भारत में सेक्यूलर नाम कर एक प्रजाति है, जिसके लोग अनेक राजनीतिक दलों और सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं में पाए जाते हैं। इन लोगों का मत है कि भारत में मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा के लिए यहां के हिन्दू जिम्मेदार हैं।
केन्द्र की सत्ता में बैठी मैडम कांग्रेस ने इसके लिए रंगनाथ मिश्र और सच्चर आयोग जैसे कई बिजूके खड़े किये, जिनका निष्कर्ष है कि मुसलमानों को आगे बढ़ाने के लिए हिन्दुओं को हर क्षेत्र में पीछे धकेलना आवश्यक है। अर्थात श्यामपट पर बनी रेखा को छोटा करने के लिए उसके बगल में बड़ी रेखा खींचने की बजाय उस रेखा को ही मिटाकर छोटा कर देना चाहिए। कांग्रेस के साथ-साथ भारत के अधिकांश राजनीतिक दल भी इसी प्रयास में लगे हैं। उन्हें लगता है कि इससे मुसलमानों की उन्नति भले ही न हो; पर मुस्लिम वोटों के कारण उनकी और उनके दल की उन्नति अवश्य हो जाएगी।
पर वे यह भूलते हैं कि यदि कोई व्यक्ति या समाज निश्चय कर ले कि वह आगे की बजाय सदा पीछे ही देखेगा, तो भगवान भी उसका वर्तमान और भविष्य नहीं संवार सकते। दुर्भाग्य से भारत के अधिकांश मुसलमान नेताओं ने यही निश्चय कर लिया है।
देवबन्द स्थित इस्लामी शिक्षा संस्थान ‘दारुल उलूम’ का नाम कौन नहीं जानता। इस नगर का मूल नाम देववन या देववृन्द था, जो बिगड़ते हुए देवबन्द हो गया। 1866 में स्थापित मदरसा दारुल उलूम सदा से ही अलगाव और कट्टरवादी विचारों का पोषक रहा है। मुस्लिम वोटों पर इसके प्रभाव के कारण अधिकांश राजनेता यहां आकर सिर झुकाना अपना परम धर्म समझते हैं। इसके पुराने छात्र न केवल भारत, अपितु दुनिया के अन्य देशों में भी मदरसों के मुखिया तथा मस्जिदों के इमाम आदि हैं।
ऐसे मदरसे के कुलपति प्रायः कट्टर विचारों के व्यक्ति ही होते रहे हैं; पर संस्थान के इतिहास में पहली बार गत दस जनवरी, 2011 को उसके कुलपति पद पर एक गुजराती मुसलमान, मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानिया चुने गये, जो केवल अरबी और फारसी ही नहीं, अंग्रेजी और गुजराती भी जानते हैं। उन्होंने एम.बी.ए जैसी डिग्री भी ली है, जिसे पाकर इन दिनों बड़ी संख्या में युवा वर्ग देश-विदेश में 40-50 हजार रु0 महीने की नौकरी कर रहे हैं। इसके बावजूद श्री वस्तानिया ने देवबंद में कुलपति बनना पसंद किया, इससे स्पष्ट है कि वे आधुनिक होने के बावजूद कट्टर भी हैं।
लेकिन उनके साथ ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़ने’ वाली कहावत सत्य सिद्ध हो गयी। देवबंद में आते ही एक अंग्रेजी समाचार पत्र को दिया गया उनका साक्षात्कार समाचार पत्रों में प्रकाशित हो गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि गुजरात के मुसलमान नरेन्द्र मोदी के शासन में बहुत प्रसन्न हैं। वहां चल रही विकास की योजनाओं का उन्हें भरपूर लाभ मिल रहा है। वह उसी प्रकार उन्नति कर रहे हैं, जैसे अन्य नागरिक। अतः मुसलमानों को चाहिए कि वे 2002 के प्रकरण को पीछे छोड़कर आगे बढ़ें। उन्होंने गुजरात के मुसलमानों से पढ़ने के लिए भी कहा, क्योंकि राज्य सरकार अन्य लोगों की तरह उन्हें भी नौकरी देने को तैयार है।
पर इसके कारण कट्टरपंथी मुसलमानों ने शोर मचा दिया। कुछ छात्रों ने मदरसे में ही धरना देकर तोड़फोड़ की। यद्यपि श्री वस्तानवी ने राजनेताओं की तरह मीडिया पर उनके साक्षात्कार को ठीक से प्रकाशित न करने का आरोप लगाया; पर बात बनी नहीं। इससे दुखी होकर श्री वस्तानवी वापस अपने घर चले गये। उन्होंने कहा कि मदरसे में ऐसा वातावरण नहीं है, जिसमें वे काम कर सकें। कुछ समय बाद होने वाली दारुल उलूम की प्रबंध समिति (शूरा) की बैठक में निर्णय होगा कि श्री वस्तानवी वहां रहेंगे या नहीं ?
