Sunday, November 21, 2010

विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों? – मौलाना वहीदुद्दीन खान



हज या ईदुल-अज़्हा के मौक़े पर जानवर की कुरबानी दी जाती है। इस कुरबानी के दो पहलू हैं। एक इसकी स्पिरिट और दूसरे उसकी ज़ाहिरी सूरत। स्पिरिट के ऐतबार से कुरबानी एक क़िस्म का संकल्प (pledge) है। कुरबानी की सूरत में संकल्प का मतलब है व्यवहारिक संकल्प ( pledge in action), संकल्प के इस तरीक़े की अहमियत को आम तौर पर माना जाता है, इसमें किसी को भी कोई असहमति नहीं है।

यहां इसी तरह की एक मिसाल दी जाती है, जिससे अन्दाज़ा होगा कि कुरबानी का मतलब क्या है ?

नवम्बर 1962 ई. का वाक़या है। हिन्दुस्तान की पूर्वी सरहद पर एक पड़ौसी ताक़त के आक्रमण की वजह से ज़बर्दस्त ख़तरा पैदा हो गया था। सारे मुल्क में सनसनीख़ेज़ी की कैफ़ियत छाई हुई थी।


उस वक़्त क़ौम की तरफ़ से जो प्रदर्शन हुए, उसमें से एक वाक़या यह था कि अहमदाबाद के 25 हज़ार नौजवानों ने संयुक्त रूप से यह संकल्प किया कि वे मुल्क के बचाव के लिये लड़ेंगे और मुल्क के खि़लाफ़ बाहर के हमले का मुक़ाबला करेंगे, चाहे इसी राह में उन्हें अपनी जान दे देनी पड़े। यह फ़ैसला करने के बाद उन्होंने यह किया कि उनमें से हर आदमी ने अपने पास से एक-एक पैसा दिया और इस तरह 25 हज़ार पैसे जमा हो गए। इसके बाद उन्होंने उन पैसों को उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को सौंप दिया। पैसे देते हुए उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री से कहा कि ये 25 हज़ार पैसे हम 25 हज़ार नौजवानों की तरफ़ से अपने आप को आपके हवाले करने का निशान है- To give ourselves to you

उपरोक्त नौजवानों ने अपनी कुरबानी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन 25 हज़ार पैसों से किया। 25 हज़ार पैसे खुद अस्ल कुरबानी नहीं थे। वे अस्ल कुरबानी का सिर्फ़ एक प्रतीक (token) थे। यही मामला जानवर की कुरबानी का है। कुरबानी के अमल में जानवर की हैसियत सिर्फ़ प्रतीकात्मक है। जानवर की कुरबानी के ज़रिये एक मोमिन प्रतीकात्मक रूप से इस बात का संकल्प करता है कि वह इसी तरह अपनी ज़िन्दगी को खुदा की राह में पूरी तरह लगा देगा। इसीलिये कुरबानी के वक़्त यह कहा जाता है कि ‘अल्लाहुम्मा मिन्का व लका‘ यानि ऐ खुदा ! यह तूने ही दिया था, अब इसे तेरे ही सुपुर्द करता हूं।
जहां तक कुरबानी की स्पिरिट का सवाल है, उसमें किसी को कोई असहमति नहीं हो सकती। यह हक़ीक़त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत है कि इस क़िस्म की स्पिरिट के बिना कभी कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। अलबत्ता जहां तक कुरबानी की शक्ल का संबंध है यानि जानवर को ज़िब्ह करना, उसपर कुछ लोग शक व शुब्हा ज़ाहिर कर सकते हैं। उनका कहना है कि जानवर को ज़िब्ह करना तो एक बेरहमी की बात है, फिर ऐसे सक बेरहमी के अमल को एक पवित्र इबादत में क्यों शामिल किया जाता है ?

इस मामले पर ग़ौर कीजिये तो मालूम होगा कि यह कोई हक़ीक़ी ऐतराज़ नहीं है, यह सिर्फ़ एक बेअस्ल बात है जो अंधविश्वासपूर्ण कंडिशनिंग (superstitious conditioning) के नतीजे में पैदा हुई है। इसके पीछे कोई इल्मी बुनियाद नहीं है।


हलाल और हराम का सिद्धांत

खाने-पीने के मामले में कुछ चीज़ें इनसान के लिए हलाल हैं और कुछ चीज़ें हराम हैं। हलाल और हराम का यह फ़र्क़ किस बुनियाद पर क़ायम होता है ?


