Saturday, February 5, 2011
शर्लिन चोपड़ा ऐसे देह प्रदर्शन करती हैं, जैसे कसाई अपनी दुकान पर गोश्त के टुकड़े लटकाता है।
चिकित्सा शास्त्र की पुस्तकों में तमाम मानव अंगों के चित्र होते हैं। इन चित्रों का उद्देश्य शैक्षणिक होता है। इनमें ग्लैमर तलाश करने वाला मानसिक रूप से बीमार है। इसी तरह अंगों की नुमाइश कर देने वाली कोई अभिनेत्री अगर सोचती है कि केवल अंग प्रदर्शन से वो सफल हो जाएगी, तो उसे भी इलाज की आवश्यकता है।
हालाँकि शर्लिन चोपड़ा को अभिनेत्री कहते भी कलेजा फटता है कि अगर शर्लिन को अभिनेत्री कहा जाएगा, तो फिर कोंकणा सेन शर्मा को क्या कहेंगे। शर्लिन चोपड़ा ऐसे देह प्रदर्शन करती हैं, जैसे कसाई अपनी दुकान पर गोश्त के टुकड़े लटकाता है। एकदम बेजान तरीके से। जानवरों के गोश्त में भले ही भोजन के नजरिए से लोग दिलचस्पी लें, पर शर्लिन जिस अंदाज से देह प्रदर्शन करती हैं, लोगों के लिए दिलचस्पी लेना कठिन है।
आकर्षण अंगों में नहीं नाजो-अदाओं में है। काजोल साड़ी में कई बार जितनी उत्तेजक लगी हैं, उतनी तो देह प्रदर्शन करने वाली लड़कियाँ अपने सबसे कातिल पोज में भी नहीं लगती होंगी। शर्लिन की पहली फिल्म आठ बरस पहले आई थी। अब तक उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया है कि उन्हें प्रतिभावान तो छोड़िए एक सामान्य एक्ट्रेस भी कहा जा सके।
लड़की से ज्यादा शर्लिन एक प्रवृत्ति का नाम का है, जो हीरोइन बनने की ख्वाहिशमंद लड़कियों में पाई जाती है। राई जैसी प्रतिभा और हिमालय जैसी महत्वकांक्षा ही शर्लिन प्रवृत्ति है।
बिग बॉस के घर में पता लगा था कि शर्लिन कैमराकांशस हैं। वे सुंदर नहीं हैं। बस कुदरती तौर पर लड़की हैं। सो जब वो सफलता पाने के लिए अपना लड़की होना उघाड़ती हैं तो दयनीय रूप से अश्लील लगने लगती हैं।
अश्लीलता छोटे कपड़ों में नहीं है। अगर कोई छोटे कपड़ों में सहज है और वो कपड़े उस पर फब रहे हैं, तो छोटे कपड़ों में कोई अश्लीलता नहीं है। शर्लिन जैसी लड़की का चेहरा ही अश्लीलता का पोस्टर बन जाता है। अश्लील यानी घृणास्पद।
ऐसी ही लड़कियाँ गलत लोगों के हत्थे चढ़ जाती हैं। जब तक ये युवा रहती हैं, तब तक इनका शोषण होता रहता है। लोग इन्हें दिलासा देते रहते हैं कि हम तुम्हें हीरोइन बनाएँगे। जवानी जब छोड़कर जाने लगती है, कोई झूठा आश्वासन भी नहीं देता। फिर होती हैं आत्महत्याएँ। कुछ हीरोइनें इधर-उधर जुड़कर जीवनयापन करने लगती हैं।
मोनिका बेदी तो अबू सलेम के साथ गिरफ्तार ही हुई थीं। मंदाकिनी का नाम भी एक डॉन के साथ उछला था। ममता कुलकर्णी ने भी हीरोइन बनने के लिए सारे हथियार इस्तेमाल कर लिए। अब शर्लिन चोपड़ा का नंबर है।
नेहा धूपिया भी हीरोइन बनने ही आई थीं, मगर अब वो छोटे-मोटे रोल कर रही हैं, जिनमें अभिनय के अधिक चांस हैं। शर्लिन में तो नेहा जितनी भी अभिनय प्रतिभा नहीं है। "दिल बोले हड़िप्पा" में उनका चयन कास्टिंग डायरेक्टर ने एकदम ठीक ही किया था। ऐसी ग्लैमरस लड़की जिसे देखना अच्छा नहीं लगता, बल्कि जिसे देखकर कुछ अरुचि पैदा होने लगती है...।
दिली और दिमागी रूप से भी शर्लिन को कुछ दिक्कतें हैं। वो क्या शेर है किसी का - कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूँ के आसार / और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं। शर्लिन जैसियों की महत्वाकांक्षा का फायदा उठाने वाले वहाँ बहुत हैं।
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