Sunday, November 7, 2010

राष्ट्रवाद पर सियासत का दंश



संस्कृति समाज को ऐक्य भाव से जोड़ती है। वहीं राजनीति समाज के बीच अलगाववाद के बीज बोती है। जब-जब देश ने सांस्कृतिक एकता के तंतुओं को कमजोर किया है, स्वतंत्रता खतरे में पड़ी है। यह समझने के लिए भारत में इस्लामपूर्व के इतिहास के पृष्ठ खंगालना पडेंगे। लेकिन दुर्भाज्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 64 वर्ष पूरे होने को है, हमें इस्लाम के आगमन और अंग्रेजों के राज्यारोहण की प्रायोजित घटनाएं ही इतिहास के रूप में परोसी जाती है। यहां व्यक्ति की चारित्रिक उत्कृष्टता और राष्ट्रीय चरित्र का दिगदर्शन मानों नहीं के बराबर होता है। त्रेतायुग में एक मंथरा ने राम को चौदह वर्ष का वनवासी दिला दिया था। यह राष्ट्रीय चरित्र की उत्कृष्टता का ही कमाल था कि भरत ने चौदह वर्ष राम के लिए सिंहासन रिक्त रखा और उनकी उत्कट प्रतीक्षा की। उन्हें राज्य सौंप कर ही अपने व्यक्तिगत चरित्र और राष्ट्र की पारंपरिक सात्विकता का सबूत दिया। आज राजनीति में मंथराओं की भूमिका में सियासी दल है। इन्हें हर बात में वोट नजर आते हैं। चाहे देश में बंगलादेशी घुसपैठ का मामला हो अथवा आतंकवाद, नक्सलवाद, धर्मांतरण इन्हें सत्ता लिप्सा से बड़ी कोई चीज नहीं है। भारत का साफ्ट टारगेट बन जाना इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। यही कारण है कि विदेशी शक्तियां और उनके इशारे पर काम करने वाले देश के दुश्मन भारत की सुरक्षा के लिए जोखिम बन चुके है। पिछले पांच छ: वर्षों में देश का ऐसा कोई भू-भाग नहीं बचा, जहां विस्फोट की गंध से जनता का सकून नहीं छिना हो। सुरक्षा बलों के हाथ पीठ से बाधे जा रहे हंै। उनके सामने मानवाधिकार का हौआ खड़ा दिया गया है। यदि सुरक्षा बलों ने अपना काम अंजाम किया और देश के दुश्मनों को बहादुरी पूर्वक मुकाबला कर जमीदोंज कर दिया तो हमारे राजनेता ऐसे आतंकवादियों के घरों पर अनुकंपा राशि का चेक लेकर पहुंचने और मातम मनाने में विलंब नहीं करते। कांग्रेस के एक महासचिव बटाला हाउस दिल्ली में मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों की याद में आजमगढ़ पहुंचे गये और जिस मुठभेड़ में शहीद हुए पुलिस अधिकारी को केंद्र सरकार ने सम्मानित किया उसे ही आत तायी घोषित कर आए। सियासत में शहीदों का ऐसा अपमान भारत में ही हो सकता है। राष्ट्र के विरुद्ध द्रोह करने वालों के लिए जहां अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में विशेष सुरक्षा कानून है, भारत में टाडा जैसे कानून सांप्रदायिक करार दे दिये गये। पोटा कानून को समाप्त किया जाना केंद्र में 2004 में प्रतिष्ठित यूपीए सरकार की उपलब्धियों में शुमार कर लिया गया। जब भारत में टाडा और पोटा जैसे आंतरिक सुरक्षा के कानूनों को समाप्त करने के लिए संसद में बहस चल रही पाकिस्तान में बैठी खुफिया एजेंसी तालियां बजाकर इसका स्वागत कर रही थी। भारत में घुसपैठ को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने चिंता व्यक्त की और कहा कि बंगलादेशी घुसपैठ विदेशी आक्रमण के समान गंभीर चुनौती है। इसके लिए पूर्वोत्तर के राज्यों में विशेष रूप से असम और केंद्र सरकार को प्रभावी संवैधानिक कार्यवाही करना चाहिए। लेकिन कांग्रेस ने इतनी सत्तालोलुपता का सबूत दिया कि माथा शर्म से झुक गया। असम की कांग्रेस सरकार