एक वर्ग का यह कहना है कि अस्ल हराम काम यह है कि किसी ज़िन्दगी को हलाक किया जाए। इस मामले में उनका फ़ार्मूला यह है-किसी जीव को मारना वर्जित है और किसी जीव को न मारना सबसे बड़ी नेकी है-


Killing a sensation is sin and vice versa .


यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।


इस्लाम में भोजन में हलाल और हराम का सिद्धांत बुनियादी तौर पर यह है कि चन्द ख़ास चीज़ों को इस्लाम में हराम क़रार दिया गया है। इनके अलावा बाक़ी तमाम चीज़ें इस्लाम में जायज़ आहार की हैसियत रखती हैं।


हलाल और हराम का यह उसूल जो इस्लाम ने बताया है, वह प्रकृति के नियमों पर आधारित है। आज भी एक छोटे से वर्ग को छोड़कर सारी दुनिया हलाल और हराम के इसी उसूल का पालन कर रही है। यह छोटा सा वर्ग भी महज़ कहने के लिए अपना नज़रिया बताता है, वर्ना जहां तक अमल का ताल्लुक़ है, वह भी व्यवहारतः इसी प्राकृतिक नियम पर क़ायम है। मस्लन ये तमाम लोग आम तौर पर दूध और दही वग़ैरह इस्तेमाल करते हैं। पहले ये लोग इस ग़लतफ़हमी में मुब्तिला थे कि दूध और दही वग़ैरह जीव रहित आहार हैं, लेकिन अब वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि ये सब पूरी तरह जैविक आहार हैं। जिस आदमी को इस बात पर शक हो, वह किसी भी क़रीबी प्रयोगशाला (laboratory)में जाकर सूक्ष्मदर्शी (microscope) में दूध और दही को देख ले। एक ही नज़र में वह जान लेगा कि इस मामले में हक़ीक़त क्या है ?
इस्लाम में हलाल जानवर और हराम जानवर का जो फ़र्क़ किया गया है, वह बुनियादी तौर पर इस उसूल पर आधारित है कि मांसाहारी जानवर हराम हैं और वे जानवर हलाल हैं जो मांसाहारी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि जो जानवर जीवों को अपना आहार बनाते हैं, उनका मांस इनसान के लिए सेहत के ऐतबार से ठीक नहीं होता। दूसरे जानवरों का मामला यह है उनके अन्दर ख़ास कुदरती निज़ाम होता है जिसके मुताबिक़ ऐसा होता है कि ज़मीन पर उपजी हुई जो चीज़ वे खाते हैं उसे वे विशेष क्रिया द्वारा प्रोटीन में तब्दील करते हैं और इस तरह वह हमारे लिए स्वास्थ्यवर्धक और सुपाच्य बन जाता है।


आहारः इनसान की ज़रूरत

भोजन इनसान की अनिवार्य ज़रूरत है। पुराने ज़माने में आहार के सिर्फ़ दो मतलब हुआ करते थे- ‘ज़ायक़ा लेना और भूख मिटाना‘, लेकिन मौजूदा ज़माने में ये दोनों चीज़ें इज़ाफ़ी बन चुकी हैं। आधुनिक युग में वैज्ञानिक शोध के बाद यह मालूम हुआ कि भोजन का मक़सद है कि जिस्म को ऐसा आहार मुहैया करना जिसे मौजूदा ज़माने में संतुलित आहार (balanced diet) कहा जाता है। जिसमें बुनियादी तौर पर 6 तत्व शामिल हैं-

A balance diet is one which cotains carbohydrate, protein, fat, vitamins, mineral salts and fibre in the correct proportions .


इन तत्वों में से प्रोटीन (protein) की अहमियत बहुत ज़्यादा है क्योंकि प्रोटीन का हमारे जिस्म की बनावट में बुनियादी हिस्सा है।

Protein is the main building block of our body .


प्रोटीन का सबसे बड़ा ज़रिया मांसाहार है। मांस से हमें उत्तम प्रोटीन मिलता है। मांस के अलावा अन्य चीज़ों से भी कुछ प्रोटीन मिलती है लेकिन वह अपेक्षाकृत निम्न स्तरीय होती है।
Meat is the best source for high-quality protein .

