Tuesday, February 1, 2011
समाज का काम सेक्स पर पहरा देने का है
सेक्स और समाज का सम्बन्ध ऐसा बन गया है जैसे समाज का काम सेक्स पर पहरा देने का है , सेक्स को मानव से दूर रखने का है . क्या वास्तव में समाज में सेक्स के लिए घृणा का भाव है ? क्या समाज आरम्भ से ऐसा था ? नहीं , ऐसा नहीं है . सेक्स यांनी काम घृणा का विषय नहीं होकर आनंद का और परमात्मा को पाने की ओर पहला कदम है . आप भी सोचते होंगे कि जब काम इतना घृणित क्रिया है ,भाव है तो पवित्र देवालयों , प्राचीन धरोहरों आदि की मंदिर के प्रवेश द्वार या बाहरी दीवारों पर काम भावना से ओत-प्रोत मैथुनरत मूर्तियाँ अथवा चित्र आदि क्यों हैं ? इस पोस्ट में आपकी इस साधारण शंका का समाधान करने का प्रयास किया गया है . प्रस्तुत है ” राकेश सिंह जी ” का यह आलेख : -
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आखिर हमारे देवालयों मैं अश्लील मूर्तियाँ/चित्र क्यों होते हैं? इधर-उधर बहुत छाना पर इसका वास्तविक और और सही उत्तर मिला मुझे महर्षि वात्सयायन रचित कामसूत्र में | वैसे तो बाजार में कामसूत्र पर सैकडों पुस्तक उपलब्ध हैं और लगभग सभी पुस्तकों में ढेर सारे लुभावने आसन चित्र भी मिलेंगे | पर उन पुस्तकों में कामसूत्र का वास्तविक तत्व गायब है | फिर ज्यादातर पाठक कामसूत्र को ६४ आसन के लिए ही तो खरीदता है, तो इसी हिसाब से लेखक भी आसन को खूब लुभावने चित्रों के साहरे पेश करता है | पर मुझे ऐसी कामसूत्र की पुस्तक हाथ लगी जिसमे एक भी चित्र नहीं है और इसे कामसूत्र की शायद सबसे प्रमाणिक पुस्तक मानी जाती है | महर्षि वात्सयायन रचित कामसूत्र के श्लोक थोड़े क्लिष्ट हैं, उनको सरल करने हेतु कई भारतीय विद्वानों ने इसपे टिका लिखी | पर सबसे प्रमाणिक टिका का सौभाग्य मंगला टिका को प्राप्त हुआ | और इस हिंदी पुस्तक में लेखक ने मंगला टिका के आधार पर व्याख्या की है | लेखक ने और भी अन्य विद्वानों की टीकाओं का भी सुन्दर समावेश किया है इस पुस्तक में | एक गृहस्थ के जीवन में संपूर्ण तृप्ति के बाद ही मोक्ष की कामना उत्पन्न होती है | संपूर्ण तृप्ति और उसके बाद मोक्ष, यही दो हमारे जीवन के लक्ष्य के सोपान हैं | कोणार्क, पूरी, खजुराहो, तिरुपति आदि के देवालयों मैं मिथुन मूर्तियों का अंकन मानव जीवन के लक्ष्य का प्रथम सोपान है | इसलिए इसे मंदिर के बहिर्द्वार पर ही अंकित/प्रतिष्ठित किया जाता है | द्वितीय सोपान मोक्ष की प्रतिष्ठा देव प्रतिमा के रूप मैं मंदिर के अंतर भाग मैं की जाती है | प्रवेश द्वार और देव प्रतिमा के मध्य जगमोहन बना रहता है, ये मोक्ष की छाया प्रतिक है | मंदिर के बाहरी द्वार या दीवारों पर उत्कीर्ण इन्द्रिय रस युक्त मिथुन मूर्तियाँ देव दर्शनार्थी को आनंद की अनुभूतियों को आत्मसात कर जीवन की प्रथम सीढ़ी – काम तृप्ति – को पार करने का संकेत कराती है | ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को ये स्मरण कराती है की जिस व्यक्ती ने जीवन के इस प्रथम सोपान ( काम तृप्ति ) को पार नहीं किया है, वो देव दर्शन – मोक्ष के द्वितीय सोपान पर पैर रखने का अधिकारी नहीं | दुसरे शब्दों मैं कहें तो देवालयों मैं मिथुन मूर्तियाँ मंदिर मैं प्रवेश करने से पहले दर्शनार्थीयों से एक प्रश्न पूछती हैं – “क्या तुमने काम पे विजय पा लिया?” उत्तर यदि नहीं है, तो तुम सामने रखे मोक्ष ( देव प्रतिमा ) को पाने के अधिकारी नहीं हो | ये मनुष्य को हमेशा इश्वर या मोक्ष को प्राप्ति के लिए काम से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है | मंदिर मैं अश्लील भावों की मूर्तियाँ भौतिक सुख, भौतिक कुंठाओं और घिर्णास्पद अश्लील वातावरण मैं भी आशायुक्त आनंदमय लक्ष्य प्रस्तुत करती है | भारतीय कला का यह उद्देश्य समस्त विश्व के कला आदर्शों , उद्देश्यों एवं व्याख्या मानदंड से भिन्न और मौलिक है | प्रश्न किया जा सकता है की मिथुन चित्र जैसे अश्लील , अशिव तत्वों के स्थान पर अन्य प्रतिक प्रस्तुत किये जा सकते थे/हैं ? – ये समझना नितांत भ्रम है की मिथुन मूर्तियाँ , मान्मथ भाव अशिव परक हैं | वस्तुतः शिवम् और सत्यम की साधना के ये सर्वोताम माध्यम हैं | हमारी संस्कृति और हमारा वाड्मय इसे परम तत्व मान कर इसकी साधना के लिए युग-युगांतर से हमें प्रेरित करता आ रहा है – मैथुनंग परमं तत्वं सृष्टी स्थित्यंत कारणम् मैथुनात जायते सिद्धिब्रह्म्ज्ञान सदुर्लाभम | देव मंदिरों के कमनीय कला प्रस्तरों मैं हम एक ओर जीवन की सच्ची व्याख्या और उच्च कोटि की कला का निर्देशन तो दूसरी ओर पुरुष प्रकृति के मिलन की आध्यात्मिक व्याख्या पाते हैं | इन कला मूर्तियों मैं हमारे जीवन की व्याख्या शिवम् है , कला की कमनीय अभिव्यक्ती सुन्दरम है , रस्यमय मान्मथ भाव सत्यम है | इन्ही भावों को दृष्टिगत रखते हुए महर्षि वात्सयायन मैथुन क्रिया, मान्मथ क्रिया या आसन ना कह कर इसे ‘योग’ कहा है |
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