ने घुसपैठियों को निश्चिंत होकर रहने की घोषणा कर दी। फारेनर्स एक्ट के तहत कार्यवाही किये जाने में घुसपैठियों को अपनी नागरिकता सिद्ध करना पड़ती। यह केंद्र और असम को गवारा नहीं हुआ। उसने घुसपैठिया सिद्ध करने की जवाबदेही सरकार पर थोपकर घुसपैठियों को सुरक्षा कवच दे दिया। आंतरिक सुरक्षा के प्रति यह कांग्रेस की प्रतिबद्धता पर सवालिया निशान है। बंगलादेशी घुसपैठ से दिल्ली सहित कई राज्य परेशान है। कई राज्यों में तो आबादी का संतुलन गड़बड़ा गया है। नक्सलवाद से निपटने के लिए पूर्व वर्ती एनडीए सरकार ने एकीकृत कमान का गठन कर केंद्र और राज्यों में फौलादी संकल्प भरा था। नक्सलवाद के मेरुदंड पर प्रहार होना शुरू हुआ था। लेकिन जब आंध्र में चुनाव सपने दिखे चंद्र बाबू नायडू को सत्ता से बेदखल करने के लिए दुरभि संधि की गयी और नक्सलियों से गलबतियां डाल ली गयी। कांग्रेस की नरमी ने तिरुमाला से पशुपतिनाथ तक रेड गलियारा बनाने में मदद की। बारह राज्यों में नक्सलवाद केंसर बन चुका है। नक्सलियों, माओवादियों ने जब चाहे जहां चाहे रेलगाडिय़ां तक बंधक बनाकर अपनी बढ़ती शक्ति का अहसास कर दिया है। भला हो पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल का जो नक्सलियों को अपनी ही संतान बता गये और उनके उत्तराधिकारी पी.चिदंबरम साहिब नक्सलियों, आतंकवादियों से निपनटे में अपनी अपराधिक विफलता को छिपाने के लिए भगवा आतंकवाद की शब्दावली खोज लाए। उन्होंने जरा भी शर्म महसूस नहीं की कि वे भगवा आतंकवाद की बात कहकर खुद तो हास्य का पात्र बन ही रहे हैं, पड़ोसी देशों के हाथ में हथियार सौंप रहे हैं कि देश में होने वाली आतंकवादी घटनाओं में सीमा पार से नहीं पहुंच रहे हैं। इसके लिए तो भारत में ही परस्पर फसाद की स्थिति बन रही है। केंद्र सरकार की इन लचर दलीलों ने ही चरमपंथी अलगावादी नेता अली शाह गिलानी और बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधती राय को भूखे नंगे हिंदुस्थान से कश्मीर को आजाद कराने का आह्वान करने का हौंसला प्रदान कर दिया। भारत से जम्मू-कश्मीर को आजादी और स्वायत्तता मांगने के जिस गुनाह के लिए शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद गवांकर जेल की हवा खानी पड़ी थी वही गुनाह जब मौजूदा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने किया तो कांग्रेस और गृहमंत्री चिंदबरम उमर अब्दुल्ला की पीठ सहलाते नजर आये है। चीन और पाकिस्तान के एजेंडा को अंजाम देने वालों के हौंसले को बुलंद रखना कांग्रेस और केंद्र सरकार की जब मजबूरी बन जाए तो आंतरिक सुरक्षा देश के एजेंडा पर कहां रह जाती है। सशक्त बल विशेष अधिकार कानून कांग्रेसी सरकार ने ही विवशता में बनाया था और संसद ने पारित किया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मोहर लगायी थी। लेकिन जब पाकिस्तान भारत पर युद्ध थोप कर बार-बार पराजित हो चुका तो उसने आतंकवाद को अपनी स्टेट पालिसी में शामिल किया। भारत के जांबाज फौजियों और सुरक्षा बलों ने आईएसआई से प्रशिक्षित विशेष दहशतगर्दों को भी मार-मार कर छटी का दूध याद दिला दिया तो पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में भाड़े के अलगाववादियों को कठपुतली बनाया। फौजियों पर बर्बरता के झूठे आरोप लगाने का दौर शुरु हो गया। पाकिस्तान की मंशा जम्मू-कश्मीर से फौज की विदायी का माहौल