Plant protein is of a lower biological value .

मज़ीद यह कि मांसीय प्रोटीन और ग़ैर-मांसीय प्रोटीन का विभाजन भी सिर्फ़ समझने की ग़र्ज़ से है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है। इसलिये कि सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के बाद वैज्ञानिकों ने जो अध्ययन किया है उससे मालूम होता है कि सभी खाद्य सामग्री के अन्दर बेशुमार बैक्टीरिया मौजूद रहते हैं जो पूरी तरह जीवधारी होते हैं। मांस से भिन्न जिन खाद्य चीज़ों के बारे में समझा जाता है कि उनमें बड़ी मात्रा में प्रोटीन होता है मस्लन दूध, दही, पनीर वग़ैरह, वे सब बैक्टीरिया की सूक्ष्म प्रक्रिया के ज़रिये ही अंजाम पाता है। बैक्टीरिया का अमल अगर उसके अन्दर न हो तो किसी भी ग़ैर-मांसीय भोजन से प्रोटीन हासिल नहीं किया जा सकता।

बैक्टीरिया को विज्ञान की भाषा में माइक्रो-ओर्गेनिज्म (Micro organism) कहा जाता है, यानि सूक्ष्म जीव। इसके मुक़ाबले में बकरी और भेड़ वग़ैरह की हैसियत मैक्रो-ओर्गेनिज्म (macro-organism) की है यानि विशाल जीव। इस हक़ीक़त को सामने रखिये तो यह कहना बिल्कुल सही होगा कि

हर आदमी व्यवहारतः मांसाहार कर रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि तथाकथित शाकाहारी उसे सूक्ष्म जीवों के रूप में ले रहे हैं और नॉन-वेजिटेरियन लोग उसे बड़े जीवों के रूप में ले रहे हैं।

दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि हर इनसान का पेट एक बहुत बड़ा स्लॉटर हाउस की हैसियत रखता है। इस अदृष्ट स्लॉटर हाउस में रोज़ाना मिलियन एंड मिलियन सूक्ष्म जीव ख़त्म होते रहते हैं। इनकी संख्या इतनी ज़्यादा होती है कि सारी दुनिया में बड़े जानवरों के जितने स्लॉटर हाउस हैं उन सबमें कुल जितने जानवर मारे जाते हैं उनसे असंख्य गुना ज़्यादा ये सूक्ष्म जीव मारे जाते हैं।

इस सारे मामले का ताल्लुक़ रचयिता की सृष्टि योजना से है। उस रचयिता ने सृष्टि का जो विधान निश्चित किया है, वह यही है कि इनसान के जिस्म की आहार संबंधी ज़रूरत ज़िन्दा जीवों (living organism) के ज़रिये पूरी हो। प्राकृतिक योजना के मुताबिक़ ज़िन्दा जीवों को अपने अन्दर दाखि़ल किये बिना कोई मर्द या औरत अपनी ज़िन्दगी को बाक़ी नहीं रख सकता। उस रचयिता के विधान के मुताबिक़ ज़िन्दा चीज़ें ही ज़िन्दा वजूद की खुराक बनती हैं। जिन चीज़ों में ज़िन्दगी न हो, वे ज़िन्दा लोगों के लिए खुराक की ज़रूरत पूरी नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि वेजिटेरियनिज़्म (vegetarianism) और नॉनवेजिटेरियनिज़्म (non-vegetarianism) की परिभाषायें सिर्फ़ साहित्यिक परिभाषाएं हैं, वे वैज्ञानिक परिभाषाएं नहीं हैं।

इसका दूसरा मतलब यह है कि इस दुनिया में आदमी के लिये इसके सिवा कोई चॉइस (choice) नहीं है कि वह नॉन-वेजिटेरियन बनने पर राज़ी हो। जो आदमी ख़ालिस वेजिटेरियन बनकर ज़िन्दा रहना चाहता हो, उसे अपने आप को या तो मौत के हवाले करना होगा या फिर उसे एक और दुनिया रचनी होगी जहां के नियम मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों। इन दो के सिवा कोई दूसरी चॉइस (choice) इनसान के लिये नहीं है।
पूछा गया कि इस मसले का हल क्या है ?

