Saturday, February 5, 2011

जिस इंद्रेश को मैं जानती हूं वे ऐसे तो नहीं हैं

जिस इंद्रेश को मैं जानती हूं वे ऐसे तो नहीं हैं


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रीता जायसवाल

राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार जी का नाम अजमेर ब्लास्ट से जोड़े जाने को लेकर पिछले काफी दिनों से मैं परेशान हूं। मेरी अंतर्आत्मा बार-बार यही कहती है कि वे ऐसे नहीं हो सकते। ताज्जुब इस बात का है कि जिस इंद्रेश को मैने देखा, परखा, जिसमें राष्ट्र प्रेम का जज्जबा कूट-कूट कर भरा हो। जिसने संघ में रहते हुए मुस्लिमों को साथ लेकर चलने की मिसाल कायम की हो और तो और जिसने अपनी सारी जिंदगी युवाओं को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने में लगा दिया हो, वह ऐसा कदम कैसे उठा सकता है। इस पर यकीन करने को दिल गवारा नहीं करता। अंतरआत्मा बार-बार यही कहती है कि कहीं वे राजनीतिक षडयंत्र के शिकार तो नहीं हो रहे। नवंबर 2005 का वह लम्हा मुझे आज भी याद है जब वह वाराणसी के शिवपुर में आयोजित धर्म-संस्कृति संगम कार्यक्रम में शामिल होने आए थे। संयोग ही था कि संघ से जुड़ी पवित्रा बहन मुझे इस कार्यक्रम में लेकर गईं। वहां जिस इंद्रेश को मैने देखा और सुना वह राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत विराट व्यक्तित्व वाले नजर आए। सभा के दौरान खासतौर से उनका यह विचार काफी अच्छा लगा कि भौतिकवादी प्रवित्तियों के चलते हम धर्म व संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। मानवता अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। हाल के वर्षों में विश्व के धार्मिक पटल पर कुछ असहिष्णु धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ। इनकी अनुशासनहीन पाश्चात्य विस्तारवाद तथा क्रूर जेहादी अवधारणाओं के चलते समूचा विश्व संकट में है। इसपर विचार करने की जरूरत आन पड़ी है कि विश्व में हिंसात्मक वातावरण के खिलाफ सर्वत्र शांति, सद्भाव, सह-अस्तित्व एवं धर्म का माहौल कैसे पैदा हो। इसके लिए धर्म की वास्तविकता को समझना होगा। एक-एक भारतीयों को आगे आना होगा क्योंकि भारतीय धर्म ही मानव को पशुता के ऊपर उठाएगा। इस लिहाज से शंकराचार्य, बुद्ध, जैन तीर्थकर, रविदास, कबीर की नगरी काशी में धर्म-संस्कृति संगम का आयोजन न केवल महत्वपूर्ण है वरन सद्भाव की दृष्टि से शंखनाद के लिए सर्वथा उपयुक्त भी है। इंद्रेश जी की इस अभिव्यक्ति ने समारोह में शामिल लोगों पर न जाने कौन सा जादू कर दिया बच्चे लेकर बूढ़े तक राष्ट्र के लिए थोड़ा समय निकालने और उनका नेतृत्व स्वीकार करने को आतुर दिखे। समारोह समाप्ति के बाद पवित्रा बहन ने उनसे मुलाकात भी कराई तो एकबारगी हमें भी महसूस हुआ कि इस व्यक्तित्व में राष्ट्रीयता यूं कहलें राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी है। विश्वास भी हुआ कि आपसी सद्भाव का उनका यह संकल्प निःसंदेह एक दिन सशक्तराष्ट्र के रूप में सामने आएगा। मुझे उनकी स्मरणशक्ति पर भी उस समय आश्चर्य हुआ जब वह दूसरी बार फरवरी 2008 में वाराणसी आए। अवसर था सारनाथ में आयोजित संघ से ही जुड़े एक कार्यक्रम का। चूंकि यहां मुझे भी आमंत्रित किया गया था। सो कार्यक्रम में शामिल भी हुई। सभा समाप्त होते ही अन्य लोगों के साथ जैसे ही मैं उनसे मुखातिब हुई वे मुझे झट पहचान गए। कुशलक्षेम पूछा और राष्ट्र व राष्ट्रीयता के बाबत मेरी जिज्ञासाओं का बड़ी सहृदयता से समाधान भी किया। पिछले दिनों जब उनका नाम अजमेर बम विस्फोट से जुड़कर सामने आया तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा बल्कि यकीन नहीं हो रहा है कि जो मुस्लिम समाज को राष्ट्रवाद की राह पर लाकर एक सशक्त राष्ट्र की ठोस बुनियाद खड़ा करने में लगा हो वह ऐसा कैसे कर सकता है। वैसे भी इतिहास गवाह है कि शांति-सद्भाव का संदेश लेकर निकलने वालों को काफी संघर्ष करना पड़ा है। उम्मीद है कि आज नहीं तो कल वह बेदाग ही साबित होंगे। क्योंकि सच सच होता है और झूठ-झूठ। विजय हमेशा सच की ही होती आ रही है।

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