Wednesday, February 16, 2011

क्या भारतीय सत्ता पीडीपी की राष्ट्रविराधी हरकतों पर अंकुश लगाएगी?


नई दिल्ली [विष्णु गुप्त]। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी जैसी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक प्रक्रिया का दमन क्यों नही होना चाहिए? क्या भारतीय सत्ता पीडीपी की राष्ट्रविराधी हरकतों पर अंकुश लगाएगी? अगर नहीं तो फिर भारतीय संप्रभुता इसी तरह लहूलुहान और संकटग्रस्त होती रहेगी? इसका लाभ दुश्मन देश उठाते रहेंगे और हम अपने दुश्मन देश के नापाक इरादों और साजिशों का शिकार होते रहेंगे।

भारतीय सत्ता की उदासीनता और कमजोरी का परिणाम ही है कि परहित साधने और परसंप्रभुता को खुश करने की मानसिकता लहलहाती है। पीडीपी की राष्ट्रविरोधी प्रक्रिया पर हमें आइएसआइ-पाकिस्तान की साजिशों को पूरी तरह खंगालना होगा।

पीडीपी की पृष्ठभूमि और इसके एजेंडे को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह पार्टी आइएसआइ और पाकिस्तान की मोहरा है। कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय दबाव कायम कराना पाकिस्तान की कूटनीति रही है।

पीडीपी की यह कोई पहली राष्ट्रविरोधी हरकत नहीं है। पीडीपी ने देश के अविभाज्य अंग की महत्वपूर्ण चोटियों और भूभाग को चीन और पाकिस्तान का अंग दिखा दिया। पीडीपी के अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा सईद की पूरी राजनीतिक संरचना और मानसिकता भारत विरोधी है। देश का नेतृत्व करने वाली पार्टी काग्रेस की उदासीनता की वजह से पीडीपी की राष्ट्रविरोधी हरकतों को प्रोत्साहन मिलता है।

यकीन मान लीजिए, अगर इन बाप-बेटी पर भारतीय कानूनों का सोटा चलता तो इनकी राष्ट्रविरेाधी हरकतों हदें नहीं पार करती। जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और भारतीय संसद ने चीन और पाकिस्तान द्वारा अतिक्रमण किए गए जम्मू-कश्मीर के हिस्से को वापस लेने का संकल्प दर्शाया था। इसलिए भारतीय सत्ता को कर्तव्यबोध होना चाहिए कि इस तरह की राष्ट्रविरोधी हरकतें हमारी संप्रभुता को न केवल संकट में डालती हैं, बल्कि इससे दुश्मन देशों के मंसूबों को भी खाद-पानी मिलता है।

जाहिर तौर पर चीन और पाकिस्तान हमारे दुश्मन देश हैं और दोनों देशों ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हमारी चोटियों और भूभाग पर गैरकानूनी कब्जा कर रखा है। राष्ट की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है कि परराष्ट्रहित साधने वाली नीतियों पर कानून का बुलडोजर चले और सीमाओं पर हमारी सेना दबावरहित होकर अपनी भूमिका निभा सके।

जम्मू-कश्मीर के प्रसंग में यह कहना सही होगा कि भारतीय सत्ता की उदासीनता और गंभीर नीतियों के अभाव में आतंकी संगठन और इसके समर्थक पाकिस्तान के मंसूबों को पूरा करते हैं। पाकिस्तान कभी भी शाति का समर्थक हो ही नही सकता है। उसकी पूरी सक्रियता और संरचना भारत विरोधी है। इस यथार्थ को समझने की हमने कभी कोशिश ही नहीं की है।

जहा तक चीन का सवाल है तो उसने न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, बल्कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में हमारे सामरिक भूभागों पर कब्जे करने की कुदृष्टि लगाई हुई है। सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश पर वह हमेशा अपना अधिकार जताता रहता है। पीडीपी और महबूबा जैसों की पैंतरेबाजी से सबसे ज्यादा चीन और पाकिस्तान का ही हित सधेगा।

