दिल्ली, मुबंई और गोवा सहित देश के अन्य महानगरों में में घरेलू काम पर लगी हैं। इनके मंडला जिले की कई हजार आदिवासी युवतियां वहां रईसों के बंगलों बारे में आम धारणा है कि वहां इनका हर तरह से शोषण किया जाता है, कुछ एक ऐसे मामले सामने भी आए हैं। लेकिन गरीब आदिवासी बालाओं की एक सच्चाई यह भी है कि अपने घर में भी उनकी अस्मत कम खतरे में नहीं है, और यह खतरा उन्हे खुद उनसे अधिक है जिनके कंधों पर उनके विकास कर जिम्मेदारी है..
हाल ही मैं एक डिप्टी कलेक्टर और एक पुलिस कर्मी के बेटे द्वारा एक दलित नाबालिग लड़की से गैंग रेप के चलते जिले में आदिवासी और दलित गरीब युवतियों का वर्षो से हो रहा यौन शोषण फिर चर्चा में है। इससे दो माह पहले ही जिले के एक पुलिस इंस्पेक्टर के खिलाफ एक आदिवासी युवती के द्वारा दर्ज कराई गई बलात्कार की शिकायत के बाद,अब इस नए मामले के सामने आने से यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर जिले में गरीब आदिवासी और दलित युवतियां अपनी सुरक्षा के लिए किस पर भरोसा करें? वैसे भी डिप्टी कलेक्टर का बेटा ओमप्रकाश प्रधान, पुलिस कर्मी का बेटा संदीप और बिछिया थाने में पदस्थ रहे टीआई गंगा प्रसाद दुबे ऐसे अकेले नहीं हैं जिनका नाम इस सूची मेंशामिल है। इससे पहले भी शासकीय कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा इस आदिवासी इलाके में शोषण की कई कहानियां चर्चा में रह चुकी हैं। लेकिन अशिक्षा और भय के अंधकार में वे चर्चाएं इलाके के घने जंगलों में ही गुम हो गई और कानून की चौखट तक कभी नहीं पहुंच पाई। कुछ एक बिरले मामले ही पुलिस तक पहुंचे हैं जिनमें से लगभग दो साल पहले एक मामला धुर नक्सली प्रभावित इलाके की पांडीबारा चौकी में दर्ज किया गया था जहां एसएएफ के एक हवलदार ने तुरूर गांव की महिला के साथ बंदूक की नोक पर बलात्कार किया था। इसी तरह महीने भर पहले ही जिले की मबई रेंज के रेंजर को भी दो नाबालिग लड़कियों के साथ अश्लील हरकतें करने के आरोप में गिफ्तार किया गया था। गौरतलब है कि 59 वर्षीय रेंजर रामचंद कोरी अपनी बस्ती की दस और बारह साल की दो बहनों को केला, बिस्किुट खिलाने के बहाने घर बुलाकर उनके साथ अश्लील क्रियाकलाप किया करते थे। इस मामले में रेंजर के रसोईये ने भी उनके खिलाफ गवाही दी थी।
मंडला ही नहीं अन्य जिले की तरह अन्य आदिवासी बाहुल्य जिलों की तस्वीर भी इससे अलग नहीं है। लेकिन सरकारी अधिकारियों द्वारा आदिवासी युवतियों के यौन शोषण के मामले एक तो भय के कारण सामने नहीं आ पाते और जो आते हैं उनमें से ज्यादातर मामलों को कानून की चौखट पर ही दबा दिया जाता है। उदाहरण के लिए एक माह पहले ही झाबुआ जिले में जिस आदिवासी युवती ने एक पुलिस के आरआई पर नौकरी दिलाने के नाम पर सालो साल यौन शोषण का आरोप लगाते हुए एसपी को आवेदन दिया था लेकिन दबाव के चलते दो दिन बाद ही उस युवती ने अपना आवेदन वापस ले लिया था। डिप्टी कलेक्टर मंडला के बेटे ओमप्रकाश प्रधान और आरक्षक पुत्र द्वारा अपने चार और दोस्तों के साथ मिलकर साढे तेरह वर्षीय दलित बालिका के सामूहिक बलात्कार का मामला भी कभी सामने नहीं आता क्योंकि घटना छह माह पुरानी है और पीड़ित युवती तथा उसके पिता पुलिस तथा प्रशासन के डर से चुप बैठ चुके थे। वो तो पिता के पद और पैसे के गुरूर में आरोपियों ने बलात्कार के दौरान बनाया अश्लील एमएमएस बाजार में बेच दिया इसलिए मामला सामने आ सका।
नाम न छापने की शर्त पर जिले के एक अधिकारी का कहना है कि गरीबी और अशिक्षा के चलते आदिवासी युवतियों का शोषण जिले में आम है। दुर्भाग्य से इसमें कुछ शासकीय अधिकारी और कर्मचारियों के शामिल होने की चर्चा भी अक्सर सुनी जाती है। अधिकांश मामले डर के कारण थाने तक नहीं पहुंचते। यही कारण है कि यहां से बाहर महानगरों में जाकर काम तलाशने वाली युवतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इनमें से कई के बारे में कहा जाता है कि उनका वहां यौन शोषण होता है लेकिन यह पलायन इसलिए नहीं रुकता क्योंकि आदिवासी लोगों में से अनेक का मानना है कि यहां भी हालात अलग नहीं है वहां कम से कम इज्जत का खाना, कपड़ा तो मिलता है और काम के बदले वेतन तो मिलता है।
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