तैयार कराने की रही है। इसलिए भीड़ द्वारा पत्थरबाजी सुरक्षा बलों पर गोलियां चलाने और पुलिस केंद्रों में आगजनी की घटनाएं शुरु करायी गयी। हुर्रियत कांफ्रेंस ने कलेंडर जारी कर कफ्र्यू का कार्यक्रम जारी कर प्रदेश में असामान्य हालत बनाने की ठान ली। जिसे फौज और सुरक्षा बलों ने नाकाम कर दिया। हालांकि इस दौरान 110 लोगों को गोलियां का शिकार होना पड़ा। इसमें अधिकांश नौजवान है जो भाड़े पर अशांति फैलाने को लगाये गये। कई माह घाटी बंद रही। स्कूल कालेज बंद रहे। लेकिन अलगाववादियों के बेटे दिल्ली में पढ़ते रहे। उमर अब्दुल्ला ने ईद के मौके पर जुलूस निकालने की अनुमति देकर श्रीनगर के लाल चौक पर पाक समर्थक नारे लगवा दिये। गो इंडिया की आवाज सुनाई देने लगी। पथराव की घटनाओं के एवज में राजनीतिक पैकेज, आर्थिक पैकेज, आजादी और स्वायत्तता की मांग उठने लगी। सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून समाप्त करने, फौज को हटाने की मांग के सामने डा. मनमोहन सिंह और पी.चिदम्बरम भी घुटने टेकते दिखे और उन्होंने तीन वार्ताकारों की नियुक्ति कर दी। केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर में जाकर कट्टर पंथियों से एक कदम आगे जाकर वह काम कर दिखाया जिसका साहस कांग्रेस अब तक घोषित रूप से कहने और करने में कतरा रही थी। वार्ताकार दिलीप पडगांवकर और उनके साथियों ने कहा कि जम्मू कश्मीर में अशांति के इस दौर में यदि संविधान संशोधन की नौबत आती है तो इसकी भी गुंजाइश खोजी जाना चाहिए। कांग्रेस के समर्थन में उमर अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री की गद्दी पर है। वे इतिहास के इतने बड़े ज्ञाता बन गये कि उन्होंने कहा कि जम्मू कश्मीर भारत में शामिल हुआ था विलय नहीं हुआ। जबकि विलय के साक्षी उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला स्वयं थे। डॉ.मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी ऐसे राष्ट्र विरोधी बयान पर चुप्पी तोडऩे का साहस नहीं दिखा पा रही है। जबकि जम्मू कश्मीर के लिए स्वायत्तता जैसी मांग पर शेख अब्दुल्ला को गद्दी गंवाना पड़ी थी। देश की आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्र की अखण्डता जैसे महत्वपूर्ण मामलों में कांग्रेस और यूपीए सरकार शतुमुर्ग की मुद्रा में बनी रहना चाहती है। उसे लगता है कि तुष्टीकरण से यदि वोट बढ़ते हैं, तो देश की अखण्डता सत्ता सिहांसन की तुलना में मायने नहीं रखते। धर्म निरपेक्षता के छद्म को आगे ले भागने की स्पर्धा में नित नयी समस्याएं खड़ी करना धर्म निरपेक्षतावादी दलों का शगल बन गया है। चौबीसों घंटों उनकी नजर वोटों पर रहती है। देश की सुरक्षा, अखण्डता उनके लिए कोई प्राथमिकता नहीं है। 1965 के पाक भारत युद्ध ने हजारों हिंदुओं को पाकिस्तान से पलायन करने को विवश किया। उनकी संपत्तियां पाकिस्तान में लूट ली गयी। पाकिस्तान ने पलायन कर गये हिंदुओं को संपत्ति से खारिज करने के लिए कानून बना लिया। इसकी प्रतिक्रिया में भारत सरकार ने भी कानून बनाया जिसे शत्रु संपत्ति अधिनियम नाम दिया गया। लेकिन जब तुष्टीकरण की बयार बही कांग्रेस ने भारत का शत्रु संपत्ति कानून खारिज कर पाकिस्तान गये अल्पसंख्यकोंं की संपत्ति बहाल करने का मन बना लिया है। आखिर सवाल पलायन कर भारत आए हिंदुओं की संपत्ति का नहीं वोटों की अहमियत है। घाटी से खदेड़े