पीडीपी की इस हरकत का यथार्थ क्या है? इस प्रश्न का जवाब भी ढूढ़ना चाहिए कि आखिर भारतीय कश्मीर के महत्वपूर्ण भूभागों को पाकिस्तान और चीन का हिस्सा बताने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या इसमें आइएसआइ की कोई भूमिका है? क्या पीडीपी फिर से जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उफान पैदा करना और आतंक को फिर से बल देना चाहती है? सही तो यह है कि पीडीपी जैसी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक संरचना और सक्रियता का यथार्थ से परे कोई कदम हो ही नहीं सकता है।

इस तथ्य पर भी हमें गौर करने की जरूरत है कि जम्मू-कश्मीर की सत्ता से दूर होने के बाद पीडीपी की कोई अहमियत नहीं रही। जम्मू-कश्मीर में काग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के सत्ता आने के साथ ही पीडीपी व मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती की हैसियत घट गई। उनकी नीतियों से जम्मू-कश्मीर की जनता भी असहमत हुई है और उफान की राजनीति से तौबा करने लगी है। पीडीपी का आधार सीमावर्ती भूभाग तक ही सिमट कर रह गया है।

भारतीय सत्ता ने कश्मीर की समस्या के लिए जो मैप तैयार किया है और जिस नीति पर चलकर भारतीय सत्ता घाटी के लोगों का विश्वास जीतना चाहती है, उसमें भी पीडीपी की निर्णायक भूमिका नहीं है। घाटी की समस्या का समाधान करने के लिए वातावरण तैयार करने और सलाह देने के लिए नियुक्त वार्ताकार जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया को कसौटी पर रखकर चल रहे हैं। इस कारण जम्मू-कश्मीर में सकारात्मक वातावरण भी तैयार हुआ है। ऐसे में पीडीपी खुद को राजनीतिक रूप से अलग-थलग मान रही है और वह इस नीति पल चल पड़ी है कि कश्मीर पर कोई भी निर्णय लेने के पहले पीडीपी की अहमियत स्वीकार की जाए तथा उसकी राजनीतिक शक्ति को सम्मान दिया जाए।

फारुख अब्दुल्ला परिवार के प्रति जम्मू-कश्मीर की जनता विशेष लगाव रखती है। फारुख अब्दुल्ला के बाद उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने राज्य के अन्य राजनीतिक दलों की शक्तिविहीन करने और उन्हें आवाम की ताकत से अलग करने में भूमिका निभाई है। हालांकि राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को कमजोर करने के लिए उमर अब्दुल्ला भी अपने बयानों व नीतियों में राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतिकूल प्रक्रिया चलाते रहे हैं।

पत्थरबाजी के पीछे भी पीडीपी का हाथ था। पत्थरबाजी में पीडीपी के कई पार्टी पदाधिकारी गिरफ्तार हुए हैं, पर यह सही है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा यह कहते रहे हैं कि उन्होंने पत्थरबाजी को हवा नहीं दिए हैं। पत्थरबाजी आतंकी संगठनों की एक खूनी और उफान वाली राजनीतिक साजिश थी। इस साजिश की नींव भी आयातित थी।

बेशक आइएसआइ ने घाटी में पत्थरबाजी को हथियार बनाया था। आइएसआइ के मंसूबों को पूरा करने में पीडीपी की ताकत लगी हुई थी। पत्थरबाजी ने घाटी में कैसे हालात पैदा किए थे, यह भी जगजाहिर है। इसके लिए आतंकी संगठनों ने हथियार की जगह करेंसी खर्च किए थे। करोड़ों रुपये बाटकर पत्थरबाजी को खतरनाक स्थिति में पहुंचाया और भारतीय सत्ता पर आरोप मढे़ गए।

