Monday, January 3, 2011

अदालतें कानून बना सकती और लागू कर सकती हैं या नहीं।


सुप्रीम कोर्ट ने 11 नवम्बर को पांच सदस्यीय संविधान पीठ को इस बात पर विचार करने के लिए कहा कि क्या अदालतें कानून बना सकती हैं और उन्हें लागू कर सकती हैं जो पूरी तरह विधायिका और कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में आता है। हालांकि शीर्ष अदालत ने साथ ही यह भी कहा कि मूल्यवृद्धि और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर अदालतें सरकार को आदेश जारी नहीं कर सकतीं। कानून बनाने और उनके कार्यान्वयन का अधिकार विधायिका और कार्यपालिका के पास ही है। केरल के कॉलेजों के प्राचार्यों द्वारा छात्र संघों और इसके चुनावों से जुड़े मुद्दों की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा, कल को हम संसद भंग नहीं कर सकते और यह नहीं कह सकते कि हम ही संसद हैं और कानून बनाने लगें।


न्यायमूर्ति मरकडेय काटजू और न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली की पीठ ने पांच जजों की संविधान पीठ का हवाला दिया जो इस इस बात पर विचार कर रही है कि अदालतें कानून बना सकती और लागू कर सकती हैं या नहीं। पीठ ने कहा, आज मूल्यवृद्धि और बेरोजगारी बड़े मुद्दे हैं। ये मुद्दे सामाजिक जरूरतों से जुड़े हुए हैं। लेकिन क्या हम इस बारे में सरकार को निर्देश दे सकते हैं क्योंकि मूल्यवृद्धि से काफी प्रभावित होने के बावजूद हमारे पास ऐसा अधिकार नहीं है।

जजों ने कहा कि न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली अपने हाथ में ले लेना अनुचित ही नहीं खतरनाक भी है। तीनों क्षेत्रों की अपनी-अपनी भूमिका है। जजों को इससे बचना चाहिए अन्यथा इसके बड़े दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। पीठ ने पूर्व में सुप्रीम कोर्ट द्वारा देशभर में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव कराने के लिए दिशा-निर्देश तय करने के बारे में दिए गए आदेश पर कड़ी आपत्ति जताते हुए यह मामला उठाया। पीठ ने कहा, हम (अदालतें) विधायिका के कार्यक्षेत्र में दखल कर रहे हैं..हां, लेकिन ये खतरनाक क्षेत्र हैं। हमारा मानना है कि यह लोकतंत्र के लिए अनुचित और खतरनाक है। पीठ ने कहा कि इस मुद्दे पर संविधान पीठ द्वारा विचार करना जरूरी है क्योंकि इससे गंभीर संवैधानिक महत्व के सवाल जुड़े हैं।


संविधान पीठ जिन मुद्दों पर विचार करेगी वे हैं —:

क्या सुप्रीम कोर्ट का 22 सितंबर को लिंगदोह समिति की रिपोर्ट का कार्यान्वयन करने के लिए दिया गया अंतरिम आदेश वैध था?
क्या यह न्यायिक विधेयक के दायरे में आता है?
क्या न्यायपालिका कानून बना सकती है और अगर हां तो इसकी सीमा कहां तक है?
क्या न्यायपालिका ऐसे न्यायिक आदेश जारी करने के लिए सामाजिक समस्याओं का हवाला दे सकती है?

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