गये कश्मीर पंडितों पर गौर करना प्राथमिकता नहीं है। इनकी बात करना मानो सांप्रदायिकता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, हिंदुत्व का विरोध धर्मनिरपेक्षता का पर्याय बनाया जा रहा है। राम का नाम लेना सांप्रदायिक और उर्स में शिरकत करना धर्मनिरपेक्षता मानी जा रही है। संसद पर आतंकवादी हमला कनरे वाले अफजल गुरु को दी गयी फांसी की सजा पर अमल किये जाने को खतरा माना जा रहा है। अफजल गुरु की फांसी की सजा में रहम की पहली अपील गुलाम नयी आजाद ने की। नतीजा यह हुआ कि अफजल गुरु की फांसी की फाइल गृह मंत्रालय द्वारा दिल्ली सरकार को भेजी गयी। लेकिन गृह मंत्री (पूर्व) शिवराज पाटिल ने हिदायत दी कि इसे अधिकतम लंबित रखा जाए। यह खुलासा किसी और ने नहीं शीला दीक्षित ने किया है। अफजल गुरु को हीरो बनाया जा रहा है। कांग्रेस को राष्ट्रवाद का प्रवर्तन कभी रास नहीं आया। सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण में गांधीजी सहमत थे। मगर पं.नेहरू नहीं चाहते थे कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ जाए। डा. राजेंद्र प्रसाद गये। सरदार पटेल ने भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को कुछ हद तक समर्थन दिया। लेकिन अब जब कांग्रेस विचारधारा विहीन हो चुकी है उसका एक मात्र लक्ष्य राष्ट्रवादी विचारधारा को कंलकित करना रह गया है। देश में हुए विस्फोटों, आतंकवादी घटनाओं के लिए अमेरिका की फेडरल इन्वेस्ट्रीगेशन एजेंसी ने पाकिस्तान में लश्करे ताइबा जैसे संगठनों को जवाबदेह बताया है उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घसीटना तुष्टीकरण का चरम है। इसी तरह इंद्रेश कुमार को लपेटे जाने में राजनीतिक पूर्वाग्रह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। साध्वी प्रज्ञा सिंह को विस्फोट की साजिश में शामिल कर लिया गया। तीन साल में कोई साक्ष्य नहीं जुटा पायी। साध्वी प्रज्ञा को जमानत नहीं मिले यह धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है। लेकिन अरुंधती राय ने राजधानी दिल्ली में अलानिय भारतीय संविधान का मखौल उड़ाया। जम्मू-कश्मीर की अवाम को जिहाद के लिए ललकारा, भारत को भूखा नंगा देश बताकर सवा अरब जनता को अपमानित किया तो भारत के गृहमंत्री पुलिस दरोगा को अरुंधती राय की तकरीर की समीक्षा करने को कह रहे है। कांग्रेस और केंद्र की यूपीए सरकार के दोहरे माप दंडों की सजा देश का भुगत रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा कह चुके है कि जब भारत के प्रधानमंत्री बोलते है तो सारी दुनिया अवाक होकर सुनती है। ओबामा को कैसे कहा जाए कि प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह बोलते भी सिर्फ अमेरिका के हित में है। असैन्य परमाणु समझौता पर डा.मनमोहन सिंह इस्तीफा देने की धमकी तो दे सकते है लेकिन देश में नासूर बन चुके भ्रष्टाचार के नियंत्रण महंगायी, बेलगाम आतंकवाद के नियंत्रण के बारे में उन्हें चुप्पी साधना ही रास आता है। सियासत के दंश से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दबाया जा सकता है। इस ख्याल में कांग्रेस की गलतियां लम्हा ने गलतियां की और सदियों से सजा पायी की कहावत चरितार्थ कर रही है। - भरतचंद्र नायकए-58, ई-6, अरेरा कालोनी, भोपाल, दूरभाष- 2564119



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