डाक्टर स्वामीनाथन ने जवाब दिया कि सरकार को चाहिये कि वह अपने कार्यक्रमों के ज़रिये जनता में प्रोटीन के संबंध में चेतना जगाये (protein conciousness) और इस सिलसिले में लोगों को जागरूक बनाये।

ग़ैर-मांसीय आहार में प्रोटीन हासिल करने का सबसे बड़ा ज़रिया दालें हैं और जानवरों से हासिल होने वाले आहार मस्लन दूध में ज़्यादा आला क़िस्म का प्रोटीन पाया जाता है। प्रोटीन की ज़रूरत का अन्दाज़ा मात्रा और गुणवत्ता दोनों ऐतबार से करना चाहिए। औसत विकास के लिए प्रोटीन के समूह में 80 प्रकार के अमिनो एसिड होना (amino acid) ज़रूरी हैं। उन्होंने कहा कि ग़ैर-मांसीय आहार में कुछ प्रकार के एसिड मस्लन लाइसिन (lysine) और मैथोनाइन (methionine) का मौजूद होना आम है जबकि ज्वार में लाइसिन की ज़्यादती उन इलाक़ों में बीमारी का कारण रही है जहां का मुख्य आहार यही अनाज है।


हालांकि जानवरों से मिलने वाले आहार का बड़े पैमाने पर उपलब्ध होना अच्छा है लेकिन उनकी प्राप्ति बड़ी महंगी है क्योंकि वनस्पति आहार को इस आहार में बदलने के लिए बहुत ज़्यादा एनर्जी बर्बाद करनी पड़ती है। एग्रीकल्चरल इंस्टीच्यूट में दुनिया भर के सभी हिस्सों से गेहूं और ज्वार की क़िस्में मंगवाकर जमा की गईं और इस ऐतबार से उनका विश्लेषण किया गया कि किस क़िस्म में कितने अमिनो एसिड पाए जाते हैं ?

रिसर्च से इनमें दिलचस्प फ़र्क़ मालूम हुआ। इनमें प्रोटीन की मात्रा 7 प्रतिशत से लेकर 16 प्रतिशत तक मौजूद थी। यह भी पता चला कि नाइट्रोजन की खाद इस्तेमाल करके आधे के क़रीब तक उनका प्रोटीन बढ़ाया जा सकता है।

किसानों के अन्दर प्रोटीन के संबंध में चेतना पैदा करने के लिए डाक्टर स्वामीनाथन ने यह सुझाव दिया था कि गेहूं की ख़रीदारी के लिए क़ीमतों को इस बुनियाद पर तय किया जाए कि क़िस्म में कितना प्रोटीन पाया जाता है। उन्होंने बताया कि एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट ग़ल्ले के कुछ बाज़ारों में प्रोटीन जांच की एक सेवा शुरू करेगा और जब इत्मीनान बक्श तथ्य जमा हो जाएंगे तब यह पैमाना (creterion) क़ीमत तय करने की नीति में शामिल किया जा सकेगा। ग़ल्ले की मात्रा को बढ़ाने और उसकी क़िस्म (quality) को बेहतर बनाने के दोतरफ़ा काम को नस्ली तौर इस तरह जोड़ा जा सकता है कि ज़्यादा फ़सल देने वाले और ज़्यादा बेहतर क़िस्म के अनाज, बाजरे और दालों की खेती की जाए। बौद्धिक बौनेपन (intellectual dwarfism) का जो ख़तरा हमारे सामने खड़ा है, उसका मुक़ाबला करने का यह सबसे कम ख़र्च और फ़ौरन क़ाबिले अमल तरीक़ा है। (स्टेट्समैन, दिल्ली, 4 सितम्बर 1967)

डाक्टर स्वामीनाथन के उपरोक्त बयान के प्रकाशन के बाद विभिन्न अख़बारों और पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा की गई। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस (7 सितम्बर 1967) ने अपने संपादकीय में जो कुछ लिखा था, उसका अनुवाद यहां दिया जा रहा है-

