केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय ने गत पंद्रह सितंबर 2010 को कोस्टल रेगुलेशन जोन (सीआरजेड) 2010 शीर्षक से जो अध्यादेश जारी किया है, उसमें देश के मत्स्यजीवियों के हितों की निर्मम तरीके से अनदेखी की गई है। सीआरजेड के लागू होने के बाद बंगाल के दो लाख और पूरे देश के एक करोड़ मत्स्यजीवी संकट में पड़ जाएंगे।
सीआरजेड की पांच सौ मीटर के भीतर आवासन परियोजनाओं से लेकर विशेष आर्थिक क्षेत्र व अन्य संयंत्रों को लाने के प्रस्ताव से लगता है कि अतीत की सारी गलतियों को वैधता देना इसका एक मकसद रहा है। इसमें किसी को भी संदेह नहीं है कि सीआरजेड के लागू होने के बाद समुद्र इलाकों खासतौर पर किनारों पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा।
समुद्र किनारों का क्षरण रोकना असंभव होगा। नए प्रस्ताव के मुताबिक अब हर समुद्र किनारे का नया मानचित्र बनाना होगा। उसके साथ ही नया कोस्टल जोन मैनेजमेंट प्लान भी बनाना होगा। इस प्रक्रिया में कई समुद्र किनारों के नाम भी बदले जाने की संभावना है। हो सकता है कि सीआरजेड-1 का नाम सीआरजेड-2 हो जाए। वैसे यह नाम परिवर्तन इतना आसान नहीं होगा। यह परिवर्तन सीआरजेड 1991 के नियमों के तहत ही किया जा सकेगा।
नया अध्यादेश दरअसल सीआरजेड 1991 का परिवर्तित रूप है। 1991 के कानून में संशोधन कर नए परिवर्तन नहीं लाए गए हैं, बल्कि अध्यादेश जारी कर उसे बदला गया है। नए अध्यादेश में एक नया शब्द जोड़ा गया है- विपद रेखा। यह नहीं बताया गया है कि इस शब्द का व्यवहार क्यों किया गया है।
मत्स्यजीवियों ने जिस शब्द को बाहर रखा था, नया शब्द देकर सीआरजेड 2010 में उसे वापस लाया गया है। विपद रेखा जब जमीन की तरफ पांच सौ मीटर आ जाएगी तो वह इलाका सीआरजेड के नियंत्रण में आ जाएगा। विपद रेखा जब समुद्र की तरफ जाएगी तो वह इलाका सीआरजेड के नियंत्रण में नहीं माना जाएगा। कहने की जरूरत नहीं कि पर्यावरण व वन मंत्रालय के साथ विश्व बैंक का जो करार हुआ था, उसे वैधता देने के लिए ही 500 मीटर क्षेत्र की विपदा रेखा को जोड़ा-घटाया गया है।
नए अध्यादेश में जल क्षेत्र को जोड़ा गया है पर उसके लिए यह नहीं दर्शाया गया है कि उसका अलग से अर्थतंत्र कैसे विकसित किया जाएगा। स्वामीनाथन कमेटी ने भी जल क्षेत्र में पर्यावरण की रक्षा पर जोर दिया था पर नए अध्यादेश में जल क्षेत्रों में इसके लिए अलग से अर्थतंत्र का बंदोबस्त नहीं किया गया है। मत्स्यजीवी सदा जल क्षेत्र के पर्यावरण की रक्षा के लिए चिंतित रहे हैं। उनकी चिंताओं पर नए अध्यादेश ने चुप्पी ओढ़ ली है।
नए अध्यादेश में कुछ राज्यों के समुद्र इलाकों को अतिरिक्त महत्व दिया गया है। अतिरिक्त महत्व देने का कारण नहीं बताया गया है। यह नहीं बताया गया है कि मुंबई, गोवा, केरल व सुंदरवन को विशेष सुविधाएं किस आधार पर दी जाएंगी? मुझे तो लगता है कि पर्यावरण व वन मंत्रालय की मंशा नए अध्यादेश को कड़ाई से लागू कर मैनेजमेंट प्लान की आड़ में समुद्र इलाकों को बड़े उद्योगपतियों के हवाले करना है और इसके लिए मत्स्यजीवियों को कई सुयोग-सुविधा नहीं देने का जैसे संकल्प कर लिया गया है।
समुद्र किनारों का चेहरा सुरक्षित रखने के लिए सबसे पहले जरूरी है कि मत्स्यजीवियों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। समुद्र इलाकों में मछली मारने के अधिकार से मत्स्यजीवियों को कदापि वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। सीआरजेड-3 में दो सौ मीटर क्षेत्र में मछली मारने का अधिकार मत्स्यजीवियों को दिया गया है पर सीआरजेड-1 और सीआरजेड-2 से उन्हें बहिष्कृत करना निर्मम होगा।
उनके घर बनाने के अधिकार में भी कटौती की गई है। यदि कोई कानून एक बड़ी आबादी के हितों को रौंदते हुए बनता है तो उसे जनता ठुकरा देती है। मुझे यह देखकर राहत मिली है कि मत्स्यजीवियों के संगठन नेशनल फिशवर्कर्स फोरम ने सीआरजेड 2010 के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। सभी जन संगठनों को उनके आंदोलन का समर्थन करना चाहिए।
समुद्र किनारों का चेहरा सुरक्षित रखने के लिए सबसे पहले जरूरी है कि मत्स्यजीवियों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। समुद्र इलाकों में मछली मारने के अधिकार से मत्स्यजीवियों को कदापि वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय ने गत पंद्रह सितंबर 2010 को कोस्टल रेगुलेशन जोन (सीआरजेड) 2010 शीर्षक से जो अध्यादेश जारी किया है, उसमें देश के मत्स्यजीवियों के हितों की निर्मम तरीके से अनदेखी की गई है। सीआरजेड के लागू होने के बाद बंगाल के दो लाख और पूरे देश के एक करोड़ मत्स्यजीवी
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