़ी को गुमराह करने की साजिश है। स्वामी विवेकानंद के जीवन-वृत्त को देखें तो हम कह सकते हैं कि एक युवक अगर ठान ले तो वह अपने जीवन को नरेंद्रनाथ से विवेकानंद में तब्दील कर सकता है। इसलिए आज की युवा पीढ़ी को समझाया जाना चाहिए, या उसे खुद समझना चाहिए कि उसके नायक रुपहले पर्दें के नकली हीरों नहीं हो सकते। उसे नायक तलाश करना है तो पीछे मुड़ कर देखना होगा। अतीत के पन्ने खंगालने होंगे। इतिहास से गुजरना होगा। भारत को भारत बनाने में युवा पीढ़ी का ही महती योगदान रहा है।

आश्चर्य होता है,कि सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने जैसा भारत देखा था, आज अनेक मोर्चो पर भारत की वैसी की वैसी हालत बनी हुई है। इसलिए लगता है, कि विवेकानंद के सपने को पूरा करने का दायित्व हम सब का है। युवा पीढ़ी का है। उन्होंने एक बार कहीं कहा था, कि ”ओ माँ, जब मेरी मातृभूमि गरीबी में डूब रही हो तो मुझे नाम और यश की चिंता क्यों हो? हम निर्धन भारतीयों के लिए यह कितने दु:ख की बात है, कि जहाँ लाखों लोग मुट्ठी भर चावल के अभाव में मर रहे हों, वहाँ हम अपने सुख-साधनों के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। भारतीय जनता का उद्धार कौन करेगा? कौन उनके लिए अन्न जुटाएगा? मुझे राह दिखाओ माँ, कि मैं कैसे उनकी सहायता करूँ?” स्वामी विवेकानंद आज अगर सशरीर मौजूद होते तो वे अपनी यही वेदना फिर दुहराते हुए यही बात फिर कहते। आज भी देश में लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अशिक्षा, अज्ञानता से ग्रस्त लोगों की संख्या भी करोड़ों में है। धर्म-अध्यात्म अब भरपेट लोगों का शगल बन गया है। एक पाखंड चारों तरफ पसरा हुआ है कि लोग बड़े धार्मिक हैं। दरिद्रनारायण के उन्नयन पर कोई खर्च नहीं करना चाहता लेकिन धर्मस्थल या अपनी जाति या समाज के भवन बनाने में लोगों की बड़ी दिलचस्पी देखी जा रही है। ऐसे समय में निर्धन वर्ग से नैतिकता या धर्म-कर्म की बातें करना बेईमानी है। छल है। स्वामी विवेकानंद जी ने गरीबी के मर्म को समझा था, इसीलिए वे कहते थे, ”पहले रोटी, फिर धर्म। जब लोग भूखों मर रहे हों, तब उनमें धर्म की खोज करना व्यर्थ है। भूख की ज्वाला किसी भी मतवाद से शांत नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नही, जब तक तुम गरीबों के लिए तड़प नहीं सकते, जब तक तुम उन्हें अपने शरीर का अंग नहीं समझते, जब तक तुम अनुभव नहीं करते कि तुम और सब दरिद्र और धनी, संत और पापी-उसी एक असीम पूर्ण के -जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश हैं, तब तक तुम्हारी धर्म-चर्चा व्यर्थ है।” आज इस दौर में बदहाली में कोई कमी नहीं आई है। ये और बात है कि हमारा समाज इंटरनेट के युग में प्रविष्ट कर चुका है, गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी मोबाइल हो सकता है, लेकिन उसकी बदहाली कम नहीं हुई है। बेरोजगारी, भूख, वर्गभेद, छुआछूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, सामंती मनोवृत्ति, राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति आदि अनेक बुराइयों से ग्रस्त भारतीय समाजको एक बार फिर स्वामी विवेकानंद के चिंतनों से रूबरू कराने का समय आ गया है। आज की अधिकांश तरुणाई फिल्मी हीरो-हीराइनों को अपना रोल मॉडल बनाने की कोशिश कर रही है। जबकि हमारे रोल मॉडल स्वामी विवेकानंद समेत अनेक युवा क्रांतिकारी, विचारक ही युग प्रवर्तक हो सकते हैं इसलिए हमें अतीत की ओर निहारते हुए ही भविष्य का सफर तय करना होगा।

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