‘इंडस्ट्री की तरह कृषि में भी हमेशा यह मुमकिन नहीं होता कि एक क्रियान्वित नीति के नतीजों का शुरू ही में अन्दाज़ा किया जा सके। इस तरह जब केन्द्र की सरकार ने अनाज की क़ीमत के सिलसिले में समर्थन नीति अख्तियार करने का फ़ैसला किया तो मुश्किल ही से यह सन्देह किया जा सकता था कि ग़ल्ले की बहुतायत के बावजूद प्रोटीन के फ़ाक़े (protein hunger) का मसला सामने आ जाएगा-जैसा कि इंडियन एग्रीकल्चरल इंस्टीच्यूट के डायरेक्टर डाक्टर स्वामीनाथन ने निशानदेही की है। ग़ल्लों पर ज़्यादा ऐतबार की ऐसी स्थिति पैदा होगी जिससे अच्छे खाते-पीते लोग भी कुपोषण (malnutrition) में मुब्तिला हो जाएंगे। जो लोग प्रोटीन के फ़ाक़े से पीड़ित होंगे , शारीरिक कष्टों के अलावा उनके दिमाग़ पर भी बुरे प्रभाव पड़ेंगे। डाक्टर स्वामीनाथन के बयान के मुताबिक़ यह होगा कि बच्चों की बौद्धिक क्षमता पूरी तरह विकसित न हो पाएगी। क्योंकि इनसानी दिमाग़ अपने वज़न का 80 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत तक 4 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पूरा कर लेता है, इसलिए इस कमी के नतीजे में एक बड़ा नुक्सान मौजूदा बरसों में ही हो चुका होगा। जिसका नतीजा यह होगा कि हमारे देश में बौद्धिक बौनापन (intellectual dwarfism) वजूद में आ जाएगा। इस चीज़ को देखते हुए मौजूदा कृषि नीति पर पुनर्विचार ज़रूरी है।

मगर वे पाबंदियां (limitations) भी बहुत ज़्यादा हैं जिनमें सरकार को अमल करना होगा। सबसे पहले यह कि कृषि पैदावार को जानवरों से मिलने वाले प्रोटीन में बदलना बेहद महंगा है। सरकार ने हालांकि संतुलित आहार (balanced diet) और मांस, अंडे और मछली के ज़्यादा मुहिम चलाई है लेकिन उसके बावजूद जनता आहार संबंधी अपनी आदतों (food habits) को बदलने में बहुत सुस्त है।

आम तौर पर भूख का मसला, जानवरों को पालने की मुहिम चलाने में ख़र्च का मसला और लोगों की आहार संबंधी आदतों (food habits) को बदलने की कठिनाई वे कारण हैं जिनकी वजह से सरकार को कृषि की बुनियाद पर अपनी नीति बनानी पड़ती है, लेकिन निकट भविष्य को देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि सरकार स्वामीनाथन की चेतावनी को नज़रअन्दाज़ न कर सकेगी। ऐसा मालूम होता है कि दूरगामी परिणाम के ऐतबार से कृषि नीति की कठिनाईयों को अर्थशास्त्र के बजाय विज्ञान हल करेगा। अनुभव से पता चला है कि अनाज ख़ास तौर पर गेहूं को प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाती है।

इसके बावजूद यह बात संदिग्ध है कि सिर्फ़ ग़ल्ले की पैदावार के तरीक़े में तब्दीली इस समस्या का समाधान साबित हो पाएगी। जब तक प्रोटीन की उत्तम क़िस्में रखने वाले गेहूं न खोज लिए जाएं। जब तक ऐसा न हो सरकार को चाहिए कि दालों और पशुपालन को इसी तरह प्रोत्साहित करे जिस तरह वह अनाज को प्रोत्साहित करती है।‘ (इंडियन एक्सप्रेस, 7 सितम्बर 1967)

जैसा कि मालूम है कि भारत को अगले बीस बरसों में एक नया और बहुत भयानक ख़तरा पेश आने वाला है। यह ख़तरा कृषि केन्द्र के डायरेक्टर के अल्फ़ाज़ में ‘बौद्धिक बौनेपन‘ का ख़तरा है। इसका मतलब यह है कि हमारी आने वाली नस्लें जिस्मानी ऐतबार से ज़ाहिरी तौर पर तो बराबर होंगी लेकिन बौद्धिक योग्यता के ऐतबार हम दुनिया की दूसरी सभ्य जातियों से पस्त हो चुके होंगे।