यद्यपि संस्थान के उपकुलपति मौलाना अब्दुल खालिक मद्रासी तथा शूरा के सदस्य मौलाना अब्दुल कासिम के नेतृत्व में कुछ छात्रों और नेताओं ने इस प्रकरण को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उनके मतानुसार कुलपति श्री वस्तानवी को काम करने का अवसर मिलना चाहिए था। उनमें इस्लाम की मर्यादाओं के अन्तर्गत रहते हुए संस्थान की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति को सुधारने की क्षमता है। उनका विरोध सार्वजनिक रूप से न करते हुए मदरसे की प्रबंध समिति के सामने करना चाहिए था। उन्होंने इस संबंध में समाचार पत्रों में दिये वक्तव्यों की भी आलोचना की।
श्री वस्तानवी एवं उनके समर्थक इसका दूसरा पक्ष सामने रखते हुए विवाद का कारण मदरसे की आंतरिक राजनीति को बताते हैं। चूंकि उनका चयन चुनाव से हुआ है, इसलिए मदरसे के जो लोग किसी और को कुलपति बनवाना चाहते थे, उन्होंने अपनी पराजय से निराश होकर इस वक्तव्य को हवा दी है। उन्होंने इस विवाद को खड़ा करने के लिए उर्दू मीडिया की भी आलोचना की है। यद्यपि अब श्री वस्तानवी के पक्षधर भी क्रमशः सबल और मुखर हो रहे हैं।
यहां दारुल उलूम की आतंरिक राजनीति के बारे में टिप्पणी करने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि अपवादस्वरूप ही कोई शिक्षा संस्थान इन दिनों गंदी राजनीति से मुक्त होगा। यह मदरसा सदा से पश्चिम उ0प्र0 में राजनीतिक रूप से प्रभावी मदनी परिवार के हाथों में रहा है। कोई भी शिक्षा संस्थान जब बहुत बड़ा हो जाता है, (मुहावरे की भाषा में जिसे नाक से भारी नथ या कान से भारी कुंडल होना कहते हैं), जब उसका बजट लाखों की बजाय करोड़ों में बनने लगता है, जब भवन, वाहन और अन्य भौतिक सुविधाओं की वहां भरमार हो जाती है, तो उसकी कुर्सियों पर कब्जा करने के लिए धनपतियों और राजनेताओं में होड़ लग जाती है। केवल शिक्षा संस्थान ही क्यों, अनेक सामाजिक और धार्मिक संस्थानों की भी यही दशा है। तो फिर देवबन्द का दारुल उलूम इससे कैसे बच सकता है ?
भारत में शिक्षा निजी और सरकारी दोनों प्रकार के संस्थानों द्वारा निर्देशित होती है। सरकारी विद्यालय शासन के पूर्ण नियन्त्रण में चलते हैं। जिन संस्थानों को सरकारी अनुदान मिलते हैं, उन पर भी शासन का परोक्ष नियन्त्रण रहता ही है; पर भारत में एक तमाशा अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के नाम पर भी होता है। इन्हें सरकारी अनुदान तो भरपूर मिलता है; पर नियन्त्रण के नाम पर सरकार वहां कुछ नहीं कर सकती। इसलिए इन संस्थानों में शिक्षा कम और राजनीति अधिक होती है।
शिक्षा संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप हो या नहीं, और यदि हो तो कितना, यह एक अलग विषय है; पर जिस बात से नयी पीढ़ी और देश का भविष्य निर्धारित होता है, उसमें गंदी राजनीति प्रवेश न करे, इसका कुछ प्रबंध तो होना ही चाहिए।
लेकिन वस्तानवी प्रकरण ने एक बार यह फिर सिद्ध कर दिया है कि देश का आम मुसलमान सच को स्वीकार कर आगे देखने को आज भी तैयार नहीं है। श्री वस्तानवी ने केवल वह सच प्रकट किया था, जो गुजरात के सब मुसलमान अनुभव करते हैं। पिछले कई वर्ष से गुजरात देश में सबसे तेजी से प्रगति करने वाला राज्य है। दुनिया भर के उद्योगपति वहां उद्योग लगाना चाहते हैं। इनमें केवल हिन्दू ही नहीं, तो ईसाई और मुसलमान भी हैं। प्रतिवर्ष जनवरी मास में होने वाले सम्मेलन में दुनिया भर के लोग वहां हो रही प्रगति को अपनी आंखों से देखते हैं। भारत के शीर्ष मुसलमान धनपति श्री अजीम पे्रेमजी गुजरात में ही रहकर फल-फूल रहे हैं।
परन्तु मुसलमानों के सामने जब यह सच आता है, तो वे इसे गले के नीचे नहीं उतार पाते। वे आज भी एक हजार साल पुरानी उस मानसिकता में जी रहे हैं, जो उन्हें बताती है कि उनका जन्म भारत पर शासन करने और इसे मुस्लिम देश बनाने के लिए हुआ है। वे उसी उर्दू और अरबी-फारसी से चिपके रहना चाहते हैं, जो उन्हें ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से दूर रखती है। वे परिवार नियोजन और पोलियो की दवा से दूर रह कर अपना और अपने बच्चों का हित करना नहीं चाहते।
वस्तानवी प्रकरण ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि सच्चर, मिश्रा और आरक्षण जैसी चाहे जितनी बैसाखी लगा दी जाएं, भारत के मुसलमानों का उद्धार तब तक नहीं हो सकता, जब तक वे अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे। जिस दिन वे उन्हें पिछड़ा, निर्धन और अशिक्षित बनाये रखकर अपना उल्लू सीधा करने वाले मजहबी दलालों और राजनीतिक नेताओं को चैराहे पर मुर्गा बना देंगे, देश के अन्य नागरिकों की तरह उनकी भी उन्नति होने लगेगी।
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