Monday, January 24, 2011
द्रोणाचार्य या चाणक्य
द्रोणाचार्य या चाणक्य?
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शशांक शेखर
सर्वविदित है कि भारत विविधताओं का देश रहा है। यहाँ गुरु को गोविन्द से ऊपर का स्थान दिया जाता है। भारत सदैव अपने अस्तित्व को महान बनाए रखने के लिए अतीत का सहारा लेता आया है। साथ ही वर्तमान के धुरंधरों को सम्मानित करने के लिए अतीत के महान व्यक्तियों के नाम को उपाधि मानता रहा है। ऐसे ही महान काल्पनिक व्यक्ति थे द्रोणाचार्य जिनके नाम से भारत के गुरुओं (खेल) को सम्मानित किया जाता है।
द्रोण ने अपने काल में कुरु वंश के नौनिहालों को धनुर्विद्या के साथ-साथ युद्ध की बारीकियों से अवगत कराया। ऐसे में वह महान बन जाते हैं पर उनके साथ तमाम ऐसी बातें भी हैं जिनसे उनके महानता पर प्रश्न चिह्न लगते हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के खंडपीठ ने भी माना है कि द्रोण ने भील जाति के एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग कर अपनी जातीयता और प्रिय शिष्य के प्रति अपने लगाव को उजागर किया था।
जातीयता के प्रति उनका दृष्टिकोण यहीं ख़त्म नहीं होता। प्रशिक्षण के दौरान भी निम्न जाति के प्रति उनकी हीन भाव को देखा जा सकता है। उन्होंने कर्ण को प्रशिक्षण इस आधार पर नहीं दिया कि वह क्षत्रिय नहीं थे पर उन्होंने अपने बेटे अश्वस्त्थामा को प्रशिक्षित किया जबकि द्रोण खुद क्षत्रिय नहीं थे। कुरुक्षेत्र में भी अपने बेटे के मरने की झूठी ख़बर सुन कर ही वह अस्त्र-शस्त्र त्याग कर धरा पर बैठ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।
ऐसे सोच को हम कैसे भारत का आदर्श मान लें? क्यों हम उनके नाम का गुणगान और सम्मान करें?
हम क्यों भूल रहे हैं उस आदर्शवादी को जिसने भारत को महान बनाने में जातिवाद जैसी विकृति से ऊपर उठकर पूरे मुल्क को एक सूत्र में पिरोने की कसमें खाई।
भारत को सबसे प्रतापी राजा निम्न जाति से मिला जिसे तैयार किया एक ब्राह्मण ने। जी हां, हम बात कर रहे हैं चंद्रगुप्त मौर्य और उनके गुरू चाणक्य की। देश के मानस में स्वर्ण युग का सपना भरने वाले कौटिल्य ने कभी यह नहीं सोचा कि एक निम्न वर्ग के व्यक्ति को वह शिक्षा क्यों दें?
दरअसल, भारत में गुरू की महिमा इस कल्पना पर टिकी है कि उसका स्वयं का कोई जाति नहीं होता और अपने शिष्य में वह सिर्फ एक बच्चा देखता है। उसे बच्चे की जाति से कोई मतलब नहीं होता। अपनी शरण में लेकर गुरु शिष्य के इस अवधारणा को पुष्ट करना ही उसका काम है। वह अपने शिष्य की जाति, रंग, संप्रदाय, अमीरी, गरीबी से कोई मतलब नहीं रखता। गुरु के लिए तो सब बराबर है और यह भावना कौटिल्य में थी न कि द्रोण में । फिर वे भारत के आदर्श गुरु कैसे हो सकते हैं?
यह बात मान सकते हैं कि चाणक्य की ज्यादा प्रसिद्धि इस बात को लेकर थी कि वे राजनीति के विद्वान हैं। उन्हें राजनीतिक दांव पेंचो की वजह से शायद खेलों के लिए आदर्श गुरू नहीं माना जा सकता। लेकिन इस बात को मानने से पहले यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि राजनीति आज इतनी गंदी हो गई है वरना राजनीति अपने आप में एक पवित्र विद्या है जो कठिन साधना के बाद सीखी जाती है। जानने वाले इस बात से भी इनकार नहीं करेंगे कि चंद्रगुप्त मौर्य एक बहादुर योद्या और दमदार लड़ाका थे।
हम पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधकृष्णन के जन्म दिवस पर शिक्षक दिवस मनाते हैं, पर भूल जाते हैं चाणक्य को जिन्होंने मौर्य वंश के बालक को भारत का प्रधान बनाया। जिद्द पर आकर नन्द वंश का समूल नष्ट किया। सिकंदर जैसे योद्धा के सामने एकजुट होकर लड़ने की प्रेरणा दी।
कलयुग में जन्मे वे एकमात्र ऐसे धरोहर हैं जिन्हें आज पूरा विश्व उनके दिए हुए तर्कों और नीति के लिए याद करता है, पर भारत सरकार आज उनसे उदासीन है। कारण महज ही राजनीतिक है। चाणक्य की राजनीति में हत्या लूटमार, और साजिश नहीं थी। वहां जनता का विश्वास पाकर उसका शोषण करने की नीति नहीं थी। जनता का हक मारकर अपनी तिजोरी भरने की शिक्षा चाणक्य ने अपने शिष्य को कभी नहीं दिया। वोट के लिए हिन्दू मुस्लिम का मजबूत कॉन्सेप्ट नहीं था। इसलिए चाणक्य आज के राजनेताओं के लिए उपयोगी नहीं हैं।
चाणक्य नीति का पहला अध्याय है कि किसी भी सूरत में राज्य की जनता की बेहतरी और खुशहाली। जिसका आज की राजनीति में कोई स्थान नहीं है। चाणक्य की नीति में ए.राजा नहीं था, मायावती और जयललीता भी नहीं थी। नरेंद्र मोदी का गोधरा और मनमोहन सिंह का धृतराष्ट रवैया भी नहीं था। वहां मंत्री बनने के लिए जनता का करीबी होना जरूरी था, राडिया के करीबी होना जरूरी नहीं था।
इसलिए चाणक्य भारत गुरु नहीं हो सकते। मुझे अफसोस है कि मैं इस बात को तनिक देर से समझा !
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