Wednesday, October 20, 2010

बिहार में एक बार फिर जनमत की बिसात बिछ चुकी है।

बिहार में एक बार फिर जनमत की बिसात बिछ चुकी है।-


नीतीश कुमार
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के तीन दशक से ज्यादा के राजनीतिक जीवन में यह पहला चुनाव ऐसा है जो उनके नाम पर लड़ा जा रहा है। जेडीयू-बीजेपी गठबंधन तो सत्ता में वापसी के लिए नीतीश के नाम की माला जप ही रहे हैं। विपक्ष का भी पूरा चुनाव अभियान नीतीश के इर्दगिर्द ही केंद्रित हो गया है। नीतीश के लिए ये चुनाव लॉन्चिंग पैड साबित हो सकते हैं। अगर वे बड़ी हुई सीटों के साथ वापसी कर गए तो विपक्ष नेताओं के बीच उनका कद बहुत ऊंचा उठ जाएगा।

नीतीश अपने कामों की दम पर जनता की अदालत में जा रहे हैं। पिछले पांच साल में नीतीश ने बिहार में उम्मीद की लौ जला दी है। नीतीश कहते हैं कि इन उम्मीदों को पूरा करने के लिए उन्हें एक मौका और दिया जाए। नीतीश की राजनीति बिहार में मजबूत इच्छा शक्ति की राजनीति मानी जाती है। नीतीश से पहले के 15 साल बिहार में अराजक शासन के माने जाते हैं। कानून-व्यवस्था की हालत बहुत खराब थी। मां-बाप जवान लड़कों को भी शाम होने के साथ ही घर में छिपा लेते थे। सड़के सूनी हो जाती थीं। मगर आज शहरों में ही नहीं कस्बों और गांवों में भी लोग जब चाहे आते-जाते हैं। अगर कानून व्यवस्था का मुद्दा वोटों में तब्दील हो गया तो माना जा रहा है कि नीतीश की अच्छे बहुमत के साथ वापसी पक्की है।

लालू यादव
लालू प्रसाद यादव के लिए यह चुनाव उनके राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है। लोकसभा चुनाव में इनकी पार्टी आरजेडी की बुरी गत हुई थी। राज्य में लगातार 15 साल शासन करना उनके लिए लाभ के बदले घाटे का सौदा बना हुआ है। नीतीश के एक कार्यकाल की तुलना उनके और राबड़ी देवी के तीन कार्यकालों से की जा रही है। लालू कामकाज के तुलनात्मक विश्लेषण से बचने के लिए दूसरे मुद्दे उठा रहे हैं। जातिगत समीकरण के साथ उनके पास अब केवल करिश्मा ही बचा है।

लालू के लिए अपनी पार्टी बचाए रखने के साथ इन चुनावों में परिवार को एक बनाए रखना भी बड़ी चुनौती बन गई। उनके दोनों साले सुभाष और साधु यादव उन्हें छोड़ गए हैं। बेहद मजबूरी में उन्हें अपने 20 साल के क्रिकेटर बेटे तेजस्वी को समयपूर्व राजनीति में उतारना पड़ा है। अच्छे बेट्समैन तेजस्वी अपनी शुरुआत बहुत ही टफ पिच पर कर रहे हैं। अपने राजनीतिक वारिस तेजस्वी को मैदान में लाने का फैसला ही बताता है कि लालू कितने संकट में हैं। हालांकि, मुकाबला नीतीश और लालू के बीच ही है। मगर नंबर एक और दो के बीच फासला कितना रहेगा यह बताना अभी मुश्किल है।

राहुल गांधी
कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी को बिहार के अपने पहले चुनावी दौरे पर कहना पड़ा कि बिहार में कांग्रेस की वापसी में देर लग सकती है। राहुल यूपी की तरह बिहार में भी क्षेत्रीय दलों को पीछे धकेल कर कांग्रेस को वापस राजनीति के केन्द में लाना चाहते थे। मगर आपस में ही लड़ते रहे कांग्रेसियों ने ही राहुल के रास्ते में कांटे बिछा दिए।

राहुल ने इस साल के शुरू में जब बिहार का दौर किया और उसके फौरन बाद मुंबई जाकर बिहार के युवाओं के देश भर में कहीं भी जाकर काम करने के अधिकार की आवाज बुलंद की तो बिहार की राजनीति में कांग्रेस का ग्राफ तेजी के साथ ऊपर चढ़ा। राहुल ने जाति और धर्म की राजनीति के मुकाबले युवाओं और भविष्य की राजनीति की बात करके युवाओं में एक नया उत्साह भर दिया था। मगर राज्य के इंचार्ज जगदीश टाइटलर उस समय पप्पू यादव, उनकी पत्नी रंजीता रंजन और लालू के साले साधु यादव जैसे संदिग्ध छवि के लोगों को पार्टी में आगे बढ़ाने में लगे हुए थे। राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष अनिल शर्मा ने उनका विरोध किया। नतीजे में चुनाव से ठीक पहले दोनों की कुसीर् गई। मगर तब तक पाटीर् की छवि खराब हो चुकी थी।

राज्य में पार्टी साफ संदेश देने में सफल नहीं हुई।

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