Tuesday, February 1, 2011

लाल चौक पर अलगाववादियों का मलाल’


About जीतेन्द्र दवे
स्वतन्त्र पत्रकार और एडवर्टाइजिन्ग प्रोफेशनल मुम्बई. भारत मोबाइल ९८२०६६६५४६. फोन: २९२५९७६० ब्लॉग: www.sidhi-satt.blo26 जनवरी पर श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के लिए अपने युवा नेता अनुराग ठाकुर के नेतृत्व में भाजपा ने कमर कस ली है. तिरंगा लहराने की घोषणा के साथ ही जम्मू-कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुला ने एतराज जताना शुरू कर दिया था. थोड़ी उहापोह के बाद उसी के सुर में कोंग्रेस ने भी अपना सुर मिलाया और कम्यूनिस्टो ने भी. भाजपा नीत NDA के एक घटक जनता दल युनाइटेड के नेता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी साफ़ कर दिया कि वह इस झंडारोहण प्रयास के खिलाफ हैं. लाल चौक को तिरंगे से बचाने के लिए कश्मीर को छावनी में तब्दील कर दिया गया है और वहां जाने की कोशिश करने वालो की सरकार ने धरपकड़ शुरू कर दी है.


विभिन्न ब्लोग्स, साइट्स समेत कई अखबारों में देश के बुद्धिजीवियों ने भी भाजपा के इस प्रयास पर आपत्ति जताते हुए लिखा है. किसी का तर्क है कि इस से कश्मीर में हालात खराब होंगे. मानो अभी हालात बेहतर हो!! अधिकाँश चैनलों पर इस विषय में सार्थक चर्चा की उम्मीद करना ही बेकार है. कोई ये भी कह रहा है कि भाजपा यह राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है. अगर ऐसा है तो खुद उमर अब्दुला सहित तमाम विरोधी पहल करते कि आओ हम मिलकर तिरंगा फहराते हैं. और सन्देश देते कि ये देखो कश्मीर में तिरंगा शान से लहरा सकता है. इससे भाजपा का कथित राजनीतिक फ़ायदा होने की गुंजाइश भी ख़त्म हो जाती. लेकिन इस पहल के विरोधी किसी भी संगठन या व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया. और ना ही करने की नीयत दिखाई. हमें याद रखना चाहिये कि भाजपा लाल चौक पर अपना झंडा नहीं बल्कि देश का तिरंगा फहराने की कोशिश कर रही है. यह राजनीति नहीं बल्कि एक चुनौती है, जिसका सामना करने के लिए अब तक की सभी केंद्र और घाटी की सरकारे मुंह छिपाती रही हैं. और मजे कि बात ये है कि, आज जिस हालात की दुहाई दी जा रही रही हैं उसके लिए जिम्मेदार लोग ही इस चुनौती को राजनीती करार दे रहे हैं.


कानूनन श्रीनगर का लालचौक भारत का हिस्सा है. वहां से जाना प्रतिनिधी चुनकर विधानसभा और संसद में जाते हैं. तो फिर वहा तिरंगा फहराने पर किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिये…? अलगाव वादियों के अपने हित है लेकिन उम्र अब्दुला और कोंग्रेस समेत इस पहल के तमाम विरोधियो का विरोध बेमानी है, अतार्किक है. किसी पराये देश में, पराई धरती पर तिरंगा लहराने की गुस्ताखी तो नहीं की जा रही है.


यहाँ सवाल भाजपा जैसे किसी दल या किसी एक प्रदेश तक सीमित नहीं है. बल्कि सवाल आतंकवाद के खिलाफ हमारी नीयत और नीतियों का है. देश की अखण्डता और एकता का है. आखिर घुटने टेकने की राजनीति कब तक करते रहेंगे. चंद अलगाव वादी ताकतों की ‘भावनाओं’ का ध्यान रखते हुए हम कब तक खुद को कमजोर साबित करते रहेंगे. क्या पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और पत्थर फेंकू गिरोह हमारे देश के आम नागरिक और तिरंगे से ऊपर हैं? क्या हम सेना और भारत-प्रेमी आम कश्मीरी सहित बाकी के भारतीयों का मनोबल बढाने के लिए तिरंगा लहराने कि कोशिश का स्वागत नहीं कर सकते? पार्टी लाइन से ऊपर उठकर इस प्रतीकात्मक पहल का साथ ना दे पाए तो कोई बात नहीं, कम से कम आतंकी ताकतों का मनोबल बढे ऐसा विरोध करने से तो बच सकते हैं. ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ का गान करनेवाले आम भारतीय की आशाओं का हमारे पास क्या जवाब है ? इन हालात में तो दिभ्रमित आम कश्मीरी भी सोचेगा कि , यहाँ तो अलगाव वादी ही ताकतवर है , तो उन्ही के साथ जाने में भलाई है . वह चाहकर भी देश की मुख्य धारा से जुड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगा .


इस पूरे प्रकरण में जहां भाजपा और तिरंगा फहाराने को कटिबद्ध राष्ट्रवादी ताकते एक तरफ नजर आ रही हैं तो उमर अब्दुला, कोंग्रेस, कम्युनिस्ट और अलगाववादी वादी ताकते दूसरी तरफ. यह दृश्य हमें सोचने को विवश करती है कि क्या हमारी नीतियाँ और नेता ही प्रो-मानवता, प्रो-सेकुलरिज्म आदि का लबादा ओढ़ते-ओढ़ते प्रो-टेररिज्म नहीं हो चले हैं. सोचिये अगर ऐसी ही असहाय स्थिती सरदार पटेल दिखाते तो देश की क्या शक्ल होती ?? यदि ऐसा है तो यह देश के लिए बहुत ही घातक प्रवृत्ति होगी.

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