यह ख़तरा जो हमारे सामने है, उसकी वजह डाक्टर स्वामीनाथन के अल्फ़ाज़ में यह है कि हमारा आहार में प्रोटीन की मा़त्रा बहुत कम होती है। यहां की आबादी एक तरह के प्रोटीन के फ़ाक़े में मुब्तिला होती जा रही है। प्रोटीन भोजन का एक तत्व है जो इनसानी जिस्म के समुचित विकास के लिए अनिवार्य है। यह प्रोटीन अपने सर्वोत्तम रूप में मांस से हासिल होता है। मांस का प्रोटीन न सिर्फ़ क्वालिटी में सर्वोत्तम होता है बल्कि वह अत्यंत भरपूर मात्रा में दुनिया में मौजूद है और सस्ता भी है।

समापन
हिस्ट्री ऑफ़ थॉट का अध्ययन बताता है कि विचार के ऐतबार से इनसानी इतिहास के दो दौर हैं। एक विज्ञान पूर्व युग (pre-scientific era) और दूसरा विज्ञान के बाद का युग(post-scientific era)। विज्ञान पूर्व युग में लोगों को चीज़ों की हक़ीक़त मालूम न थी, इसलिए महज़ अनुमान और कल्पना के तहत चीज़ों के बारे में राय क़ायम कर ली गई। इसलिए विज्ञान पूर्व युग को अंधविश्वास का युग (age of superstition) कहा जाता है। उपरोक्त ऐतराज़ दरअस्ल उसी प्राचीन युग की यादगार है। यह ऐतराज़ दरअस्ल अंधविष्वासपूर्ण विचारों की कंडिशनिंग के तहत पैदा हुआ, जो परम्परागत रूप से अब तक चला आ रहा है।

अंधविश्वास के पुराने दौर में बहुत से ऐसे विचार लोगों में प्रचलित हो गए जो हक़ीक़त के ऐतबार से बेबुनियाद थे। विज्ञान का युग आने के बाद इन विचारों का अंत हो चुका है। मस्लन सौर मण्डल बारे में पुरानी जिओ-सेन्ट्रिक थ्योरी ख़त्म हो गई और उसकी जगह हेलिओ-सेन्ट्रिक थ्योरी आ गई। इसी तरह मॉडर्न केमिस्ट्री के आने के बाद पुरानी अलकैमी ख़त्म हो गई। इसी तरह मॉडर्न एस्ट्रोनोमी के आने के बाद पुरानी एस्ट्रोलोजी का ख़ात्मा हो गया, वग़ैरह वग़ैरह। उपरोक्त ऐतराज़ भी इसी क़िस्म का एक ऐतराज़ है और अब यक़ीनी तौर पर उसका ख़ात्मा हो जाना चाहिए।

गैलीलियो 17वीं षताब्दी का इटैलियन साइंटिस्ट था। उसने पुराने टॉलमी नज़रिये से मतभेद करते हुए यह कहा कि ज़मीन सौर मण्डल का केन्द्र नहीं है, बल्कि ज़मीन एक ग्रह है जो लगातार सूरज के गिर्द घूम रहा है। यह नज़रिया मसीही चर्च के अक़ीदे के खि़लाफ़ था। उस वक़्त चर्च को पूरे यूरोप में प्रभुत्व हासिल था। सो मसीही अदालत में गैलीलियो को बुलाया गया और सुनवाई के बाद उसे सख़्त सज़ा दी गई। बाद में उसकी सज़ा में रियायत करते हुए उसे अपने घर में नज़रबंद कर दिया गया। गैलीलियो उसी हाल में 8 साल तक रहा, यहां तक कि वह 1642 ई. में मर गया।

इस वाक़ये के तक़रीबन 400 साल बाद मसीही चर्च ने अपने अक़ीदे पर पुनर्विचार किया। उसे महसूस हुआ कि गैलीलियो का नज़रिया सही था और मसीही चर्च का अक़ीदा ग़लत था। इसके बाद मसीही चर्च ने साइंटिफ़िक कम्युनिटी से माफ़ी मांगी और अपनी ग़लती का ऐलान कर दिया। यही काम उन लोगों को करना चाहिए जो अतिवादी रूप से वेजिटेरियनिज़्म के समर्थक बने हुए हैं। यह नज़रिया अब साइंटिफ़िक रिसर्च के बाद ग़लत साबित हो चुका है। अब इन लोगों को चाहिए कि वे अपनी ग़लती स्वीकार करते हुए अपने नज़रिये को त्याग दें, वर्ना उनके बारे में कहा जाएगा कि वे विज्ञान के युग में भी अंधविष्वासी बने हुए हैं।

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