Monday, November 1, 2010

जाति की जकड़न कैसे टूटेगी

जाति की जकड़न कैसे टूटेगी



ज्ञानेंद्र रावत

Story Update : Monday, November 01, 2010 8:46 PM


पिछले दिनों गुजरात में एक वादी ने गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायाधीश से अपने मुकदमे की सुनवाई इस आधार पर नहीं करने का अनुरोध किया कि चूंकि न्यायाधीश ब्राह्मण हैं और वह दलित, इसलिए उसे उनसे न्याय नहीं मिलेगा। देश में पहले जाति के आधार पर लोकसभा, विधान सभा, गांव के प्रधान, सरपंच के चुनाव क्षेत्र, नौकरियों में स्थान आरक्षित होते थे। फिर लोग जाति का नेता, जाति का मास्टर, हैडमास्टर और अधिकारी चाहने लगे, फिर जाति के आधार पर जनगणना की मांग की गई, लेकिन अब अपनी ही जाति का न्यायाधीश भी मांगने लगे हैं। दूसरी घटना गोवा की है, जहां पेरनम तालुका में पोरसकादेन गांव के श्री माउली देवस्थान में पूजा-पाठ करके अपना गुजारा करने वाले सदाशिव उर्फ शंभू काले, उसकी पत्नी और तीन छोटे बच्चों को गांव और जाति से निकाल दिया गया। उनकी गलती यह थी कि ब्राह्मण होने के बावजूद उन्होंने एक दलित जोड़े को आशीर्वाद दिया था।

तीसरी घटना उत्तर प्रदेश के फफूंद की है, जहां अभिभावकों ने बच्चों को पहले ही जाति का ककहरा रटा दिया है। यहां की प्राइमरी पाठशाला, भाऊपुर में पढ़ने वाले बच्चों के सवर्ण अभिभावकों ने अपने बच्चों को समझा दिया है, दलित रसोइए के हाथ का बना मिड-डे मील न खाना। मास्टरों का एक वर्ग भी इस राय के साथ है। नतीजतन औरैया जिले के दर्जनों स्कूलों के सैकड़ों बच्चों ने मिड-डे मील खाना छोड़ दिया है।

दरअसल ऐसी घटनाओं ने हमारे संविधान में वर्णित उस अवधारणा को ही तार-तार कर दिया है जिसमें सभी देशवासियों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय, विचार, विकास, अभिव्यक्ति, उपासना की आजादी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान किए जाने की बात कही गई है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम संविधान में समाहित उद्देश्यों-लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाए हैं। इसके लिए निश्चय ही हमारी जातिगत अहमन्यता जिम्मेदार है, जिसके चलते सामाजिक समता का सिद्धांत आज मात्र एक इबारत बनकर रह गया है। नतीजतन शोषण की एक ऐसी संस्कृति विकसित हुई, जो देशवासियों को आपस में भिड़ाकर स्वयं पोषित होती रही है। इन्हीं तथ्यों के मद्देनजर हमारे संविधान निर्माताओं ने अस्पृश्य, कमेरी और पिछड़ी जातियों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत की व्यवस्था की। लेकिन वास्तव में जाति भेद के कारण यह लक्ष्य पाना मुश्किल है।

गुजरात की घटना निश्चय ही न्याय-व्यवस्था की प्रतिष्ठा पर सवाल उठाने की एक मिसाल है। हो सकता है, कल कोई हाई कोर्ट में यह भी रिट दायर करे कि उस अदालत में जज ही नहीं, पेशकार, चपरासी, आवाज लगाने वाले-ये सभी दलित हों, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने जाति को सामाजिक क्षेत्र से लेकर राजनीतिक क्षेत्र तक में प्रतिष्ठित करने का काम किया है। जहां जाति के आधार पर टिकट दिए जाते हों, मुख्यमंत्री, मंत्री का चयन किया जाता हो, वहां ऐसा न हो, इसकी कैसे उम्मीद की जा सकती है!

हमारा देश धर्म के आधार पर एक विभाजन देख चुका है और उसकी भीषण त्रासदी को झेल भी चुका है। जाति के आधार पर जनगणना की मांग के पीछे भी और कुछ नहीं, देश की आबादी में उनकी जाति का प्रतिशत कितना है, यह जानना ही मुख्य मकसद है। सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े राजनीति का हथियार और शिकार बन सकते हैं। विडंबना यह है कि बुद्धिजीवियों के विरोध के बावजूद जातिगत जनगणना के प्रति सरकार की सहमति का कारण समझ से परे है। एक समय जो जाति तोड़ने की बात किया करते थे, वही आज जाति की राजनीति में आंकठ डूबे हैं। दरअसल नेताओं के लिए जाति सर्वोपरि है। कहने भर के लिए देश है, जबकि असलियत यह है कि वे यदि जाति से दूर गए, तो उनकी खैर नहीं। खाप पंचायतों को भी राजनीतिक समर्थन हासिल है।

जो लोग सरकार से जाति जनगणना की बात करते हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जाति गिनने से नहीं, भूलने से और अंतर-जातीय विवाह से खत्म हो सकती है। आखिर ये जाति कहां ले जाएगी देश को! इसलिए जरूरी है कि जाति की जकड़न से बाहर निकलकर हम देश के विकास के लिए प्रयास करें और अपने सांविधानिक संस्थाओं पर यकीन करना सीखें।

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