कहा गया कि घाटी में भारतीय सेना निर्दोष जनता का खून बहा रही है, जबकि असलियत यह थी कि भारतीय सेना ने कठिन परिस्थितियों में भी पत्थरबाजों से धैर्य और अहिंसक ढंग से काम लिया था। फिर भी भारतीय सेना को बदनाम करने के लिए राजनीतिक साजिश रची गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और भारतीय सेना की छवि खराब की गई। मुस्लिम देशों के संगठनों ने कश्मीर में भारतीय सेना को मुस्लिम समुदाय का संहार करने जैसे आरोप भी लगाए।

इसका परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिथ्या प्रचारों से भारतीय सत्ता प्रभावित हो गई और आतंकी संगठनों के नापाक मंसूबों के जाल में फंस गई।

बहरहाल, आइएसआइ और पाकिस्तान की पूरी कूटनीति और मंसूबों को समझा जाना चाहिए। भारत और पाकिस्तान के बीच संपूर्ण वार्ता का दौर जारी है। अटकी हुई वार्ताएं फिर से शुरू हो चुकी हैं। भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव संपूर्ण वार्ता का एक पड़ाव हाल ही में तय कर चुके हैं। आइएसआइ की चाल यह हो सकती है कि वार्ता में भारत का पक्ष कमजोर करने और भारत की कूटनीतिक घेरेबंदी के लिए कश्मीर में भारत विरोधी भावनाएं भड़काई जाएं।

ऐसा राजनीतिक माहौल बनाया जाए कि आवाम को लगे कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। इससे पाकिस्तान के पक्ष को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिलेगा।

विडंबना है कि भारतीय लोकतंत्र की खूबियों के चलते सत्ता की मलाई खा चुकी पीडीपी पाकिस्तान और आइएसआइ के सुर में सुर मिला रही है। चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी से हमारी संप्रभुता लहूलुहान होती रही है। 1962 में चीन ने हमला कर हमारी लाखों एकड़ भूमि हथिया ली है। पाकिस्तान ने गुलाम कश्मीर का एक बड़ा भूभाग चीन को सौंप दिया है। पीडीपी की इस राजनीतिक साजिश से चीन और पाकिस्तान की खुशी ही बढ़ी होगी। भारतीय सत्ता को पीडीपी जैसे राष्ट्रविरोधी दलों और तत्वों का दमन करना होगा।

सिर्फ भावनाएं भड़काती है पीडीपी

जाहिद खान। एक तरफ भारत सरकार कश्मीरियों को अपने वतन से जोड़ने की लगातार कोशिशें कर रही है तो दूसरी तरफ घाटी के अलगाववादी दल और क्षेत्रीय सियासी पार्टिया आज भी जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा मानने को तैयार नहीं हैं। सूबे के अलगाववादी नेताओं की घोषित-अघोषित चाह क्या है? यह सब जानते हैं, लेकिन लोकतात्रिक तरीके से चुनी गई कोई पार्टी की लीडर इस तरह की बात सार्वजनिक रूप से करे तो हैरानी होती है।

सूबे की अहम विपक्षी पार्टी पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने तो एक कदम और आगे जाते हुए अपने विजन ऑफ कश्मीर नक्शे में अक्साई चीन और कराकोरम इलाके को चीन का हिस्सा बतला दिया। जबकि पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती जिस इलाके की बात कर रही हैं, उसके कूटनीतिक और सियासी एतबार से भारत के लिए काफी महत्व है।

भारत सरकार, जम्मू-कश्मीर के किसी भी हिस्से में चीन का कोई दखल नहीं मानती। जाहिर है, जम्मू-कश्मीर से जब इस तरह की अलगाववादी मागें उठती हैं तो मुल्क में किस तरह का पैगाम जाता होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। सूबे के अलगाववादी नेता और पीडीपी जैसी सियासी पार्टिया ही हैं, जिनकी वजह से कश्मीरियों को मुल्क में भेदभाव का दंश झेलना पड़ता है।

भारतीय संविधान में हर आधुनिक संविधान की तरह संप्रभु व्यवस्था की इकाई व्यक्ति को माना गया है। मुल्क की आजादी का मतलब हर व्यक्ति की आजादी है। इस आजादी पर हमला, चाहे हुकूमत की तरफ से हो या पुलिस-प्रशासन या फिर किसी चरमपंथी उग्रवादी समूह की तरफ से, कुल मिलाकर वह समान रूप से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। जब धर्माध या चरमपंथी संगठन इस स्वतंत्रता का हनन करते हैं तो हुकूमत से यह उम्मीद होती है कि वह अपने नागरिकों के बुनियादी हुकूकों की हिफाजत करे, लेकिन जब राज्य और उसका पूरा तंत्र ही अपने नागरिकों में धर्म या क्षेत्र के आधार पर फर्क करे तो निश्चित रूप से यह खतरनाक स्थिति है।

दुर्भाग्य से बीते कुछ सालों में कश्मीरियों के मन में भारतीय राज्य के प्रति यकीन अगर टूटा नहीं तो कमजोर जरूर पड़ा है। ज्यादातर कश्मीरियों का मानना है कि उन्हें मुल्क में मुख्तलिफ रियासतों की पुलिस महज इसलिए परेशान, प्रताड़ित करती है, क्योंकि वे जम्मू-कश्मीर से है। सरकार द्वारा तमाम संवैधानिक प्रावधानों व उपबंधों के बावजूद कश्मीरियों को आज भी यह नहीं लगता कि भारतीय संविधान में नागरिकों की जिन मूलभूत स्वतंत्रताओं और बुनियादी अधिकारों की बात की गई है, वे उनके लिए भी हैं।

यह सब बातें उस वक्त सामने निकलकर आई, जब भारत सरकार की ओर से नियुक्त वार्ताकारों की एक टीम ने जम्मू-कश्मीर की यात्रा कर कश्मीरियों से बात की। वार्ताकारों की नियुक्ति केंद्र की उस आठ सूत्रीय पहल का हिस्सा है, जिसका एलान सितंबर महीने में किया गया था। बीते साल जून से शुरू हुई अशांति और हड़ताल के बाद कश्मीर घाटी में शांति बहाली के लिए असंतुष्टों से नए सिरे से बातचीत के लिए केंद्र की ओर से नियुक्त इन तीनों वार्ताकारों ने श्रीनगर के अलावा बारामूला, अनंतनाग, सोपोर, उरी, डोडा, राजौरी जैसे छोटे शहरों की यात्रा की और वहा समाज के मुख्तलिफ तबकों से बात की। कश्मीरी लगातार होने वाली तलाशी, जाच, जब्ती और नाकेबंदी से अब आजाद होना चाहते हैं।

कश्मीरियों का दर्द था कि न सिर्फ कश्मीर में, बल्कि मुल्क के दीगर हिस्सों में उनके साथ हमेशा भेदभाव किया जाता है, जिससे उन्हें अपनी तौहीन महसूस होती है और उनमें अलगाव की भावना पैदा होती है। यह सर्वमान्य सत्य है कि नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए और अन्याय के पक्ष में खड़ी दिखने वाली कोई भी हुकूमत अपनी नैतिक साख को नहीं बचा सकती। लिहाजा, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस दिशा में तुरंत कदम उठाते हुए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को सलाह दी है कि वे अपने यहा रह रहे जम्मू-कश्मीर के निवासियों से पूछताछ करते समय अत्याधिक संवेदनशीलता का परिचय दें। सभी थानों को निर्देश जारी करें कि पुलिस रिपोर्टिग के दौरान इन लोगों को महज इसलिए निशाना न बनाया जाए, क्योंकि वे जम्मू-कश्मीर के हैं।

बहरहाल, कश्मीर वार्ताकारों की सिफारिश के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय की सभी राज्यों और केंद्र शासित राज्यों से कश्मीरियों के मुताल्लिक संवेदनशीलता बरतने की सलाह, एक सकारात्मक शुरुआत है। इससे निश्चित रूप से दोनों तरफ बरसों से जमी बर्फ पिघलेगी। हां, केंद्र सरकार को पीडीपी जैसी पार्टियों को सख्त संदेश भी देना होगा।

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